लेखक : रूपसिंह चन्देल
प्रकाशक : भावना प्रकाशन, 109-ए,
पटपड़गंज, दिल्ली-110091
मूल्य : 450 रुपये
पृष्ठ : 384
नर्क होता शहर और गर्क होते संबंध
रमेश कपूर
रमेश कपूर
यह कहना बहुत मुश्किल है कि किसी शहर की पहचान उसमें बसने वाले लोगों से होती है या लोगों की पहचान किसी शहर से। यही प्रश्न कथाकार रूपसिंह चन्देल के नवीनतम उपन्यास ‘शहर गवाह है‘ को पढ़ते हुए बार-बार मन में उठता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग दो दशक पूर्व के पारम्परिक गांवों से आरंभ होकर ‘शहर गवाह है’ की कहानी उत्तर प्रदेश के रायबरेली से कानपुर तक फैली हुई है। इन शहरों, विशेषकर कानपुर शहर का भीतरी फैलाव देश की तत्कालीन कई पीढ़ियों के फैलाव का प्रतिनिधित्व करता है। अपने जीवन-वृत्तांत को अपने यहां रहने वाले लोगों के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाते इन शहरों में जीवन की तेज रफ्तार इन्हें एक पहचान तो देती है, किन्तु ‘नर्क‘ होते इन शहरों में होते परिवर्तन बहुत तक़लीफदेह हैं। दरअसल एक नए शहर की कोख में एक और नए शहर के बस जाने की व्यथा बहुत उद्वेलित करती है।
शहर का यह उद्वेलन उसमें रहने वाले लोगों के जीवन को प्रभावित न करे, यह संभव ही नहीं है। वास्तव में जिस व्यथा का जिक्र मैं कर रहा हूँ, वह तीन पीढि़यों के माध्यम से व्यक्त होती है। जिस तरह एक इंसान अपना जीवन जीते हुए अपने वर्तमान, अतीत और अपने भविष्य में एक साथ जीता है, वही हाल किसी गांव-शहर का भी है। कानपुर इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। उसकी व्यथा यदि सामाजिक मूल्यों, व्यक्तिगत ईमानदारियों, भारत-पाकिस्तान की सांस्कृतिक विरासतों, हिन्दू-मुसलमान की व्यापारिक हिस्सेदारियों और देश की स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने को तत्पर क्रान्तिकारियों की छटपटाहट और संघर्ष से तौली जाए तो कह सकते हैं कि कुएं के एक छोर से कुएं के दूसरे छोर तक अंधेरे के सिवा कुछ दिखाई नहीं देता। ये अंधेरे न केवल जीवन-मूल्यों को ह्रास की स्थिति में ले जाते हैं, बल्कि पारस्परिक संबंधों को भी बुरी तरह प्रभावित करते हैं। संबंधों के इस फैलाव में एक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व दिलीपसिंह और समर बहादुर सिंह करते हैं तो उनसे अगली पीढ़ी की कमान राधिकारमण सिंह के हाथों में है, जो कानपुर के डी.ए.बी. कॉलेज में पढ़ते हुए चन्द्रशेखर आजाद और हलधर बाजपेई जैसे क्रान्तिकारियों के सान्निध्य में आते हैं। उनके पूरे जीवन पर इन क्रान्तिकारियों का प्रभाव बना रहता है। शायद यही कारण है कि राधिका रमण अधिक खुले विचारों के व्यक्ति हैं। किसी की भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में वह बाधा नहीं बनना चाहते। यहां तक कि अपनी सुपुत्री शैलजा के इस निर्णय पर भी वह कोई आपत्ति नहीं करते कि वह एक छोटे शहर से दिल्ली जैसे महानगर की भीड़ में नितांत अकेली रहकर नौकरी करे।
किन्तु आश्चर्य है कि उनकी यह ‘प्रोग्रेसिव’ सोच उनकी अगली पीढ़ी तक एक परंपरा के रूप में स्थापित नहीं हो पाती। भविष्य की यह पीढ़ी उनके सुपुत्र धर्मेंद्र और सुपुत्री शैलजा के तेज़-तर्रार क़दमों के साथ-साथ चलती है। इस पीढ़ी तक आते-आते संबंध अपनी महत्ता खोने लगते हैं। उनमें एक नामालूम-सा खोखलापन घर करने लगता है। संबंधों का यह खोखलापन जिस मुकाम पर आकर ठहरता है, जिस पड़ाव पर आकर रुकता है, वहां इंसान वापस लौटने को मजबूर हो जाता है। यहीं से वह आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया प्रारंभ करता है। और आत्मावलोकन के पश्चात् वह पाता है कि वह अपनी उन जड़ों से कट चुका है, जो धरती से जल लेकर उसे सींचने का काम करती हैं। तभी तो न दिलीप सिंह अपने गांव वापस जा पाते हैं, न ही राधिकारमण। इस बात का उन्हें दुख तो है ही। अपनी जड़ों से कट जाने का दुख हमेशा उन्हें सालता रहता है। शायद यही कारण है कि दिलीपसिंह हमेशा अपने को कानपुर में स्थापित करने की प्रक्रिया में लगे रहते हैं। वह कभी कपड़ों के व्यापार से जुड़ते हैं तो कभी कोयले के व्यापार से। जीवन में इतनी जद्दोजहद के बाद भी पहचान का संकट उनके साथ बना ही रहता है। संतुष्टि और स्थायित्व आसानी से मिल नहीं पाता।
इसके बावजूद एक पीढ़ी ऐसी भी है, जो अपनी जड़ों से कटने को तैयार नहीं है। बेशक उन्हें टूटना स्वीकार है। यह पीढ़ी है दिलीप सिंह के पिता भूरे सिंह और दिलीप के मित्र इकरामुर्रहमान के पिता खलीलुर्रहमान की। अपना गांव…अपनी गलियां…अपनी धरती उनकी सांसों में इस कदर रची-बसी हैं कि उसे छोड़कर कहीं अन्यत्र जाना उन्हें किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है। दिलीप के पिता तो स्पष्टत: नकारते हुए कहते हैं कि ‘‘दिलीप , मेरी ज़िंदगी गांव में कटी है्…यहीं मरूंगा।” ( पृ.135) –– और उधर खलीलुर्रहमान भी इसी सोच से घिरे हैं। उनकी पत्नी स्पष्ट तौर पर उनसे कहती हैं कि ‘‘इस शहर में हमारा है ही क्या ?… अगर आप भी अपना काम समेटकर लाहौर चलें… ।”( पृ. 152) लेकिन यह प्रस्ताव उन्हें पसंद नहीं। फिर भी वह उदास मन से कहते हैं कि ‘‘ … मेरा मन भी यहां से उखड़ गया है। लेकिन लाहौर जाकर गांव से पूरी तरह से कट जाऊंगा।” (पृ. 152)। कानपुर के उस दंगे के पश्चात् जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हुए और आतताइयों द्वारा इकरामुर्रहमान की दुकान जला दी गई, खलीलुर्रहमान लाहौर निवासी अपने साले और इकराम के ससुराल वालों की सलाह पर इकराम को लौहार भेजने का निर्णय कर लेते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भारतवासियों के संघर्ष से पूरे देश में आग लगी हुई है। भारत का कोई शहर इससे अछूता नहीं। कानपुर भी नहीं। शायद अपने भविष्य की सोच कर ही खलील बड़ी जद्दोजहद के पश्चात् स्वयं भी लाहौर चले जाते हैं।
इकराम और खलील के लाहौर प्रस्थान को लेखक ने हालांकि अधिक महत्व नहीं दिया है, फिर भी इसे भविष्य के लिए संकेत के रूप देखना उचित होगा। क्या मुसलमान लोगों का लाहौर या लाहौर से कानपुर-दिल्ली में हिन्दुओं का पलायन महज एक छोटी-सी घटना थी ? वह भी 1947 से पहले –– लेकिन यह अप्रत्याशित नहीं लगता। संभवत: इसके पीछे एक बड़ा कारण सामाजिक सुरक्षा का था। पलायन की यह प्रक्रिया एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। एक ऐसी लंबी प्रक्रिया, जिसके पीछे सांस्कृतिक कारण भी रहे हैं और राजनैतिक भी। अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य को बनाए रखने के लिए समाज की विभिन्न जातियों और संप्रदायों को आपस में लड़ाने और समाज को टुकड़ों में विभाजित करने की कुचेष्टा की थी। इसी के चलते विभिन्न वर्गों की मानसिकता में बदलाव आना स्वाभाविक था।
उपन्यास में आजादी से पूर्व कुछ हिन्दू-मुसलमान परिवारों के अपनी बिरादरी-बहुल शहरों की ओर पलायन पर अधिक प्रकाश डालने का प्रयास लेखक ने नहीं किया। इसके इतर उसने एक शहर की सोच और पात्रों की व्यक्तिगत सोच को उभारने में अपना विशेष ध्यान केन्द्रित किया है, जो अचंभित करता है। यही कारण है कि पात्रों और शहर की चिन्ताएं भी एक समान ही हैं। दोनों अपने भीतर होने वाले परिवर्तनों से आहत हैं। समाज के परिवर्तित होते चेहरे को… उसके मूल्यों को जहां दिलीप सिंह अपनी मेहनत, अपनी लगन से सींचते हैं, वहीं राधिकारमण अपनी ‘प्रोग्रेसिव‘ सोच को अपने उसूलों की पकी ज़मीन पर आजमाने की कोशिश करते हैं। किन्तु इस सोच को उनकी अगली पीढ़ी सदैव नकार देती है। ‘प्रोगेसिव’ सोच अगली पीढ़ी तक पहुँचकर ‘एग्रेसिव’ हो जाती है। इससे हैरान-परेशान राधिका इतिहास रचने की दहलीज पर आकर ठिठक जाते हैं– वहीं रुक जाते हैं। या कहें कि रोक दिए जाते हैं। संबंधों का ठंडापन उन्हें ऐसा करने से रोकता है।
यहीं से उनके भीतर कुछ टूटने लगता है। एक ऐसी टूटन, जिसकी आवाज़ उन्हें सुनाई नहीं देती। बस, हल्का-सा आभास मात्र ही होता है। और यहीं से आरंभ होता है दहलीज के इस ओर खड़े राधिका रमण –– और दहलीज के उस ओर खड़े उनके बच्चों के बीच वैचारिक अंतराल और एक शीत-युद्ध। इसे यदि ‘शहर गवाह है’ का प्रस्थान बिन्दु न भी माना जाए तो ऐसा बिन्दु तो अवश्य ही मान सकते हैं जहां से पारिवारिक, सामाजिक व राजनैतिक परिवर्तनों की टोह ली जा सकती है। और गांव से कस्बे और कस्बे से शहर होने की परिवर्तनशील प्रक्रिया को बड़ी ही शिद्दत से महसूस किया जा सकता है।
इस परिवर्तनशील (और पतनशील) प्रक्रिया को लेखक ने एक बहुत बड़ा फलक देने का प्रयास किया है। और इसके प्रथम गवाह के रूप में स्वतंत्रतापूर्व के भारतीय जीवन और उसके द्वंद्व को क्रांतिकरियों के संघर्ष व शहादत से उकेरने की कोशिश की है। भगत सिंह, चंन्द्र्शेखर आजा़द से लेकर हलधर बाजपेई व अन्य क्षेत्रीय क्रांतिकारियों का स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष जहां कानपुर जैसे शहर को अपने लहू से सींचता है, वहीं क्रांतिकारियों की इस चिन्ता को भी बहुत तीखेपन से उभारता है कि ‘‘छुटभैया सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बेताब हैं। यही नहीं, कल तक दबे-छुपे अंग्रेजों का साथ देने वाले राजे-महाराजे, जमींदार, जागीरदार –– आज कांग्रेस में घुस कर अपनी जगह मजबूत बनने की कोशिश में हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि नेहरू जैसे कुछ बड़े नेताओं को छोड़कर स्वार्थी लोगों की बड़ी संख्या है राजनीति में, जो केवल और केवल अपने लिए जीना चाहते हैं। मुझे देश का भविष्य बहुत उज्जवल नहीं दिख रहा। इनके शासन का ढंग अंग्रेजों से भिन्न नहीं होगा। क्या पता ये भी उनका अनुकरण करें… अभी न सही, बाद में - यानी जीतीय संघर्ष को बढ़ावा दो, बांटों और शासन करो… इसीलिए मुझे लगता है कि यह आजादी अधूरी है। पूरी आजादी के लिए हमें एक बार पुन: संघर्ष करना होगा।… और अब अपनों से…”(पृ. 187) । कानपुर के जुझारू क्रांतिकारी हलधर बाजपेई का राधिका रमण से कथन (पृ. 183) उल्लेखनीय है।
यह ‘वास्तवकि आजादी’ वास्तव में थी क्या ? दरअसल क्रांतिकारियों की इस सोच के पीछे भगतसिंह के विचारों का बहुत अधिक प्रभाव रहा है जिसके चलते उन पर यह आरोप भी लगता रहा कि वह अपने विचारों को दूसरों पर लादने का प्रयास करते रहे हैं। –– इस वास्तविक आजादी को भगतसिंह ने अपने लेख में स्पष्ट भी किया है कि –– ‘‘क्रांतिकारियों का विश्वास है कि देश को क्रांति से ही स्वतंत्रता मिलेगी। वे जिस क्रांति के लिए प्रयत्नशील हैं, और जिस क्रांति का स्वरूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों और उनके पिट्ठुओं से क्रांतिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जाएं। - क्रांति से सबसे बड़ी बात – तो यह होगी कि वह मजदूर तथा किसानों का राज्य कायम कर उन सब सामाजिक अवांछित तत्वों को समाप्त कर देगी जो देश की राजनीतिक शक्ति को हथियाये बैठे हैं।” ( संदर्भ : ‘बम का दर्शन’-, लेखक : भगत सिंह )
किन्तु यह स्वप्न न राजनैतिक रूप में साकार हो पाता है और न ही सामाजिक रूप में। उपन्यास के एक महत्वपूर्ण पात्र समर बहादुर सिंह की यह चिंता भी कोई रूप नहीं ले पाती कि ‘‘यहां के मजदूरों की स्थिति बहुत खराब है। जब तक देश आजाद नहीं हो जाता, उनकी हालत शायद ही बदले। –– बाद में बदलेगी, कैसे कहा जा सकता है। आज एक-एक जमींदार के पास हजारों बीघे खेत हैं जबकि मजदूरों के पास एक टुकड़ा भी नहीं है ज़मीन का। सरकार को चाहिए कि उनकी ज़मीनें छीनकर इनमें बांट दे। जो खेतों में श्रम करे, खेत उसके होने चाहिए।”(पृ. 181)
स्वप्नों के खंडित होने और पतनशीलता की यह प्रक्रिया समाज में इस कदर पैठ बना चुकी है कि इसका प्रभाव पारिवारिक संबंधों पर भी परिलक्षित होने लगता है। देश की भावी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती शैलजा इसका स्पष्ट उदाहरण है, जो अपनी कच्ची उम्र में भी उसके प्रेमी होने का दंभ भरने वाले देवेन्द्र आहूजा से फ्लर्ट करती रहती है। वह न तो अपनी नानी की सेवा करने को तैयार है, न ही किसी भी प्रकार का कोई घरेलू कार्य। इसके लिए उसके पास न तो समय है, न इच्छा। रिश्ते-नाते उसके लिए बस एक माध्यम हैं, जो उसे उसके ध्येय तक पहुँचने में सहायक हों। उसका एक ही ध्येय है - पद और पैसा। पैसे की भूख उसमें इतनी है कि वह सही और गलत की पहचान भी नहीं करना चाहती। तभी वह एक स्वाभिमानी और ईमानदार पिता की संतान होकर भी उनकी सोच- संस्कारों को अपना नहीं पाती। कानपुर जैसा शहर उसकी महत्वाकांक्षाओं के लिए छोटा पड़ने लगता है और वह दिल्ली महानगर में ‘शिफ्ट’ कर जाती है। हमेशा के लिए तमाम संबंधों, तमाम मूल्यों, तमाम सच्चाइयों, तमाम पारिवारिक प्रतिबद्धताओं को तिलांजलि देकर। दिल्ली में वह पुन: अपने शातिराना सोच को सक्रिय कर एक ऐसे शख़्स से प्रेम विवाह कर लेती है, जो शादी से पूर्व ही अनेक लड़कियों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित कर चुका था। लेकिन महत्वाकांक्षाएं विचार-कुविचार और पात्र-अपात्र में अंतर नहीं कर पातीं। बेशक इसके लिए शैलजा को अपने पिता की सारी जायदाद धोखे से अपने नाम ही क्यों न लिखवानी पड़े। बेशक अपनी बेसहारा बहन को विक्षिप्तावस्था में धकेलकर सड़कों पर भटकने के लिए विवश क्यों न करना पड़े। लेकिन महत्वाकांक्षाएं हर हाल में जीवित रहनी चाहिएं … अपनों की लाश पर पैर रखकर आगे बढ़ने के लिए। यह है नई पीढ़ी का यथार्थ। यह है उसके समक्ष संबंधों की महत्ता।
लेकिन इस समूचे सफर के दौरान इतना कहने की मैं इजाज़त अवश्य चाहता हूँ कि लेखक ने पूरी सामाजिकता को उपन्यास के अंत तक आते-आते उसे अत्यंत व्यक्तिगत लड़ाई में परिवर्तित कर दिया है। हालांकि उपन्यास का अंत बहुत उद्वेलित करता है और संबंधों की एक नई परिभाषा गढ़ता है –– अपने वर्तमान को साथ लिए हुए। इसमें घटनाओं की तीव्रता भी अहम भूमिका निभाती है और पाठकों को सकते की स्थिति में ला खड़ा करती हैं।
उपन्यास में लेखक ने अपनी किस्सागोई शैली का बखूबी प्रयोग किया है। यह विशेषता उनके अन्य उपन्यासों – ‘रमला बहू’ , ‘पाथरटीला’ और ‘नटसार’ में भी स्पष्ट थी। हां, इस विशेषता के चलते वह उपन्यास –– और उसके परिवेश को उभारने में शिल्प को अवश्य अनदेखा कर जाते हैं, जो उपन्यास के वातावरण को क्षतिग्रस्त करता है। फिर भी, इतना तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि कथ्य के स्तर पर यह उपन्यास लेखक की परिपक्वता को सिद्ध करता है। उपन्यास की पठनीयता अबाध्य है।
कुछ बातें खटकती हैं। यथा – क्रांतिकारियों से संबंधित प्रसंगों को अपेक्षित स्थान नहीं मिल पाया और ऐसा प्रतीत होता है कि कुछेक पात्रों के प्रति लेखक का दृष्टिकोण सहानुभूतिपूर्ण रहा है। मेरा अपना मानना है कि लेखक को रचना में एक पर्यवेक्षक की भूमिका में रहना चाहिए। फिर भी समग्रत: कथ्य और संवेदना के स्तर पर और लेखकीय विकासक्रम के स्तर पर भी यह उपन्यास अद्भुत एवं सुखद अनुभूति देता है।
रमेश कपूर
जन्म: 14 नवम्बर 1957, दिल्ली
शिक्षा: दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक
लेखन: विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में कहानियां, समीक्षाएं व ग़ज़लें
प्रकाशित।
संप्रति: व्यवसाय के साथ-साथ स्वतंत्र लेखन भी। इसके अतिरिक्त शीघ्र प्रकाश्य हिन्दी साहित्यिक पत्रिका ‘कथाशिखर’ ( त्रैमासिकी ) का सम्पादन।
सम्पर्क:ए–4/14, सैक्टर–18,
रोहिणी, दिल्ली–110089।
फोन : 011–2785 2324, मोबाइल : 09891252314, 09899641921 ,
ईमेल : kathashikhar414@yahoo.com
शहर का यह उद्वेलन उसमें रहने वाले लोगों के जीवन को प्रभावित न करे, यह संभव ही नहीं है। वास्तव में जिस व्यथा का जिक्र मैं कर रहा हूँ, वह तीन पीढि़यों के माध्यम से व्यक्त होती है। जिस तरह एक इंसान अपना जीवन जीते हुए अपने वर्तमान, अतीत और अपने भविष्य में एक साथ जीता है, वही हाल किसी गांव-शहर का भी है। कानपुर इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। उसकी व्यथा यदि सामाजिक मूल्यों, व्यक्तिगत ईमानदारियों, भारत-पाकिस्तान की सांस्कृतिक विरासतों, हिन्दू-मुसलमान की व्यापारिक हिस्सेदारियों और देश की स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने को तत्पर क्रान्तिकारियों की छटपटाहट और संघर्ष से तौली जाए तो कह सकते हैं कि कुएं के एक छोर से कुएं के दूसरे छोर तक अंधेरे के सिवा कुछ दिखाई नहीं देता। ये अंधेरे न केवल जीवन-मूल्यों को ह्रास की स्थिति में ले जाते हैं, बल्कि पारस्परिक संबंधों को भी बुरी तरह प्रभावित करते हैं। संबंधों के इस फैलाव में एक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व दिलीपसिंह और समर बहादुर सिंह करते हैं तो उनसे अगली पीढ़ी की कमान राधिकारमण सिंह के हाथों में है, जो कानपुर के डी.ए.बी. कॉलेज में पढ़ते हुए चन्द्रशेखर आजाद और हलधर बाजपेई जैसे क्रान्तिकारियों के सान्निध्य में आते हैं। उनके पूरे जीवन पर इन क्रान्तिकारियों का प्रभाव बना रहता है। शायद यही कारण है कि राधिका रमण अधिक खुले विचारों के व्यक्ति हैं। किसी की भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में वह बाधा नहीं बनना चाहते। यहां तक कि अपनी सुपुत्री शैलजा के इस निर्णय पर भी वह कोई आपत्ति नहीं करते कि वह एक छोटे शहर से दिल्ली जैसे महानगर की भीड़ में नितांत अकेली रहकर नौकरी करे।
किन्तु आश्चर्य है कि उनकी यह ‘प्रोग्रेसिव’ सोच उनकी अगली पीढ़ी तक एक परंपरा के रूप में स्थापित नहीं हो पाती। भविष्य की यह पीढ़ी उनके सुपुत्र धर्मेंद्र और सुपुत्री शैलजा के तेज़-तर्रार क़दमों के साथ-साथ चलती है। इस पीढ़ी तक आते-आते संबंध अपनी महत्ता खोने लगते हैं। उनमें एक नामालूम-सा खोखलापन घर करने लगता है। संबंधों का यह खोखलापन जिस मुकाम पर आकर ठहरता है, जिस पड़ाव पर आकर रुकता है, वहां इंसान वापस लौटने को मजबूर हो जाता है। यहीं से वह आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया प्रारंभ करता है। और आत्मावलोकन के पश्चात् वह पाता है कि वह अपनी उन जड़ों से कट चुका है, जो धरती से जल लेकर उसे सींचने का काम करती हैं। तभी तो न दिलीप सिंह अपने गांव वापस जा पाते हैं, न ही राधिकारमण। इस बात का उन्हें दुख तो है ही। अपनी जड़ों से कट जाने का दुख हमेशा उन्हें सालता रहता है। शायद यही कारण है कि दिलीपसिंह हमेशा अपने को कानपुर में स्थापित करने की प्रक्रिया में लगे रहते हैं। वह कभी कपड़ों के व्यापार से जुड़ते हैं तो कभी कोयले के व्यापार से। जीवन में इतनी जद्दोजहद के बाद भी पहचान का संकट उनके साथ बना ही रहता है। संतुष्टि और स्थायित्व आसानी से मिल नहीं पाता।
इसके बावजूद एक पीढ़ी ऐसी भी है, जो अपनी जड़ों से कटने को तैयार नहीं है। बेशक उन्हें टूटना स्वीकार है। यह पीढ़ी है दिलीप सिंह के पिता भूरे सिंह और दिलीप के मित्र इकरामुर्रहमान के पिता खलीलुर्रहमान की। अपना गांव…अपनी गलियां…अपनी धरती उनकी सांसों में इस कदर रची-बसी हैं कि उसे छोड़कर कहीं अन्यत्र जाना उन्हें किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है। दिलीप के पिता तो स्पष्टत: नकारते हुए कहते हैं कि ‘‘दिलीप , मेरी ज़िंदगी गांव में कटी है्…यहीं मरूंगा।” ( पृ.135) –– और उधर खलीलुर्रहमान भी इसी सोच से घिरे हैं। उनकी पत्नी स्पष्ट तौर पर उनसे कहती हैं कि ‘‘इस शहर में हमारा है ही क्या ?… अगर आप भी अपना काम समेटकर लाहौर चलें… ।”( पृ. 152) लेकिन यह प्रस्ताव उन्हें पसंद नहीं। फिर भी वह उदास मन से कहते हैं कि ‘‘ … मेरा मन भी यहां से उखड़ गया है। लेकिन लाहौर जाकर गांव से पूरी तरह से कट जाऊंगा।” (पृ. 152)। कानपुर के उस दंगे के पश्चात् जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हुए और आतताइयों द्वारा इकरामुर्रहमान की दुकान जला दी गई, खलीलुर्रहमान लाहौर निवासी अपने साले और इकराम के ससुराल वालों की सलाह पर इकराम को लौहार भेजने का निर्णय कर लेते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भारतवासियों के संघर्ष से पूरे देश में आग लगी हुई है। भारत का कोई शहर इससे अछूता नहीं। कानपुर भी नहीं। शायद अपने भविष्य की सोच कर ही खलील बड़ी जद्दोजहद के पश्चात् स्वयं भी लाहौर चले जाते हैं।
इकराम और खलील के लाहौर प्रस्थान को लेखक ने हालांकि अधिक महत्व नहीं दिया है, फिर भी इसे भविष्य के लिए संकेत के रूप देखना उचित होगा। क्या मुसलमान लोगों का लाहौर या लाहौर से कानपुर-दिल्ली में हिन्दुओं का पलायन महज एक छोटी-सी घटना थी ? वह भी 1947 से पहले –– लेकिन यह अप्रत्याशित नहीं लगता। संभवत: इसके पीछे एक बड़ा कारण सामाजिक सुरक्षा का था। पलायन की यह प्रक्रिया एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। एक ऐसी लंबी प्रक्रिया, जिसके पीछे सांस्कृतिक कारण भी रहे हैं और राजनैतिक भी। अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य को बनाए रखने के लिए समाज की विभिन्न जातियों और संप्रदायों को आपस में लड़ाने और समाज को टुकड़ों में विभाजित करने की कुचेष्टा की थी। इसी के चलते विभिन्न वर्गों की मानसिकता में बदलाव आना स्वाभाविक था।
उपन्यास में आजादी से पूर्व कुछ हिन्दू-मुसलमान परिवारों के अपनी बिरादरी-बहुल शहरों की ओर पलायन पर अधिक प्रकाश डालने का प्रयास लेखक ने नहीं किया। इसके इतर उसने एक शहर की सोच और पात्रों की व्यक्तिगत सोच को उभारने में अपना विशेष ध्यान केन्द्रित किया है, जो अचंभित करता है। यही कारण है कि पात्रों और शहर की चिन्ताएं भी एक समान ही हैं। दोनों अपने भीतर होने वाले परिवर्तनों से आहत हैं। समाज के परिवर्तित होते चेहरे को… उसके मूल्यों को जहां दिलीप सिंह अपनी मेहनत, अपनी लगन से सींचते हैं, वहीं राधिकारमण अपनी ‘प्रोग्रेसिव‘ सोच को अपने उसूलों की पकी ज़मीन पर आजमाने की कोशिश करते हैं। किन्तु इस सोच को उनकी अगली पीढ़ी सदैव नकार देती है। ‘प्रोगेसिव’ सोच अगली पीढ़ी तक पहुँचकर ‘एग्रेसिव’ हो जाती है। इससे हैरान-परेशान राधिका इतिहास रचने की दहलीज पर आकर ठिठक जाते हैं– वहीं रुक जाते हैं। या कहें कि रोक दिए जाते हैं। संबंधों का ठंडापन उन्हें ऐसा करने से रोकता है।
यहीं से उनके भीतर कुछ टूटने लगता है। एक ऐसी टूटन, जिसकी आवाज़ उन्हें सुनाई नहीं देती। बस, हल्का-सा आभास मात्र ही होता है। और यहीं से आरंभ होता है दहलीज के इस ओर खड़े राधिका रमण –– और दहलीज के उस ओर खड़े उनके बच्चों के बीच वैचारिक अंतराल और एक शीत-युद्ध। इसे यदि ‘शहर गवाह है’ का प्रस्थान बिन्दु न भी माना जाए तो ऐसा बिन्दु तो अवश्य ही मान सकते हैं जहां से पारिवारिक, सामाजिक व राजनैतिक परिवर्तनों की टोह ली जा सकती है। और गांव से कस्बे और कस्बे से शहर होने की परिवर्तनशील प्रक्रिया को बड़ी ही शिद्दत से महसूस किया जा सकता है।
इस परिवर्तनशील (और पतनशील) प्रक्रिया को लेखक ने एक बहुत बड़ा फलक देने का प्रयास किया है। और इसके प्रथम गवाह के रूप में स्वतंत्रतापूर्व के भारतीय जीवन और उसके द्वंद्व को क्रांतिकरियों के संघर्ष व शहादत से उकेरने की कोशिश की है। भगत सिंह, चंन्द्र्शेखर आजा़द से लेकर हलधर बाजपेई व अन्य क्षेत्रीय क्रांतिकारियों का स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष जहां कानपुर जैसे शहर को अपने लहू से सींचता है, वहीं क्रांतिकारियों की इस चिन्ता को भी बहुत तीखेपन से उभारता है कि ‘‘छुटभैया सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बेताब हैं। यही नहीं, कल तक दबे-छुपे अंग्रेजों का साथ देने वाले राजे-महाराजे, जमींदार, जागीरदार –– आज कांग्रेस में घुस कर अपनी जगह मजबूत बनने की कोशिश में हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि नेहरू जैसे कुछ बड़े नेताओं को छोड़कर स्वार्थी लोगों की बड़ी संख्या है राजनीति में, जो केवल और केवल अपने लिए जीना चाहते हैं। मुझे देश का भविष्य बहुत उज्जवल नहीं दिख रहा। इनके शासन का ढंग अंग्रेजों से भिन्न नहीं होगा। क्या पता ये भी उनका अनुकरण करें… अभी न सही, बाद में - यानी जीतीय संघर्ष को बढ़ावा दो, बांटों और शासन करो… इसीलिए मुझे लगता है कि यह आजादी अधूरी है। पूरी आजादी के लिए हमें एक बार पुन: संघर्ष करना होगा।… और अब अपनों से…”(पृ. 187) । कानपुर के जुझारू क्रांतिकारी हलधर बाजपेई का राधिका रमण से कथन (पृ. 183) उल्लेखनीय है।
यह ‘वास्तवकि आजादी’ वास्तव में थी क्या ? दरअसल क्रांतिकारियों की इस सोच के पीछे भगतसिंह के विचारों का बहुत अधिक प्रभाव रहा है जिसके चलते उन पर यह आरोप भी लगता रहा कि वह अपने विचारों को दूसरों पर लादने का प्रयास करते रहे हैं। –– इस वास्तविक आजादी को भगतसिंह ने अपने लेख में स्पष्ट भी किया है कि –– ‘‘क्रांतिकारियों का विश्वास है कि देश को क्रांति से ही स्वतंत्रता मिलेगी। वे जिस क्रांति के लिए प्रयत्नशील हैं, और जिस क्रांति का स्वरूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों और उनके पिट्ठुओं से क्रांतिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जाएं। - क्रांति से सबसे बड़ी बात – तो यह होगी कि वह मजदूर तथा किसानों का राज्य कायम कर उन सब सामाजिक अवांछित तत्वों को समाप्त कर देगी जो देश की राजनीतिक शक्ति को हथियाये बैठे हैं।” ( संदर्भ : ‘बम का दर्शन’-, लेखक : भगत सिंह )
किन्तु यह स्वप्न न राजनैतिक रूप में साकार हो पाता है और न ही सामाजिक रूप में। उपन्यास के एक महत्वपूर्ण पात्र समर बहादुर सिंह की यह चिंता भी कोई रूप नहीं ले पाती कि ‘‘यहां के मजदूरों की स्थिति बहुत खराब है। जब तक देश आजाद नहीं हो जाता, उनकी हालत शायद ही बदले। –– बाद में बदलेगी, कैसे कहा जा सकता है। आज एक-एक जमींदार के पास हजारों बीघे खेत हैं जबकि मजदूरों के पास एक टुकड़ा भी नहीं है ज़मीन का। सरकार को चाहिए कि उनकी ज़मीनें छीनकर इनमें बांट दे। जो खेतों में श्रम करे, खेत उसके होने चाहिए।”(पृ. 181)
स्वप्नों के खंडित होने और पतनशीलता की यह प्रक्रिया समाज में इस कदर पैठ बना चुकी है कि इसका प्रभाव पारिवारिक संबंधों पर भी परिलक्षित होने लगता है। देश की भावी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती शैलजा इसका स्पष्ट उदाहरण है, जो अपनी कच्ची उम्र में भी उसके प्रेमी होने का दंभ भरने वाले देवेन्द्र आहूजा से फ्लर्ट करती रहती है। वह न तो अपनी नानी की सेवा करने को तैयार है, न ही किसी भी प्रकार का कोई घरेलू कार्य। इसके लिए उसके पास न तो समय है, न इच्छा। रिश्ते-नाते उसके लिए बस एक माध्यम हैं, जो उसे उसके ध्येय तक पहुँचने में सहायक हों। उसका एक ही ध्येय है - पद और पैसा। पैसे की भूख उसमें इतनी है कि वह सही और गलत की पहचान भी नहीं करना चाहती। तभी वह एक स्वाभिमानी और ईमानदार पिता की संतान होकर भी उनकी सोच- संस्कारों को अपना नहीं पाती। कानपुर जैसा शहर उसकी महत्वाकांक्षाओं के लिए छोटा पड़ने लगता है और वह दिल्ली महानगर में ‘शिफ्ट’ कर जाती है। हमेशा के लिए तमाम संबंधों, तमाम मूल्यों, तमाम सच्चाइयों, तमाम पारिवारिक प्रतिबद्धताओं को तिलांजलि देकर। दिल्ली में वह पुन: अपने शातिराना सोच को सक्रिय कर एक ऐसे शख़्स से प्रेम विवाह कर लेती है, जो शादी से पूर्व ही अनेक लड़कियों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित कर चुका था। लेकिन महत्वाकांक्षाएं विचार-कुविचार और पात्र-अपात्र में अंतर नहीं कर पातीं। बेशक इसके लिए शैलजा को अपने पिता की सारी जायदाद धोखे से अपने नाम ही क्यों न लिखवानी पड़े। बेशक अपनी बेसहारा बहन को विक्षिप्तावस्था में धकेलकर सड़कों पर भटकने के लिए विवश क्यों न करना पड़े। लेकिन महत्वाकांक्षाएं हर हाल में जीवित रहनी चाहिएं … अपनों की लाश पर पैर रखकर आगे बढ़ने के लिए। यह है नई पीढ़ी का यथार्थ। यह है उसके समक्ष संबंधों की महत्ता।
लेकिन इस समूचे सफर के दौरान इतना कहने की मैं इजाज़त अवश्य चाहता हूँ कि लेखक ने पूरी सामाजिकता को उपन्यास के अंत तक आते-आते उसे अत्यंत व्यक्तिगत लड़ाई में परिवर्तित कर दिया है। हालांकि उपन्यास का अंत बहुत उद्वेलित करता है और संबंधों की एक नई परिभाषा गढ़ता है –– अपने वर्तमान को साथ लिए हुए। इसमें घटनाओं की तीव्रता भी अहम भूमिका निभाती है और पाठकों को सकते की स्थिति में ला खड़ा करती हैं।
उपन्यास में लेखक ने अपनी किस्सागोई शैली का बखूबी प्रयोग किया है। यह विशेषता उनके अन्य उपन्यासों – ‘रमला बहू’ , ‘पाथरटीला’ और ‘नटसार’ में भी स्पष्ट थी। हां, इस विशेषता के चलते वह उपन्यास –– और उसके परिवेश को उभारने में शिल्प को अवश्य अनदेखा कर जाते हैं, जो उपन्यास के वातावरण को क्षतिग्रस्त करता है। फिर भी, इतना तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि कथ्य के स्तर पर यह उपन्यास लेखक की परिपक्वता को सिद्ध करता है। उपन्यास की पठनीयता अबाध्य है।
कुछ बातें खटकती हैं। यथा – क्रांतिकारियों से संबंधित प्रसंगों को अपेक्षित स्थान नहीं मिल पाया और ऐसा प्रतीत होता है कि कुछेक पात्रों के प्रति लेखक का दृष्टिकोण सहानुभूतिपूर्ण रहा है। मेरा अपना मानना है कि लेखक को रचना में एक पर्यवेक्षक की भूमिका में रहना चाहिए। फिर भी समग्रत: कथ्य और संवेदना के स्तर पर और लेखकीय विकासक्रम के स्तर पर भी यह उपन्यास अद्भुत एवं सुखद अनुभूति देता है।
रमेश कपूर
जन्म: 14 नवम्बर 1957, दिल्ली
शिक्षा: दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक
लेखन: विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में कहानियां, समीक्षाएं व ग़ज़लें
प्रकाशित।
संप्रति: व्यवसाय के साथ-साथ स्वतंत्र लेखन भी। इसके अतिरिक्त शीघ्र प्रकाश्य हिन्दी साहित्यिक पत्रिका ‘कथाशिखर’ ( त्रैमासिकी ) का सम्पादन।
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