शनिवार, 30 जुलाई 2011

धारावाहिक उपन्यास





गलियारे

(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल

चौथी किस्त - चैप्टर 7 और 8


(7)


सुधांशु को रवि के आई.ए.एस. में चयन की जानकारी एक अंग्रेजी समाचार पत्र में उसके साक्षात्कार को देखकर मिली, लेकिन वह उसे बधाई कैसे दे, वह यह सोचता रहा; क्योंकि रवि का पता उसके पास नहीं था। वह पुराने मकान मालिक के पास गया यह सोचकर कि शायद रवि ने उन्हें बता रखा हो, लेकिन वहां भी उसे निराशा हाथ लगी थी।
पिछली मुलाकात में जब सुधांशु ने रवि से उसका पता पूछा था तब रवि ने कहा था, ''जल्दी ही उस फ्लैट को खाली करना है। नए में जाऊंगा तब बता दूंगा।''
सुधांशु समझ गया था कि रवि पता देना नहीं चाहता। वह एकांत चाहता था। उसने पूरी तरह अपने को मित्रों से अलग कर लिया था। उसके साथ के दो छात्र, जो कभी उसके अच्छे मित्र रहे थे, हॉस्टल में ही रह रहे थे। उन्होंने पहले एम.फिल. फिर पी-एच.डी. के लिए अपना रजिस्ट्रेशन करवा लिया था। रवि यदा-कदा उनके पास आता था, लेकिन सिविल सेवा परीक्षा से कुछ माह पहले से वह उनसे भी नहीं मिला था। सुधांशु ने उन दोनों से भी ज्ञात किया लेकिन उन्हें भी कोई सूचना नहीं थी। उन्हें यह भी जानकारी नहीं थी कि रवि ने सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी।
सुधांशु की परीक्षाएं भी निकट थीं। उसकी व्यस्तता बढ़ गयी थी। ट्यूशन और परीक्षा की तैयारी में वह डूब गया। परीक्षा के पश्चात् वह कुछ दिनों के लिए गांव गया। लौटने के बाद परीक्षा परिणाम और भविष्य की चिन्ता ने रवि से मिलने के प्रयास को विराम दे दिया था।
इस बार वह पिता को यह समझाने में सफल रहा था कि दो वर्ष यदि वे उसका और साथ दे दें तो आगामी दो वर्षों में वह कुछ ऐसा कर सकने का प्रयास करेगा, जिससे उसे कोई ढंग की नौकरी मिल जाने की संभावना होगी। पिता यह जानते थे कि बी.ए. किए बिना क्लर्की भी नहीं मिलती। लेकिन अब....जब सुधांशु का बी.ए. सम्पन्न होने वाला था...वह आगे की पढ़ाई करके कौन-सी ऊंचे ओहदे की नौकरी पाने की बात सोच रहा है! पिता ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, ''बेटा, नौकरी के लिए बी.ए. ही काफी नहीं?''
''है पिता जी, लेकिन अच्छी नौकरी के लिए आगे और पढ़ाई करनी होगी।''
''वो क्या?''
''पिता जी, मैं एम.ए. में प्रवेश लूंगा, लेकिन साथ में आई.ए.एस. की तैयारी भी करना चाहूंगा।''
''वो क्या होता है?''
सुधांशु चुप रहा। वह समझ नहीं पा रहा था कि पिता को वह कैसे समझाए! तभी उसे सूझा, ''पिता जी आप जिला कलक्टर के बारे में जानते हैं न!''
''हां, जिला का मालिक होत है। हमरे जमींदार बिपिन बाबू का बेटा शाइद वही है।''
''हां, पिता जी, बिपिन चन्द्र मिश्र के बेटा अमित मिश्र आजकल कहीं कलक्टर लगे हुए हैं। लेकिन आप बिपिन बाबू को अपना जमींदार क्यों कह रहे हैं! कभी रहे होगें ....।''
''यो मैं भी जानता हूं। जमींदारी कब की खतम हो चुकी, लेकिन इलाके में उन्हें आज भी लोग जमींदार कहकर पुकारते हैं।'' पिता कुछ देर के लिए रुके फिर बोले, ''भले आदमी हैं। जमींदारी जमाने में उन्होंने कभी किसी को दुख-तकलीफ नहीं दी। इसी का पुन्य है जो उनका लड़का इतने ऊँचे ओहदे पर पहुंचा।'' उन्होंने सुघांशु के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं और पूछा, ''कहत हैं कि उसके आगे-पीछे बड़ा फोज-फाटा चलत हैं।''
''हां, कुछ सिपाही तो चलते ही हैं।''
''त तुम वही पढ़ाई की बात करि रहे हौ?''
''जी, पिता जी।''
''बहुत पइसा लागी बेटा। अपन के पास इतनी जायदाद भी नहीं।''
''पिता जी मैंने दिल्ली जाने के बाद आज तक आपसे पैसे मांगे कभी?''
पिता चुप रहे थे।
''पैसों की चिन्ता आप न करें। दो साल की बात है... ये दिन कष्ट के होंगे, बाकी आप मेरी चिन्ता न करें। मैं अपने लिए सारी व्यवस्था कर लूंगा।''
''तुम्हारी जिनगानी बनि जाए बेटा तो घर के दरिद्दर दूर हो जाएंगे। हम दोनों का का....आज हैं कल नहीं....तुम कहत हो तो दुई का हम चार बरस तक सबर करि लेब।''
''नहीं, पिता जी....इतने दिनों तक आपको इंतजार नहीं करना होगा।''
वह दृढ़ संकल्प के साथ दिल्ली वापस लौटा था।
******
चित्र : आदित्य अग्रवाल
(8)


एम.ए. में प्रवेश लेने के बाद सुधांशु को अंतर्द्वंद्व ने आ घेरा। अंतर्द्वंद्व था सिविल सेवा परीक्षा देने और अकादमिक क्षेत्र में जाने को लेकर। दोनों ही क्षेत्र आसान न थे। सिविल सेवा परीक्षा में प्रतिभाशाली बच्चों के भी छक्के छूट जाते थे। लगातार प्रयत्न के बावजूद उन्हें सफलता नहीं मिलती थी। अकादमिक क्षेत्र में जो अराजकता थी.... उसका जो नक्शा रवि ने एक दिन उसके समक्ष खींचा था वह उसे हतोत्साहित करता। वह अपने को प्रतिभाशाली छात्र नहीं मानता था, लेकिन 'अध्यवसायी' अवश्य मानता था।
एक दिन केन्द्रीय पुस्तकालय के बाहर विवेकानन्द की मूर्ति के निकट घास पर बैठा वह उसी विषय में सोच रहा था। अक्टूबर का महीना था। उस दिन क्लास नहीं थी। वह सुबह दस बजे लाइब्रेरी आ गया था और चार बजे तक पढ़ता रहा था। ऐसे दिनों में हॉस्टल में रहकर पढ़ने की अपेक्षा वह पुस्तकालय जाना उचित समझता था। प्रीति भी प्राय: लाइब्रेरी में उससे आ मिलती थी। उसके मित्रों की संख्या न के बराबर थी, बल्कि कहना चाहिए कि जो मित्र थे उनके साथ वह प्राय: नहीं रहता था। एक प्रकार से वह अंतर्मुखी था। वह प्रीति से मिलने के लिए भी कम ही उत्साहित रहता, लेकिन जब वह पुस्तकालय में उसे आ खोजती तब वह उसके साथ बाहर निकल जाता और घण्टे-दो घण्टे कब बीत जाते उसे पता नहीं चलता। उसे यह अपराध बोध होता कि इतने समय तक उसके बैग ने एक सीट घेर रखी, जबकि छात्र सीट खोजते भटकते रहते हैं।
उस दिन वह जब अंतर्द्वंद्व में ऊभ-चूभ हो रहा था उसी समय प्रीति ने पीछे से आकर इतनी जोर से हाय किया कि वह चौंक उठा। फीकी मुस्कान से उसने प्रीति का स्वागत किया।
''चेहरे पर मायूसी....कोई खास बात?''
''नहीं।'' संक्षिप्त उत्तर दिया सुधांशु ने।
''देखो, मैं इतनी बुद्धू नहीं कि चेहरे पढ़ नहीं सकती। सायक्लॉजी नहीं पढ़ी तो क्या... जनाब किसी गहरी चिन्ता में डूबे हुए थे।''
''चिन्ता....नहीं....।''
प्रीति उसके बगल में बैठ गयी। अपना बैग पैरों के आगे रखा और सुधांशु का हाथ दबाती हुई बोली, ''क्या सोच रहे थे?''
सुधांशु चुप रहा।
''नहीं बताओगे....मुझे इस योग्य नहीं समझते?''
''क्या मूर्खता है?''
''हां, मैं मूर्ख हूं। तुम्हारी समस्याओं में सींग गड़ाती हूं....मैं हूं ही कौन...?''
सुधांशु मुस्करा दिया।
''यार तुम्हारे चेहरे पर मुर्दनी अच्छी नहीं लगती। खिला-खिला चेहरा सबको अच्छा लगता है।''
''जब चेहरा हो ही ऐसा तब कोई करे क्या?''
''कहना क्या चाहते हो?''
''यही कि अपना तो चेहरा है ही पिटा हुआ।''
''सुबह से कोई और नहीं मिला?'' सुधांशु के चेहरे पर नजरें टिका वह बोली, ''क्या सोच रहे थे?''
''ओह प्रीति! तुम तो जान के ही पीछे पड़ गयी।''
''अभी क्या हुआ है...?''
''मतलब?''
''मतलब की खाल बाद में उधेड़ना....फिलहाल चाय पिलाओ। एक हफ्ते बाद मिले हो।''
सुधांशु प्रीति से प्राण बचाना चाहता था। उसका प्रस्ताव सुनते ही वह तपाक से उठा, बैग संभाला, चप्पलें पैरों में डालीं, हॉस्टल से जब वह पुस्तकालय आता चप्पलें पहनकर आता, और उठ खड़ा हुआ।
''किधर चलें?''
''आर्ट फैकल्टी के सामने पार्किंग के पास।''
''वहां बैठने की जगह नहीं है।''
''यार, फुटपाथ तो है।''
''नॉन-कॉलिजिएट के सामने भी चाय मिलती है।''
''वहां खुलापन नहीं है।''
''ओ.के.।''
* * * * *
चाय पीते हुए सुधांशु ने अपने अंतर्द्वंद्व की चर्चा की।
''ओह।'' प्रीति खिलखिलाकर हंस दी।
सुधांशु को कोफ्त हुई।
'खाए-अघाए लोगों को ही हंसना आता है।' उसने सोचा, और एक निष्कर्ष उसके मस्तिष्क में घूम गया, 'मुझे प्रीति से एक दूरी बना लेनी चाहिए। हमारे वर्ग अलग हैं। पृष्ठभूमि के अंतर को पाटा नहीं जा सकता।''
''कहां खो गए जनाब?'' सुधांशु को गंभीर और सोच में डूबा देख प्रीति ने पूछा।
''यों ही......।''
''खैर, छोड़ो....मेरी मोटी अक्ल में जो बात आती है वह यह कि यदि तुम सिविल सेवा परीक्षा के लिए गंभीर हो तो पूरी तरह अपने को उसमें झोंक दो।....कम से कम तीन अटैम्ट मिलेंगे तुम्हें।''
''पांच मिलेंगे।''
''यार, तीन भी कम नहीं होते....यदि तीन प्रयासों में कोई सिविल सेवा परीक्षा में नहीं सफल हो पाता तो मेरा अपना मानना है कि उसे उस दिशा में प्रयत्न छोड़ देना चाहिए।''
''क्यों?''
''क्योंकि तीन वर्षों में वह अपनी योग्यता को आजमा चुका होता है। आगे उसमें कहां से छप्पर फाड़कर विशेषता आ जाएगी!'' वह रुकी, ''और यह भी तय है कि वह तीन प्रयासों में ही इतना निचुड़ चुका होगा कि आगे अधिक उत्साह नहीं बचेगा। कम से कम मुझमें तो नहीं ही बचेगा।''
''हुंह।''
''तीन प्रयासों में हुआ तो उत्तम वर्ना हेड के बंगले की घास खोदने के लिए तैयार रहना।''
''उसके यहां कोई घोड़ा तो होगा नहीं...घास किसके लिए खोदूंगा!'' सुधांशु मुस्करा दिया।
''अपने लिए।''
सुंधांशु फिर चुप रहा।
''उसे सब्जीमण्डी की ताजी सब्जी...फल ले जाकर दिया करना और खुद उसके बंगले के लॉन की घास....।'' प्रीति खिलखिला उठी, फिर बोली, ''यार, सुना है कि जिन्हें प्राध्यापकी चाहिए होती है...वे ऐसा ही कुछ करते हैं। प्राध्यापकी पाने के लिए और भी कुछ करना होता हो, यह तो पता नहीं लेकिन सुनती हूं कि किसी के अण्डर में पी-एच.डी करने के लिए गाइड के तलवे अच्छी तरह सहलाने पड़ते हैं।'' उसने सुधांशु के चेहरे की ओर देखा, ''इसीलिए मैंने तय किया है कि मैं कुछ बनूं या नहीं, लेकिन यह प्राध्यापकी और पी-एच.डी मेरे वश में नहीं।'' उसने फिर सुधांशु के चेहरे की ओर देखा, ''तुम्हें पता है या नहीं, लेकिन लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लिए अकादमिक क्षेत्र में स्थितियां अधिक ही चुनौतीपूर्ण हैं।''
''इतनी माताएं-बहनें लेक्चरर-रीडर-प्राफेसर बनी घूम रही हैं.....।''
''कुछ को तलवार की धार पर अवश्य चलना पड़ा होगा...।'' क्षणभर के लिए वह रुकी, फिर बोली, ''हफ्ते भर पहले टाइम्स ऑफ इंडिया में एक समाचार छपा था...हिन्दी विभाग के एक प्रोफेसर साहब की करतूत के बारे में..... अपनी एक एम.फिल. की छात्रा को लगातार फोन करके उससे अश्लील बातें करते थे। उनकी मंशा क्या रही होगी...... समझा जा सकता है। यही नहीं...प्रोफेसर साहब .....शायद कोई त्रिपाठी महाशय हैं....एक प्रगतिशील संस्था से जुड़े हुए हैं.....संस्था की पत्रिका का सम्पादन भी देखते हैं।....तो यह सब है....और इसी सबके बीच से रास्ता निकालना होता है।''
''शिक्षण जगत की स्थितियां भयानक हैं।''
''सुधांशु, दो-चार मछलियां ही तालाब को गंदा करने के लिए पर्याप्त होती हैं। विश्वविद्यालय में ऐसे लोगों की संख्या दस-पन्द्रह प्रतिशत होगी.... तो जनाब जी-जान लगा दो सिविल सेवा परीक्षा के लिए...शेष बाद में सोचना। भूल जाओ सब कुछ।''
''ठीक कहा....तुम्हें भी....।''
''व्वॉट?'' प्रीति ने उसकी बात बीच में ही काटी, ''मैं नर्क तक तुम्हारा पीछा न छोड़ने वालीं'' और वह पुन: ठठाकर हंसने लगी।
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शनिवार, 23 जुलाई 2011

धारावाहिक उपन्यास






गलियारे


रूपसिंह चन्देल


(किस्त-तीन)


(चित्र :आदित्य अग्रवाल)

(5)


रविकुमार राय का दूसरा अटैम्प्ट भी व्यर्थ गया। लेकिन वह हताश नहीं हुआ। एक अवसर उसे और मिलना था। उसने पूरी तरह से अपने को अपने मित्रों और मिलने-जुलने वालों से काट लिया। मकान भी बदल लिया और पीतमपुरा में एक एम.आई.जी. फ्लैट में शिफ्ट हो गया। कभी-कभी ही वह विश्वविद्यालय जाता। उसने दाढ़ी रख ली और वह इस ओर ध्यान नहीं देता था कि उसे दाढ़ी की ट्रिमिंग करवानी है। एक दिन रवि सेण्ट्रल लाइब्रेरी से निकल रहा था। विवेकानंद की मूर्ति के पास सुधांशु और प्रीति बैठे हुए थे। रवि ने दोनों को देखा, लेकिन अनदेखा कर दौलतराम कॉलेज की ओर बढ़ने लगा। सुधांशु ने उसे आवाज दी, ''रवि भाई साहब।''


रवि ने आवाज सुनी, लेकिन ऐसा प्रकट करता हुआ कि उसने सुना नहीं गति बढ़ा दी।
''रवि भाई साहब ऽ ऽ।'' लपककर सुधांशु उसके निकट जा पहुंचा। (दिल्ली विश्वविद्यालय)
''ओह!'' नाटकीय ढंग से रवि बोला। ''जल्दी में हैं?''
रवि खड़ा हो गया, घड़ी देखी, ''पन्द्रह-बीस मिनट बैठ सकता हूं।''
प्रीति भी पहुंच गयी।
''भाई साहब, ये प्रीति है...प्रीति मजूमदार।''
रवि ने सिर हिलाया।
''भाई साहब....।''
''तुम्हारा थर्ड इयर है न!''
''जी भाई साहब।''
''कुछ सीखा नहीं तुमने दिल्ली से।''
सुधांशु रवि की बात का अर्थ नहीं समझ पाया। उसका चेहरा उतर गया। उसने रवि के चेहरे पर नजरें टिका दीं।
''गांव से बाहर निकल आओ।''
सुधांशु अभी भी निर्वाक था। वह रवि की बात के अर्थ तलाश रहा था।
''परेशान मत हो....मैं केवल यह कहना चाहता हूं कि तुम मुझे 'रवि' कहा करो...ये भाई साहब...मुझे पसंद नहीं है।''
सुधांशु किचिंत प्रकृतिस्थ हुआ, लेकिन 'रवि' उसकी जुबान पर फिर भी नहीं चढ़ा। उसने 'आप' से काम चलाया और बोला, ''आपका अधिक समय नहीं लूंगा...एक कप चाय...।''
''चाय नहीं लूंगा। यहीं दस मिनट बैठूंगा।'' और रवि विवेकानंद की मूर्ति की ओर चल पड़ा। तीनों लॉन में बैठे। बैठते ही रवि ने पूछा, ''थर्ड इयर के बाद क्या इरादा है?''
''जी सोचता हूं...।'' सुधांशु के सामने घर की आर्थिक स्थिति घूम गयी और घूम गया ट्यूशन आधारित स्वयं का जीवन।
''क्या सोचते हो?''
''सिविल सर्विस की तैयारी मैं भी करना चाहता हूं लेकिन ....''
''लेकिन क्या?''
''देर तक चुप रहा सुधांशु। प्रीति उसके और रवि के चेहरे की ओर बारी-बारी से देखती रही।
''आप से कुछ भी छुपा नहीं है....।'' सुधांशु ने सकुचाते हुए कहा।
''हुंह।'' कुछ देर चुप रहकर रवि बोला, ''तुमने देख लिया न कि मेरे दो अटैम्प्ट व्यर्थ गए। केवल एक बचा है... तो कुछ भी हो सकता है, लेकिन बिना जोखिम उठाए कुछ मिलता भी नहीं...।''
''लेकिन मेरी पारिवारिक स्थितियां मुझे ग्रेज्यूएशन के बाद ही नौकरी के लिए बाध्य कर रही हैं।''
''तुम्हारे ट्यूशन तो सही चल रहे हैं?''
''उनका क्या भरोसा!''
''दिल्ली में ट्यूशन का कभी संकट न होगा....ग्रेज्यूएशन के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन में प्रवेश ले लेना। हॉस्टल बना रहेगा....रहने की समस्या न रहेगी। एम.ए. में प्रवेश हॉस्टल के लिए लेना....शेष आई.ए.एस. के लिए अपने को झोक देना।'' रवि रुका। उसने प्रीति की ओर देखा, जो घास की पत्तियां मसल रही थी। वह आगे बोला, ''मैंने एक गलती की...वह तुम न करना।''
सुधांशु के साथ प्रीति भी रवि की ओर देखने लगी।
''मैंने एम.ए. करते हुए आई.ए.एस. की तैयारी नहीं की। दरअसल तब मुझमें प्राध्यापक बनने की झोक सवार थी। अच्छा डिवीजन बनाने, एम.फिल. फिर पी-एच.डी. का ख्वाब था। यह सब ठीक था, लेकिन प्राध्यापकी मेरे लिए आसान न थी। दरअसल मैं दूसरे यूनियन नेताओं की भांति न था। वे व्यवस्था से लड़ते भी हैं और लाभ उठाने के लिए उसके आगे-पीछे दुम भी हिला लेते हैं। मैं ऐसा नहीं कर सकता था। अपने विभागाध्यक्ष से मैं एक विद्यार्थी के लिए भिड़ गया था। और विभागाध्यक्ष की इच्छा के विरुद्ध इस विश्वविद्यालय के किसी भी कॉलेज में आप प्राध्यापक बन जाएं...ऐसा मुमकिन नहीं है। वह आपको न जानता हो। आप किसी विशेषज्ञ के कण्डीडेट हों और विशेषज्ञ विभागाध्यक्ष पर भारी हो तब तो ठीक, वर्ना दिल्ली विश्वविद्यालय की प्राध्यापकी को एक स्वप्न ही समझना चाहिए। यू.पी-बिहार या दूसरे राज्यों में जहां सिफारिश के साथ रिश्वत की मोटी रकमें देनी होती हैं यहां सिफारिश ....जान-पहचान काम आती है।''
''ठीक कह रहे हैं आप?''
''यहां कम से कम पचास प्रतिशत टीचिगं स्टॅफ की पत्नियां, बच्चे, साला-साली या भाई-भतीजे प्राध्यापक मिलेगें। शेष स्टॉफ का हाल भी यही है। जैसे राजनीति में वंशवाद की जड़ें मजबूत हैं, उसी प्रकार विश्वविद्यालय की स्थिति है। और यह स्थिति केवल दिल्ली विश्वविद्यालय की है...... ऐसा नहीं है। सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की है।''
''प्रतिभाओं का मूल्यांकन नहीं है?''
''चयनित व्यक्ति योग्य हैं या नहीं यह मायने नहीं रखता। मायने रखता है कौन किसका बंदा है।''
''इस अराजकता को रोक पाना शायद कठिन है।'' इतनी देर बाद प्रीति बोली।
''कठिन नहीं है.... बस सरकार को....यू.जी.सी...... को चयन प्रक्रिया और सेवा शर्तों के नियमों में कुछ परिवर्तन करने होगें।''
सुधांशु रवि के चेहरे की ओर देखने लगा।
''परिवर्तन... भाई-भतीजावाद समाप्त करने, अयोग्य... अयोग्यता से आभिप्राय ऐसे लोगों से नहीं जो प्राध्यापकी के लिए निर्धारित योग्यता से कम योग्य हैं, बल्कि उनसे जो डिग्रीधारी तो होते हैं, लेकिन पढ़ा लेने की क्षमता जिनमें नहीं होती। उपाधियां प्राप्त कर लेना एक बात है और उपाधि के साथ पढ़ाने की क्षमता रखना दूसरी बात.... समझे?''
''जी।''
''संक्षेप में कहना चाहूंगा कि चयन प्रक्रिया ऐसी हो जिसमें उस विश्वविद्यालय-कॉलेज के लोग हों ही न चयन बोर्ड में जहां के लिए चयन होना है। लेकिन यह कैसे हो? यू.जी.सी. या सरकार को यही सोचना होगा।''
''आपका मतलब यह तो नहीं कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों, चाहे वह लेक्चरर हों, रीडर या प्रोफेसर के चयन का काम यू.पी.एस.सी. जैसी किसी संस्था को सौंप दिया जाना चाहिए।''
''एक्जैक्टली।''
''शायद तभी गैर सिफारिशी प्रतिभाओं को बाहर का रास्ता दिखाने का खेल बंद हो पाएगा।''
''उत्तर प्रदेश जैसे उच्च शिक्षा आयोग गठित करने से काम नहीं चलेगा। तुम जानते हो वहां क्या होता है?''
सुधांशु और प्रीति दोनों ही रवि के चेहरे की ओर देखने लगे।
''वहां लाखों की रिश्वत चलती है। बिना जेब गरमाए कोई प्राध्यापक बन ही नहीं पाता। सो ही हाल मेरे गृहप्रांत का है। सभी प्रदेशों में नोट और सिफारिश दोनों का खेल होता है....भाई हालात बहुत खराब हैं।''
''और ये जो आई.आई.टी.जैसी संस्थाएं हैं....।'' सुधांशु ने जिज्ञासा प्रकट की।
''उनके विषय में मैं नहीं जानता, लेकिन वहां चयन प्रक्रिया उचित ही होगी। वहां बुद्धू मास्टर काम नहीं आएगा।'' रवि रुका कुछ क्षण, फिर बोला, ''केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के लिए केवल इतना ही नहीं...इन अध्यापकों की नौकरियां ट्रांसफरेबुल होनी चाहिए, लेकिन करे कौन? हमारे जो मंत्री जी हैं न .... शायद इस कौम से डरते हैं या उनके भी कुछ निहित स्वार्थ होगें....बात जो भी हो। कितनी ही बार चर्चा चली कि मास्टर साहबों के काम के घण्टे बढ़ा दिए जायें ....लेकिन बढ़ाए नहीं जा पाए।''
'क्यों?''
''क्योंकि केन्दीय विश्वविद्यालयों के अध्यापकों की यूनियन की हड़ताल की एक धमकी से मंत्री जी की कांछ गीली हो जाती है। जब दूसरे विभागों की हड़तालों को अवैध घोषित कर सकते है तब विश्वविद्यालय शिक्षकों की हड़ताल को क्यों नहीं। यही नहीं उनकी हड़ताल पर स्थायी प्रतिबन्ध लगा दिया जाना चाहिए। चयन शर्त में लिखा होना चाहिए कि यदि वह हड़ताल में शामिल हुआ तो एक माह की नोटिस पर उसे नौकरी से बर्खाश्त किया जा सकता है। कमाल यह है कि चाटुकारिता करके नौकरी हासिल करने वाले लोग सरकार को बंधक बना लेते हैं। कितने ही अवसरों पर अध्यापक अपराधियों जैसा व्यवहार करते हैं।'' रवि ने घड़ी देखी, ''अरे बहुत देर हो गयी।''
''कोई बात नहीं। बहुत दिनों बाद मिले हैं आप, फिर कब मिलेगें... आई.ए.एस. करते ही कौन पकड़ पाएगा आपको... अभी आपने मकान बदल लिया है...।''
रवि चुप रहा। उसने स्पष्टीकरण देना उचित नहीं समझा।
कुछ देर चुप्पी रही।
''मैं कह रहा था कि उस हेड के रहते मुझे प्राध्यापकी नहीं मिलनी थी और आने वाले हेड के अपने लोग होने थे। क्लर्की मैं करना नहीं चाहता। इसलिए इस ओखली में सिर दे दिया। दो बार असफल रहा हूं। यदि यह अवसर भी गया तब....।''
''आप ऐसा क्यों सोचते हैं...।''
''खैर, तुम्हारे लिए एक ही सलाह है कि पोस्ट ग्रेज्यूएशन के साथ ही सिविल परीक्षा की तैयारी शुरू कर देना। चाहना तो अटैम्प्ट भी देना....वर्ना दो वर्ष घोर तैयारी करके परीक्षा दोगे तो अच्छा होगा। तुम्हारे पास समय है। उसमें यदि नहीं भी जा पाए तो प्रोबेशनरी अफसर आदि की नौकरियों के विषय में सोच सकते हो।''
''देखो!'' सुधांशु के स्वर में शिथिलता थी।
''हताश होने से काम नहीं चलता। हिम्मत रखना होता है....जहां तीन वर्ष ट्यूशन से कटे...आगे भी सब सही ही होगा।''
''जी।''
''मैं चलता हूं। परीक्षाओं तक शायद ही हमारी मुलाकातें हों ...मेरे लिए यह जीने-मरने का प्रश्न है।''
''मैं समझ सकता हूं....लेकिन एक ही अनुरोध है...मुझे भूलेंगे नहीं। आपने मुझे बहुत कुछ दिया है...आपसे मैंने बहुत कुछ सीखा है।'' सुधांशु भावुक हो उठा।
''चिन्ता न करो सुधांशु...हम मिलेंगें फिर।'' सुधांशु के कंधे पर हाथ रख रवि बोला, फिर प्रीति की ओर मुड़ा, ''ओ.के. प्रीति।'' और वह तेजी से दौलतराम कॉलेज की ओर के गेट की ओर बढ़ गया।
''पहली बार मिली हूं...बहुत ही नाइस पर्सन हैं रवि जी।''
''जी।'' सुधांशु केवल इतना ही कह सका।
दोनों ही रवि को जाता देखते रहे।
''रवि कुछ दुबले हो गए हैं।'' सुधांशु बोला।
प्रीति चुप रही।
(6)
कक्षाएं समाप्त होने के बाद प्रीति का प्रयत्न होता कि वह कुछ समय सुधांशु के साथ रहे... बैठे-बातें करे। साहित्य में दोनों की रुचि थी और किसी विदेशी लेखक की जो भी पुस्तक एक पढ़ता दूसरा उससे लेकर पढ़ता। सुधांशु प्रीति से मिलता अवश्य लेकिन निम्न मध्यवर्गीय हिचक उसके अंदर मौजूद रहती। प्रारंभ में ही उसने उसे अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि स्पष्ट कर दी थी। लेकिन प्रीति ''सो व्वाट?'' कहकर खिलखिला उठी थी। एक दिन उसने कहा, ''सुधांशु, अपनी निम्न मध्यवर्गीय मानसिकता से ऊपर उठो। सोच प्रगति में सबसे बड़ी बाधा होती है। व्यक्ति में टैलेंट हो तो स्थितियों को बदल सकता है।'' कुछ रुककर वह पुन: बोली थी, ''इस सबके लिए मुझे दूर जाने की आवश्यकता नहीं। मेरे डैडी एक ज्वलंत उदाहरण हैं। एक खलासी का बेटा आई.ए.एस. बने, ऐसा सोचा जा सकता हैं? लेकिन डैडी ने कर दिखाया और आज....।'' विमुग्धभाव से बोली थी प्रीति।
देर तक प्रीति के चेहरे की ओर देखता रहा सुधांशु फिर धीरे से बोला, ''शायद....।'' और वह कुछ सोचने लगा।
''तुम एक बार मेरे घर आते क्यों नहीं? डैडी से मैंने तुम्हारे बारे में चर्चा की थी। तुमसे मिलकर प्रसन्न होगें वह। आ जाओ किसी संडे को....।''
''परीक्षाओं के बाद।''
''ओ.के.।''
लेकिन परीक्षाओं के बाद सुधांशु ने घर जाने का निर्णय किया।
''यार, दिल्ली की जिन्दगी जीकर अब गांव में बोर नहीं होगे?'' प्रीति ने पूछा।
''बोर क्यों....मां-पिता जी हैं।'' वह क्षणभर तक कहने के लिए उपयुक्त शब्द खोजता रहा। जब शब्द नहीं सूझे तब बोला, ''प्रीति गांव मुझे प्रेरणा देता है। गांव मेरी नस-नस में व्याप्त है। उसके बिना मैं अपने होने की कल्पना उसी प्रकार नहीं कर सकता, जिस प्रकार इस महादेश की कल्पना गांव के बिना नहीं की जा सकती।''
''सॉरी ...मेरी छोटी-सी बात पर इतना बड़ा भाषण झाड़ दिया। गांव मुझे भी प्रिय हैं। हालांकि मैं एक दिन के लिए भी वहां नहीं गई।''
''कभी जाकर देखो।''
''तुम्हारे साथ जाऊंगी।''
''मेरे साथ?''
''क्यों, नहीं ले जाना चाहोगे?'' सुधांशु की आंखों में झांकते हुए वह बोली।
''लेकिन....?''
''डर गए?''
सुधांशु चुप इधर-उधर देखता रहा। वह सोचने लगा कि कहां असुविधाओं में रह रहे उसके मां-पिता और कहां सुविधाओं में पली प्रीति। लेकिन तत्काल उसने सोचा, 'यह मजाक कर रही है।'
''चुप क्यों हो गए सुधांशु।''
''मजाक छोड़ो प्रीति....यह संभव नहीं होगा।''
''अभी हम कह रहे थे कि असंभव कुछ भी नहीं होता और अब तुम.....।''
सुधांशु ने कोई उत्तर नहीं दिया।
''तो यह बात है!''
''क्या?''
''तुम्हारे अंदर मेरे प्रति कोई भाव नहीं है।''
''कैसा भाव?''
''भाव...भाव....यार अब मैं क्या बताऊ! जब तुम जैसा गंवई-गांव का बुद्धू टकरा जाए तब उसे समझाना बहुत कठिन होता है।''
''तुमने ठीक कहा....हम गांव वाले चीजों को देर से समझ पाते हैं।''
''इसीलिए तो मुझे तुम पसंद हो।''
''मतलब?''
''मतलब समझो।'' और प्रीति खिलखिला उठी और बैग कंधे से लटका उठ खड़ी हुई, ''बॉय… मैं तो चली… मेरी बातों के अर्थ निकालते रहो।''
सुधांशु किंकर्तव्यविमूढ़-सा प्रीति को जाता देखता रहा और सोचता रहा, 'यह लड़की मुझ जैसे अभावग्रस्त युवक से क्या अपेक्षा रखती है!' जैसे-जैसे वह उसकी बातों की गहराई में उतरता गया, अर्थ खुलते गए और भय और आनंद का मिश्रित भाव उभरा उसके अंदर। क्षणभर वह यों ही बैठा रहा, फिर मुस्कराया ओर हॉस्टल की ओर चल पड़ा।
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रविवार, 17 जुलाई 2011

धारावाहिक उपन्यास





गलियारे


(उपन्यास)


रूपसिंह चन्देल


भाग-एक

(चैप्टर 3 और 4)



(3)

सुधांशु कुमार दास बनारस के एक गांव का रहने वाला था। पिता सामान्य किसान। इण्टर के बाद जब सुधांशु ने पढ़ना चाहा, पिता ने आर्थिक विवशता प्रकट करते हुए पढ़ाने से इंकार कर दिया। लेकिन सुधांशु अपनी प्रतिभा को गांव में पड़े रहकर नष्ट नहीं करना चाहता था। उसने किसी प्रकार पिता को इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वे उसे केवल दिल्ली तक जाने के लिए पैसों की व्यवस्था कर दें। बहुत कसमसाहट और जद्दोज़हद के बाद पिता तैयार हुए। एक बीघा खेत दो वर्ष के लिए रेहन रखे गए। सुधांशु ने दिल्ली की ट्रेन पकड़ी। ट्रेन में उसकी मुलाकात रवि कुमार राय से हुई जो पटना से ट्रेन में चढ़ा था। यह एक संयोग था। रवि का आरक्षण जिस गाड़ी से था वह उससे छूट गयी थी। उसके पास अगली ट्रेन में अनारक्षित यात्रा करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। सुधांशु रवि के डिब्बे में चढा और उसके बगल में जगह देखकर बैठ गया। लगभग दो घण्टे दोनों के संवादहीनता में बीते। इस दौरान रवि फ्रण्ट लाइन पत्रिका पढ़ता रहा। पढ़कर जब वह पत्रिका बैग में रखने लगा, सुधांशु ने पत्रिका पढ़ने की इच्छा प्रकट की। फ्रण्ट लाइन से सुधांशु का वह पहला परिचय था।
''श्योर।'' रवि ने पत्रिका उसे थमाते हुए कहा।
सुधांशु ने पत्रिका लेते हुए पूछा, ''आप दिल्ली जा रहे हैं?''
''जी।''
बात इससे आगे नहीं बढ़ी। सुधांशु पत्रिका के आलेखों से बहुत प्रभावित हुआ, लेकिन उसके मस्तिष्क में एक ही बात घूम रही थी कि वह साथ वाले युवक से दिल्ली के विषय में, खासकर दिल्ली विश्वविद्यालय के विषय में जानकारी कैसे प्राप्त करे! पढ़ते हुए भी वह आलेखों को आधा-अधूरा ही पढ़ता रहा। लगभग एक घण्टा बीत गया। अंतत: संकोच तोड़ वह बोला, ''मैं भी दिल्ली जा रहा हूं।''
''हुंह...।'' रवि ने उत्सुकता नहीं दिखाई। सुधांशु का दिल बैठ गया। आध घण्टा उसने इस उहापोह में बिता दिए कि साथ बैठे युवक से वह कुछ पूछे और वह उत्तर ही न दे। लेकिन उस अनजान शहर के बारे में जानना आवश्यक था उसके लिए। उसने अब तक केवल कस्बे को ही जाना था।
''आप दिल्ली में जॉब करते हैं?'' पूछते हुए उसके चेहरे पर घबड़ाहट थी।
''नहीं।'' युवक के संक्षिप्त उत्तर ने उसे पुन: निर्वाक कर दिया। कुछ देर बाद फिर द्विविधा में बीते। उसने फिर साहस बटोरा और बोला, ''दरअसल मैं पहली बार दिल्ली जा रहा हूं।''
''अच्छा।'' सुधांशु को लगा कि जैसे युवक उससे बात करने का इच्छुक नहीं है।
कुछ पल और बीते।
''आप वहां बहुत दिनों से रह रहे हैं?''
''छ: वर्षों से।'' सधांशु के लिए यह राहत की बात थी, क्योंकि युवक के शब्दों की संख्या बढ़ी थी। उसका उत्साह भी बढ़ा।
''मैं वहां विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना चाहता हूं, लेकिन मुझे वहां के विषय में कुछ भी जानकारी नहीं है। आप कुछ गाइड कर देंगे?''
''कितने प्रतिशत मार्क्स हैं?''
''सेवण्टी सिक्स...।''
''ओ.के.।'' युवक ने पुन: चुप्पी ओढ़ ली। ट्रेन धड़धड़ाती रही। डिब्बे में यात्रियों का शोर था। दो यात्री सीट को लेकर झगड़ रहे थे और सुधांशु के चेहरे पर तनाव था। वह रह-रहकर पास बैठे युवक के चेहरे पर नजरें डाल लेता और फिर बिना पढ़े पत्रिका के पन्ने पर टिका लेता। साथ बैठा युवक कुछ सोच रहा था।
बहुत देर की चुप्पी के बाद युवक बोला, ''साइंस थी...या..।''
''आर्ट्स...।''
''कॉलेजों के फार्म भरने होंगे....।''
''कहां से मिलेंगे फार्म?''
''मिल जाएगें...कैम्पस में ही... कल से फार्म भरने का प्रॉसेस शुरू हो रहा है। सही समय पर दिल्ली जा रहे हो।'' सुधांशु को लगा कि युवक अब अपने खोल से बाहर आ रहा है।
''मैं अंदाज से ही जा रहा था। कभी अखबार में पढ़ा था कि जून में दिल्ली विश्वविद्यालय के एडमिशन फार्म भरने का काम शुरू होता है। याद था....।''
''किसमें प्रवेश चाहते हो?'' सुधांशु को युवक अब बेहतर मूड में दिखा।
''अंग्रेजी या हिस्ट्री ऑनर्स।''
''किस कॉलेज में....?''
''मुझे वहां के कॉलेजों के विषय में बिल्कुल ही जानकारी नहीं है।''
''कैम्पस के किसी न किसी कॉलेज में आपको प्रवेश मिल जाएगा। लेकिन फार्म सभी कॉलेजों के भरने होंगे....बल्कि कैम्पस के बाहर के कॉलेजों के भी...।''
''जी...।'' सुधांशु क्षणभर बाद बोला, ''स्टेशन से सीधे विश्वविद्यालय चला जाऊंगा।'' उसने युवक की ओर देखा, ''कितनी दूर होगा स्टेशन से...?''
''पहली बार दिल्ली जा रहे हो?''
''जी ...बताया था। कस्बे से बाहर दो बार निकला....बनारस गया था। गांव से कस्बा तीन मील है....जहां मेरा इण्टर कॉलेज है। पैदल आना-जाना होता था। बनारस भी कॉलेज की ओर से गया था... उसे भी अधिक नहीं जान पाया।''
''ओह....।'' युवक ने सुधांशु के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं, ''आप बनारस के हैं…?''
''जी।'' कुछ रुककर सुधांशु बोला, ''जी, बनारस से मेरा गांव पचास किलोमीटर है।''
''दिल्ली में कोई जानकार नहीं है ?''
''जी नहीं....पहले ही कहा था....मेरे लिए बिल्कुल अपरिचित-अनजान शहर है।''
युवक ने पुन: दीर्घ निश्वास ली।
''आप कहां के रहने वाले हैं?''
''रांची का ...पटना में पढ़ता था।''
''दिल्ली में आप....?''
सुधांशु की बात छीन ली युवक ने, ''मैंने वहां से अंग्रजी में एम.ए. किया है। अब आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा हूं।''
''वेरी गुड।'' सुधांशु के मुंह से अनायास निकला। वह समझ नहीं पाया कि क्या कहे। वह युवक के चेहरे की ओर देखता रहा और सोचकर प्रसन्नता अनुभव करता रहा कि संभवत: वह एक भावी आई.ए.एस. के साथ बैठा है।
काफी देर बाद सुधांशु बोला, ''सर, दिल्ली में कोई ऐसी जगह.... मेरा मतलब है....धर्मशाला जैसी कोई जगह, जहां मैं महीना-दो महीना ठहर सकूं।''
''यार, तुम मुझे 'सर' क्यों कह रहे हो?'' युवक सहज स्वर में बोला, “मैं तुम्हारी समस्या समझ सकता हूं... पहली बार जा रहे हो न !''
''जी।'' सुधांशु को युवक के तुम में आत्मीयता दिखी।
''मेरा नाम रविकुमार राय है। तुम मेरे साथ चल सकते हो। कोई परेशानी नहीं।''
''आप मेरे लिए परेशानी...।''
''कोई परेशानी नहीं... मैं विश्वविद्यालय यूनियन में सचिव हुआ करता था... एक-दूसरे की सहायता से ही दुनिया चल रही है।'' युवक अब पूरी तरह खुल गया था।
''मैं...मैं...।'' सुधांशु भावुक हो उठा।
''मित्र, परेशान न हो... मेरे साथ चलना... बाद में कोई न कोई व्यवस्था हो जाएगी।''
*****

(4)

रविकुमार राय ने मुखर्जीनगर में दो कमरों का फ्लैट किराए पर ले रखा था। घर से समृद्ध था। पिता जमींदार थे। यद्यपि एक व्यक्ति के लिए दो कमरों की आवश्यकता न थी। एम.ए. करने तक वह विश्वविद्यालय के जुबली हॉस्टल में रहा था। यूनियन में सक्रियता के कारण मित्रों का दायरा बड़ा था और हॉस्टल में उसका कमरा उसकी उपस्थिति-अनुपस्थिति में मित्रों से भरा रहता था। वह चाहता तो एम.ए. करने के बाद भी हॉस्टल में बना रह सकता था, जैसा कि प्राय: सीनियर छात्र करते थे, लेकिन जब उसने आई.ए.एस. की तैयारी का निर्णय किया, हॉस्टल छोड़ दिया। उसने मित्रों से भी अपने को अलग करने का प्रयत्न किया, लेकिन न चाहते हुए भी कुछ ऐसे मित्र थे जो जब-तब उसके यहां पहुंच ही जाते थे। पहुंच ही नहीं जाते थे, रात ठहर भी जाते थे। प्रारंभ में वह एक कमरे के एकमोडेशन में रहता था, लेकिन जब वह अपने को मित्रों से नहीं बचा पाया, उसने दो कमरों का एकमोडेशन ले लिया।
सुधांशु के लिए रवि देवदूत सिद्ध हुआ। रवि ने न केवल उसके एडमिशन में सहायता की, प्रत्युत सेशन शुरू होते ही विजयनगर और मुखर्जीनगर में आठवीं और दसवीं के कुछ बच्चों के ट्यूशन भी उसे दिलवा दिए। दो महीने में ही सुधांशु इस स्थिति में पहुंच गया कि विजय नगर में एक कमरा किराए पर ले लिया और मुखर्जीनगर के टयूशन छोड़ विजयनगर में ही चार और ट्यूशन पकड़ लीं। हिन्दू कॉलेज में उसे हिस्ट्री ऑनर्स में प्रवेश मिल गया था। छ: महीनें बीतते न बीतते ट्यूशन में उसके विद्यार्थियों की संख्या बढ़ गयी थी।
* * * * *
रविकुमार राय को आई.ए.एस. के पहले प्रयास में सफलता नहीं मिली। सुधांशु जब-तब उसके यहां जाता और जब भी जाता उसे पढ़ता हुआ पाता। पहले प्रयास की असफलता ने रवि को केवल अपने कमरों तक सीमित कर दिया था। उसने विश्वविद्यालय जाना और मित्रों से मिलना छोड़ दिया था। जाने पर सुधांशु से भी वह अधिक बात नहीं करता था।
उन्हीं दिनों सुधांशु का परिचय प्रीति मजूमदार से हुआ। हुआ यों कि कॉलेज में वार्षिक उत्सव की तैयारी चल रही थी। सुधांशु भले ही छात्रों से अलग-अलग रहता था, लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उसकी रुचि थी। इण्टर के दौरान उसने वहां के सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लिया था और कॉलेज की ओर से प्रस्तुत किए गए एक हिन्दी नाटक में अभिनय भी किया था। इस बात का उल्लेख उसने अपने एक-दो सहपाठियों से किया था। यही नहीं सेकण्ड इयर में उसे सितार सीखने की धुन सवार हुई। उसके पड़ोसी कमरे में प्रीतीश बनर्जी नाम का छात्र रहता था, जो उसी के कॉलेज में थर्ड इयर में पढ़ता था। प्रीतीश उन छात्रों में था जिनकी दुनिया अपने तक ही सीमित रहती है। प्राय: शाम पांच बजे के आस-पास प्रीतीश के कमरे से उभरते सितार का मधुर स्वर सुधांशु का ध्यान आकर्षित करता और वह मंत्रमुग्ध हो जाता।
लंबे समय तक यह सिलसिला चला। वह समय सुधांशु के ट्यूशन पढ़ाने जाने का होता था। आखिर एक दिन उसने प्रीतीश का कमरा नॉक किया। सितार ठहर गया। प्रीतीश ने दरवाजा खोला। पहली बार दोनों छात्र एक-दूसरे से उन्मुख थे, ''यस?'' प्रीतीश बोला।
''सॉरी फॉर डिस्टरबेंस...।''
प्रीतीश चुप रहा। सुधांशु ने अनुभव किया कि एक कलाकार के रियाज़ के समय उसे बाधित नहीं करना चाहिए था।
''मैं एक बात पूछना चाहता हूं....आपको सितार बजाता सुन...।'' वह क्षणभर के लिए रुका, ''क्या आप मुझे सितार बजाना सिखा सकते हैं?''
''नहीं।'' रूखा-सा उत्तर था प्रीतीश का। सुधांशु बुझ गया। लेकिन तभी उसने प्रीतीश को कहते सुना, ''पास में कमला नगर है, वहां गंधर्व महाविद्यालय की ब्रांच है.... आप वहां सीख सकते हैं।''
''थैंक्स।''
और सुधांशु ने कमला नगर के गंधर्व महाविद्यालय में प्रवेश ले लिया। कुछ अड़चन थी। वहां सितार की कक्षाओं का जो समय था वही समय उसकी ट्यूशन का था और यह संभव नहीं था कि एक बैच को ट्यूशन पढ़ाकर वह कमला नगर जाता और फिर दूसरे-तीसरे बैच को पढ़ाने के लिए पुन: विजयनगर। उसके पढ़ाने के अच्छे परिणाम का लाभ यह हुआ था कि एक वर्ष में ही वह पांच-पांच बच्चों के तीन बैच पढ़ाने लगा था। उसने किसी प्रकार दोनों में सामंजस्य स्थापित किया और सितार सीखने लगा।
दूसरे वर्ष के वार्षिकोत्सव में कॉलेज की ओर से 'मैकबेथ' का मंचन होना था और उसमें एक भूमिका उसे भी मिली थी। प्रीति मजूमदार उससे एक वर्ष जूनियर थी। वह अंग्रेजी ऑनर्स से ग्रेज्यूएशन कर रही थी। नाटक में प्रीति भी अभिनय कर रही थी। रिहर्सल के दौरान सुधांशु का परिचय उससे से हुआ था।
'मैकबेथ' में अभिनय के अतिरिक्त सुधांशु का प्रीतीश बनर्जी के साथ सितार बजाने का कार्यक्रम भी था। और दोनों में ही उसने वाह-वाही पायी थी।
वार्षिकोत्सव के बाद प्रीति मजूमदार से मिलने का सिलसिला चल निकला था। कक्षाएं समाप्त होने के बाद प्रीति उसे कैण्टीन खींच ले जाने का प्रयत्न करती, लेकिन प्रारंभिक कुछ अवसरों के बाद उसने कैण्टीन जाने या कमला नगर-जवाहर नगर के किसी रेस्टॉरेण्ट में जा बैठने से एक दिन स्पष्ट इंकार कर दिया।
''मेरा साथ पसंद नहीं?'' एक दिन प्रीति ने पूछा।
''ऐसा नहीं है।''
''आप अब कहीं भी जाने से इंकार करने लगे हैं।''
देर तक चुप रहने के बाद सुधांशु बोला, ''प्रीति, सच जानना चाहोगी?''
''क्यों नहीं।''
''मैं इन जगहों में जाना-बैठना अफोर्ड नहीं कर सकता।'' उसका चेहरा उदास हो उठा। प्रीति ने उसके चेहरे पर दृष्टि गड़ा दी, ''इसका मतलब है कि आप अपने में और मुझमें अंतर करते हैं।''
''एक छात्र के रूप में नहीं ....लेकिन पारिवारिक स्थितियां हमारी भिन्न हैं। मैंने आज तक यह नहीं जाना कि आपके पिता क्या करते हैं या पारिवारिक स्थिति क्या है आपकी, लेकिन अनुमान लगा सकता हूं। हां, मैं आज आपको स्पष्ट कर दूं कि मेरे पिता एक साधारण किसान हैं और मैं उनसे बिल्कुल ही आर्थिक सहायता नहीं लेता। लेना चाहूं भी तब भी नहीं...क्योंकि वह कर सकने की स्थिति में ही नहीं हैं।''
''यू आर सो ग्रेट सुधांशु....मेरी दृष्टि में आपका महत्व बहुत बढ़ गया। मेरे पिता भी सेल्फ मेड व्यक्ति हैं... वह मिनिस्ट्री ऑफ एजूकेशन में एडीशनल सेक्रेटरी हैं। मुझे तुम्हारी साफगोई अच्छी लगी।'' प्रीति ने अपना होठ काटा। उसके मुंह से सुधांशु के लिए 'तुम' फिसल गया था। सच यह था कि वह सोच समझकर 'तुम' बोली थी। लेकिन सुधांशु को सहज देख वह आगे बोली, ''कभी पिता से मिलवाउंगी....ही इज सो नाइस....सो डिवोटेड टु हिज वर्क....सुबह आठ बजे निकल जाते हैं ऑफिस के लिए और रात नो बजे से पहले नहीं लौटते।''
''मैं समझ सकता हूं।''
''डैड अपने सिद्धांतों से टस से मस नहीं हो सकते.... मुझे वेंकटेश्वर कॉलेज में भी एडमिशन मिल रहा था, लेकिन मैंने पहले ही उन्हें स्पष्ट कर दिया था कि साउथ कैम्पस तभी चुनूंगी जब नार्थ के किसी कॉलेज में प्रवेश नहीं मिलेगा। और जब यहां मिल गया तब उन्होंने कहा था, ''प्रीति तुम यह मत सोचना कि स्टॉफ ड्राइवर तुम्हे छोड़ने कॉलेज जाया करेगा। 'यू' स्पेशल लो या किसी दूसरी बस से जाओ-आओ। नृपेन मजूमदार दूसरे अफसरों की भांति सरकारी सुविधा का दुरुपयोग नहीं करेगा।' तो ऐसे हैं मेरे डैड।''
''आप रहती कहां हैं?''
''लोधी एस्टेट।''
''सीधी छब्बीस नंबर बस है वहां से।''
''हूं।'' क्षणभर चुप रहकर प्रीति बोली, ''सुधांशु, मेरा नाम प्रीति है...आप नहीं।''
''ओ.के.....प्रीति....।''
''किसी दिन डैडी से मिलने चलना।''
''रात नौ बजे के बाद मिलेंगे न वे।''
''ओह....यह तो मैं भूल ही गयी थी।'' वह कुछ सोचने लगी, फिर बोली, ''ऐसा कर सकते हो....किसी सण्डे को आ जाओ घर।''
''सोचकर बताउंगा।'' सुधांशु बोला, ''जिस सण्डे को वे ऑफिस नहीं जाएगें...।''
''तुम्हें कैसे पता कि डैडी सण्डे को भी ऑफिस जाते हैं।''
''कर्मठ अधिकारियों के विषय में कहा जाता है कि वे ऐसा करते हैं और बीस प्रतिशत अधिकारियों-कर्मचारियों की बदौलत सरकार चलती है।''
''यह आंकड़ा सही नहीं है, लेकिन यह चर्चा तो है ही कि सरकार के कुछ ही अफसर और कर्मचारी काम करते हैं।''
''और आपके डैडी उनमें से एक हैं।'' सुधांशु के चेहरे पर मुस्कान तैर गयी थी।
*****

सोमवार, 11 जुलाई 2011

धारावाहिक उपन्यास- ’गलियार’

चित्र : बलराम अग्रवाल

मित्रो ’रचना समय’ के इस अंक से मैं अपने प्रकाश्य उपन्यास ’गलियारे’ का धारावाहिक प्रकाशन प्रारंभ कर रहा हूं. मेरा प्रायास रहेगा कि उपन्यास के एक या दो अंश प्रति सप्ताह आप तक पहुंचे. मुझे आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.

गलियारे

(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल


भाग - एक

(1)


आम के पेड़ पर सरसराती हवा। हवा में बहकर आती बौरों की सोंधी गंध। उस गंध में मिश्रित क्यारियों में खिले फूलों की महक। महक में एक फूल से दूसरे फूल पर मंडराते भौरों के झुण्ड। कलरव करते पक्षी। बंगले की छत पर उतरने को उद्यत सूर्य को गुटरगूं करके प्रणाम करते कबूतर और लॉन में घुस आयी बिल्ली को दौड़ाता उनका लेब्रा साशा।

'बसंत पूरे शबाब पर है।' मंद कदमों से लॉन में टहलते हुए उन्होंने सोचा।

बंगले के मेन गेट के पास एक ओर आम का पेड़ था और दूसरी ओर नीम का। आम में घनी बौरें आयी हुई थीं। बंगले की बाउण्ड्री-वाल के साथ क्यारियां बनाई गई थीं, जिनमें गेंदे से लेकर गुलाब के फूल लगे थे और सभी खिले हुए थे। पेडों की शाखाओं के बीच से होकर सूरज की किरणें उन्हें छूने लगी थीं। उनके स्पर्श से फूल खिलखिला उठे थे।

बिल्ली साशा को चकमा देकर बाउण्ड्री वाल पर चढ़ी, फिर मेन गेट के बांये गुबंद पर बैठ साशा की ओर अपनी छोटी आंखें गड़ा देखने लगी। साशा गुबंद के पास उछलकर भोंकता रहा, लेकिन बिल्ली चुप उसकी ओर देखती रही।

साशा पूंछ हिलाता उनकी ओर देखने लगा था।

उनकी नजर आम की एक डाल पर बैठे गौरय्या के जोड़े पर जा टिकी। 'कितना शांत -कितना निश्चिंत....।' लॉन के बीच पड़ी कुर्सी की ओर बढ़ते हुए उन्होंने सोचा और दीर्घ निश्वास ली।

कुर्सी पर बैठ वह देर तक गौरय्या के जोड़े को देखती रहीं। चिड़ा चिड़िया के साथ छेड़छाड़ करने लगा। चिड़िया उड़कर दूसरी डाल पर जा बैठी। क्षणभर बाद चिड़ा भी उसके पास जा पहुंचा और कुछ दूर बैठकर चिड़िया को घूरता रहा, फिर फुदकता हुआ उसकी ओर बढ़ने लगा। उसके अपने निकट आने से पहले ही चिड़िया फुर्र उड़ गयी। उन्होंने दीर्घ निश्वास ली, उधर से अपनी नजरें हटाईं और गेट की ओर देखने लगीं, जहां साशा अभी भी बिल्ली की ओर गर्दन ताने कूं-कूं कर रहा था।

सड़क पर हॉकर अखबारों का बण्डल साइकिल की कैरियर पर रखे दौड़ा जा रहा था।
'आज अभी तक अखबार नहीं आया' उन्होंने सोचा,'लेकिन आज वह आ रहा है।' उसका खयाल आते ही उनका चेहरा म्लान हो गया। कल रात उसका फोन आया था। ''कल लंच के समय कोई कार्यक्रम मत बना लेना प्रीति।''

''क्यों?''

''मैं यहीं हूं। ''

''कहां?''

''नेशनल डिफेन्स अकेडमी के गेस्ट हाउस में।''

''कब आए?''

''शाम की फ्लाइट से।''

''हुंह।''

''हुंह क्या?''

वह चुप रहीं।

''तुम्हारे बंगले से दूर नहीं हूं। तुमने डिनर ले लिया होगा....?''

उन्होंने उत्तर नहीं दिया।

''नो प्राब्लम.... कल लंच तो साथ ले सकेगें?''

''मिनिस्ट्री में मीटिगं है दस बजे .... आ पायी तो....।''

''मैं फोन करूंगा...ओ.के. .......।''
........................

''गुड नाइट।''

वह तब भी चुप रही थीं।

उन्हें झटका लगा था। लेकिन मीणा.... डी.पी. मीणा की यह आदत थी। सदैव बात की सीमा वही तय करता था... वह रात ही बंगले में आना चाहता था... थोड़ी भी रुचि दिखातीं तो केवल 'एक कप चाय पिऊंगा....बस्स...' कह वह आ धमकता।..........लेकिन अब वह अतीत को पुन: दोहराना नहीं चाहतीं।
उन्होंने घड़ी देखी. सात बजने वाले थे। साशा को आवाज दी, ''साशा.... चलो बेटा...।''

साशा ने मुड़कर उनकी ओर देखा, दो बार बिल्ली की ओर भोंकते हुए छलांग लगायी, फिर कूं-कूं किया और उनके पीछे दौड़ लिया। उन्होंने मेड को आवाज दी, ''माया, साशा को ब्रेकफॉस्ट दो...मैं नहाने जा रही हूं।''

''जी मेम साहब।'' खिड़कियों की डस्टिगं करती माया बोली और बाहर निकलकर साशा को बुलाने लगी।

******


(2)


दोपहर दो बजकर पचीस मिनट पर वह दफ्तर पहुंची।

उन्होंने किसी को नहीं बताया था कि उन्हें मीटिगं के लिए जाना है। न पी.ए. को, न प्रशासन के सहायक निदेशक को और न ही सेक्शन अफसर को। सेक्शन अफसर और सहायक निदेशक सुबह से तीन बार पी.ए. से पूछ चुके थे, ''चन्द्रभूषण मैडम कब तक आ रही हैं?''

''मुझे कोई सूचना नहीं है सर।'' सहायक निदेशक विपिन कुमार के अपने केबिन में घुसते ही चन्द्रभूषण खड़ा हो गया और फुसफुसाया, ''क्या बकवास है?''

विपिन कुमार ने चन्द्रभूषण के चेहरे पर नजरें गड़ा पूछा, ''आपने उनके बंगले फोन किया?''

''किया था सर!'' पी.ए. के स्वर में दयनीयता उभर आयी, ''मेड ने बताया कि मैम सुबह नौ बजे निकल गई थीं....कुछ बोलकर नहीं गर्इं।''

''लैब्स में पता करो.... शायद उधर गई हों...।''

''वहां भी फोन किया था सर...वहां नहीं पहुंचीं।''

''यार, चन्द्रभूषण।'' विपिन कुमार ने उसे यों घूरा जैसे प्रीतिदास के दफ्तर न पहुंचने के लिए चन्द्रभूषण दोषी था, ''आप पी.ए. बनने काबिल नहीं हैं।''

''यस सर।''

''व्वॉट यस सर?'' विपिन कुमार का स्वर तीखा था, ''हेडक्वार्टर से फोन पर फोन आ रहे हैं। उन्हें देहरादून प्रोजेक्ट की रपोर्ट भेजनी है....।''

''सर...।''

''जैसे ही मैम आएँगी...मुझे तुरंत सूचित करना....।''

''यस सर।'' विपिन कुमार पैर पटकता चला गया तो चन्द्रभूषण बुदबुदाता हुआ सीट पर पसर गया,

''स्साले देहरादून प्रोजेक्ट पर चांदी तुझे काटनी है.... और रौब मुझ पर झाड़ रहा है।'' उसने सोच लिया कि प्रीति दास के आने पर भी वह विपिन कुमार को सूचित नहीं करेगा।

'उस प्रोजेक्ट को लेकर मैडम को अधिक उत्साह नहीं है...मैडम निदेशक हैं और विपिन कुमार सहायक... उनसे दो पद नीचे..... फिर भी यह इतनी रुचि क्यों ले रहा है उस प्रोजेक्ट में। इसलिए न कि हेडक्वार्टर आफिस में सांठ-गांठ करके उस प्रोजेक्ट को अपने हाथ में लेना चाहता है। यह तो इस प्रयास में है कि सिध्दांतत: एक बार प्रोजेक्ट रिपोर्ट सबमिट होकर हेडक्वार्टर आफिस और मंत्रालय से स्वीकृति पा ले तो यह उस प्राजेक्ट के इंचार्ज के रूप में अपना स्थानातंरण देहरादून करवा ले। दस करोड़ रुपए का प्रोजेक्ट है। इसके पांच प्रतिशत कहीं नहीं गए.... हेडक्वार्टर आफिस में बेठे अपने आकाओं को आधा भी देना पड़ा तो भी....।''

फोन की घण्टी बजी,''मिसेज प्रीति इज देयर?''

''अभी तक आयी नहीं सर।'' चन्द्रभूषण ने स्वर में बनावटी मिश्री घोली और पूछा,''सर, मे आई नो हू इज आन द लाइन सर?''

''डी.पी.।''

''नमस्कार सर।....मैं बता दूंगा सर।'' चन्द्रभूषण को डी.पी. से पहले नमस्ते करने का ध्यान नहीं रहा था। यह भयानक त्रुटि मानी जाती थी। फोन उठाते ही पी.ए. को समयानुसार नमस्कार कहना होता है।

''सर, आप पटना से बोल रहे हैं?'' पूछना उचित समझा चन्द्रभूषण ने,'' मैडम के आते ही आपको फोन करवा दूंगा सर।''

''दिल्ली से बोल रहा हूं।'' डी.पी. के स्वर में चन्द्रभूषण ने अपेक्षाकृत शुष्कता अनुभव की।

''सर अपना फोन नंबर दे दीजिए.... आते ही फोन....।''

''मैं कर लूंगा...।'' डी.पी. का स्वर पहले से अधिक शुष्क हो उठा था।

''ओ.के. सर।''

डी.पी. मीणा से बात खत्म कर चन्द्रभूषण अपने केबिन से बाहर निकला और चपरासी सोहन लाल को देखने लगा। सोहन लाल प्रीतिदास के चैम्बर के बाहर स्टूल पर दिन भर बैठा होता था। लेकिन चन्द्रभूषण जानता था कि उस समय वह वहां न होगा क्योंकि मिसेज दास चैम्बर में न थीं। उसका अनुमान था कि वह मैडम दास को रिसीव करने के लिए चैम्बर के बाहर सड़क की ओर खुलने वाले दरवाजे के पास खड़ा होगा या चैम्बर के बायीं ओर बने पार्किंग में किसी स्कूटर या मोटर साइकिल पर बैठा मेन गेट की ओर नजरें गड़ाए होगा।

'सी' ब्लॉक में केन्द्र सरकार के कई कार्यालय अवस्थित थे। ब्लॉक चार-दीवारी से घिरा हुआ था और उसके पूरब और पश्चिम की ओर गेट थे। प्राय: अधिकारीगण पूरब के गेट से आते-जाते थे।

चन्द्रभूषण मैडम दास के चैम्बर से होकर सड़क की ओर खुलने वाले दरवाजे पर पहुंचा। दरवाजे की सिटकनी खुली हुई थी, लेकिन वह बंद था। दरवाजा खोल वह बाहर झांका, लेकिन पार्किगं में उसे कोई टू ह्वीलर खड़ा नहीं दिखा।

वह एक छोटी-सी पार्किंग थी, जहां चार सुविधा से और ठूंस-ठांसकर पांच टू ह्वीलर खड़े हो जाते थे। लेकिन उस दिन विपिन कुमार की मारुति खड़ी थी। सोहन लाल को न देख चन्द्रभूषण की परेशानी बढ़ गई, 'अपने साथ मेरी नौकरी भी लेगा यह सोहन लाल....मैडम आ जाये तो गाड़ी का दरवाजा कौन खोलेगा....कौन उनका ब्रीफकेस-लंच बॉक्स का थैला गाड़ी से निकालेगा....?'

चन्द्रभूषण ने इधर-उधर देखा, गेट की ओर नजरें दौड़ायीं, उस दरवाजे की ओर देखा जहां से आम तौर पर कार्मचारी आते-जाते थे, लेकिन सोहन लाल नदारत था।

'अब मुझे ही रुकना होगा यहां...।' लेकिन तभी उसने सोचा, 'मैं यहां रुका और वहां मैडम का ही फोन आ जाये, कुछ पूछने-बताने के लिए.... नहीं सोहन लाल को ही खोजता हूं।' वह ब्लॉक के गेट की ओर धीरे-धीरे खिसकने लगा। लेकिन एक बार उसने पीछे मुड़कर कैण्टीन की ओर देखा, जहां बाबुओं और कुछ फौजी सिपाहियों की लाइन लगी हुई थी। यह ऐसी कैण्टीन थी जहां बाजार भाव से चीजें कम कीमत पर मिलती थीं, ....दस से पन्द्रह प्रतिशत कम कीमत पर। फौजियों को उस पर और भी दस प्रतिशत की छूट होती थी।

'बेचारे सिपाही!' चन्द्रभूषण सोचने लगा, 'अपने अफसरों के सामान खरीदने के लिए घण्टो लाइन में लगे रहते हैं। जितना बड़ा अफसर उतने अधिक अर्दलीं। कपड़े चमकाने से लेकर जूते चमकाने तक और कैण्टीन से सामान, सब्जी-राशन लाने, बच्चों को स्कूल छोड़ने से लेकर बंगले के बगीचे में काम करने तक।'

'मैं उनके विषय में ही क्यों सोच रहा हूं! मेरे विभाग में भी यह सब होता है और दूसरे विभागों में भी.... हकीकत यह है कि इस देश का कौन-सा ऐसा विभाग है, जहां अफसरों के यहां काम करने के लिए चौथे दर्जे के कर्मचारी नहीं जाते। अगर वह नहीं जाते तब उसके स्थान पर कैजुअल लेबर जाते हैं। बल्कि अधिकतर वही जाते हैं।'

चन्द्रभूषण यह सोच ही रहा था कि तभी उसकी नजर मारुति की ओट में दाहिनी ओर खड़ी मोटर साइकिल पर बैठे सोहन लाल पर पड़ी। सोहन लाल उसे देख मुस्करा रहा था..... मंद-मंद। चन्द्रभूषण उसकी ओर मुड़ा। वह कुछ कहता उससे पहले ही सोहन लाल बोला, ''सर, सुबह नौ बजे से बैठा हूं यहां। थक गया हूं बैठे-बैठे... गेट की ओर देखते आंखें दुखने लगी हैं....।''

''फिर?''

''सर, पेशाब करने तक नहीं जा पाया। आप किसी और को बैठाइये.... पेशाब करने जाऊं। रोटी चबा आऊं।''

'किसे बैठाऊं? सभी चपरासियों पर विपिन कुण्डली मारे बैठा है...।' चन्द्रभूषण ने सोचा, 'सोहन लाल को अवश्य पेशाब आया होगा।'

''जाओ बाथरूम हो आओ.... तब तक मैं खड़ा हूं...मैडम आ गईं तो मैं रिसीव कर लूंगा।''

''सर....पेट में चूहे कूद रहे हैं। सुबह सात बजे दाना डाला था पेट में।''

''यार, खा लेना.... मर नहीं जाओगे बिना खाए....लेकिन अगर वह आ गईं और कोई न हुआ तब...तब...नौकरी पर बन आएगी।''

सोहन लाल बुदबुदाता हुआ बाथरूम की ओर लपका, लेकिन तभी चन्द्रभूषण को फोन की घंण्टी सुनाई दी तो वह चीखा, ''सोहन फोन....।'' और वह अपनी केबिन तक पहुंचने के लिए मिसेज दास के चैम्बर का दरवाजा खोल अंदर घुस गया।

''सर....।'' उसे पीछे से सोहन लाल की आवाज सुनाई दी।

''सॉरी सोहन....।'' चैम्बर के अंदर से चन्द्रभूषण चीखा।
* * * * *

फोन डी.पी. मीणा का था।

''गुड आफ्टर नून सर।'' चन्द्रभूषण आवाज पहचान गया था।

''मिसेज दास आ गयीं ?'' गुनगुनाते-से स्वर में मीणा ने पूछा।

''अभी नहीं सर।''

''कोई सूचना?''

''नहीं सर।''

मीणा चुप रहा।

''आते ही मैं बता दूंगा सर।''

''हूं ऊं...।''

''सर, आप अपना फोन नंबर दे दें.... आते ही मैं मैडम से बात करवा दूंगा।'' चन्द्रभूषण ने याद किया पहले भी वह फोन नंबर मांग चुका था।

मीणा ने बिना कोई उत्तर दिए फोन काट दिया।

मिसेज दास के ऑफिस पहुचने के समय सोहन लाल मोटरसाइकल पर बैठा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। सी-ब्लॉक के गेट के बाहर जैसे ही उसे दफ्तर की एम्बेसडर दिखी, वह मोटर सायकल से उछलकर नीचे गूदा और गेट से कैण्टीन को जाने वाली सड़क पर आ गया। ड्राइवर ने मिसेज दास के चैम्बर के दरवाजे के ठीक सामने गाड़ी रोकी और बैठा रहा। सोहन लाल ने आगे बढ़कर ''नमस्ते मैम'' कहा और अटैंशन की मुद्रा में खड़े होकर गाड़ी का पिछला दरवाजा खोला। मिसेज दास उतरीं तो दरवाजा बंदकर वह उनके साथ तेजी से चल पड़ा, क्योंकि उसे चैम्बर का दरवाजा खोलना था। मिसेज दास से आगे हो उसने चेैम्बर का दरवाजा खोला, एक नम्बर पर पंखा चलाया और चैम्बर के एक कोने पर तिपाई पर रखे जग से पानी गिलास में ढाल गिलास मिसेज दास की टेबल पर ठीक उनके सामने रख वह फिर बाहर की ओर लपका। गाड़ी से उसे मिसेज दास का ब्रीफकेस और लंच बॉक्स लाना था।

चैम्बर में पहुंच मिसेज दास सीधे बाथरूम गईं।

ड्राइवर ब्रीफकेस पकड़े नीचे खड़ा था। सोहन लाल को देखते ही भुनभुनाया, 'तेरे को कितनी मर्तबा बोला कि ब्रीफकेस लेकर जाया कर। धूप में कितनी देर से खड़ा हूं.... तेरे भेजे में बात समाती क्यों नहीं?''
''तू नहीं ला सकता था?'' सोहन लाल भी अकड़ गया।

''मैं तेरा ड्राइवर हूं?''

''मैडम का तो है.... उनका ब्रीफकेस है... मेरा नहीं...।''

''तू मूझे बताएगा, मैं किसका ड्राइवर हँ ....तू बताएगा।''

''मैं क्यों बताऊंगा....यह तो दफ्तर में दर्ज है... बल्कि डिपार्टमेण्ट में दर्ज है कि तू ड्राइवर है... और किसका है यह तुझे पता है....।''

''तू आजकल घनी बकवास करने लगा है। मेैं कहे देता हूं.... अपनी औकात में रह...तू चपरासी है और चपरासी रह...अफसर मत बन...वर्ना अच्छा न होगा...।''

''राणा, तू पीकर आया है?'' सोहन लाल ने चुटकी ली।

''हां पीकर आया हूं...तेरे बाप की पी?''

''बकवाद मत कर बचन सिंह राणा...औकात पहचान तू भी...तू ड्राइवर है और वही रहेगा, लेकिन मैं यू.डी.सी. तक पहुंचूंगा...समझा और सुन...तू क्या मैडम के घर से ब्रीफकेस उठाकर गाड़ी में नहीं रखता होगा...फिर..?'' सोहन लाल ने आगे की सीट पर रखा लंच बॉक्स उठाया और राणा के हाथ से ब्रीफकेस झटक चैम्बर की ओर बढा।

''स्साली शाम होने को आई.....न पानी नसीब न खाना और ऊपर से चपरासियों की धौंस सुनो...।'' राणा बुदबुदाया, ''सुने मेरा 'ये'...।'' गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए आखिरी शब्द उसने इतना ऊंचा बोला कि सोहन लाल सुन ले।

''मैं सुबह से अब तक छप्पन भोग लगाता रहा हूं यहां मोटर साइकल पर बैठा...।'' चैम्बर की ओर बढ़ते हुए सोहन लाल ने भी ऊंची आवाज में कहा और गाड़ी की ओर देखा।

बचन सिंह राणा पार्किगं में ले जाने के लिए गाड़ी घुमा रहा था।

ब्रीफकेस मिसेज दास की टेबल के साथ बने रैक पर रख सोहन लाल लंच बॉक्स पकड़े खड़ा रहा। मिसेज दास बाथरूम में थीं और फ्लश चलने की आवाज सोहन लाल को स्पष्ट सुनाई दे रही थीं। लगभग दस मिनट बाद मिसेज दास बाथरूम-कम टॉयलेट से बाहर निकलीं। लेकिन अपने पीछे दरवाजा खुला छोड़ आयीं। लंच बॉक्स मेज पर रख सोहन लाल ने तेजी से बढ़कर बाथरूम का दरवाजा बंद किया। तब तक दास कुर्सी पर बैठ चुकी थीं। सोहन लाल जितनी तेजी से बाथरूम का दरवाजा बंद करने गया उतनी ही तेजी से पलट आया और लंच बॉक्स उठाता हुआ बोला, ''मैम, लंच लगा दूं?''

आम दिनों में वह ऐसा नहीं कहता। एक बजते ही वह प्लेटें, छुरी-कांटे, नमक-कालीमिर्च की डिब्बियां, पानी का गिलास और लंच बॉक्स सोफे के साथ पड़ी टेबल पर चुपचाप रख जाता, लेकिन उस दिन बात कुछ और थी। मिसेज दास से पूछना आवश्यक होता, जब वह लंच के बाद दफ्तर आतीं। शुरू में वह गलती कर चुका था। तब मिसेज दास पोस्टिगं में आयी ही थीं और उस दिन की भांति ही विलंब से दफ्तर पहुची थीं। वह सदैव अपना लंच घर से लेकर आती थीं। लेकिन मीटिगं में हेडक्वार्टर आफिस जाने या किसी से मिलने जाने पर प्राय: लंच वहीं करना होता तब अपना लंच वह घर वापस ले जातीं। रात मेड माया या लेब्रा साशा के काम आ जाता था वह।

पहली बार विलंब से आने पर सोहन लाल ने बिना पूछे उनका लंच सजा दिया था। मिसेज दास ने उसे बुलाकर हटवाया भी नहीं। शाम तक जब वह यों ही सजा रहा तब सोहन लाल ने साहस जुटा विनम्रतापूर्वक पूछा, ''मैडम, आपने लंच....।''

''लगाने से पहले तुमने पूछा था?''

सोहन लाल चुप। पूछता वह कभी नहीं, फिर उस दिन क्यों पूछता, वह कहना चाहता था, लेकिन कहां वह चपरासी... डिपार्टमेण्ट में सबसे नीचे पायदान पर खड़ा और कहां निदेशक ... डिपार्टमेण्ट में सबसे ऊपर के पायदान से दो सीढ़ियां नीचे बैठे व्यक्ति से वह कैसे पूछ सकता था।

''वापस गाड़ी में रख देना।'' मिसेज दास ने कहा था।

''जी मैम।'' सोहन लाल जाने के लिए वापस मुड़ा।

''चन्द्रभूषण आया है?''

''जी मैम।''

''भेज दो।''

''जी मैम।''

बिना आवाज दरवाजा खोल सोहन लाल लंच बॉक्स पकड़े बाहर निकल गया।

एक मिनट बाद शार्ट हैण्ड नोट बुक, पेंसिल और कुछ डाक संभाले चन्द्रभूषण, ''गुड आफ्टर नून मैम' कहता चैम्बर में प्रविष्ट हुआ और डाक मिसेज दास की टेबल पर रखकर अटैंशन की मुद्रा में खड़ा हो गया।

''कोई डाक पैड नहीं है?'' उस दिन के टाइम्स ऑफ इंडिया पर नजर दौड़ाती मिसेज दास बोलीं। तीन अखबार......टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दू और इकोनॉमिक टाइम्स' सुबह नौ बजे से पहले हिन्दी अधिकारी उनकी मेज पर रख जाता था। उसका काम था, दफ्तर के सभी अधिकारियों के पास सुबह दफ्तर खुलने से पहले अखबार पहुंचाना। यह आदेश सरकार के थे कि अफसरों को उनके पदानुसार एक से तीन अखबार और पत्रिकाएं सरकारी खर्च पर दी जायें। सरकारें अफसरों से चलती हैं और अफसरों को अखबार जैसी चीजें खरीदने की चिन्ता से मुक्त रखना सरकारें अपना कर्तव्य समझती हैं।

''जी, आपके पास सबमिट है मैंम।''

''फिर उसमें क्यों नहीं रख रहे...?'' अखबार पर नजरें गड़ाए हुए ही दास बोलीं।

''सॉरी मैम।'' और चन्द्रभूषण पैड खोलकर डाक उसमें रख उसे बांधने लगा।

''ये लिफाफे कौन खोलेगा?''

''सॉरी मैम।'' चन्द्रभूषण ने पुन: क्षमा मांगी और लिफाफे निकाल उन्हें खोलने लगा। तभी ड्राअर से कैंची निकाल उसकी ओर बढ़ती दास बोलीं, ''इससे काटकर लेटर बाहर निकालो... कहीं फाड़ न देना।''

''जी मैम।'' कैंची से लिफाफे काट पत्र बाहर निकालकर डाक पैड में रखते हुए चन्द्रभूषण सोचता रहा, 'लगता है मैडम का मूड कुछ उखड़ा हुआ है।' लेकिन तभी सोचा, 'सीधे कहां बोलती हैं... सदैव भोहें चढ़ी रहती हैं।'

'बताऊं अभी...बताना तो होगी ही।' वह पुन: सोचने लगा।

पत्र डाक पैड में रख उसे बांध चन्द्रभूषण ने डाक पैड फाइलों के ऊपर रखा, कैंची मिसेज दास के सामने बिना आवाज टेबल पर रखे शीशे के ऊपर रख, खाली लिफाफों को पकड़े अटैंशन की मुद्रा में खड़ हो गया।

मिसेज दास की नजरें अखबार पर गड़ी थीं।

'बताऊं...?' चन्द्रभूषण पशोपेश में था।

तभी फोन की घण्टी बजी। मिसेज दास ने इशारा किया कि वह उठाए। जैसे ही चन्द्रभूषण फोन उठाने के लिए आगे बढ़ा दास ने टोका, ''हेडक्वार्टर ऑफिस से हो तो ही मुझे देना... अन्यथा कह देना मैं मिनिस्ट्री से लौटी नहीं हूं.....मीटिंग के लिए गई हूं।''

निर्देश सुन चन्द्रभूषण ने फोन उठाया। डी.पी. मीणा था।

''कौन..?''

''नमस्कार सर, मैं चन्द्रभूषण सर।''

दिन में किसी अफसर के कितनी ही बार फोन आने पर हर बार चन्द्रभूषण को उससे नमस्कार, गुड मार्निंग, आफ्टर नून सर कहना होता। यही सरकारी कायदा था। वही नहीं, अफसर भी एक ही अफसर के अनेकों फोन आने पर...भले ही पांच मिनट बाद आए... उससे इसी प्रकार बातें करते थे। ऐसा न करना अशिष्टता माना जाता था।

''चन्द्रभूषण।'' चन्द्रभूषण ने इस बार शहद सना स्वर सुना, ''मैडम का कुछ अता-पता....?''

''नहीं मालूम सर....कोई सूचना नहीं।''

''यार, कैसे पी.ए. हो...पता करो...थाने जाकर रपट दर्ज करवाओ...।' और डी.पी. मीणा का अट्टहास सुना चन्द्रभूषण ने, लेकिन चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आने दी।

मिसेज दास रह-रहकर अखबार से नजरें हटाकर उसकी ओर देखती जा रही थीं।

''आते ही बता दूंगा सर।''

''कोई नहीं....बता देना मेरा फोन था... और यह भी कि शाम छ: बजे की मेरी फ्लाइट है।''

''श्योर सर।''

उधर से फोन कट गया।

''किसका था?''

''मीणा सर थे।'' चन्द्रभूषण ने मिसेज दास की ओर उड़ती नजर डाली और सामने रखे कंप्यूटर की ओर देखने लगा।

मिसेज दास ने अखबार मेज पर रखा और बोलीं,''सिट डाउन।''

कुर्सी पर बैठता हुआ चन्द्रभूषण बोला, ''मीणा सर कह रहे थे कि छ: बजे की उनकी फ्लाइट है।''

दास का चेहरा भाव-हीन रहा। कोई प्रतिक्रिया न दे वह ब्रीफकेस से एक फाइल निकाल उसे खोलते हुए बोलीं, ''टेक डिक्टेशन।''

चन्द्रभूषण अस्त-व्यस्त हो उठा। उसने तेजी से कॉपी खोली, पेंसिल संभाली, कॉपी के कुछ पेज मोड़े जिससे तेजी से लिखते समय पन्ना पलटने में आसानी रहे और डिक्टेशन के लिए तैयार हो तनकर बैठ गया।

''रिस्पेक्टेड सर.... द मैटर वाज डिस्कस्ड विद द एडीशनल सेक्रेटरी ...विदिन ब्रैकेट पी...।''
डिक्टेशन जब समाप्त हुआ, शाम सात बज रहे थे।

''इसे टाइप करके मेरी टेबल पर रख जाना और जाकर ड्राइवर को बोलो कि गाड़ी लगाए।''और मिसेज दास बाथरूम चली गईं।

ड्राइवर चन्द्रभूषण के केबिन में ही बैठा था।

''राणा, गाड़ी लगा दो।'' ड्राइवर को देख चन्द्रभूषण बोला।

''मैडम जा रही हैं सर?'' सोहन लाल ने मिसेज दास के चैम्बर के बाहर की लाल बत्ती बुझाकर हरी बत्ती जलाई और चन्द्रभूषण के पास आकर पूछा।

''हां...।''

''आप नहीं जा रहे सर?'' चन्द्रभूषण को टाइप करने के लिए बैठता देख सोहन लाल ने पूछा।

''मुझे अभी लोहा पीटना है।''

''लोहा तो अब नहीं पीटते सर। अब कंप्यूटर बाबा हैं न...।''

चन्द्रभूषण कुछ नहीं बोला। राणा जा चुका था। सोहन लाल फ्रिज से, जो चन्द्रभूषण के केबिन के बाहर रखा हुआ था, लंच बॉक्स निकाल रहा था और गुनगुना रहा था, ''लागा झुलनियां का धक्का...बलम कलकत्ता चले।''

मिसेज दास ने घण्टी बजायी। सोहन लाल लंच बॉक्स पकड़े दौड़कर गया। पांच मिनट बाद वह लौट भी आया और चन्द्रभूषण से बोला, ''सर अपन भी चले।''

''मैडम का कमरा कौन बंद करेगा?''

''मैं...।''

''कमरा अभी नहीं बंद करना।''

''क्यों सर?''

''यह लेटर टाइप करके मैडम की टेबल पर रखना है।''

''सोमवार को सुबो आके रख देना सर।''

''सोमवार की सुबह किसने देखी है..... आज शुक्रवार है...फिर दो दिन की छुट्टी... मैं सोमवार को न आ पाऊं...।''

''आएगें क्यों नहीं सर?''

''क्योंकि मर भी सकता हूं....कुछ भी हो सकता है...।''

''सर, ऐसा न बोलें...। आप सोमवार आएगें....हम सभी आएगें और सर....'' आवाज धीमी करके सोहन लाल बोला, ''सर, अगर मरना ही हो तो विपिन कुमार मरे.... दफ्तर को तंग कर रखा है उसने.... आप क्यों मरें सर...।''

चन्द्रभूषण टाइप करता रहा। एक स्थान पर उसे अपना शार्टहैण्ड में लिखा शब्द पकड़ में नहीं आ रहा था। देर तक बैठा सोचता रहा और सोहन लाल उसे देखता रहा खड़ा, लेकिन बहुत माथा-पच्ची करने के बाद भी जब शब्द पकड़ में नहीं आया तब उसने उस शब्द के लिए स्थान रिक्त छोड़ दिया और आगे टाइप करने लगा।

चन्द्रभूषण को पुन: टाइप करता देख सोहन लाल बोला, ''तो मैं चलूं सर!''

चन्द्रभूषण टाइप करता रहा। बोला नहीं।

''सर मैं शोभाराम को बोल देता हूं। उसकी क्लोजिंग है। एडमिन में बैठा है। वह मैडम का कमरा बंद कर देगा।''

''ओ.के.।''

''गुड नाइट सर।'' चन्द्रभूषण की ओर देखे बिना सोहन लाल आगे बढ़ गया।

चन्द्रभूषण को गैलरी में सोहनलाल के जाने की आवाज सुनाई देती रही कुछ देर तक।

एडमिन सेक्शन में दो लोगों के बातें करने की आवाजें आ रही थीं। चन्द्रभूषण ने पहचाना उनमें एक शोभाराम और दूसरा उसी सेक्शन का बाबू राकेश गुप्ता था। उनके अतिरिक्त पूरा दफ्तर जा चुका था। उन दोनों की ड्यूटी दफ्तर बंद करवाकर सेक्योरिटी में चाबी जमा करने की थी।

साढ़े सात बजे शोभाराम चन्द्रभूषण के केबिन में आया और बोला,''सर, पूरा दफ्तर खाली है....।''
''हुंह...।'' 'सिन्सेरिटी' की स्पेलिगं को लेकर चन्द्रभूषण द्विविधा में पड़ गया था और आगे टाइप करना रोककर कंप्यूटर में पड़ी डिक्शनरी में उस शब्द की सही स्पेलिंग देखना चाह रहा था, लेकिन डिक्शनरी उसे मिल नहीं रही थी। उसे खीज हुई। वह 'ई' और 'आई' को लेकर पशोपेश में था।

''सर...।''

''क्या है....क्यों दिमाग खराब कर रहा है?''

''सर, मैंने कहा....।''

''कह न .... क्या कहा था?''

''सर, साढ़े सात बज चुके....दफ्तर खाली हो चुका कब का....।''

''तुम्हें किसने रोका हुआ है?''

''सर, आपके कारण...।''

चन्द्रभूषण ने एक बार सोचा कि उस शब्द का स्थान भी वह रिक्त छोड़ दे, लेकिन तत्काल यह विचार आते ही कि शायद राकेश गुप्ता उसकी द्विविधा दूर कर दे उसने कागज के टुकड़े पर हिन्दी में 'सिन्सेरिटी' लिखा और शोभाराम को देकर कहा, ''जाकर गुप्ता जी से इसकी स्पेलिगं लिखवा लाओ।''

''जी सर।'' शोभाराम जब चलने लगा वह बोला, ''अभी आध घण्टा का काम है।''

शोभाराम बिना उत्तर दिए चला गया। उस शब्द के लिए रिक्त स्थान छोड़ उसने आगे टाइप करना प्रारंभ कर दिया। अभी उसने एक पंक्ति भी पूरी टाइप नहीं की थी कि राकेश गुप्ता आकर खड़ा हो गया,


''चन्द्रभूषण जी, आपने मुझे भी कन्फ्यूज कर दिया।''

''कोई गल्ल नहीं।'' टाइप करते हुए चन्द्रभूषण बोला,''याद आ गई....।'' उसने हाथ रोका और बोला, ''एस आई एन.सी ई आर आई टी वाई ।''

''फिर तो मैं सही था.... ये देखिये ...यही लिख लाया था।'' गुप्ता ने कागज का टुकड़ा चन्द्रभूषण की ओर बढ़ाते हुए कहा।

''गुप्ता जी, आप सही क्यों न होगें...अंग्रेजी में एम.ए. जो हैं...वह भी आगरा विश्वविद्यालय से।'' पुन: टाइपिगं प्रारंभ करते हुए चन्द्रभूषण बोला।

''इस क्लर्की में सब एम.ए. सेम.ए. ऐसी-तैसी में मिल गए चन्द्रभूषण जी...वर्ना मैं भी आदमी था काम का....।'' चन्द्रभूषण के सामने पड़ी कुर्सी पर बैठता हुआ गुप्ता बोला।

''मुझे अफसोस होता है आपके विषय में सोचकर।'' सेकेण्ड के लिए काम रोका चन्द्रभूषण ने, ''आज आप किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर होते।''

''कहीं प्रोफेसर होता या नहीं, लेकिन जिस कॉलेज में था..... कानपुर के डी.ए.वी. कॉलेज में.... रीडर के पद पर तो अवश्य होता।'' गुप्ता के चेहरे पर मायूसी छा गई।

''बुरा न मानें तो एक बात कहूं?''

''बुरा क्यों मानना।''

''आप प्रतिबद्ध न थे अध्यापन के प्रति....।''

''वह बात नहीं चन्द्रभूषण जी...होता नही ंतब ज्वायन ही क्यों करता वहां, लेकिन पारिवारिक स्थितियां ऐसी थीं कि विवश होकर इस डिपार्टमेण्ट में आना पड़ा। एक ऑडिटर (यू.डी.सी.) का वेतन तब एक लेक्चरर से अधिक था। दूसरा कारण यह था कि मैं तब लीव वेकेन्सी में था वहां .... जिनकी जगह था वह दो वर्ष के लिए स्टडी लीव पर थे....।''

''उनके आने के बाद आप खाली थोड़े ही रहते....।'' टाइप करते हुए ही चन्द्रभूषण बोला, ''दो वर्ष का अनुभव काम आता... कहीं रेगुलर लग जाते। कहीं क्या वहीं लग सकते थे।''

''घर वालों का दबाव था कि जब एक परमानेण्ट नौकरी मिल रही है और प्राध्यापकी से अधिक वेतन की तब मुझे उसे ही पकड़ना चाहिए और मैंने डी.ए.वी. छोड़ दिया। मेरे छोड़ते ही तीन दिन के अंदर उन्होंने दूसरे बंदे को रख लिया था। आज वह सीनियर रीडर है वहां।''

''होगा ही....आपसे अधिक नौकरी करेगा। सारी जिन्दगी पढ़ाने के नाम पर मौज की होगी उसने ....और आप नौकरी लगने के बाद चार स्टेशन देख आए....आज तक कहीं सेटल नहीं हुए....सरकारी मकान न होता तो किसी मकान मालिक की धोंस सह रहे होते...।''

''अब बीती को रोने से बात नहीं बनने वाली चन्द्रभूषण जी।'' गुप्ता उठा। चन्द्रभूषण ने देखा उसका चेहरा मुर्झाया हुआ था।

''अभी कितना रह गया?'' गुप्ता ने पूछा।

चन्द्रभूषण ने शार्टहैण्ड नोट बुक के पन्ने गिने...पांच...फिर बोला, ''पांच पेज हैं ....दस मिनट से अधिक न लगेगें।''

तब तक मैं दफ्तर के सभी कमरे चेक करके आता हूं। कोई खुला न छूट गया हो।''
गुप्ता चन्द्रभूषण के केबिन से निकला ही था कि फोन घनघना उठा। चन्द्रभूषण ने झटके से फोन उठाया और छूटते ही बोला, ''गुड इवनिगं मैम।''

राकेश गुप्ता रुक गया।

''सॉरी...।''चन्द्रभूषण बोला, ''आप कहां से बोल रहे हैं?''

फोन मेरठ से था...सुधांशु कुमार दास के कार्यालय से।

''जी सर....।'' चन्द्रभूषण के चेहरे का रंग उड़ गया था, ''जी मैम को गये डेढ़ घण्टा से ऊपर हो गया सर....घर नहीं पहुंची होंगीं।...पता नहीं सर। मेड तो है...हो सकता है वह मार्केट गई हो...।'' चन्द्रभूषण रुका और उधर की बात सुनने लगा, ''वेरी सैड सर, मैं मैडम से संपर्क करके उन तक सूचना पहुचाने का प्रयत्न करूंगा सर।''

उधर से कुछ कहा गया।

''श्योर सर।''

बात कर चन्द्रभूषण कुर्सी पर पसर गया, ''एक और मुसीबत गुप्ता जी।''

''कोई खास बात?''

''यहां आम बात कुछ होती भी है? मैंने पता नहीं किस घड़ी यह घटिया नौकरी करने का विचार किया था।''

''दुखी क्यों हो रहे हैं...बात क्या है?''

''गुप्ता जी, दास साहब ...यानी सुधांशु कुमार दास को हार्ट अटैक हुआ है... मेरा खयाल है यह उनका तीसरा अटैक है... वे लोग एक घण्टा से मैडम दास के बंगले पर फोन ट्राई कर रहे हैं...वहां कोई है नहीं शायद।''

''फिर?''

''खबर तो भिजवानी ही होगी...दास साहब के कार्यालय का सहायक निदेशक बोल रहा था।''

''लेकिन मैडम को फोन क्यों किया?''

''क्योंकि वह अभी भी उनकी बीबी हैं।''

''मतलब अभी तलाक नहीं हुआ?'' राकेश गुप्ता चन्द्रभूषण की ओर और झुक गया।

''इससे हमें-तुम्हें क्या? हो या ना हो...फोन आया है तो सूचना तो देनी ही होगी...तीसरा अटैक है....।''

''ड्रग्स ...ड्रिंक ...सुधांशु सर ने अपने को तबाह कर लिया चन्द्रभूषण जी...।'' राकेश गुप्ता पुन: कुर्सी पर बैठ गया,''आप यकीन नहीं करेंगे...जीनियस इंसान थे वह ...ब्रिलियण्ट...अच्छा लेखक-कवि भी...अंग्रेजी में लेख और हिन्दी में कविताएं लिखते थे सुधांशु सर...हिन्दू और टाइम्स ऑफ इंडिया में उनके लेख छपते थे...हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं। लेकिन यह सब बाइस-तेईस साल पहले की बात होगी...हो सकता है उससे भी अधिक समय हुआ हो...मैं तब पटना पोस्टेड था और वह मेरे बॉस थे। मैडम की तब एंट्री हुई थी डिपार्टमण्ट में....ट्रेनिगं में आयी थीं वहां...।''

''तो दोनो की शादी बाद में हुई थी?''

''नहीं जी...पहले ही हो चुकी थी। मैडम शादी के बाद आई.ए.एस. अलाइड में आईं....बस उसके बाद....।''


राकेश गुप्ता अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया कि फोन की घण्टी पुन: घनघनाई।

''जी..चन्द्रभूषण...मिसेज प्रीति दास का पी.ए.....।''

''सर आदमी भेज रहा हूं... ..जी बोलिए सर।'' और चन्द्रभूषण फोन करने वाले का फोन नंबर लिखने

लगा।

फोन कट गया तो चन्द्रभूषण ने गुप्ता से कहा, ''गुप्ता जी, शोभाराम को पैसे देकर मैडम के यहां दास साहब की सूचना देने के लिए दौड़ा दीजिए.... वह मेरठ मेडिकल कॉलेज में भर्ती हैं। वहीं के सहायक निदेशक प्रशासन का फोन नंबर दे रहा हूं। अधिक जानकारी उनसे मिल जाएगी।'' चन्द्रभूषण ने पर्स से पचास का नोट निकाला और राकेश गुप्ता को देकर कहा, ''तब तक मैं इसे समाप्त करता हूं।''

''ओ.के. सर।'' पचास का नोट लेकर गुप्ता शोभाराम को खोजने चला गया जो कमरों के ताले चेक कर रहा था।

******