लेखक : सुभाष नीरव
प्रकाशक : भावना प्रकाशन, 109-ए,
पटपड़गंज, दिल्ली–110091
पृष्ठ संख्या : 112
मूल्य : 150 रुपये।
स्वाभिमान और संवेदना से भरपूर कहानियाँ
अलका सिन्हा
‘आख़िरी पड़ाव का दु:ख’ कथाकार सुभाष नीरव का तीसरा कहानी-संग्रह है। इससे पूर्व वर्ष 2003 में ‘औरत होने का गुनाह’ और पहला संग्रह वर्ष 1990 में ‘दैत्य तथा अन्य कहानियाँ’ प्रकाशित हो चुके हैं। सुभाष नीरव उन कहानीकारों में नहीं हैं जिन्हें किताब निकालने की हड़बड़ी रहती है। कारण, कि उनकी रचनात्मकता कई स्तरों पर संतुष्ट होती रहती है। अनुवाद को माध्यम बनाकर कई पंजाबी रचनाओं को उन्होंने हिंदी पाठकों के लिए पुनसृर्जित किया और एक सफल अनुवादक के रूप में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई। हाल के कुछ समय से इंटरनेट पर अपनी ‘ब्लॉग पत्रिकाओं’ के माध्यम से भी वे हिंदी साहित्य तथा अनुवाद के माध्यम से पाठकों को स्तरीय सामग्री उपलब्ध कराने में लगे हुए हैं। बहरहाल, इन सबके बीच उनके भीतर का रचनाकार एक सूक्ष्म दृष्टि से अपने आस-पास की दुनिया का अवलोकन करता रहा है।
नवीनतम कहानी संग्रह की चौदह कहानियों को पढ़कर ये कहा जा सकता है कि यह संग्रह लाचारी, मजबूरी और उपेक्षा से संघर्ष करते ‘स्वाभिमान’ की कहानियाँ हैं। बेरोजगारी की समस्या को केन्द्र में रखकर लिखी गई कहानी “दैत्य” एक महत्वपूर्ण कहानी है। ऐसे कई युवक मिल जाएंगे जो रोजगार पाने के लिए किसी न किसी रूप में समझौता कर बैठते हैं, लेकिन उनके विरुद्ध सुशील अपने स्वाभिमान को बिकने नहीं देता। सुशील की भूखी अंतडि़याँ जब राधेश्याम को पूरियाँ खाते देखती हैं तब वह जीप छोड़कर बस स्टैंड की तरफ बढ़ जाता है और उसे माँ के दिए रुपये काफी लगते हैं। ये रुपये दरअसल उसके वे संस्कार हैं जो उसे राधेश्याम जैसे किसी ‘दैत्य’ के सामने झुकने से बचा लेने के लिए काफी हैं।
इसी तरह “सांप” कहानी इस संग्रह को मूल्यवान बनाती है। आंचलिकता से भरा इस कहानी का परिवेश, गिद्धे-टप्पों के बीच, बड़ी बारीकी के साथ कथानक को बुनता है। ‘सांप’ की उपस्थिति समानांतर रूप से चलती है और एक द्वंद की स्थिति में ऐंटी-क्लाइमेक्स पर जा ठहरती है। “लौटना” कहानी भी एक अलग तरह की शैली को लेकर चलती है, गोया कोई कहानी नहीं, उपन्यास रचा जा रहा हो। कई उपशीर्षकों के साथ समय परिवर्तन, स्थिति परिवर्तन तथा बदलते दृष्टिकोण के तीखे मोड़ भी सावधानी के कट गए हैं। आज के बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद पर “मकड़ी” का मेटाफर लेकर बहुत सशक्त प्रस्तुति की गई है। यह छोटी-सी कहानी आज की क्रेडिट कार्ड शापिंग और उनके उपजने वाले खतरों के प्रति आगाह कराती है।
“इतने बुरे दिन”, “अंतत:” और “सफ़र में आदमी” जैसी कहानियाँ पाठक को किसी लाचारी के उस चरम बिन्दु तक ले जाती हैं जो व्यक्ति का टर्निंग-प्वाइंट होता है, वह उसे किसी गुंडे, मवाली की ओर उन्मुख करता है तो यही क्षण उसकी अस्मिता और स्वाभिमान को प्रमाणित भी करता है।
जहाँ एक ओर “आवाज़” कहानी किसी नवयुवती के सपनों में मेंहदी के रंग भरती है, वहीं हकीकत से उसकी मुठभेड़ होने पर एक दर्दनाक आवाज़ उभारती है, जो देर तक पाठकों के भीतर गूंजती रहती है।
“आख़िरी पड़ाव का दु:ख” संग्रह की कहानियाँ अपनी तरह से विविधता लिए हैं, फिर भी, यह संग्रह उम्र के अंतिम पड़ाव में भोगे जाने वाली उपेक्षा और तिरस्कार को लेकर अधिक संवेदनशील है। “आख़िरी पड़ाव का दु:ख” कहानी वृद्धावस्था और एकाकीपन को भोगते हुए मोहभंग की स्थिति पर ठहरती है तो “जीवन का ताप” कहानी उसी वृद्धावस्था को संवेदनाओं की ऊष्मा से जागृत रखती है और अहसास कराती है कि कोमल भावनाओं की प्रतीति हर उम्र में समान रूप से की जा सकती है।
संग्रह के अंतिम दो पन्ने बेहद कीमती हैं। “चटखे घड़े” कहानी की निम्न संवादात्मक पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं–
“सुनो जी, बाऊजी से कहो, लैट्रिन में पानी अच्छी तरह डाला करें।"
“बाऊजी, आप नहाते समय कितना पानी बर्बाद करते हैं।"
“बाऊजी, यह क्या उठा लाए सड़ी-गली सब्ज़ी!”
अलका सिन्हा
‘आख़िरी पड़ाव का दु:ख’ कथाकार सुभाष नीरव का तीसरा कहानी-संग्रह है। इससे पूर्व वर्ष 2003 में ‘औरत होने का गुनाह’ और पहला संग्रह वर्ष 1990 में ‘दैत्य तथा अन्य कहानियाँ’ प्रकाशित हो चुके हैं। सुभाष नीरव उन कहानीकारों में नहीं हैं जिन्हें किताब निकालने की हड़बड़ी रहती है। कारण, कि उनकी रचनात्मकता कई स्तरों पर संतुष्ट होती रहती है। अनुवाद को माध्यम बनाकर कई पंजाबी रचनाओं को उन्होंने हिंदी पाठकों के लिए पुनसृर्जित किया और एक सफल अनुवादक के रूप में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई। हाल के कुछ समय से इंटरनेट पर अपनी ‘ब्लॉग पत्रिकाओं’ के माध्यम से भी वे हिंदी साहित्य तथा अनुवाद के माध्यम से पाठकों को स्तरीय सामग्री उपलब्ध कराने में लगे हुए हैं। बहरहाल, इन सबके बीच उनके भीतर का रचनाकार एक सूक्ष्म दृष्टि से अपने आस-पास की दुनिया का अवलोकन करता रहा है।
नवीनतम कहानी संग्रह की चौदह कहानियों को पढ़कर ये कहा जा सकता है कि यह संग्रह लाचारी, मजबूरी और उपेक्षा से संघर्ष करते ‘स्वाभिमान’ की कहानियाँ हैं। बेरोजगारी की समस्या को केन्द्र में रखकर लिखी गई कहानी “दैत्य” एक महत्वपूर्ण कहानी है। ऐसे कई युवक मिल जाएंगे जो रोजगार पाने के लिए किसी न किसी रूप में समझौता कर बैठते हैं, लेकिन उनके विरुद्ध सुशील अपने स्वाभिमान को बिकने नहीं देता। सुशील की भूखी अंतडि़याँ जब राधेश्याम को पूरियाँ खाते देखती हैं तब वह जीप छोड़कर बस स्टैंड की तरफ बढ़ जाता है और उसे माँ के दिए रुपये काफी लगते हैं। ये रुपये दरअसल उसके वे संस्कार हैं जो उसे राधेश्याम जैसे किसी ‘दैत्य’ के सामने झुकने से बचा लेने के लिए काफी हैं।
इसी तरह “सांप” कहानी इस संग्रह को मूल्यवान बनाती है। आंचलिकता से भरा इस कहानी का परिवेश, गिद्धे-टप्पों के बीच, बड़ी बारीकी के साथ कथानक को बुनता है। ‘सांप’ की उपस्थिति समानांतर रूप से चलती है और एक द्वंद की स्थिति में ऐंटी-क्लाइमेक्स पर जा ठहरती है। “लौटना” कहानी भी एक अलग तरह की शैली को लेकर चलती है, गोया कोई कहानी नहीं, उपन्यास रचा जा रहा हो। कई उपशीर्षकों के साथ समय परिवर्तन, स्थिति परिवर्तन तथा बदलते दृष्टिकोण के तीखे मोड़ भी सावधानी के कट गए हैं। आज के बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद पर “मकड़ी” का मेटाफर लेकर बहुत सशक्त प्रस्तुति की गई है। यह छोटी-सी कहानी आज की क्रेडिट कार्ड शापिंग और उनके उपजने वाले खतरों के प्रति आगाह कराती है।
“इतने बुरे दिन”, “अंतत:” और “सफ़र में आदमी” जैसी कहानियाँ पाठक को किसी लाचारी के उस चरम बिन्दु तक ले जाती हैं जो व्यक्ति का टर्निंग-प्वाइंट होता है, वह उसे किसी गुंडे, मवाली की ओर उन्मुख करता है तो यही क्षण उसकी अस्मिता और स्वाभिमान को प्रमाणित भी करता है।
जहाँ एक ओर “आवाज़” कहानी किसी नवयुवती के सपनों में मेंहदी के रंग भरती है, वहीं हकीकत से उसकी मुठभेड़ होने पर एक दर्दनाक आवाज़ उभारती है, जो देर तक पाठकों के भीतर गूंजती रहती है।
“आख़िरी पड़ाव का दु:ख” संग्रह की कहानियाँ अपनी तरह से विविधता लिए हैं, फिर भी, यह संग्रह उम्र के अंतिम पड़ाव में भोगे जाने वाली उपेक्षा और तिरस्कार को लेकर अधिक संवेदनशील है। “आख़िरी पड़ाव का दु:ख” कहानी वृद्धावस्था और एकाकीपन को भोगते हुए मोहभंग की स्थिति पर ठहरती है तो “जीवन का ताप” कहानी उसी वृद्धावस्था को संवेदनाओं की ऊष्मा से जागृत रखती है और अहसास कराती है कि कोमल भावनाओं की प्रतीति हर उम्र में समान रूप से की जा सकती है।
संग्रह के अंतिम दो पन्ने बेहद कीमती हैं। “चटखे घड़े” कहानी की निम्न संवादात्मक पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं–
“सुनो जी, बाऊजी से कहो, लैट्रिन में पानी अच्छी तरह डाला करें।"
“बाऊजी, आप नहाते समय कितना पानी बर्बाद करते हैं।"
“बाऊजी, यह क्या उठा लाए सड़ी-गली सब्ज़ी!”
ऐसे कई तीखे दिल को भेदने वाले संवाद और बर्दाश्त के लिए बस एक शब्द – “गुडु़प !” ध्वनि-संवाद के रूप में एमदम नवीन प्रयोग! अलग अभिव्यंजना के साथ संग्रह की अंतिम कहानी तक पहुँचकर पाठक कई तरह की मनस्थितियों से गुजरता है, कई तरह के आंचलिक और शहरी परिवेश में गोते लगाता है और आशान्वित होता है कि सुभाष नीरव का पड़ाव अभी दूर है, अभी तो उनकी कहानियों का ग्राफ ऊपर और ऊपर की ओर बढ़ रहा है।