बुधवार, 19 नवंबर 2008

लघु कहानियां








सुधा ओम ढींगरा की दो लघु कहानियां

लड़की थी वह------

कड़ाकेदार सर्दी की वह रात थी. घर के सभी सदस्य रजाइयों में दुबके पड़े थे. दिन भर से बिजली का कट था जो पंजाब वासियों के लिए आम बात है. इन्वर्टर से पैदा हुई रौशनी में खाने पीने से निपट कर, टी.वी न देख पाने के कारण समय बिताने के लिए अन्ताक्षरी खेलते-खेलते सब सर्दी से ठिठुरते रजाइयों में घुस गए थे. दिसम्बर की छुट्टियों में ही हम दो तीन सप्ताह के लिए भारत जा पातें हैं. बेटे की छुट्टियां तभी होतीं हैं. दूर दराज़ के रिश्तेदारों को पापा घर पर ही मिलने के लिए बुला लेतें हैं. उन्हें लगता है कि हम इतने कम समय में कहाँ-कहाँ मिलने जायेंगे. मिले बिना वापिस भी नहीं आया जाएगा. हमारे जाने पर घर में खूब गहमागहमी और रौनक हो जाती है. बेटे को अमेरिका की शांत जीवन शैली उपरांत चहल-पहल बहुत भली लगती है. हर साल हम से पहले भारत जाने के लिए तैयार हो जाता है. दिन भर के कार्यों से थके मांदे रजाइयों की गर्माहट पाते ही सब सो गए. करीब आधी रात को कुत्तों के भौंकनें की आवाज़ें आनी शुरू हुई...आवाज़ें तेज़ एवं ऊंचीं होती गईं. नींद खुलनी स्वाभाविक थी. रजाइयों को कानों और सिर पर लपेटा गया ताकि आवाज़ें ना आयें पर भौंकना और ऊंचा एवं करीब होता महसूस हुआ जैसे हमारे घरों के सामने खड़े भौंक रहें हों.....हमारे घरेलू नौकर-नौकरानी मीनू- मनु साथवाले कमरे में सो रहे थे. उनकी आवाज़ें उभरीं--'' रवि पाल (पड़ौसी) के दादाजी बहुत बीमार हैं, लगता है यम उन्हें लेने आयें हैं और कुत्तों ने यम को देख लिया है ''''नहीं, यम देख कुत्ता रोता है, ये रो नहीं रहे ''''तो क्या लड़ रहें हैं''''नहीं लड़ भी नहीं रहे '''''ऐसा लगता है कि ये हमें बुला रहें हैं''''मैं तो इनकी बिरादरी की नहीं तुम्हीं को बुला रहे होंगें''बाबूजीकी आवाज़ उभरी---मीनू, मनु कभी तो चुप रहा करो. मेरा बेटा अर्धनिद्रा में ऐंठा--ओह! गाश आई डोंट लाइक दिस. तभी हमारे सामने वाले घर का छोटा बेटा दिलबाग लाठी खड़काता माँ बहन की विशुद्ध गालियाँ बकता अपने घर के मेनगेट का ताला खोलने की कोशिश करने लगा. जालंधर में चीमा नगर (हमारा एरिया)बड़ा संभ्रांत एवं सुरक्षित माना जाता है. हर लेन अंत में बंद होती है. बाहरी आवाजाई कम होती है. फिर भी रात को सभी अपने-अपने मुख्य द्वार पर ताला लगा कर सोते हैं.उसके ताला खोलने और लाठी ठोकते बहार निकलने की आवाज़ आई. वह एम्वे का मुख्य अधिकारी था और पंजाबी की अपभ्रंश गालियाँ अंग्रेज़ी लहजे में निकल रहीं थीं. लगता था रात पार्टी में पी शराब का नशा अभी तक उतरा नहीं था. अक्सर पार्टियों में टुन होकर जब वह घर आता था तो ऐसी ही भाषा का प्रयोग करता था. उसे देख कुत्ते भौंकते हुए भागने लगे, वह लाठी ज़मीन बजाता लेन वालों पर ऊंची आवाज़ में चिल्लाता उनके पीछे-पीछे भागने लगा ''साले--घरां विच डके सुते पए ऐ, एह नई की मेरे नाल आ के हरामियां नूं दुड़ान- भैन दे टके. मेरे बेटे ने करवट ली--सिरहाना कानों पर रखा--माम, आई लव इंडिया. आई लाइक दिस लैंगुएज. मैं अपने युवा बेटे पर मुस्कुराये बिना ना रह सकी, वह हिन्दी-पंजाबी अच्छी तरह जानता है और सोए हुए भी वह मुझे छेड़ने से बाज़ नहीं आया. मैं उसे किसी भी भाषा के भद्दे शब्द सीखने नहीं देती और वह हमेशा मेरे पास चुन-चुन कर ऐसे-ऐसे शब्दों के अर्थ जानना चाहता है और मुझे कहना पड़ता है कि सभ्य व्यक्ति कभी इस तरह के शब्दों का प्रयोग नहीं करते. दिलबाग हमारे घर के साथ लगने वाले खाली प्लाट तक ही गया था( जो इस लेन का कूड़ादान बना हुआ था और कुत्तों की आश्रयस्थली) कि उसकी गालियाँ अचानक बंद हो गईं और ऊँची आवाज़ में लोगों को पुकारने में बदल गईं --जिन्दर, पम्मी, जसबीर, कुलवंत, डाक्डर साहब(मेरे पापा)जल्दी आयें. उसका चिल्ला कर पुकारना था कि हम सब यंत्रवत बिस्तरों से कूद पड़े, किसी ने स्वेटर उठाया, किसी ने शाल. सब अपनी- अपनी चप्पलें घसीटते हुए बाहर की ओर भागे. मनु ने मुख्य द्वार का ताला खोल दिया था. सर्दी की परवाह किए बिना सब खाली प्लाट की ओर दौड़े. खाली प्लाट का दृश्य देखने वाला था. सब कुत्ते दूर चुपचाप खड़े थे. गंद के ढेर पर एक पोटली के ऊपर स्तन धरे और उसे टांगों से घेर कर एक कुतिया बैठी थी. उस प्लाट से थोड़ी दूर नगरपालिका का बल्ब जल रहा था. जिसकी मद्धिम भीनी-भीनी रौशनी में दिखा कि पोटली में एक नवजात शिशु लिपटा हुआ पड़ा था और कुतिया ने अपने स्तनों के सहारे उसे समेटा हुआ था जैसे उसे दूध पिला रही हो. पूरी लेन वाले स्तब्ध रह गए. दृश्य ने सब को स्पंदनहीन कर दिया था. तब समझ में आया कि कुत्ते भौंक नहीं रहे थे हमें बुला रहे थे.''पुलिस बुलाओ '' एक बुज़ुर्ग की आवाज़ ने सब की तंद्रा तोड़ी. अचानक हमारे पीछे से एक सांवली पर आकर्षित युवती शिशु की ओर बढ़ी. कुतिया उसे देख परे हट गई. उसने बच्चे को उठा सीने से लगा लिया. बच्चा जीवत था शायद कुतिया ने अपने साथ सटा कर, अपने घेरे में ले उसे सर्दी से यख होने से बचा लिया था. पहचानने में देर ना लगी कि यह तो अनुपमा थी जिसने बगल वाला मकान ख़रीदा है और अविवाहिता है. सुनने में आया था की गरीब माँ-बाप शादी नहीं कर पाए और इसने अपने दम पर उच्च शिक्षा ग्रहण की और स्थानीय महिला कालेज में प्राध्यापिका के पद पर आसीन हुई. यह भी सुनने में आया था कि लेन वाले इसे संदेहात्मक दृष्टि से देखतें हैं. हर आने जाने वाले पर नज़र रखी जाती है. लेन की औरतें इसके चारित्रिक गुण दोषों को चाय की चुस्कियों के साथ बखान करतीं हैं. जिस पर पापा ने कहा था'' बेटी अंगुली उठाने और संदेह के लिए औरत आसान निशाना होती है. समाज बुज़दिल है और औरतें अपनी ही ज़ात की दुश्मन जो उसकी पीठ ठोकनें व शाबाशी देने की बजाय उसे ग़लत कहतीं हैं. औरत-- औरत का साथ दे दे तो स्त्रियों के भविष्य की रूप रेखा ना बदल जाए, अफसोस तो इसी बात का है कि औरत ही औरत के दर्द को नहीं समझती. पुरूष से क्या गिला? बेटा, इसने अपने सारे बहन-भाई पढ़ाये. माँ-बाप को सुरक्षा दी. लड़की अविवाहिता है गुनहगार नहीं.''''डाक्टर साहब इसे देखें ठीक है ना'' ---उसकी मधुर पर उदास वाणी ने मेरी सोच के सागर की तरंगों को विराम दिया. अपने शाल में लपेट कर नवजात शिशु उसने पापा की ओर बढ़ाया-- पापा ने गठरी की तरह लिपटा बच्चा खोला, लड़की थी वह------
दौड़

मैं अपने बेटे को निहार रही थी. वह मेरे सामने लेटा अपने पाँव के अंगूठे को मुँह में डालना चाहता था. और मैं उसके नन्हे-नन्हे हाथों से पाँव का अंगूठा छुड़ाने की कोशिश कर रही थी. उस कोशिश में वह मेरी अंगुली पकड़ कर मुँह में डालना चाहता था---चेहरे पर चंचलता, आँखों में शरारत, उसकी खिलखिलाती हँसी, गालों में पड़ रहे गड्डे--अपनी भोली मासूमियत लिए वह अठखेलियाँ कर रहा था और मैं निमग्न, आत्मविभोर हो उसकी बाल-लीलाओं का आन्नद मान रही थी की वह मेरे पास आ कर बैठ गई. मुझे पता ही नहीं चला. मैं अपने बेटे को देख सोच रही थी कि यशोदा मैय्या ने बाल गोपाल के इसी रूप का निर्मल आनन्द लिया होगा और सूरदास ने इसी दृश्य को अपनी कल्पना में उतारा होगा.उसने मुझे पुकारा--मैंने सुना नहीं--उसने मुझे कंधे पर थपथपाया तभी मैंने चौंक कर देखा--हंसती, मुस्कराती,सुखी,शांत, भरपूर ज़िन्दगी मेरे सामने खड़ी थी--बोली--''पहचाना नहीं?मैं भारत की ज़िन्दगी हूँ.'' मैं सोच में पड़ गई--भारत में भ्रष्टाचार है, बेईमानी है, धोखा है, फरेब है, फिर भी ज़िन्दगी खुश है. मुझे असमंजस में देख ज़िन्दगी बोली--''पराये देश, पराये लोगों में अस्तित्व की दौड़, पहचान की दौड़ दौड़ते हुए तुम भारत की ज़िन्दगी को ही भूल गई. मैं फिर सोचने लगी--भारत में गरीबी है, भुखमरी है, धर्म के नाम पर मारकाट है, ज़िन्दगी इतनी शांत कैसे है? जिंदगी ने मुझे पकड़ लिया--बोली--भारत की ज़िन्दगी अपनी धरती, अपने लोगों, आत्मीयता, प्यार-स्नेह , नाते-रिश्तों में पलती है. तुम लोग औपचारिक धरती पर स्थापित होने की दौड़ , नौकरी को कायम रखने की दौड़, दिखावा और परायों से आगे बढ़ने की दौड़---मैंने उसकी बात अनसुनी करनी चाही पर वह बोलती गई--कभी सोचा आने वाली पीढ़ी को तुम क्या ज़िन्दगी दोगी? इस बात पर मैंने अपना बेटा उठाया, सीने से लगाया और दौड़ पड़ी---उसका कहकहा गूंजा--सच कड़वा लगा, दौड़ ले, जितना दौड़ना है--कभी तो थकेगी, कभी तो रुकेगी, कभी तो सोचेगी-क्या ज़िन्दगी दोगी तुम अपने बच्चे को--अभी भी समय है लौट चल, अपनी धरती, अपने लोगों में......मैं और तेज़ दौड़ने लगी उसकी आवाज़ की पहुँच से परे--वह चिल्लाई--कहीं देर न हो जाए, लौट चल----मैं इतना तेज़ दौड़ी कि अब उसकी आवाज़ मेरे तक नहीं पहुंचती--पर मैं क्यूँ अभी भी दौड़ रहीं हूँ......

जालंधर(पंजाब) के साहित्यिक परिवार में जन्मी. एम.ए.,पीएच.डी की डिग्रियां हासिल कीं. जालंधर दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं रंगमंच की पहचानी कलाकार, चर्चित पत्रकार(दैनिक पंजाब केसरी जालंधर की स्तम्भ लेखिका).कविता के साथ-साथ कहानी एवं उपन्यास भी लिखती हैं. काव्य संग्रह--मेरा दावा है, तलाश पहचान की, परिक्रमा उपन्यास(पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद)एवं माँ ने कहा था...कवितायों की सी.डी. है. दो काव्य संग्रह एवं एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है. १)विश्व तेरे काव्य सुमन २)प्रवासी हस्ताक्षर ३)प्रवासिनी के बोल ४) साक्षात्कार ५)शब्दयोग ६)प्रवासी आवाज़ ७)सात समुन्द्र पार से८)पश्चिम की पुरवाई ९) उत्तरी अमेरिका के हिन्दी साहित्यकार इत्यादि पुस्तकों में कवितायें-कहानियों का योगदान. तमाम पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकीं हैं. हिन्दी चेतना(उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका) की सह- संपादक हैं. भारत के कई पत्र-पत्रिकाओं एवं वेब-पत्रिकाओं में छपतीं हैं. अमेरिका में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अनगिनत कार्य किये हैं. हिन्दी के बहुत से नाटकों का मंचन कर लोगों को हिन्दी भाषा के प्रति प्रोत्साहित कर अमेरिका में हिन्दी भाषा की गरिमा को बढ़ाया है. हिन्दी विकास मंडल(नार्थ कैरोलाइना) के न्यास मंडल में हैं. अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति(अमेरिका) के कवि सम्मेलनों की संयोजक हैं.
'प्रथम' शिक्षण संस्थान की कार्यकारिणी सदस्या एवं उत्पीड़ित नारियों की सहायक संस्था 'विभूति' की सलाहकार हैं.
Sudha Om Dhingra
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मंगलवार, 11 नवंबर 2008

कविता



अशोक आन्द्रे की पांच कविताएं

(१)

उम्मीद

जिस भूखण्ड से अभी
रथ निकला था सरपट
वहां पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,
नंगा कर गए थे उन पेड़ों को
हवा के बगुले
मई के महीने में.
पोखर में वहीं,
मछली का शिशु
टटोलने लगता है मां के शरीर को.
मां देखती है आकाश
और समय दुबक जाता है झाड़ियॊ के पीछे
तभी चील के डैनों तले छिपा
शाम का धुंधलका
उसकी आंखों में छोड़ जाता है कुछ अंधेरा
पीछे खड़ा बगुला चोंच में दबोचे.
उसके शिशु की
देह और आत्मा के बीच के
शून्य को निगल जाता है
और मां फिर से
टटोलने लगती है अपने पेट को .
(२)

तरीका

मुर्दे हड़ताल पर चले गए हैं
पास बहती नदी ठिठक कर
खड़ी हो गई है!
यह श्मशान का दृश्य है.
चांडाल,
आग को जेब में छिपाए
मन ही मन बुदबुदाने का ढोंग करता
मंत्र पढ़ने लगा है,
अवैध-अनौतिक पैसा ऎंठने का
शायद यह भी एक तरीका हो!

(३)

तथाकथित नारी

निष्प्राण हो जाती है
मूर्ति की तरह तथाकथित नारी
जबकि तूफान घेरता है उसके मन को,
यह इतिहास नहीं/जहां
कहानियों को सहेज कर रखा गया हो....
एक-एक परत को
उघाड़ा गया है दराती-कुदालों से,
ताकि उसकी तमाम कहानियों की गुफ़ा में
झांका जा सके,
ताकि उन कहानियों में दफ़्न
मृत आत्माओं की शांति के लिए
कुछ प्रार्थनाओं को मूर्त रूप दिया जा सके,
उस निष्प्राण होती मूर्ति के चारों ओर
जहां अंधेरा ज़रूर धंस गया है,
आखिर कला की अपराजेयता की धुंध तो
छंटनी ही चाहिए न,
ताकि मनुष्य के प्रयोजनों का विस्तार हो सके.
कई बार घनीभूत यात्राएं उसकी
संभोग से समायोजन करने तक
आदमी, कितनी आत्माओं का
राजतिलक करता रहता है
हो सकता है यह उसके
विजयपथ की दुंदुभि हो

लेकिन नारी का विश्वास मरता नहीं
धुंए से ढंकती महाशून्य की शुभ्रता को
आंचल में छिपा लेती है
उस वक्त समय सवाल नहीं करता
उस खंडित मूर्ति पर होते परिहासों पर
शायद शिल्पियों की निःसंगता की वेदना को
पार लगाने के लिए ही तो इस तरह
कालजयी होने की उपाधि से सुशोभित
किया जाता है उसे,
आखिर काल का यह नाटक किस मंच
की देन हो सकता,
आखि़र नारी तो नारी ही है न,
मनुष्य की कर्मस्थली का विस्तार तो नहीं न,
मूर्ति तो उसके कर्म की आख्याओं का
प्रतिरूप भर है
तभी तो उसका आवा से गमन तक का सफ़र
जारी है आज भी,
इसीलिए उसकी कथाएं ज़रूर गुंजायमान हैं
शायद यही उसका प्राण है युगांतक के लिए
जो धधकता है मनुष्य की देह में
अनंतता के लिए.

(४)

पता जिस्म का

एक जिस्म टटोलता है
मेरे अंदर तहखाने में छिपे, कुछ जज़्बात
जिनकी क़ीमत
समय ने अपने पांवों तले दबा रखी है
उस जिस्म़ की दो आंखें एकटक
दाग़ती हैं कुछ सवालों के गोले
जिन्हें मेरी गर्म सांसें धुंआ-धुंआ करती हैं
उनकी नाक सूंघंती है
मेरे आसपास के माहौल को
जिसका पता मेरे पास भी नहीं है.
उसके होंठ कुछ पूछने को
हिलते हैं आगाह करने के लिए
उसके कान मना कर देते हैं सुनने को,
मैं उस जिस्म़ की खुदाई करता हूं,
और खाली समय में ढूंढता हूं
अपने रोपे बीज को,
जो अंधेरे में पकड़ लेता है मेरा गला
पाता हूं कि वह और कोई नहीं,
मेरे ही जिस्म़ का पता है
जहां से एक नए सफ़र का दिया
टिटिमा रहा है

(५)

आंतरिक सुकून के लिए

एक पर्वत से दूसरे पर्वत की ओर
जाता हुआ व्यक्ति/कई बार फ़िसल कर
शैवाल की नमी को छूने लगता है.
जीवन खिलने की कोशिश में
आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में
अपने ही घर के रोशनदान की आंख को
फोड़ने लगता है

मौत जरूर पीछा करती है जीवात्माओं का
लेकिन जिन्दगी फिर भी पीछा करती है मौत का
सवारी गांठने के लिए,
सवारी करने की अदम्य इच्छा ही व्यक्ति को
उसकी आस्था के झंडे गाड़ने में मदद करती है.
कई बार उसे पूर्वजों द्वारा छोड़े गये,
सबसे श्रेष्ठ शोकगीत को,
गुनगुनाने के लिए लाचार भी होना पड़ता है.
जबकि समुद्र समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए
चिघाड़ता है अहर्निष,

आखिर व्यक्ति तो व्यक्ति ही है
इसलिए उसे गीत तो गाने ही पड़ेंगे
चाहे शुरू का हो या फिर/अंतिम यात्रा की बेला का,
क्योंकि कंपन की लय/टिकने नहीं देगी उसे,
जीवन उसे खामोश होने नहीं देगा
उत्तेजित करता रहे चीखने-चिल्लाने के लिए.
उसके आंतरिक सुकून के लिए.

३ मार्च, १९५१ को कानपुर (उत्तर प्रदेश) में जन्म. अब तक निम्नलिखित कृतियां प्रकाशित :
फुनगियों पर लटका एहसास, अंधेरे के ख़िलाफ (कविता संग्रह), दूसरी मात (कहानी संग्रह), कथा दर्पण (संपादित कहानी संकलन), सतरंगे गीत , चूहे का संकट (बाल-गीत संग्रह), नटखट टीपू (बाल कहानी संग्रह).

लगभग सभी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.

'साहित्य दिशा' साहित्य द्वैमासिक पत्रिका में मानद सलाहकार सम्पादक और 'न्यूज ब्यूरो ऑफ इण्डिया' मे मानद साहित्य सम्पादक के रूप में कार्य किया.

संपर्क : १८८, एस.एफ.एस. फ्लैट्स, पॉकेट - जी.एच-४, निकट मीरा बाग, पश्चिम विहार, नई दिल्ली - ११००६३.

फोन : ०१११-२५२६२५४४
मोबाईल : ०९८१८९६७६३२
०९८१८४४९१६५

सोमवार, 3 नवंबर 2008

उपन्यास अंश



शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास 'गुलाम बादशाह'
का एक अंश

उस दिन की सुबह

रूपसिंह चन्देल

उसके लिए उस दिन की सुबह और दिनों की सुबहों से अलग थी.

आसमान में तारे धूमिल पड़ रहे थे, लेकिन मकानों की छतों पर रात का धुंधलका पसरा हुआ था. उसने नीचे सड़क पर झांककर देखा, बिजली के खम्भों पर लट्टू जल रहे थे और गलियों में दिन भर धमा-चौकड़ी करने वाले कुत्ते चार मकान छोड़कर बिरला मिल की ओर मुड़ने वाली गली के मुहाने पर एक कुतिया को घेरे हुए खड़े थे. उसने गिनती की, छः थे. कुतिया घबड़ाई हुई थी. वह निकल भागने के प्रयास में असफल रहने पर ज्यादती के लिए तत्पर एक कुत्ते पर दांत किटकिटाती भूंकने लगती थी.

पांच मिनट छत पर टहलने के बाद उसने पुनः नीचे नजर दौड़ाई. धुंधलका तेजी से छट रहा था. उसे कुतिया थकी हुई दिखाई दी. गुर्राने और दांत किटकिटाने के बजाय अब वह दयनीय स्वर में किकियाने लगी थी. लेकिन कुत्तों को उस पर तरस नहीं आ रहा था. सभी उस पर अपना अधिकार जता रहे थे. परिणाम- स्वरूप वे आपस में ही भिड़ने लगे थे. कुतिया ने शायद स्थिति समझ ली थी और जैसे ही दो जोड़ों को एक-दूसरे पर आक्रमण-प्रत्याक्रमण करते उसने देखा, वह निकल भागी. दो कमजोर कुत्ते जो अपने साथियों को लड़ता देख खिसककर एक ओर खड़े हो गये थे, कुतिया के पीछे दौड़ पड़े थे. उस पर अधिकार मानने में वे अब तक अपने को असफल पा रहे थे. कुतिया का भाग निकलना लड़ रहे कुत्तों ने कुछ देर बाद अनुभव किया और आपस में एक दूसरे को लानत-मलानत भेजते हुए कहा, "स्सालो, हम आपस में लड़कर अपने सिर फोड़ रहे हैं और सिद्दी-पिद्दी उसे ले उड़े."

"हम लड़ें ही क्यों , अभी समझौता कर लेते हैं." एक बोला.

"क्या---- क्या करोगे समझौता?" कलुआ जो उनमें अधिक ताकतवर था गुर्राया.

"यही कि हमें एक-एक कर उससे मिलना चाहिए."
"हुंह." कलुआ ने सिर झिटका. उसका सिर अभी तक भिन्ना रहा था और उसका मन कर रहा था कि वह पास खड़े तीनों की मरम्मत कर दे.

'वह मेरे साथ थी और खुश थी. उसे कोई आपत्ति भी न थी, लेकिन इन स्सालों ने सारा गुड़ गोबर कर दिया. पता नहीं कहां गली से आ मरे. अब वह इतना घबड़ा गयी है कि शायद ही कभी मेरे साथ आये.' कलुआ ने सोचा और बोला, "चलकर देखते हैं वह गयी कहां?"

"हां" तीनों ने एक स्वर में कहा.

"लेकिन उससे मैं ही पहले मिलूंगा." कलुआ की बात पर तीनों ने सिर हिलाकर पूंछ नीचे गिरा दी.

और चारों चौराहे की ओर दौड़ गये.

सड़क पर नीचे झांकते हुए उसने कुत्तों के विषय में अनुमान लगाया . उसने अपने मकान मालिक को कुत्तों के पीछे दूध लेने जाते देखा.

********

प्रतिदिन की भांति वह उस दिन भी पौने पांच बजे उठ गया था. पत्नी भी उसकी पांच बजे उठ जाती थी, लेकिन उस दिन उसे आफिस नहीं जाना था, इसलिए वह निश्चिंत थी और सो रही थी.

कई महीने बाद वह सुबह के सुहानेपन का आनंद ले रहा था. हालांकि वर्षों से उसके जागने का वही समय था, लेकिन जागने के साथ ही आठ बजे की बस पकड़ने की चिन्ता उसे आ घेरती थी. साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुंचने का तनाव बिस्तर छोड़ने के साथ ही प्रारंभ हो जाता था. सप्ताह में शनिवार-रविवार का अवकाश उसने कई महीनों से नहीं जाना था. प्रतिदिन रात दफ्तर उसके साथ आता था. सोते हुए भी दफ्तर साथ रहता था.

उसने अंगड़ाई ली. छत में कुछ और देर टहला . छत बड़ी थी, जिसमें केवल उसके दो कमरे और टीन शेड की छोटी-सी किचन और उतना ही छोटा टॉयलेट-कम बाथरूम था. बाथरूम की दीवारें सीली और झड़ रही थीं. उस पर एस्बेस्टेस की चादरें पड़ी हुई थीं. बारिस होने के समय चादरों से पानी टपकता रहता. ऎसे समय टॉयलेट के लिए जाते हुए छोटा छाता लगाकर बैठना होता या सिर पर पुरानी तौलिया डालनी होती.

छत पर टहलते हुए आसमान में उड़ते पक्षियों को वह देखता रहा और सोचता रहा, 'कितने निश्चिंत----- कितने स्वतंत्र ! न इन्हें किसी अफसर का भय, न काम की चिन्ता. काश ! मैं एक परिन्दा होता----- पूरी दुनिया के आकाश को नापता घूमता. न सीमाओं की समस्या होती न प्रवेश पर प्रतिबंध. कॊई पासपोर्ट - वीज़ा नहीं.'

एक कौआ पड़ोसी मकान की दीवार पर आ बैठा. उसके कर्णकटु स्वर ने ध्यान भंग किया. उसने हाथ उठाकर कौवे को भगाना चाहा, वह उछलकर कुछ दूर हटकर बैठ गया और क्षणभर की चुप्पी के बाद फिर चीख उठा.

"कुमार राणावत की तरह क्यों चीख रहा है रे कमीने?" उसने सोचा उसने कौवे को नहीं अपने बॉस कुमार राणावत को गाली दी थी. मन के अंदर दबा गुबार निकल गया था.

कौवा फिर चीखा.

"चीख बेटे----- आज और कल भी----." उसे याद आया आज शनिवार है और राणावत कल भी बम्बई रहेगा और उसे कल भी दफ्तर नहीं जाना होगा.

'कितनी सुखद है सुबह !' उसने सोचा, 'मैं कब से ऎसे दिन के लिए तरस रहा था. बच्चे भूल ही गये होगें कि मैं भी इस घर में रहता हूं. सुबह उन्हें तयार कर देना मात्र क्या उनके प्रति पैतृक जिम्मेदारी की इति मान ली जाय !'

'नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते. कोई और नौकरी क्यों नहीं कर लेते !' मन ने कई बार, बल्कि हजारों----- हो सकता है लाखों बार - यह बात कही थी. रात सोने से पहले यह बात मन में अवश्य उठती है. सुबह उठने से लेकर दफ्तर से निकलने तक दिन में कितनी ही बार मन यह प्रश्न उठाता है, लेकिन---- और यह 'लेकिन' कितने प्रश्नों से घिरा हुआ है. इतने वर्षों की सरकारी नौकरी ने उसे इस योग्य नहीं रहने दिया कि वह किसी अन्य जगह जा सकता. कारण यह नहीं कि वह कम योग्य था, या वह निकम्मा था---- काम नहीं करता था---. काम, सुबह साढ़े नौ बजे से रात आठ बजे तक वह प्रायः काम में ही लगा रहता. गर्दन दुख जाती. लेकिन वह जब यह कहा जाता सुनता कि सरकारी बाबू काम नहीं करते तब उसे दुख होता. उसके अपने कार्यालय के कितने ही लोग थे जिनकी गर्दनें उसीकी भांति दुखती थीं. कई स्पांडिलाइटस का शिकार थे और कुछ उस कतार में. डिप्रेशन का शिकार लोगों की संख्या शायद अधिक थी, लेकिन वे सब हत्बुद्धि वहां बने रहने के लिए अभिशप्त थे, क्योंकि जो काम वे करते उसकी पूछ किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में न थी. अब वे वही कर सकते थे और गधों -खच्चरों की भांति उस बोझ को ढोते हुए जीवन की गाड़ी घसीटने के लिए विवश थे.

'लेकिन मैं इतनी खूबसूरत सुबह यह सब क्यों सोच रहा हूं. मुझे दरवाजे में ताला बंद कर चुपचाप नीचे उतर जाना चाहिए था. घर से आध फर्लांग की दूरी पर लंबा-- चौड़ा रौशन पार्क है. आस-पास के लोग---- बल्कि दो-तीन किलोमीटर से चलकर लोग वहां पहुंचते हैं----- टहलने के लिए. टहलने वालों की भीड़ सुबह नौ बजे तक वहां रहती है. छुट्टी वाले दिनों में स्कूली बच्चे वहां खेलते हैं.

'आज बच्चों के स्कूल की छुट्टी भी है. रात ही कह देना चाहिए था कि सुबह रौशन पार्क चलेगें. अमिता भी घोड़े बेचकर सो रही है. मुझे आफिस जाना होता तो इस समय किचन में बर्तन खटक रहे होते.'

'बच्चों के साथ पार्क में बैडमिंटन खेले हुए लंबा समय बीत गया.---- कोई बात नहीं----- शाम को जायेगें. शाम को भी वहां अच्छी रौनक होती है.----- आज और कल का दिन बच्चों के नाम.' इस विचार से उसके मन में खुशी उत्पन्न हुई , जो महीनों से दबी हुई थी.

सड़क पर आमद-रफ्त तेज हो गयी थी. कुछ लोगों की आवाजें आ रहीं थीं. कुछ लोग उसके मकान के सामने की गली से होकर पार्क जाते थे. एक युवक, युवक ही कहना होगा----- वैसे वह पैतीस वर्ष से अधिक होगा; लेकिन उसने शरीर को मेण्टेन किया हुआ था, प्रतिदिन 'किट' और 'टी शर्ट' में दौड़ता हुआ, तेज नही, मद्धिम गति से पार्क जाता है. पार्क में लगभग दो घण्टे बिताकर जब वह लौटता तब पसीने से तरबतर होता----- भले ही जनवरी की कड़ाके कि ठण्ड हो. वह उससे ईर्ष्या करता है और सोचता है कि क्या उसकी जिन्दगी में भी ऎसे दिन आयेगें ! यदि आयेगें भी, तब------ तब क्या उस नौजवान की भांति उसमें गति और उत्साह होगा !'

हवा का तेज झोंका आया, और उसकी बनियायन को छूता हुआ निकल गया. हवा में ठण्ड की हल्की खुनक थी. उसने देखा, सामने दीवार पर बैठा कौवा अब वहां न था. उसके स्थान पर एक गौरय्या आ बैठी थी. सूर्य की किरणें पड़ोसी मकान की छत पर रखी पानी की टंकी पर आ बैठी थीं. बगुलों का एक झुण्ड उत्तर-पश्चिम की ओर दौड़ता हुआ जा रहा था.

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'गुलाम बादशाह' उपन्यास शीघ्र ही
प्रवीण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली से
प्रकाश्य है.