गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

कविता

चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र
बेल्जियन कविताएं

एक दूर-देश से मैं तुम्हें लिख रहा हूं

हेनरी मीशॉ (१८८४-१९८४)

(सभी का अंग्रेजी से भाषान्तर : पीयूष दईया)

(१)

हमारे पास यहां,
वह बोली,
केवल एक सूरज मुंह में,
और तनिक देर वास्ते.
हम मलते अपनी आंखें दिनों आगे.
निष्फल लेकिन.
अभेद्य मौसम.
अपने नियत पहर धूप आती केवल.

फिर हमारे पास है करने को चीजों की एक दुनिया,
जब तलक रोशनी है वहां,
समय हमारे पास बमुश्किल है दरअसल एक दूसरे को दो टुक देखने का.

मुसीबत यह है कि रात पाली है
जब हमें काम करना है,
और हमें, सचमुच करना है:
बौने जन्म लेते हैं लगातार.

(२)

जब तुम सैर करते हो देश में,
आगे वह उस तक सुपुर्द,
सम्भव है तुम्हें मौका हो खालिस
मरदानों से मिलने का अपने मार्ग पर.
ये पहाड़ हैं और देर-सबेर
तुमको झुकना है घुटनों के बल उनके सामने.
अकड़ने का कोई फायदा नहीं होगा,
तुम नहीं जा सकते थे परले तक,
अपने आहत करके भी.

मैं यह नहीं कहता जख्मी करने के सिलसिले में.
मैं दूसरी चीजें कह सकता था अगर मैं सचमुच
जख्मी करना चाहता.

(३)

मैं जोड़ता हूं एक बढ़त शब्द तुम तक,बल्कि एक प्रश्न.
क्या तुम्हारे देश में भी पानी बहता है?
मुझे याद नहीं ऎसा तुमने बता था कि नहीं.
और यह देता है सिहरन भी, अगर यह असली चीज़ है.

क्या मैं इसे प्रेम करता हूं?
मुझे नहीं मालूम.
जब यह ठंडा हो बहुत अकेला महसूस होता है.
लेकिन बिलकुल भिन्न जब यह गर्म हो.
फिर तब?
मैं कैसे फैसला कर सकता हूं?
कैसे तुम दूसरे फैसला करते हो, मुझे बताओ,
जब तुम इस को खुल्लम-खुल्ला बोलते हो, खुले दिल से?

(४)
मैं तुम्हें संसारान्त से लिख रहा हूं.
तुम्हें यह समझ लेना चाहिए.
पेड़ अक्सर कांपते हैं.
हम पत्तियां चुनते.
शिराओं की हास्यास्पद संख्या है उनके पास.
लेकिन किसलिए?
पेड़ और उनके बीच वहां कुछ नहीं बचा,
और हम प्रस्थान करते मुश्किलाये.

बिना हवा के क्या जारी नहीं रह सकता था पृथ्वी पर जीवन?
या सब कुछ को कंपना है, हमेशा, हमेशा?

ज़मीन के भीतर विक्षोभ है वहां, घर में भी,
जैसे अंगारें जो आ सकते हैं तुम्हारा सामना करने,
जैसे कड़े प्राणी जो चाहते स्वीकारोक्तियों को बिगाड़ना.
हम कुछ नहीं देखते,
सिवाय उसके जिसे देखना है गैरजरूरी.
कुछ नहीं, और तब भी हम कंपते . क्यॊ?

कुछ नहीं, और तब भी हम कंपते. क्यों ?

(५)

वह लिकती है उसे वापस:

तुम कल्पना नहीं कर सकते वह सब वहां है आकाश में,
भरोसा करने के लिए तुम्हें इसे देखना होगा.
तो अब, वे----- लेकिन मैं तुम्हें पलक झपकते नहीं बताने जा रही उनके नाम.

बावजूद ढेर सारा उनके उठाये होने के और
गा़लिबन सारे आकाश में डेरा डाल लेने के,
वे वजनी नहीं हैं,
विशाल हालांकि वे हैं,
जितना कि एक नवजात शिशु.

हम बुलाते उन्हें बादल.

यह सच है कि पानी आता है उनसे,
लेकिन उन्हें भींचने से नहीं, या उन्हें घेरने से.
ये फजूल होगा, उनके पास हैं थोड़े से.

लेकिन, उनके अपने विस्तृत वितान और विस्तृत विता
और गहराइयों तक डेरा जमाने के तर्क से
और अपनी ऊंची फुल्लन के,
वे सफल होते लम्बी दौड़ में पानी की कुछ बूंदें गिराने की जुगते में, हां, पानी की.
और हम भले और भीगे.
क्रोधित हम भागते फंदे में आ जाने से;
भला कौन जानता कि वे कब जारी करने वाले हैं अपनी बूंदें;
कभी-कभार वे उन्हें जारी किये बिना दिनों तक आराम करते.
और कोई घर में ठहरा उनका इंतजार करता विफल.

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स्वभाव से अन्तर्मुखी व मितभाषी युवा लेखक, सम्पादक, अनुवादक व संस्कृतिकर्मी पीयूष दईया का जन्म 27 अगस्त 1973, बीकानेर (राज.) में हुआ। आप हिन्दी साहित्य, संस्कृति और विचार पर एकाग्र पत्रिकाओं ''पुरोवाक्'' (श्रवण संस्थान, उदयपुर) और ''बहुवचन'' (महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा) के संस्थापक सम्पादक रहे हैं और लोक-अन्वीक्षा पर एकाग्र दो पुस्तकों ''लोक'' व ''लोक का आलोक'' नामक दो वृहद् ग्रन्थों के सम्पादन सहित भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर की त्रैमासिक पत्रिका ''रंगायन'' का भी बरसों तक सम्पादन किया है। पीयूष ने हकु शाह द्वारा लिखी चार बाल-पुस्तकों के सम्पादन के अलावा अंग्रेज़ी में लिखे उनके निबन्धों का भी हिन्दी में अनुवाद व सम्पादन किया है। हकु शाह के निबन्धों की यह संचयिता,''जीव-कृति'' शीघ्र प्रकाश्य है। ऐसी ही एक अन्य पुस्तक पीयूष चित्रकार अखिलेश के साथ भी तैयार कर रहे हैं। काव्यानुवाद पर एकाग्र पत्रिका ''तनाव'' के लिए ग्रीक के महान आधुनिक कवि कवाफ़ी की कविताओं का हिन्दी में उनके द्वारा किया गया भाषान्तर चर्चित रहा है। वे इन दिनों विश्व-काव्य से कुछ संचयन भी तैयार कर रहे ।
संपर्क : विश्राम कुटी, सहेली मार्ग, उदयपुर (रजस्थान) - 313001
ई-मेल :
todaiya@gmail.com

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चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र
समिधा बनता मैं
उदय चौहान
अचम्भित मन आज भटक रहा शून्याकाश में
सभ्यता के भग्नावशेष देख समय रीता पसोपेश में
आस रखूँ नवभोर कदाचित कल
आए फिर यहीं कहीं हरसू - बस यूँ ही पिटता मैं ...
खाईया हैं खुद रहीं,
लोगों को क्या हो गया ?
वसुधा में गड़ा विषदंत-
उसका दंश झेलता मैं...

मंदिर से उड़ा कपोत,
जा बैठा मीनार पे
पर कोई नवलक्ष्मण-
खिंचित परोक्ष रेखा नापता मैं...
है यह नेतृत्व अक्षम,
या प्रकृति ही बनी विषम
इस कोसती कोसी के बीच,
हर टापू तकता मैं
तर्कों का अम्बार है,
दावों की भरमार है
मिल रहे आश्वासनों से,
हूँ किंचित परेशान मैं...
भेड़ियों की जमी नज़र,
पिशाच बन रहे प्रखर
वीभत्स गिद्धभोज में -
बोटी बोटी नुचता मैं...
शतरंज की बिसात पर
वज़ीर जमे, प्यादे मरे
अनवरत विध्वंस में -
समिधा बनता मैं... -
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हिन्दी के उदीयमान कवि उदय चौहान का जन्म इंदौर (मध्य प्रदेश ) में १९८१ में हुआ था. उन्होंने इंदौर विश्वविद्यालय से एम.सी.ए. किया है. सम्प्रति वह गड़गांव की टी.सी.एस. कम्पनी में साफ्टवेयर इंजीनियर हैं.
साहित्य के गंभीर अध्येता उदय प्रखर प्रतिभा के धनी हैं. प्रस्तुत कविता उनकी पहली कविता है, जिसे उन्होंने विशेष रूप से 'रचना समय' के लिए भेजा था.
ई मेल : uday.chauhan@tcs.com