सोमवार, 28 जुलाई 2008

कविता


पांच कविताएं

(सभी कविताओं के अनुवाद : पीयूष दईया)


नॉर्वेजियन कविता
मेरा, गो कि कड़वा__

पाल ब्रेक्के

तुमने इंतजार किया, पीछे तुम्हारे खिड़की का।
आधी मुड़ी तुम्हारी पीठ
और तुम्हारे चारों ओर रोशनी
ऐसे थी मानो तुम कर रही हो आराम एक हाथ में।
यह ऐसे था मानो तुम वहां खड़ी थी
औरमुझे छोड़ दिया ओह तिनके--तिनके
ज्यों तुमने सुना गरदन झुकाए
किसी को जो गुजरा था

तुम्हें जीत ले गया जो
मुद्दत पहले के आवास में;
दूर और बेगाना मैं वहां खड़ा था
एक्बार, हम जिसे कहत हैं 'अभी'।
रोशनी के हाथ में तुम डोलती हो
सुदूर बाहर समय के ---
नहीं, वे मेरे नहीं थे, कभी भी,
डग जिनका तुमने इंतजार किया!

लेकिन मैं यहां खड़ा होउंगा छयाओं में--
अंधेरा मुझ से पी सकता है
महान रोशनी के तट पर
जो झुकती है तुम्हारे बालों के गिर्द।
पहर है मेरा, गो कि कड़वा।
ओ इसे तोड़ तो, इसे मत तोड़ो
सब संग मैं खड़ा हूं और याद करता हूं
पहुंच नहीं सकता मैं उस जगह से।

जापानी कविता
एक पत्ती, हवा और रोशनी

अत्सूओ ओहकी

मैं लिपटूंगा
घास की एक पत्ती से
हवा की तरह।

मैं झूलूंगा
एक मकड़ी के जाले से
एक पत्ती भांति।

मैं छनूंगा
एक चिउरे की पांखों से
जैसे रोशनी।

मैं बनूंगा हवा, रोशनी
और एक पत्ती।
इतना खाली है मेरा ह्रदय।

इतालवी कविता
बड़ा दिन
उंगारेती (1888-1970)

सड़कों के
एक जाल में
गोता लगाने की
मेरी कोई चाहना नहीं

ऐसी थकान
मैं महसूस करता हूं
अपने कंधों पर

जो छोड़ दे मुझे इस तरह
जैसे
एक चीज
अर्पित
एक कोने में
और भूली हुई

यहां
होता है महसूस
नहीं कुछ
सिर्फ भली गर्माहट

मैं ठहरा हूं
धुएं की
चार
कुलांचों संग
अंगीठी से आती

रोमानियाई कविता
रास्ता
त्रिस्तान जारा (1896-1963)

यह कौन सा मार्ग है जो हमें अलगता है
जिसके आर-पार मैं फैलाये हूं हाथ अपने विचारों का
हरेक उंगली की पोर पर लिखा है एक फूल
और मार्गान्त एक फूल है जो चलता है तुम संग

ऑस्टियन कविता
ग्रीष्म
जॉर्ज त्राकल (1887-1914)

शाम होने पर, कोयल की कुहू
थमती है वन में।
नीचे की ओर झुकती है सतह दानेदार,
लाल खसखस।

काले बादल गरजते हैं बौराते
पहाड़ी ऊपर।
झींगुर का चिरन्तन गान
लुप्त हो जाता मैदानों में।

पात पांगर
पेड़ के और नहीं खड़कते।
पेचदार जीने पर
तुम्हारा वेश सरसराता है।

नीरव बत्ती एक चमकती है
सियाह कमरे में;
रुपहला हाथ एक
इसे बुझाता है;

न हवा, न तारे! रात।


स्वभाव से अन्तर्मुखी व मितभाषी युवा लेखक, सम्पादक, अनुवादक व संस्कृतिकर्मी पीयूष दईया का जन्म 27 अगस्त 1973, बीकानेर (राज.) में हुआ। आप हिन्दी साहित्य, संस्कृति और विचार पर एकाग्र पत्रिकाओं ''पुरोवाक्'' (श्रवण संस्थान, उदयपुर) और ''बहुवचन'' (महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा) के संस्थापक सम्पादक रहे हैं और लोक-अन्वीक्षा पर एकाग्र दो पुस्तकों ''लोक'' व ''लोक का आलोक'' नामक दो वृहद् ग्रन्थों के सम्पादन सहित भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर की त्रैमासिक पत्रिका ''रंगायन'' का भी बरसों तक सम्पादन किया है। पीयूष ने हकु शाह द्वारा लिखी चार बाल-पुस्तकों के सम्पादन के अलावा अंग्रेज़ी में लिखे उनके निबन्धों का भी हिन्दी में अनुवाद व सम्पादन किया है। हकु शाह के निबन्धों की यह संचयिता,''जीव-कृति'' शीघ्र प्रकाश्य है। ऐसी ही एक अन्य पुस्तक पीयूष चित्रकार अखिलेश के साथ भी तैयार कर रहे हैं। काव्यानुवाद पर एकाग्र पत्रिका ''तनाव'' के लिए ग्रीक के महान आधुनिक कवि कवाफ़ी की कविताओं का हिन्दी में उनके द्वारा किया गया भाषान्तर चर्चित रहा है। वे इन दिनों विश्व-काव्य से कुछ संचयन भी तैयार कर रहे ।
संपर्क : विश्राम कुटी, सहेली मार्ग, उदयपुर (रजस्थान) - 313001
ई-मेल : todaiya@gmail.com

सोमवार, 21 जुलाई 2008

पुस्तक चर्चा



चित्र : अशोक गुप्ता

सम्बन्धों की लाशों पर गिद्धों का उत्सव

रमेश कपूर

उत्सव अभी शेष है(उपन्यास)
*अशोक गुप्ता,
शिल्पायन, १०२९५, लेन नं० १, वैस्ट गोरखपार्क,
शाहदरा -११००३२
पृष्ठ संख्या : २१४, मूल्य : २२५/-


संबन्ध अपनी सामाजिकता को ओढ़कर समय को क्रूर (कहां क्रूरतम माना जाए) चक्र के मध्य ही अपने आप को स्थापित करते हैं और वैयक्तिक आवश्यकताओं के साथ अपनी महत्ता सिद्ध करते हैं। इन मायनों में वे स्वयंसिद्ध होते हैं। किन्तु इस स्वयंसिद्ध होने में कितनी जद्दोजहद और कितना संघर्ष शामिल रहता है, यही देखना महत्वपूर्ण है। क्योंकि अधिकांश लोगों के लिए इसी जद्दोजहद---इसी संघर्ष और इसी महत्ता को जानना अथवा समझ पाना संभव नही हो पाता। तब तो और भी कठिन हो जाता है, जब वे वैयक्तिक स्तर पर एक-दूसरे की भावनाओं के साथ पूरी अंतरंगता से जुड़े हों… पूरी वचनबद्धता में जकड़े हों और संबन्धों को एक नए धरातल पर अपने-आपको परखने की प्रक्रिया में हों।

शायद ऐसे ही सम्बन्ध नीलकंठ और उसकी पत्नी रोहिणी के बीच हैं, जो वरिष्ठ कथाकार अशोक गुप्ता के सद्यः प्रकाशित प्रथम उपन्यास 'उत्सव अभी शेष है' में एक नया अर्थ खोजने का प्रयत्न करते हैं। हालांकि पति-पत्नी का यह संबन्ध अपने-आप में पूरी तरह सफल और आलोढ़ित दिखाई नहीं देता। ऐसा दिखाने की लेखक की कोई चेष्टा भी नहीं रही है। क्योंकि यही शायद लेखक का अभीष्ट भी है। लेकिन जैसी विस्फोटक स्थितियों का सामना उपन्यास के आरंभ में रोहिणी करती या जिनसे पाठक की पहली भिड़तं होती है, वे विस्मित कर देने वाली स्थितियां हैं ---- वीणा के पूरी तरह कस दिए गए तारों की तरह -- टूटने की कगार पर।

मदिरा--और शायद धन भी ---- और शायद अवसर भी पाने के नशे में आकंठ डूबे नीलकंठ को, बाजारू और शातिर औरतों के शरीर को भरपूर भोगने, लेकिन फिर भी उनमें वांछित आनन्द न ढूंढ़ पाने वाले अपने मित्र राठौर के समक्ष 'कापुरुष' की तरह अपनी पत्नी रोहिणी को परोस देने की मजबूरी झेलने में जो मक्कार साझेदारी निभानी पड़ती है, वह रोहिणी को भी हत्प्रभ कर देती है। इस तरह आरंभ होता है नैतिकता और अनैतिकता का वह अध्याय, जिसका प्रभाव (---- और तनाव- उपन्यास में देर तक ---(और दूर तक) दिखाई पड़ता है। इस तनाव को 'हैंडल' कर पाने की क्षमता और उसके प्रभाव पर हम आगे चर्चा करेंगे। फिलहाल प्रश्न नैतिकता-अनैतिकता का है। यह सच है कि एक इन्सान के अपने लिए जो चीज नैतिक है, वही दूसरे के संबन्ध में अनैतिक हो जाती है। यह फर्क वह दृष्टि लाती है, जो चीजों को देखती है। शायद इसीलिए ही पात्रों में किसी भी प्रकार का अवरोधबोध जागृत नहीं होता। सबके पास अपने हक में दिए जाने वाले तर्क (या कुतर्क) उपस्थित हैं। चाहे वह नीलकंठ हो, जो अपनी पत्नी को एक वस्तु समझकर राठौर के समक्ष प्रस्तुत करता है। और बड़े ही नाटकीय और धूर्त अपराधबोध से ग्रस्त होने का भ्रम पैदा करता है। इसके साथ ही वह पुनः वहीं , उसी बिन्दु पर लौट आना चाहता है, जहां से उसने अपने कायराना इरादों को अन्जाम दिया था। किन्तु लौटना उसके लिए इतना आसान नहीं सिद्ध होता। क्योंकि वापस लौटने की स्थितियां उतनी अनुकूल नहीं रह पातीं।

--यही स्थिति चन्द्रा की भी है, जो अपने पति की अनुपस्थिति में अपनी दैहिक जरूरतों को नीलकंठ से पूरी करती है। वह भी नैतिकता-अनैतिकता के द्वंद्व से पर है। न वह अपने पति के प्रति अपराधबोध से ग्रस्त है, न ही रोहिणी के प्रति।

--याफिर राठौर, जो नीलकंठ की पत्नी को 'किसान स्क्वैश' के एक उत्पाद की तरह 'इट इज डिफरेंट' कहकर उसे चटकारे लेकर चखता है और नीलकंठ को अपनी पत्नी को पुनः शीशे में उतार लेने कामशविरा देताहै।

लगता है कि उपन्यास के सारे संबन्ध बाजारवाद से ही संचालित होते हैं। एक 'बिकाऊ' चीज की तरह। यह हमारे वर्तमान समाज का बदला हुआ चेहरा है। न कहीं कोई लगाव---- न कहीं कोई भावना--- न कोई सामाजिक मूल्य… मात्र एक उत्पाद। शानदर 'पैकेजिंग' में लिपटा। चमचमाता---आकर्षित करता--- निमंत्रण देता। --- समाज और सामाजिक बन्धनों की संरचना में जिस तरह का बदलाव--- और जिस तरह का अवमूल्यन हमारे आसपास दिखाई पड़ता है, उसी की पड़ताल करता है यह उपन्यास। अवमूल्यन की ज्ञान पगडंडी से रोहिणी अपने लिए एक नया मार्ग तलाशने का प्रयास करती है और उसकी तलाश राजबीर तक जाकर रुक जाती है, जो हमेशा खामोश रहकर रोहिणी को हालात से लड़ते---- और लड़खड़ाते देखता है और उसकी असह्यता की स्थिति में आगे बढ़ कर उसका हाथ थाम लेता है।

इस नई शुरूआत में स्त्री के स्वावलम्बन और स्वतंत्रता का प्रश्न भी खड़ा होता है, जो इस उपन्यास की आधारशिला बनता है। यहां फिर वही प्रश्न है कि आखिर स्त्री अपनी स्वतंत्रता चाहती किससे है ? अपने समाज से, जो उसे गर्त में धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ता ? या अपने उस संबन्ध से, जो पहले ही बिस्तर पर कुचल दिया गया था?-- या फिर अपने-आपसे, जो वह चाहकर भी नहीं कर पाती? -- या फिर अपनी देह से, जिसके कारण ही वह इतनी बड़ी त्रासदी झेलती है-- और जिसका अधिकार वह किन्हीं कमजोर-कंपकंपाते क्षणों में --- बेहद मासूम चुप्पियों के बीच राजबीर को सौंप देती है? यहीं वह महत्वपूर्ण बिन्दु है, जो उपन्यास का प्रस्थान बिन्दु बनते-बनते रह जाता है। क्योंकि रोहिणी के लिए सम्बन्धों के होने--- उनके टूटने-बिखरने --- और पुनः उठ खड़े होने के बीच एक नया रास्ता तलाश करने का निर्णय उसका अपना नहीं है। क्योंकि सम्बन्धों को तोड़ने का निर्णय भी उसका अपना नहीं है। क्योंकि इस निर्णय के पीछे उसका अपना कोई चुनाव--- या विचार नहीं है। ऐसा भी इसलिए है क्योंकि अपने साथ होने वाली किसी भी ज्यादती --- या त्रासदी--- या धोखाधड़ी के लिए उसके अन्तस्तल में किसी भी प्रकार का कोई प्रतिरोध नहीं है । प्रतिरोध होता तो संभव है प्रतिशोध भी होता, जो परिस्थितियों से लड़-झगड़ कर अपने अस्थित्व --- अपने 'होने' को सिद्ध करता। कम से कम तब वह स्वयं को एक 'वस्तु' मात्र में परिवर्तित नहीं होने देता।

नैतिकता-अनैतिकता की ज्ञान विस्फोटक उदासीनता का प्रभाव यह कि तमाम सम्बन्ध उस संवेदनशील स्थिति पर आकर ठहर जाते हैं, जहां अपराधबोध जैसी किसी सम्भावना की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। इन परिस्थियों में यह पता ही नहीं चल पाता कि तमाम पात्र सम्बन्धों को किस धरातल पर स्थापित करना चाहते हैं। प्रेम में देह को ढूंढना चाहते हैं या देह में प्रेम को ? क्योंकि प्रेम को प्रेम के स्तर पर --- और देह को देह के स्तर पर जानने का प्रयास तो कहीं है ही नहीं। यहां तक कि राजबीर-रोहिणी का प्रेम-प्रसंग (यदि इसे वास्तव में एक प्रेम-प्रसंग माना जाए तो) भी इससे अछूता नहीं है। क्योंकि वह भी एक समझौते के फलस्वरूप ही पनपा है। किसी मजबूरी की तरह जो एक विकल्पहीन स्थिति में मात्र ओढ़ने-बिछाने -- ढोते जाने की प्रक्रिया बन जाता है। ऐसे में, यदि हर व्यक्ति की कमियों-खूबियों को एक तरफ रख दें, तो वे किसी 'फ्रायडीय' अवधारणा से ग्रस्त महसूस होने लगते हैं। जिनका प्रत्येक क्रिया-कलाप --- या प्रत्येक हरकत-- प्रत्येक सोच यौनिक क्रियाओं या प्रतिक्रियाओं से संचालित होती है।

और यह मानने में हमें बिल्कुल भी संकोच नहीं करना चाहिए कि उनका यह आचरण मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं है। यहीं लेखक उनके (पात्रों के) मनोविज्ञान को पकड़ने में कहीं न कहीं बहुत बड़ी चूक कर गया है। यहां महादेवी वर्मा का यह उदाहरण देना भी आवश्यक जान पड़ता है कि -"महत्वपूर्ण सिर्फ यह नहीं कि क्या लिखा गया है बल्कि यह अधिक महत्वपूर्ण है कि कैसे लिखा गया है।"

शायद इसी चूक के कारण पात्रों में पूर्ण तथ्यपरकता नहीं आ पाई जिसकी यहां बहुत आवश्यकता थी। लेखक स्वयं 'भीतर की बात' उभारने में बहुत सक्षम है, जिसकी साक्षी हैं उनकी कहानियां, जो मनोवैज्ञानिक कसौटी पर अपनी उपादेयता सिद्ध करती हैं। किन्तु यहां पात्रों का मनोविज्ञान--- या उनका व्यवहार --- या उनकी सोच स्वय उनके ही अनुकूल नहीं बैठती। वरना क्या कारण है कि चन्द्रा जैसी शातिर औरत, जो अपनी बात कह गुजरने में माहिर है--- जो बात से घायल को फुसलाने-बहलाने की कला जानती है--- जो अपनी इसी काबलियत के दम पर नीलकंठ को बांधती और भोगती है किन्तु रोहिणी की त्रासदी जानकर किसी संवेदनशील भारतीय नारी की तरह व्यथित होकर रो उठती है--- और उसे अपनी ही देह से घिन आने लगती है। उसकी यह मनःस्थिति भी उसके शातिराना व्यवहार की तरह नाटकीय है।

और क्या कारण है कि रोहिणी चन्द्रा के साथ अपने पति के अवैध सम्बन्धों को भली-भांति जानते हुए भी चन्द्रा के साथ अत्यन्त सहजता के साथ उसकी 'सहेली' बनकर रहती है। और अपने सुख-दुःख को उसके साथ बांटती नजर आती है। अनैतिकता को यह सीधा-सीधा उसका मौन समर्थन नहीं तो फिर क्या है? इससे क्या वह किसी भी प्रकार की शिकायत किसी से भी करने से अपना अधिकार नहीं खो बैठती? स्त्री-विमर्श की राह में यही क्या सबसे बड़ी बाधा नहीं है? उदासीनता का यह प्रकटीकरण क्या यथार्थ-परकता को संदेहास्पद नहीं बना देता?

और क्या कारण है कि रोहिणी की दस वर्षीय बेटी सरस्वती किसी विद्वान व्यक्ति की तरह धाराप्रवाह प्रवचन देने से चूकती नहीं और चाहती है --"मेरी एक बात सुन लो पहले। इतने दिन से नहीं कहा मैंने, आज बताती हूं। पापा, ताई की नीयत हमें खेत , मकान और नकदी कुछ भी देने की नहीं है। वह बार-बार कहती है कि मेरे जीते जी इसमें से सूत भी किसी को नहीं मिलेगा। सब सुनते हैं इस बात को । बुआ भी सुनती हैं। मेरा वहां रहना खटकता था ताई की आंख में। उन्हें लगता था कि मैं किसी भी समय उनके इस इरादे को समझ कर आपको बुला सकती हूं--- वह डरती थीं कि मैं उनके इरादे उन्हें बताकर तुम्हारे हक में आवाज न बटोर लूं।"(पृष्ठ - 195)

उपन्यास में पात्रों की पारिवारिक पृष्ठभूमि या शैक्षणिक परिवेश को देखते हुए आम बोलचाल में जम कर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग आश्चर्य पैदा करता है। यहां तक कि रोहिणी भी अंग्रेजी भाषा की ज्ञाता होने का भ्रम पैदा करते हुए कहती है कि "साथ सोने से बड़ा सुख साथ रोने में होता है--- शायद इसीलिए अंग्रेजी में 'स्लीप' का नाद 'वीप' से जुड़ता है। रोज - ब-रोज की जिन्दगी में रोना अपने सही माने में कहां जीता है आदमी---- सिर्फ 'क्राई' करता है। (पृष्ठ - 193)

शब्दों का ऐसा विश्लेषण वास्तव में कोई विलक्षण व्यक्ति ही कर सकता है। इसके कारणों की पृष्ठभूमि की चर्चा करने से पहले मैं उपेन्द्रनाथ अश्क के दो खण्डों में प्रकाशित श्रेष्ठ कृतित्व 'अश्क 75 - दूसरा खण्ड' में स्वयं अश्क जी का मानना है कि 'लेखक के जीने का उसके लेखन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। वह जैसे जीता है, जिस दृष्टि से जीता है, जिन्दगी से उसकी जो आकांक्षा है, उसी के अनुसार उसका लेखन ढलता है। --- और 'जिन्दगी को लिखने के लिए जिन्दगी का सीधा सम्पर्क जरूरी है।

यह प्रसंग कृतित्व में समाज के सीधे प्रभाव और चित्रण में आता है, जो सीधे-सीधे भाषा के साथ जुड़ता है और औपन्यासिक परिवेश व पात्रों को गढ़ता है। जबकि 'उत्सव----' में लेखकीय निष्कर्षों ने तो परिवेश को क्षति पहुंचाई ही है, भाषा भी सभी पात्र वही बोलते हैं, जो लेखक की अपनी भाषा है। यह प्रत्यक्ष रूप से पत्रों के जीवन में हस्तक्षेप है, जिससे सब लेखकों को बचना चाहिए ताकि कृति में यथार्थपरकता को बनाए रखा जा सके। यदि ऐसा होता तो यह संभव ही नहीं था कि चन्द्रा , राठौर , नीलकंठ के परिवार, राजबीर-रोहिणी, सरस्वती-आशीष , जिनमें आततायी और पीड़ित सभी सम्मिलित हैं , एक साथ किसी उत्सव का आयोजन करते, जो अन्ततः सम्बन्धों की लाश पर किन्ही गिद्धों के उत्सव से अधिक कुछ नहीं है---- और जिसके सम्बन्ध में पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सके कि 'इट इज डिफरेन्ट'।


ए-4/14, सैक्टर-18,



रोहिणी, दिल्ली-110089



मो न 09891252314




29 जनवरी 1947 को देहरादून में जन्म। इंजीनियरिंग और मैनेजमेण्ट की पढ़ाई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान ही साहित्य से जुड़ाव ।

अब तक सौ से अधिक कहानियां, अनेकों कविताएं, दर्जन भर के लगभग समीक्षाएं, दो कहानी संग्रह, एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा Daughter of the East का हिन्दी में अनुवाद।

सम्पर्क : बी -11/45, सेक्टर 18, रोहिणी, दिल्ली - 110089
मोबाईल नं- 09871187875

E-mail : mailto:ashok267@gmail.com

रविवार, 13 जुलाई 2008

कविता


दिव्या माथुर की कविताएं

पहला प्यार

‘मिट्टी पड़े
तेरे पहले प्यार पर’
कहा था अम्मां ने
इक बार दुखी होकर
और ब्याह दिया था
मुझे बिदेश
पर न तो समय
और न ही दूरी
कर पाये धूमिल
रंग रूप गंध
सभी तो ताज़ा हैं
मिट्टी पड़े
मेरे पहले प्यार पर।

0

ऐत तहानी औल मम्मा

‘बहुत रात हो गई मुन्ना
बेटा अब तो तू सो जा’
‘बछ ऐत तहानी औल मम्मा
छुना बी दो ना’
अब मुन्ना बड़ा हो गया है
कहता है - मैं बहुत बोलती हूँ
मुन्ना ज़रा जल्दी चल
स्कूल को देर हो जायेगी
‘मम्मा मेले छोते छोते पाँव
मैं दल्दी दल्दी तैछे तलूँ?’
अब मुन्ना बड़ा हो गया है
कहता है कि
मैं बहुत ‘स्लो‘ हो गई हूँ
‘मम्मा, मुदे दल लदता है
तुमाले छात छोऊँदा तुमाली दोदी में’
अब मुन्ना बड़ा हो गया है
और उसके मुन्ने को चाहिये एक कमरा
उस बड़े से बूढ़ाघर में
मम्मा के नन्हे से प्राण अटके हैं
अपने मुन्ने की राह में।
0

दायरा

इच्छा नहीं की
कहीं भागने की
न जीवन को ही
कोसा कभी
हल को कंधे पर साधे सदा
बस आँख झुकाए जुगाली की
रस्सी तुड़ाते
लात मारते
और किसी भी
दिशा भागते
सिर पर जब थे सींग लदे
क्यों झेले तुमने डंडे
आँख पर पी बँधवाए
क्यों रहे घिसटते जीवन भर
एक ही दायरे के भीतर
क्यों सदा लगाते रहे चक्कर
बेतुकी बात, न पैर न सिर
एक ज़रा से तेल की खातिर
बैल ने मुझे दो टूक जवाब दिया,
ये तुम कह रही हो?

क्या कीजे

ग़ुंचों की तबाही का क्या कीजे
आँधी की गवाही का क्या कीजे
अच्छे अच्छों के क़तर दे पर
उस तिरछी नज़र का क्या कीजे
गुदगुदी-सी करती है दिल में
उनकी गाली का क्या कीजे
सूखी की सूखी है चोली
ऐसी होली का क्या कीजे
कह तो दें हम, मासूम हैं वो
इस खून-अ-जिगर का क्या कीजे
पहलू में किसी के वो बैठे
इस बुरी खबर का क्या कीजे
मुस्काना तो चाहा था
बह निकले आँसू क्या कीजे
माशूक़ सभी के पहलू में
कोई जख़्म हमारे भी सी दे
पैरहन टँगा है खूँटी पर
पर उनके सब्र का क्या कीजे
जान के जाने पर जानी
मेरी जान गई तो क्या कीजे
उम्मीद पे इक जी सकते हैं
इस अगर-मगर का क्या कीजे
उनके दीदार को बैठे हैं
इस अपनी ग़रज़ का क्या कीजे।


0 झूठ -कुछ कविताएं


(1)मिज़ाज़्

है झूठ का अपना एक मिज़ाज़
यदि करनी पर आ जाए
तो ये करता नहीं लिहाज़
चाहे तो आलसी-सा
सदियों सोता रहे
पारे सा या फिर
झटपट पोल खोल दे!

(2)सबूत

तुम झूठे हो
मैं सच्ची
तुम सच्चे हो
मैं झूठी
क्या जीवन बीतेगा
यूं ही
सबूत इकट्ठा करते
अग्निपरीक्षा देते
संबंधों को स्थगित करते ?

(3)झूठ के भागीदार

झूठ और सच
एक ही सिक्के के
दो पासे हैं
मुंह खुलते ही
पचास प्रतिशत झूठ के
भागीदार तो हम
हो ही जाते हैं।

(4)अकेलापन

सोचती हूँ
सच बोलना छोड़ दूँ
कम से कम
अकेलापन तो जाएगा भर ।
अंतर में सुलगती रहे
चाहे अँगीठी
आत्मा की जली कुटी
सुनने से
कहीं बेहतर होंगी
दुनिया की बातें
मीठी मीठी।

(5)सज़ा

एक दो ज़ख्मों से सज़ा पूरी नही हो जाती
एक दो आंसुओं से
पीड़ा धुल नहीं पाती
झूठ अजर है, अमर है
झूठ को मौत नही आती!

(6)सती हो गया सच

तुम्हारे छोटे, मँझले
और बड़े झूठ
उबलते रहते थे मन में
दूध पर मलाई-सा
मैं जीवन भर
ढकती रही उन्हें
पर आज उफन के
गिरते तुम्हारे झूठ
मेरे सच को
दरकिनार कर गये
तुम मेरी ओट लिये
साधु बने खड़े रहे
और झूठ की चिता पर
सती हो गया सच।

(7) समझौता

एक अदृष्ट
समझौता है
परिवार के बीच
यदि मैंने ज़ुबान खोली
तो वे समवेत स्वर में
मुझे झुठला देंगे
तुम्हारे झूठ की
ओढ़नी में लिपटी
मैं खुद से भी
रहती हूँ छिपी।
00
शिक्षा : एमए (अंग्रेजी) के अतिरिक्त दिल्ली एवं ग्लास्गो से पत्रकारिता में डिप्लोमा। आइ टी आई दिल्ली में सेक्रेटेरियल प्रैक्टिस में डिप्लोमा एवं चिकित्सा आशुलिपि का स्वतंत्र अध्ययन।कार्यक्षेत्र : रॉयल सोसायटी आफ आर्टस की फेलो दिव्या का नेत्रहीनता से सम्बंधित कई संस्थाओं में योगदान रहा हैं। वे यू के हिंदी समिति की उपाध्यक्ष कथा यू के की पूर्व अध्यक्ष और अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की सांस्कृतिक अध्यक्ष भी रही हैं। आपकी कहानियां और कविताएं भिन्न भाषाओं के संकलनों में शामिल की गई हैं। रेडियो एवं दूरदर्शन पर प्रसारण के अतिरिक्त इनकी कविताओं कहानियों व नाटकों का मंचन प्रसारण व ब्रेल लिपि में प्रकाशन हो चुका है। दिव्या जी को पदमानंद साहित्य एवं संस्कृति सेवा सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है। लंदन में कहानियों के मंचन की शुरूआत का सेहरा भी आपके सिर जाता है।प्रकाशित रचनाएं : ‘अंत:सलिला’ ‘रेत का लिखा’ ‘ख्याल तेरा’ ‘आक्रोश’ ‘सपनों की राख तले’ एवं ‘जीवन ही मृत्यु’.

संप्रति : नेहरू केन्द्र (लंदन में भारतीय उच्चायोग का सांस्कृतिक विभाग) में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी.

संपर्क : 3-A Deacon Road,London NW2 5NNE-mail : divyamathur@aol.com

बुधवार, 2 जुलाई 2008

कविता


इला प्रसाद की कविताएं

कलम

मैं बोलती थी
और कोई नहीं
सुनता था मुझे।
मैं कलम हो गई
और अब,
सब सुन रहे हैं मुझे।

स्त्रीत्व

कभी नहीं सोचा था
कि ऐसा भी कोई गीत होगा
जो मैं कभी नहीं गा पाऊँगी।

ऐसा भी कुछ लिखा होगा
जिसे मैं कभी भी
किसी को भी
नहीं दिखा पाऊँगी।

अब हैरान हूँ
कैसे मैं नहीं सोच सकी यह सब ?
क्यों नहीं समझ सकी -
स्त्री होने की अपनी नियति को !


आकाश

आखिर चलते-चलते ही
पाँवों में मजबूती आई
और मैं टिक कर
खड़ी हो गई।

अब पाँवों में दम है
पैर तले की ज़मीन की
पुख़्तगी का अहसास भी।

अब कल्पनाओं के पंख नहीं
इच्छाओं के पर हैं
जो मैं अपने हिस्से का आकाश तलाशने
निकल पड़ी हूँ।

बारिश के बाद

बाद बारिश के
मिट्टी से उठती हुई
सोंधी खुशबू
यहाँ नहीं मिलती।

सब्जियों में स्वाद, फ़ूलों में सुगन्ध
सम्बन्धों में आत्मीयता
नहीं मिलती।

सतह पर सब सुखद था
जब तक भीगे नहीं थे।

यह तो बारिश के बाद का सच है!

दूरियाँ

सबकुछ बड़ा है यहाँ
आकार में
इस देश की तरह
असुरक्षा, अकेलापन और डर भी
तब भी लौटना नहीं होता
अपने देश में।

वापसी पर
अपनों की ही
अस्वीकृति का डर
कचोटता है।
वहाँ भी
सम्बन्ध तभी तक हैं
जब तक दूरियाँ हैं!
00

झारखंड की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/ सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।
कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।

छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत । प्रारम्भ में कालेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित।
"इस कहानी का अन्त नहीं " कहानी , जो जनसत्ता में २००२ में प्रकाशित हुई , से कहानी लेखन की शुरुआत। अबतक देश-विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं यथा, वागर्थ, हंस, कादम्बिनी, आधारशिला , हिन्दीजगत, हिन्दी- चेतना, निकट, पुरवाई , स्पाइल आदि तथा अनुभूति- अभिव्यक्ति , हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुंज सहित तमाम वेब पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ प्रकाशित। "वर्तमान -साहित्य" और "रचना- समय" के प्रवासी कथाकार विशेषांक में कहानियाँ/कविताएँ संकलित । डा. अन्जना सन्धीर द्वारा सम्पादित "प्रवासिनी के बोल "में कविताएँ एवं "प्रवासी आवाज" में कहानी संकलित। कुछ रचनाओं का हिन्दी से इतर भाषाओं में अनुवाद भी। विश्व हिन्दी सम्मेलन में भागीदारी एवं सम्मेलन की अमेरिका से प्रकाशित स्मारिका में लेख संकलित। कुछ संस्मरण एवं अन्य लेखकों की किताबों की समीक्षा आदि भी लिखी है । हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी लेखों का अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। आरम्भिक दिनों में इला नरेन के नाम से भी लेखन।

कृतियाँ : "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रह) एवं "इस कहानी का अंत नहीं" ( कहानी- संग्रह) ।
लेखन के अतिरिक्त योग, रेकी, बागवानी, पर्यटन एवं पुस्तकें पढ़ने में रुचि।
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन ।
सम्पर्क : 12934, MEADOW RUN
HOUSTON, TX-77066
USA
ई मेल ; ila_prasad1@yahoo.com