सोमवार, 29 सितंबर 2008

संस्मरण








पुण्यतिथि (२८ सितम्बर) के अवसर पर


एक परंपरा का अन्त था डॉ० शिवप्रसाद सिंह का जाना

रूपसिंह चन्देल


डर--- एक ऎसा डर, जो किसी भी बड़े व्यक्तित्व से सम्पर्क करने-मिलने से पूर्व होता है. सच कहूं तो मैं उनके साहित्यकार- ---एक उद्भट विद्वान साहित्यकार, जिनकी बौद्धिकता, तार्किकता और विलक्षण प्रतिभा सम्पन्नता ने प्रारम्भ से ही हिन्दी साहित्य को आन्दोलित कर रखा था --- से संपर्क करने से वर्षों तक कतराता रहा. आज हिन्दी साहित्य में लेखकों की संख्या हजारों में है , लेकिन डॉ० शिवप्रसाद सिंह जैसे विद्वान साहित्यकार आज कितने हैं? आज जब दो-चार कहानियां या एक-दो उपन्यास लिख लेनेवाले लेखक को आलोचक (?) या सम्पादक महान कथाकार घोषित कर रहे हों तब हिन्दी कथा-साहित्य के शिखर पुरुष शिवप्रसाद सिंह की याद हो आना स्वाभाविक है.

कहते हैं , 'पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं.' डॉ० शिवप्रसाद सिंह की प्रतिभा और विद्वत्ता ने इण्टरमीडिएट के छात्र दिनों से ही अपने वरिष्ठों और मित्रों को प्रभावित करना प्रारम्भ कर दिया था. वे कॉलेज की पत्रिका के सम्पादक थे और न केवल विद्यार्थी उनका सम्मान करते थे, प्रत्युत शिक्षकों को भी वे विशेष प्रिय थे. पढ़ने में कुशाग्रता और साहित्य में गहरे पैठने की रुचि के कारण कॉलेज में उनकी धाक थी.

डॉ० शिवप्रसाद सिंह का जन्म १९ अगस्त, १९२८ को बनारस के जलालपुर गांव में एक जमींदार परिवार में हुआ था. वे प्रायः अपने बाबा के जमींदारी वैभव की चर्चा किया करते ; लेकिन उस वातावरण से असंपृक्त बिलकुल पृथक संस्कारों में उनका विकास हुआ. उनके विकास में उनकी दादी मां, पिता और मां का विशेष योगदान रहा, इस बात की चर्चा वे प्रायः करते थे. दादी मां की अक्षुण्ण स्मृति अंत तक उन्हें रही और यह उसीका प्रभाव था कि
उनकी पहली कहानी भी 'दादी मां' थी, जिससे हिन्दी कहानी को नया आयाम मिला. 'दादी मां' से नई कहानी का प्रवर्तन स्वीकार किया गया--- और यही नहीं, यही वह कहानी थी जिसे पहली आंचलिक कहानी होने का गौरव भी प्राप्त हुआ. तब तक रेणु का आंचलिकता के क्षेत्र में आविर्भाव नहीं हुआ था. बाद में डॉ० शिवप्रसाद सिंह ने अपनी कहानियों में आंचलिकता के जो प्रयोग किए वह प्रेमचंद और रेणु से पृथक --- एक प्रकार से दोनों के मध्य का मार्ग था; और यही कारण था कि उनकी कहानियां पाठकों को अधिक आकर्षित कर सकी थीं. इसे विडंबना कहा जा सकता है कि जिसकी रचनाओं को साहित्य की नई धारा के प्रवर्तन का श्रेय मिला हो, उसने किसी भी आंदोलन से अपने को नहीं जोड़ा. वे स्वतंत्र एवं अपने ढंग के लेखन में व्यस्त रहे और शायद इसीलिए वे कालजयी कहानियां और उपन्यास लिख सके.

शिवप्रसाद सिंह का विकास हालांकि पारिवारिक वातावरण से अलग सुसंस्कारों की छाया में हुआ, लेकिन उनके व्यक्तित्व में सदैव एक ठकुरैती अक्खड़पन विद्यमान रहा. कुन्तु यह अक्खड़पन प्रायः सुषुप्त ही रहता, जाग्रत तभी होता जहां लेखक का स्वाभिमान आहत होता. शायद मुझे उनके इस व्यक्तिव्त के विषय में मित्र साहित्यकारों ने अधिक ही बताया होगा और मैं उनसे संपर्क करने से बचता रहा. उनकी रचनाओं -- 'दादी मां', 'कर्मनाशा की हार', 'धतूरे का फूल', 'नन्हो', 'एक यात्रा सतह के नीचे', 'राग गूजरी', 'मुरदा सराय' आदि कहानियों तथा 'अलग-अलग वैतरिणी' और 'गली आगे मुड़ती है' से एम०ए० करने तक परिचित हो चुका था और जब लेखन की ओर मैं गंभीरता से प्रवृत्त हुआ, मैंने उनकी कहानियां पुनः खोजकर पढ़ीं; क्योंकि मैं लेखन में अपने को उनके कहीं अधिक निकट पा रहा था. मुझे उनके गांव-जन-वातावरण ऎसे लगते जैसे वे सब मेरे देखे-भोगे थे.

लंबे समय तक डॉक्टर साहब (मैं उन्हें यही सम्बोधित करता था) की रचनाओं में खोता-डूबता-अंतरंग होता आखिर मैंने एक दिन उनसे संपर्क करने का निर्णय किया. प्रसंग मुझे याद नहीं; लेकिन तब मैं 'रमला बहू' (उपन्यास) लिख रहा था . मैंने उन्हें पत्र लिखा और एक सप्ताह के अंदर ही जब मुझे उनका पत्र मिला, मेरी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा. लिखा था---'मैं तुम्हे कब से खोज रहा था!---- आज तक कहां थे?'


डॉक्टर साहब का यह लिखना मुझ जैसे साधारण लेखक को अंदर तक आप्लावित कर गया. उसके बाद पत्रों, मिलने और फोन पर लंबी वार्ताओं का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ, वह १५-१६ जुलाई, १९९८ तक चलता रहा. मुझे याद है, अंतिम बार फोन पर उनसे मेरी बात इन्हीं में से किसी दिन हुई थी. उससे कुछ पहले से वे बीमार थे. डाक्टर 'प्रोस्टेट' का इलाज कर रहे थे. यह वृद्धावस्था की बीमारी है. लेकिन उससे उन्हें कोई लाभ नहीं हो रहा था. जून में जब मेरी बात हुई तो दुखी स्वर में वे बोले कि इस बीमारी के कारण 'अनहद गरजे' उपन्यास पर वे कार्य नहीं कर पा रहे ( जो कबीर पर आधारित होने वाला था). उससे पूर्व एक अन्य उपन्यास पूरा करना चाहते थे और उसी पर कार्य कर रहे थे. यह पुनर्जन्म की अवधारणा पर आधारित था. 'मैं कहां-कहां खोजूं'. फोन पर उसकी संक्षिप्त कथा भी उन्होंने मुझे सुनाई थी. लेकिन 'अनहद गरजे' की तैयारी भी साथ-साथ चल रही थी.

डॉ० शिवप्रसाद सिंह उन बिरले लेखकों में थे, जो किसी विषय विशेष पर कलम उठाने से पूर्व विषय से संबंधित तमाम तैयारी पूरी करके ही लिखना प्रारंभ करते थे. 'नीला चांद', 'कोहरे में युद्ध', 'दिल्ली दूर है' या 'शैलूष' इसके जीवंत उदाहरण हैं. 'वैश्वानर' पर कार्य करने से पूर्व उन्होंने संपूर्ण वैदिक साहित्य खंगाल डाला था और कार्य के दौरान भी जब किसी नवीन कृति की सूचना मिली, उन्होंने कार्य को वहीं स्थगित कर जब तक उस कृति को उपलब्ध कर उससे गुजरे नहीं, 'वैश्वानर' लिखना स्थगित रखा. किसी भी जिज्ञासु की भांति वे विद्वानों से उस काल पर चर्चा कर उनके मत को जानते थे. १९९३ के दिसंबर में वे इसी उद्देश्य से डॉ० रामविलास शर्मा के यहां पहुंचे थे और लगभग डेढ़ घण्टे विविध वैदिक विषयों पर चर्चा करते रहे थे.

जून में जब मैंने उन्हें सलाह दी कि वे दिल्ली आ जाएं, जिससे 'प्रोस्टेट' के ऑपरेशन की व्यवस्था की जा सके, तब वे बोले, "डॉक्टरों ने यहीं ऑपरेशन के लिए कहा है. गरमी कुछ कम हो तो करवा लूंगा." दरअसल वे यात्रा टालना चाहते थे, जिससे उपन्यास पूरा कर सकें. डॉक्टरों ने कल्पाना भी न की थी कि उन्हें कोई भयानक बीमारी अंदर-ही अंदर खोखला कर रही थी. उनका शरीर भव्य, आंखें बड़ीं-- यदि अतीत में जाएं तो कह सकते हैं कि कुणाल पक्षी जैसी सुन्दर, लालट चौड़ा, चेहरा बड़ा और पान से रंगे होंठ सदैव गुलाबी रहते थे. मैंने उन्हें सदैव धोती पर सिल्क का कुरता पहने ही देखा, जो उनके व्यक्तित्व को द्विगुणित आभा ही नहीं प्रदान करता था, बल्कि दूसरे पर उनकी उद्भट विद्वत्ता की छाप भी छोड़ता था. हर क्षण चेहरे पर विद्यमान तेज और तैरती निश्च्छल मुकराहट ने डॉक्टरों को धोखा दे दिया था और वे आश्वस्त कर बैठे कि मर्ज ला-इलाज नहीं है. साहित्यकार 'मैं कहां-कहां खोजूं' को पूरा करने में निमग्न हो गया, जिससे अपने अगले महत्वाकांक्षी उपन्यास 'अनहद गरजे' पर काम कर सकें. डॉक्टर साहब कबीर पर डूबकर लिखना चाहते थे; क्योंकि यह एक चुनौतीपूर्ण उपन्यास बननेवाला था ( कबीर सदैव सबके लिए चनौती रहे हैं )---- लेकिन शरीर साथ नहीं दे रहा था. जुलाई में एक दिन वे बाथरूम जाते हुए दीवार से टकरा गए. सिर में चोट आई . लेकिन इसके बावजूद वे मुझसे पन्द्रह-बीस मिनट तक बातें करते रहे थे. मैं उनकी कमजोरी भांप रहा था और तब भी मैंने उन्हें कहा था कि वे दिल्ली आ जांए. "नहीं ठीक हुआ तो आना ही पड़ेगा." ढंडा-सा स्वर था उनका. सदैव से पृथक थी वह आवाज. अन्यथा फोन पर भी उनकी आवाज के गांभीर्य को अनुभव करना मुझे सुखद लगता था--- "कहो रूप, क्या हाल हैं?" बात का प्रारंभ वे इसी वाक्य से करते थे.


डॉक्टर साहब दिल्ली आए, लेकिन देर हो चुकी थी. आने से पूर्व उन्होंने मुझे फोन करने का प्रयत्न किया रात में, लेकिन फोन नहीं मिला. तब मोबाइल का चलन न था. उन्होंने डॉ० कृष्णदत्त पालीवाल को फोन कर आने की बात बताई. पालीवाल जी ने उन्हें एयरपोर्ट से रेसीव किया. कई दिन डॉक्टरों से संपर्क में बीते, अंततः १० अगस्त को उन्हें राममनोहर लोहिया अस्पताल के प्राइवेट नर्सिंग होम में भर्ती करवाया गया. मैं जब मिलने गया तो देखकर हत्प्रभ रह गया ----" क्या ये वही डॉ० शिवप्रसाद सिंह हैं?' डॉक्टर साहब का शरीर गल चुका था. शरीर का भारीपन ढूंढ़े़ भी नहीं मिला. कंचन-काया घुल गई थी और बांहों में झुर्रियां स्पष्ट थीं. मेरे समक्ष एक ऎसा युगपुरुष शय्यासीन था, जिसने साहित्य में मील के पत्थर गाडे़ थे. जिधर रुख किया, शोध, आलोचना, निबंध, कहानी, उपन्यास, यात्रा- संस्मरण या नाटक---- उल्लेखनीय काम किया. मैं यह बात पहले भी कह चुका हूं और निस्संकोच पुनः कहना चाहता हूं कि हिन्दी उपन्यासों के क्षेत्र की उदासीनता उनके 'नीला चांद' से टूटी थी. इसे इस रूप में कहना अधिक उचित होगा कि 'नीला चांद' से ही उपन्यासों की वापसी स्वीकार की जानी चाहिए. नई पीढ़ी, जो कहानियों और अन्य लघु विधाओं में मुब्तिला थी, उसके पश्चात उपन्यासॊं की ओर आकर्षित हुई. बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक को यदि 'उपन्यास दशक' के रूप में रेखांकित किया जाए तो अत्युक्ति न होगी. अनेक महत्वपूर्ण उपन्यास इस दशक में आए. यह अलग बात है कि साहित्य की निकृष्ट राजनीति और तत्काल-झपट की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण जिन उपन्यासों की चर्चा होनी चाहिए थी, नहीं हुई या अपेक्षाकृत कम हुई; और जिनकी हुई, वे उस योग्य न थे. डॉ शिवप्रसाद सिंह के उपन्यासों - 'शैलूष', 'हनोज दिल्ली दूर अस्त' जो दो खंडॊं -- 'कोहरे में युद्ध' एवं 'दिल्ली दूर है' के रूप में प्रकाशित हुए थे, एवं 'औरत' और उनके अंतिम उपन्यास 'वैश्वानर' की अपेक्षित चर्चा नहीं की गई. ऎसा योजनाबद्ध रूप से किया गया. डॉ० शिव प्रसाद सिंह इस बात से दुखी थे. वे दुखी इस बात से नहीं थे कि उनकी कृतियों पर लोग मौन धारण का लेते थे, बल्कि इसलिए कि हिन्दी में जो राजनीति थी उससे वह साहित्य का विकास अवरुद्ध देखते थे.उनसे मुलाकात होने या फोन करने पर वह साहित्यिक राजनीति की चर्चा अवश्य करते थे.

इस अवसर पर उनके विषय में व्यक्त राजकुमार गौतम के उद्गार याद आ रहे हैं. गौतम ने ऎसा किसी राजनीतिवश किया था या अपनी किसी कुण्ठावश आजतक मैं समझ नहीं पाया. गौतम मेरे विभाग में थे और कई वर्षों तक हम साथ-साथ रहे थे. जिन दिनों की बात है, उन दिनों हम आर.के. पुरम कार्यालय में थे. बात १९९३ की थी . 'नवल कैण्टीन' में चाय के दौरान शिवप्रसाद सिंह की चर्चा आने पर राजकुमार गौतम ने तिक्ततापूर्वक कहा, "वह बुड्ढा स्साला क्या लिखता है--- इतिहास की चोरी ही तो करता है." उन्होंने दो अवसरों पर यही बात कही.बात मुझे आहत कर गयी . शायद कही भी इसीलिए गयी थी, क्योंकि मैं शिवप्रसाद जी के अति निकट था . तीसरी बार उन्होंने यह बात तब कही जब वह रक्षा मंत्रालय में प्रतिनियुक्ति में थे और मैं आर० एण्ड डी० में था. हम प्रायः लंच के समय मिलते और साहित्य पर चर्चा करते. एक दिन लंच के बाद जब हम अपने-अपने कार्यालयों को जा रहे थे तब 'नार्थब्लॉक" के गेट पर उन्होंने शिवप्रसाद सिंह के बारे में हू बहू वही शब्द कहे जो आर.के.पुरम की नवल कैण्टीन में दो बार वह कह चुके थे. मैंने तीनों बार ही कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, लेकिन इस विषय पर निरन्तर सोचता रहा. दो निष्कर्ष निकाले थे तब मैंने. 'नीला चांद' प्रकाशित होने के बाद शिवप्रसाद सिंह के कुछ समकालीन साहित्यकार उनके विरुद्ध बोलने लगे थे -- यहां तक वे उन्हें हिन्दूवादी लेखक भी कहने लगे थे. उनमें एक बड़ी कथा पत्रिका के सम्पादक भी थे.निर्मल वर्मा और शैलेश मटियानी उनकी राजनीति का शिकार हो चुके थे. गौतम जी उन दिनों उन सम्पादक के निकट थे और संभव है उनके प्रभाववश उन्होंने शिवप्रसाद जी को गाली दी हो.

दूसरा कारण भी हो सकता था. १९९२ से गौतम जी दिल्ली के एक प्रकाशक के लिए कुछ काम कर रहे थे. उन प्रकाशक ने १९९३ में अपने पिता के नाम दिये जाने वाले पुरस्कार समारोह की अध्यक्षता के लिए शिवप्रसाद जी को बुलाया था. प्रकाशक के यहां गौतम जी की सक्रियता देख शिवप्रसाद सिंह ने मुझसे पूछा कि गौतम प्रकाशक के यहां किस पद पर काम कर रहे हैं. मैंने उन्हें बताया कि वह मेरे विभाग में मेरे ही साथ हैं. बात इतनी ही थी, लेकिन शिवप्रसाद जी की चर्चा चलने में मैंने उनकी उस बात का जिक्र गौतम से कर दिया था. संभव है साहित्य में कुछ बड़ा न कर पाने की कुण्ठा ने गौतम को शिवप्रसाद जी को गाली देने के लिए प्रेरित किया हो. इस बात का जिक्र मैंने वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी से किया; और शिकायत के रूप में किया, क्योंकि वे हम दोनों के मित्र थे और आज भी हैं और वह शिवप्रसाद जी के भी निकट थे. उन्होंने जो उत्तर दिया वह चौंकानेवाला था. उनका कथन था कि गौतम ऎसा कह ही नहीं सकता. खैर, आज उतनी ही पीड़ा से, जितनी तब मुझे हुई थी, जब गौतम ने शिवप्रसाद सिंह को गलियाया था, मैं इस घटना का जिक्र केवल इसलिए कर रहा हूं कि आज भी साहित्य में कुछ न कर पाने वाले लोग निरंतर काम करने वाले लेखकों को गलियाते रहते हैं. यहां मुझे शिवप्रसाद जी के शब्द याद आ रहे हैं जो उन्होंने मुझसे लंबे साक्षात्कार के दौरान ऎसे लोगों के लिए कहे थे- "वे मुझसे अच्छा राग गाकर दिखा दें मैं गाना(लिखना) बंद कर दूंगा."

डॉक्टर साहब के अनेक पत्र हैं मेरे पास, जिसमें उन्होंने मुझे सदैव यही सलाह दी कि लेखन में न कोई समझौता करूं, न किसी की परवाह. और उन्होंने भी किसी की परवाह नहीं की. जीवन में कभी व्यवस्थित नहीं रहे. रहे होते तो वे दूसरे बनारसी विद्वानों की भांति बनारस में ही न पड़े रहे होते. कहीं भी कोई ऊंचा पद ले सकते थे. ऎसा भी नहीं कि उन्हें ऑफर नहीं मिले, लेकिन वे कभी 'कैरियरिस्ट' नहीं रहे. जीवन की आकांक्षाएं सीमित रहीं. बहुत कुछ करना चाहते थे. 'वैश्वानर' लिख रहे थे, उन दिनों एक बार कहा था --"यदि जीवन को दस वर्ष और मिले तो सात-आठ उपन्यास और लिखूंगा .

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१९४९ में उदय प्रताप कॉलेज से इंटरमीडिएट कर शिवप्रसाद जी ने १९५१ में बी.एच. यू. से बी.ए. और १९५३ में हिन्दी में प्रथम श्रेणी में प्रथम एम.ए. किया था. स्वर्ण पदक विजेता डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने एम.ए. में 'कीर्तिलता और अवहट्ठ भाषा' पर जो लघु शोध प्रबंध प्रस्तुत किया उसकी प्रशंसा राहुल सांकृत्यायन और डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने की थी. हालांकि वे द्विवेदी जी के प्रारंभ से ही प्रिय शिष्यों में थे, किन्तु उसके पश्चात द्विवेदी जी का विशेष प्यार उन्हें मिलने लगा. द्विवेदी जी के निर्देशन में उन्होंने 'सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य' विषय पर शोध संपन्न किया, जो अपने प्रकार का उत्कृष्ट और मौलिक कार्य था. डॉ. सिंह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में १९५३ में प्रवक्ता नियुक्त हुए, जहां से ३१ अगस्त १९८८ में प्रोफेसर पद से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था. भारत सरकार की नई शिक्षा नीति के अंतर्गत यू.जी.सी. ने १९८६ में उन्हें 'हिन्दी पाठ्यक्रम विकास केन्द्र' का समन्वयक नियुक्त किया था. इस योजना के अंतर्गत उनके द्वारा प्रस्तुत हिन्दी पाठ्यक्रम को यू.जी.सी. ने १९८९ में स्वीकृति प्रदान की थी और उसे देश के समस्त विश्वविद्यालयों के लिए जारी किया था. वे 'रेलवे बोर्ड के राजभाषा विभाग' के मानद सदस्य भी रहे और साहित्य अकादमी, बिरला फाउंडेशन, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान जैसी अनेक संस्थाओं से किसी-न-किसी रूप में संबद्ध रहे थे.

डॉक्टर साहब प्रारंभ में अरविंद के अस्तित्ववाद से प्रभावित रहे थे और यह प्रभाव कमोबेश उन पर अंत तक रहा भी; लेकिन बाद में वे लोहिया के समाजवाद के प्रति उन्मुख हो गए थे और आजीवन उसी विचारधारा से जुड़े रहे. एक वास्तविकता यह भी है कि वे किसी भी प्रगतिशील से कम प्रगतिशील नहीं थे; लेकिन प्रगतिशीलता या मार्क्सवाद को कंधे पर ढोनेवालों या उसीका खाने-जीनेवालों से उनकी कभी नहीं पटी. इसका प्रमुख कारण उन लोगों के वक्तव्यों और कर्म में पाया जानेवाला विरोधाभास डॉ. शिवप्रसाद सिंह को कभी नहीं रुचा. वे अंदर-बाहर एक थे. जैसा लिखा वैसा ही जिया भी. इसीलिए तथाकथित मार्क्सवादियों या समाजवादियों की छद्मता से वे दूर रहे और इसके परिणाम भी उन्हें झेलने पड़े. १९६९ से साहित्य अकादमी में हावी एक वर्ग ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि उन्हें वह पुरस्कृत नहीं होने देगा--- और लगभग बीस वर्षों तक वे अपने उस कृत्य में सफल भी रहे थे. लेकिन क्या सागर के ज्वार को अवरुद्ध किया जा सकता है? शिवप्रसाद सिंह एक ऎसे सर्जक थे, जिनका लोहा अंततः उनके विरोधियों को भी मानना पड़ा.

डॉक्टर साहब ने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन उनके जीवन का बेहद दुःखद प्रसंग था उनकी पुत्री मंजुश्री की मृत्यु. उससे पहले वे दो पुत्रों को खो चुके थे; लेकिन उससे वे इतना न टूटे थे जितना मंजुश्री की मृत्यु ने उन्हें तोड़ा था. वे उसे सर्वस्व लुटाकर बचाना चाहते थे. बेटी की दोनों किडनी खराब हो चुकी थीं. वे उसे लिए दिल्ली से दक्षिण भारत तक भटके थे. अपनी किडनी देकर उसे बचाना चाहते थे, लेकिन नहीं बचा सके थे. उससे पहले चार वर्षों से वे स्वयं साइटिका के शिकार रहे थे, जिससे लिखना कठिन बना रहा था. मंजुश्री की मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया था. आहत लेखक लगभग विक्षिप्त-सा हो गया था. उनकी स्थिति से चिंतित थे डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी--- और द्विवेदी जी ने अज्ञेय जी को कहा था कि वे उन्हें बुलाकर कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर ले जाएं. स्थान परिवर्तन से शिवप्रसाद सिंह शायद ठीक हो जाएंगे. डॉक्टर साहब ने यह सब बताया था इन पंक्तियों के लेखक को. मंजु की मृत्यु के पश्चात वे मौन रहने लगे थे---- कोई मिलने जाता तो उसे केवल घूरते रहते. साहित्य में चर्चा शुरू हो गई थी कि अब वे लिख न सकेंगे ---बस अब खत्म.

लेकिन डॉक्टर साहब का वह मौन धीरे-धीरे ऊर्जा प्राप्त करने के लिए था शायद. उन्होंने अपने को उस स्थिति से उबारा था. समय अवश्य लगा था, लेकिन वे सफल रहे थे और वे डूब गए थे मध्यकाल में. यद्यपि वे अपने साहित्यिक गुरु डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी से प्रभावित थे, लेकिन डॉ. नामवर सिंह के इस विचार से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि 'डॉ. शिवप्रसाद सिंह को ऎतिहासिक उपन्यास लेखन की प्रेरणा द्विवेदी जी के 'चारुचंन्द्र लेख' से मिली थी. 'द्विवेदी जी का 'चारुचंद्र लेख' भी ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के राजा गहाड़वाल से संबधित है.' (राष्ट्रीय सहारा, १८ अक्टूबर, १९९८) . नामवर जी के इस कथन को क्या परोक्ष टिप्पणी माना जाए कि चूंकि द्विवेदी जी ने गहाड़वालों को आधार बनाया इसलिए शिवप्रसाद जी ने चंदेल नरेश कीर्तिवर्मा की कीर्ति पताका फरहाते हुए 'नीला चांद' और त्रलोक्य वर्मा पर आधारित 'कोहरे में युद्ध' एवं 'दिल्ली दूर है' लिखा . 'नीला चांद' जिन दिनों वे लिख रहे थे, साहित्यिक जगत में एक प्रवाद प्रचलित हुआ था कि डॉ. शिवप्रसाद सिंह अपने खानदान (चन्देलों पर) पर उपन्यास लिख रहे हैं. मेरे एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था---"मैं नहीं समझता कि मैंने ऎसा लिखा है. मैंने तो जहां तक पता है, उनके वंश पर लिखा है........ मेरी मां गहाड़वाल कुल से थीं और वे भी गहाड़वाल हैं (शायद यह बात उन्होंने नामवर जी के संदर्भ में कही थी) क्या मैं अपने मातृकुल का अनर्थ सोचकर उपन्यास लिख रहा था? जो सत्य है, वह सत्य है. उसमें क्या है और क्या नहीं है, यही सब यदि मैं देखता तो चंदबरदाई बनता." (मेरे साक्षात्कार)

डॉक्टर साहब ऊपर से कठोर लेकिन अंदर से मोम थे. जितनी जल्दी नाराज होते, उससे भी जल्दी वे पिघल जाते थे . वे बेहद निश्छल , सरल और किसी हद तक भोले थे. उनकी इस निश्च्छलता का लोग अनुचित लाभ भी उठाते रहे. सरलता और भोलेपन के कारण कई बार वे कुटिल पुरुषों की पहचान नहीं कर पाते थे. कई ऎसे व्यक्ति, जो पीठ पीछे उनके प्रति अत्यंत कटु वचन बोलते , किन्तु सामने उनके बिछे रहे थे और डॉक्टर साहब उनके सामनेवाले स्वरूप पर लट्टू हो जाते थे. हिन्दी साहित्य का बड़ा भाग बेहद क्षुद्र लेखकों से भरा हुआ है (एक उदाहरण ऊपर दे ही चुका हूं), जो घोर अवसरवादी और अपने हित में किसी भी हद तक गिर जाने वाले हैं. यह कथन अत्यधिक कटु, किन्तु सत्य है. डॉक्टर साहब इस सबसे सदैव दुःखी रहे. वे साहित्य में ही नहीं, जीवन में भी शोषित, उपेक्षित और दलित के साथ रहे ---'शैलूष' हो या 'औरत' या उनकी कहानियां. इतिहास में उनके प्रवेश से आतंकित उनका विरोध करनेवाले साहित्यकारों-आलोचकों ने क्या उनके 'नीला चांद' के बाद के उपन्यास पढ़े हैं? क्या इतिहास से कटकर कोई समाज जी सकता है? जब ऎतिहासिक लेखन के लिए हजारीप्रसाद द्विवेदी के प्रशंसक डॉ. शिवप्रसाद सिंह की आलोचना करते हैं तब उसके पीछे षड्यंत्र से अधिक डॉ. शिवप्रसाद सिंह की लेखन के प्रति आस्था, निरंतरता और साधना से उनके आतंकित होने की ही गंध अधिक आती है. वास्तव में उनका मध्युयुगीन लेखन वर्तमान परिप्रेक्ष्य की ही एक प्रकार की व्याख्या है. इस विषय पर बहुत कुछ कहने की गुंजाइश है, लेकिन इस बात से अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनकी कृतियों का मूल्यांकन अब होगा-- हिन्दी जगत को करना ही होगा. उनकी साधना की सार्थकता स्वतः सिद्ध है. 'नीला चांद' जैसे महाकाव्यात्मक उपन्यास युगों में लिखे जाते हैं ---- और यदि उसकी तुलना तॉल्स्तोय के 'युद्ध और शांति' से की जाए तो अत्युक्ति न होगी.

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साहित्य के महाबली डॉ. शिवप्रसाद सिंह को अस्पताल की शय्या पर पड़ा देख मैं कांप गया था. वार्षों से मैं उनसे जुड़ा रहा था. वे जब-जब दिल्ली आए, शायद ही कोई अवसर रहा होगा जब मुझसे न मिले हों. बिना मिले उन्हें चैन नहीं था. मेरे प्रति उनका स्नेह यहां तक था कि दिल्ली के कई प्रकाशकों को कह देते ---"जो कुछ लेना है, रूप से लो." अर्थात उनकी कोई भी पांडुलिपि. कई ऎसे अवसर रहे कि मैं सात-आठ -- दस घंटे तक उनके साथ रहा. और उस दिन वे इतना अशक्त थे कि मात्र क्षीण मुस्कान ला इतना ही पूछा --"कहो, रूप?"


डॉक्टर साहब अस्पताल से ऊब गए थे. उन्हें अपनी मृत्यु का आभास भी हो गया था शायद. वे अपने बेटे नरेंद्र से काशी ले जाने की जिद करते, जिसके सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को वे अपने तीन उपन्यासों -- 'नीला चांद', 'गली आगे मुड़ती है' और 'वैश्वानर' में जी चुके थे; जिसे विद्वानों ने इतालवी लेखक लारेंस दरेल के 'एलेक्जेंड्रीया क्वाट्रेट' की तर्ज पर ट्रिलाजी कहा था. वे कहते ---"जो होना है वहीं हो." और वे ७ सितंबर को 'सहारा' की नौ बजकर बीस मिनट की फ्लाइट से बनारस उड़ गए थे---- एक ऎसी उड़ान के लिए, जो अंतिम होती है. ६ सितंबर को देर रात तक मैं उनके साथ था. बाद में १० सितंबर को नरेंद्र से फोन पर उनके हाल जाने थे. नरेंद्र जानते थे कि वे अधिक दिनों साथ नहीं रहेंगे. उन्हें फेफड़ों का कैंसर था; लेकिन इतनी जल्दी साथ छोड़ देंगे, यह हमारी कल्पना से बाहर था. २८ सितंबर को सुबह चार बजे साहित्य के उस साधक ने आंखें मूंद लीं सदैव के लिए और उसके साथ ही हजारीप्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, यशपाल एवं भगवतीचरण वर्मा की परंपरा का अंतिम स्तंभ ढह गया था. निस्संदेह हिन्दी साहित्य के लिए यह अपूरणीय क्षति थी .

बुधवार, 17 सितंबर 2008

लघु कहानी



प्राण शर्मा की पांच लघुकहानियां

अक्ल के अंधे

प्रवीण कुमार के एक मित्र हैं--- हितैषी राय . कुछ-एक लोगों के साथ मिलकर उन्होंने एक कल्याणकारी संस्था बनायी. संस्था का नाम रखा -- 'जन कल्याण.'

हालांकि उनकी संस्था छोटी है , लेकिन उनकी भावी योजनाएं बड़ी हैं. फिलहाल उनकी योजना एक अनाथालय भवन निर्माण की है .

एक दिन हितैषी राय दान लेने के लिए प्रवीण के पास गए. बोले- "प्रवीण जी, आप मेरे परम मित्र हैं. हमारे शुभ कार्य अनाथालय के भवन-निर्माण के लिए दिल खोलकर दान दीजिए और दान देने के लिए अपने सेठ मित्रों के नाम भी सुझाइए."

दान देने के बाद प्रवीण कुमार ने नगर के उद्योगपति गिरधारी लाल का नाम सुझाया और बात-बात में यह भी बता दिया -- "गिरधारी लाल ऎसी तबियत के शख्स हैं कि दान देने के लिए उन्हें किसी मित्र के सिफारिशी ख़त की ज़रूरत नहीं पड़ती.

दूसरे दिन ही हितैषी राय अपने कुछ साथियों के साथ दान लेने के लिए गिरधारी लाल के पास पहुंच गये. रास्ते में उन्होंने अपने सथियों को सावधान कर दिया --'हमें गिरधारी लाल से यह कहने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है कि दान लेने के लिए प्रवीण कुमार ने हमे आपके पास भेजा है. खामखा प्रवीण कुमार का एहसान हम क्यों लें?

गिरिधारी लाल से मिलते ही हितैषी राय ने अपना और अपने साथियों का परिचय दिया और दान लेने के लिए भारी-भरकम पोथी खोल ली.

"हितैषी राय जी, मैंने तो आपकी संस्था 'जन-कल्याण' का नाम आज तक नहीं सुना और पोथी आप भारी-भरकम उठा लाये हैं." गिरिधारी लाल ने दान न देने की मानसिकता से कहा.

"सारा नगर जानता है कि आप दिल खोलकर दान देते हैं. आप इस नगर के राजा हरिश्चन्द्र हैं. " हितैषी राय बोले.

"पहले मैं ऎसा ही किया करता था. अब तो दान लेने वालों का तांता लग गया है. रोज कोई न कोई दान लेने आ जाता है. किसीकी अस्पताल बनवाने की योजना है तो किसी की वृद्धाश्रम . हमारे नगर में अस्पतालों और वृद्धाश्रमों को बनानेवालों की बाढ़-सी आ गयी है. बुरा नहीं मानिए, आपकी तरह कई लोग किसी न किसी योजना के साथ दान के लिए आ जाते हैं. दान लेकर वे कहां गायब हो जाते हैं, राम ही जाने. जाइये, आप किसी हमारे परिचित का पत्र लेकर आइये. हम आपको भी जरूर दान देगें."

मेहमान

घर में आए मेहमान से मनु ने पूछा --"क्या पीएगें, गर्म या ठंडा?"

"नही, कुछ नहीं." मेहमान ने अपनी मोटी गर्दन हिलाकर कहा.

"कुछ तो चलेगा?"

"कहा न कुछ नहीं."

'शराब?"

"वो भी नहीं"

"ये कैसे हो सकता है? आप हमारे घर में पहली बार पधारे हैं. कुछ तो चलेगा ही."

मेहमान इस बार चुप रहा.

मनु शिवास रीगल की महंगी शराब की बोतल अंदर से उठा लाया.

मेहमान की जीभ लपलपा उठी पर उसने पीने से न कह दी.

मनु के बार-बार कहने पर आखि़र उसने एक छोटा सा पैग लेना स्वीकार कर लिया. उस छोटे पैग का नशा मेहमान पर कुछ ऎसा तारी हुआ कि देखते ही देखते वो आधी से जिआदा बोतल खाली कर गया. मनु का दिल बैठ गया. मेहमान रुखसत हुआ. मनु मेज़ पर मुक्का मारकर चिल्ला उठा -- "मैंने तो इतनी महंगी शराब की बोतल उसके सामने रख कर दिखावा किया था लेकिन हरामी आधी से जिआदा गटक गया, गोया उसके बाप का माल था."

वाह री लक्ष्मी

"लक्ष्मी, देख लेना, एक दिन मेरा पांसा ज़रूर सीधा पड़ेगा. एक दिन मैं ज़रूर लॉटरी जीतूगां.तब मैं तुम्हें ऊपर से लेकर नीचे तक सोने-चांदी के गहनों से लाद दूंगा. तुम्हें सचमुच की लक्ष्मी बना दूंगा. सचमुच की लक्ष्मी.तुम्हें देख कर लोग दांतों तले अपनी उंगलियां दबा लेगें. अरी, दुर्योधन भी पहले धर्मराज युधिष्ठिर से जुए में हारा था. सब दिन होत न एक समान . भाग्य ने उसका साथ दिया. और वो पांडवों का राजपाट जीतकर राज कुंवर बन गया."

सुरेश के उत्साह भरे शब्द भी आग में घी का काम करते. सुनते ही लक्ष्मी तिलमिला उठती -- "भाड़ में जाए तुम्हारी लॉटरी. सारी की सारी कमाई तुम लॉटरी, घोड़ॊं और कुत्तों पर लगा देते हो . इन पर पानी की तरह धन बहाने की तुम्हारी लत घर में क्या-क्या बर्बादी नहीं ला रही है?तुम्हारा बस चले तो धर्मराज युधिष्ठिर की तरह तुम मुझे भी दांव पर लगा दो. "

सुरेश और लक्ष्मी में तू-तू, मैं - मैं का तूफ़ान रोज़ ही आता.

बुधवार था. रात के दस बज चुके थे. बी.बी.सी. पर लॉटरी मशीन से नम्बर गिरने शुरू हुए -- १, ५, ११, १६, २५, ४० और सुरेश की आंखें खुली की खुली रह गयीं. वह खुशी के मारे गगनभेदी आवाज़ में चिल्ला उठा --"आई ऎम ऎ मिल्लियनआर नाओ."

जुआ को अभिशाप समझने वाली लक्ष्मी रसोईघर से भागी आयी . सुरेश को अपनी बांहों में भर कर वो भी चिल्ला उठी -- "हुर्रे, वी आर मिल्लियनआर."

वक्त वक्त की बात

सरिता अरोड़ा की देवेन्द्र साही से जान-पहचान कॉलेज के दिनों से है. कभी दोनों में एक-दूसरे के प्रति प्यार भी जागा था.

आज देवेन्द्र साही का फ़िल्म उद्योग में बड़ा नाम है. उसने एक नहीं तीन-तीन हिट फिल्में दी हैं. उसकी फिल्में साफ़ -सुथरी होती हैं. सरिता अरोड़ा के मन में इच्छा जागी कि क्यों न वो अपनी रूपवती बेटी अरुणा को हेरोइन बनाने की बात देवेन्द्र से कहे. मन में इच्छा जागते ही उसने मुम्बई का टिकट लिया और जा पहुंची अपने पुराने मित्र के पास.

देवेन्द्र साही सरिता अरोड़ा के मन की बात सुनकर बोला -- "ये फ़िल्म जगत है. इसके रंग-ढंग बड़े निराले हैं. सुनोगी तो दांतों में उंगलियां दबा लोगी. यहां हर हेरोइन को पारदर्शी कपड़े पहनने पड़ते हैं. कभी-कभी तो उसे निर्वस्त्र भी-----."

तो क्या हुआ ? हम सभी कौन से वस्त्र पहन कर जन्मे थे? सभी इस संसार में नंगे ही तो आते हैं."

सरिता अरोड़ा अपनी बात कहे जा रही थी और देवेन्द्र साही सोचे जा रहा था कि क्या यह वही सरिता अरोड़ा है जो अपने तन को पूरी तरह से ढक कर कॉलेज आया करती थी.


बचत

मूसलाधार बारिश में विमला दौड़ी-दौड़ी सुकीर्ति के पास आयी. हांफते हुए बोली,"सुकीर्ति, कान्ले पार्क में सैन्स्बुरी सुपर स्टोर में बटर की सेल लगी है. ढाई सौ ग्राम की लारपाक बटर की टिकिया सिर्फ़ पचासी पेनिओं में. एक टिकिया के पीछे दस पेनिओं की छूट है. सुनहरी मौका है बटर खरीदने का. आ चलें खरीदने. "

स्टोक और कान्ले पार्क में पूरे छः मील का फासला . सुकीर्ति फिर भी तैयार हो गयी.

विमला और सुकीर्ति अपने-अपने सिर पर छतरी ताने बस स्टॉप पर आ गयीं. कान्ले पार्क पहुंचने के लिए उन्होंने दो बसें पकड़ीं. पहले २७ नम्बर और फिर सिटी सेंटर से १२ नम्बर. दोनों ने डे ट्रिप टिकट लिया. लगभग दो घंटों के सफर के बाद वे कान्ले पार्क पहुंचीं.

लोगों की भारी मांग के कारण विमला और सुकीर्ति पच्चीस-पच्चीस टिकियां ही खरीद पायीं. पच्चीस - पच्चीस टिकियों से दोनों को ढाई-ढाई पाउंड का लाभ हो गया था. दोनों खुश थीं.

घर पहुंचते ही विमला और सुकीर्ति ने अपनी खुशी की वजह अपने पति्यों को बतायीं. पति बरस पड़े. "क्या खा़क ढाई-ढाई पाउंड की बचत की है तुम दोनों ने? अरे मूर्खों तुम दोनों बसों में फ्री तो गयी और आयी नहीं. ढाई-ढाई पाउंड बस के किराए का भी हिसाब लगाओ न!"

प्राण शर्मा का जन्म १३ जून १९३७ को वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में. पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी). १९५५ से लेखन . फिल्मी गीत गाते-गाते गीत , कविताएं और ग़ज़ले कहनी शुरू कीं.

१९६५ से ब्रिटेन में.

१९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.

लेख - 'हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल" पुरवाई पत्रिका और अभिव्यक्ति वेबसाइट पर काफी सराहा गया. शीघ्र यह लेख पुस्तकाकार रूप में प्रकाश्य.

२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित.
"गज़ल कहता हूं' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित.

Coventry CVESEB, UK3, Crakston Close, Stoke Hill Estate,
E-mail : pransharma@talktalk.net

बुधवार, 10 सितंबर 2008

संस्मरण







शीर्ष से सतह तक की यात्रा

रूपसिंह चन्देल

सीढ़ियां चढ़कर मैं पहली मंजिल पर उनके कमरे के दरवाजे पर पहुंचा .दरवाजा बंद था. कमरे में टेलीविजन ऊंचे वाल्यूम में चल रहा था. कई बार खटखटाया, लेकिन कोई उत्तर नहीं . काफी प्रातीक्षा और प्रयास के बाद दरवाजा खुला. भाभी जी थीं. मुझे देखकर हत्प्रभ. "अन्दर आइये" कहकर पीछे मुड़ीं और उंची आवाज में बोलीं, "अरे देखो तो कौन आया है?" लेकिन उन्होंने सुना नहीं और आंखे टी.वी. पर गड़ाये रहे. भाभी जी ने टी.वी. धीमा कर दिया और बोली,"चन्देल जी आये हैं."

बनियाइन और पाजामे में वह लेटे हुए टी.वी. देख रहे थे. पत्नी के साथ मुझे देखकर तपाक से उठे और "अरे आप!" कहते हुए नीचे उतरे. चप्पलें नहीं मिलीं तो नंगे पैर मेरे पास आये, "सभी मुझे भूल गये. " एक मायूसी उनके चेहरे पर तैर गयी, " चलिए आपने याद तो रखा." स्वर में शिकायत थी.

"आपने वायदा किया था कि नये घर में जाकर मुझे पता और फोन नम्बर देंगे. " आवाज कुछ ऊंची करके बोलना पड़ा. जबसे मस्तिष्क में कीड़े हुए थे, उन्हें कम सुनाई देने लगा था. वैसे टी.वी. इसलिए भी ऊंची आवाज में सुन रहे होगें, लेकिन उनके यहां टी.वी. सदैव ऊंची आवाज में ही सुना जाता था.

मैं कमरे का जायजा ले रहा था. यह चौदह बाई दस का कमरा रहा होगा, जिसमें एक डबल बेड और तीन कुर्सियां, एक आल्मारी और कुछ अन्य सामान रखा था. सामने छोटी-सी रसोई और उससे आगे बाल्कानी , जिसपर उन्होंने टीन-शेड डलवा रखी थी. दिल्ली के विश्वास नगर के लम्बे-चौड़े दो मंजिले मकान में रहने वाले ( जिसमें नीचे हिस्से में उनके प्रकाशन की पुस्तकों का भण्डार और कार्यालय था, और ऊपर रिहायश. उससे ऊपर भी कमरा) श्रीकॄष्ण जी का जीवन नोएडा के उस छोटे-से जनता फ्लैट में सिमटकर रह गया था.

श्रीकृष्ण जी से मेरी पहली मुलाकात १९८४ के आसपास हुई थी. मैं लेखक होने के शुरूआती दौर से गुजर रहा था .कभी-कभार पत्र -पत्रिकाओं में जाया करता . यह यात्रा प्रायः शनिवार को होती . उस दिन हिन्दुस्तान टाइम्स में 'साप्ताहिक हुन्दुस्तान' में हिमांशु जोशी से मिलने गया था. हिमांशु जी उन दिनों वहां विशेष संवाददाता होने के अतिरिक्त साहित्य भी देखते थे . उनसे मेरा परिचय एकाध साल पहले ही हुआ था.

उस दिन हिमांशु जी के पास दो सज्जन पहले से ही बैठे हुए थे. एक औसत कद, गोरे और स्लिम और दूसरे नाटे , सांवले और दुबले . मैं दोनों को ही नहीं जानता था. हिमांशु जी ने उनके परिचय दिए . गोरे सज्जन थे आबिद सुरती और दूसरे थे पराग प्रकाशन के श्री श्रीकृष्ण . परिचय के आदान- प्रदान के दौरान श्रीकृण जी पूरे समय मुस्कराते रहे थे. बाद में पता चला कि श्रीकृण जी ने हिमांशु जी का तब तक का लगभग पूरा साहित्य प्रकाशित किया था. कुछ लोगों के अनुसार साहित्य जगत में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित कर पाठकों तक हिमांशु जी को पहुंचाने वाले पहले प्रकाशक श्रीकृष्ण जी थे. हालांकि 'साप्ताहिक हिन्दुस्ता" में धारावाहिक रूप में प्रकाशित होने वाले हिमांशु जी के उपन्यास और कहानियों से पाठक पहले से ही परिचित रहे होगें. जोशी जी की भांति नरेन्द्र कोहली के बहुचर्चित उपन्यास 'दीक्षा' आदि को सर्वप्रथम 'पराग' ने ही प्रकाशित किया था . बाद में हिमांशु जी ने अपनी पुस्तकें पराग से ले ली थीं . एक समय ऎसा भी आया जब किसी बात पर उनके मध्य विवाद भी हुआ और जोशी जी ने पराग को वकील का नोटिस भी भेजा था. श्री कृष्ण जी मुझे सब बताते और चाहते कि मैं मध्यस्थता करूं लेकिन मैं मध्यस्थता की स्थिति में न था. वकील की नोटिस से श्रीकृष्ण जी बहुत आहत थे. अन्ततः वह मध्यस्तता शरदेन्दु जी ने की थी और उसी रात श्रीकृष्ण जी ने मुझे फोन करके सारा प्रकरण बताने के बाद कहा था, "आज एक बहुत बड़ा टेंशन से मुक्त हो गया हूं , लेकिन मैंने उनसे (हिमांशु जी) ऎसी आशा नहीं की थी."

श्रीकृष्ण जी से परिचय के समय तक मेरी दो पुस्तकें - एक बाल कहानी संग्रह और एक अपराध विज्ञान की पुस्तक ही प्रकाशित हुई थीं, लेकिन एक-दो पाण्डुलिपियां प्रकाशकों के यहां पहुंचने की राह देख रही थीं. हिमांशु जी के कार्यालय में श्रीकृष्ण जी से परिचित होने के बाद उनसे अगली मुलाकात १९८६ या ८७ में हुई थी. मैं किसी के साथ (शायद कथाकार बलराम के साथ) उनके घर कर्ण गली, विश्वासनगर गया था. उन दिनों तक 'पराग प्रकाशन' हिन्दी के महत्वपूर्ण प्रकाशकों में अपनी अलग पहचान पा चुका था. पराग को ही अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट' प्रकाशित करने का पहला अवसर मिला था , जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. नरेन्द्र कोहली के रामायण पर आधारित उपन्यास भी चर्चा बटोर चुके थे. स्थिति यह थी कि अधिकांश युवा लेखक वहां छपना चाहते थे और पराग ने अनेकों को छापा भी था. लेकिन कुछ युवा लेखकों ने उन्हें बाद में परेशान भी किया था. उन दिनों श्रीकृष्ण जी ने जिससे भी - स्थापित या नये लेखकों से पाण्डुलिपियां मांगी , शायद ही किसी ने उन्हें निराश किया होगा. उसका सबसे बड़ा कारण था उनका 'प्रोडक्शन'. एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने बताया था कि उनके प्रोडक्शन से राजकमल प्रकाशन की शीला सन्धु इतना प्रभावित थीं कि उन्होंने प्रकाशन के प्रबन्धक श्री मोहन गुप्त को उनकी टाइटल्स दिखाते हुए कहा था - "मोहन जी इस मामले में हमें श्रीकृष्ण जी से सीखना चाहिए. अकेले दम पर प्रकाशन चला रहे हैं और प्रोडक्शन इतना गजब का !"

सम्भवतः मेरे मन में भी पराग से प्रकाशित होने की ललक मुझे उनके यहां तक खींच ले गयी होगी. बहरहाल , उनसे मिलने का सिलसिला चल निकला और कई मुलाकातों के बाद मैंने उनसे अपना कहानी संग्रह प्रकाशित करने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहजता से स्वीकार कर लिया. १९९० में 'आदमखोर तथा अन्य कहानियां ' प्रकाशित हुआ. उसके पश्चात श्रीकृष्ण जी की जो आत्मीयता मुझे मिली उसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं. रॉयल्टी को लेकर मुझे कभी उनसे शिकायत नहीं रही. उन्हीं दिनों मेरा परिचय उनके मित्र श्री योगन्द्रकुमार लल्ला से हुआ . लल्ला जी 'रविवार' पत्रिका में संयुक्त सम्पादक थे. लला जी ने बताया था कि उन्होंने और श्रीकृष्ण जी ने अपने कैरियर की शुरुआत एक साथ ’आत्माराम एण्ड सन्स’ से की थी. दोनों ही लेखक थे और बच्चों के लिए लिख रहे थे. लल्ला जी आज मेरठ में रह रहे हैं लेकिन आज भी उनकी मित्रता बरकरार है.
श्रीकृष्ण जी ने मेरा दूसरा कहानी संग्रह १९९५ में प्रकाशित किया - 'एक मसीहा की मौत'. लेकिन तब तक उनके प्रकाशन की स्थिति नाजुक हो आयी थी. कारण थे दिल्ली के एक लेखक जो उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार की खरीद योजना के एक उच्च अधिकारी के दलाल थे. खुदा उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे. उन्होंने दिल्ली के अनेक प्रकाशकों को सब्जबाग दिखाया था . श्रीकृष्ण जी भी (स्वयं उनके अनुसार जिन्दगी में पहली बार ) उसके सब्जबाग में आ गये और डूब गये. हासिल कुछ हुआ नहीं था --- कर्जदार अलग हो गये थे. उन्हीं दिनों एक और घटना घटी थी उनके साथ. उनका पराग प्रकाशन रजिस्टर्ड नहीं था. उनके एक मित्र प्रकाशक ने इस नाम को रजिस्टर्ड करवा लिया . परिणामतः उन्हें प्रकाशन का नाम बदलना पड़ा था. मेरा दूसरा कहानी संग्रह उनके नये प्रकाशन 'अभिरुचि प्रकाशन' से प्रकाशित हुआ था.

श्रीकृष्ण जी बहुत उत्साही व्यक्ति हैं. प्रकाशन की डांवाडोल स्थिति के बावजूद वह मोटी -मोटी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे थे. उन्होंने एक दिन फोन करके मुझे बुलाया और बोले- "आपसे एक काम करवाना चाहता हूं." पूछने पर बताया कि वह सभी विधाओं पर शताब्दी का उत्कृष्ट साहित्य प्रकाशित करना चाहते हैं और चूंकि मैंने आंचलिक कहानियां और उपन्यास लिखें हैं अतः वह मुझसे 'बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' का सम्पादन करवाना चाहते हैं. मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी और १९९७ में दो खण्डों में वह कार्य ८०० पृष्ठों में प्रकाशित हुआ जिसकी न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी चर्चा हुई. पाठकों को यह बताना आवश्यक है कि उन्होंने मुझे सम्पादक के रूप में जो रॉयल्टी दी उसकी कल्पना मैं किसी बड़े प्रकाशक से नहीं कर सकता था.

उनके अति-उत्साह, बढ़ती उम्र और बिक्री की समुचित व्यवस्था के अभाव (क्यॊंकि वह अकेले थे--- उनके सात बेटियां थीं और उनकी शादी हो चुकी थी) के कारण प्रकाशन चरमरा रहा था. उनपर कर्ज का बोझ बढ़ रहा था, लेकिन पुस्तकें प्रकाशित करने के उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आ रही थी. उन्होंने 'मेरी तेरह कहानियां' नाम से कहानी संग्रहों की एक श्रृखंला प्रारम्भ की और कई लेखकों को छाप डाला. अंतिम कड़ी में, कमलेश्वर, प्रेमचन्द, और मुझ सहित पांच लेखकों को प्रकाशित किया. लेकिन इसी दौरान वह भयंकर बीमारी का शिकार होकर लम्बे समय तक शैय्यासीन रहे. उनके मस्तिष्क में कीड़े हो गये थे, जो आज एक आम बीमारी होती जा रही है. कहते हैं बन्ध- गोभी खाने वालों को इस बीमारी का शिकार होने की अधिक सम्भावना होती है.

अन्ततः स्थिति यह हुई कि श्रीकृष्ण जी को प्रकाशन बन्द करना पड़ा. यही नहीं उन्हें मकान भी बेच देना पड़ा. एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और मेरी पुस्तकों की बची प्रतियां मेरी गाड़ी में रखवा दीं, जिसमें 'मेरी तेरह कहानियां' की तीस प्रतियां और 'वीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' की लगभग ४४ प्रतियां थीं. "इतनी पुस्तकों का मैं क्या करूंगा.?" पूछने पर सहज- भाव से बोले थे, "मित्रों में बाट दीजिएगा."

उन्होंने मकान बेचने की बात बताते हुए कहा था, "जाने के बाद आपको नयी जगह का पता और फोन नम्बर दूंगा. आप जैसे कुछ ही लेखक हैं जो निस्वार्थ मुझसे सम्पर्क बनाए रहे--- उन्हें कैसे भूल सकता हूं." लेकिन या तो वह भूल गये अपनी असाध्य बीमारी के चलते या उन्हें अपना नया पता बताने में संकोच हुआ था. बात जो भी हो. व्यस्तता के चलते एक वर्ष तक मैं भी उनसे सम्पर्क नहीं साध सका. इतना पता था कि नोएडा में कहीं जनता फ्लैट लेकर वह रह रहे हैं. गत वर्ष इन्हीं दिनों किसी कार्यवश मुझे नोएडा जाना था. उनका पता किससे मिल सकता है यह सोचता रहा. उनकी एक बेटी श्यामलाल कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक है, लेकिन उनका फोन नं मेरे पास नहीं था. अंततः बलराम अग्रवाल ने बताया कि डॉ हरदयाल मेरी सहायता कर सकते हैं. डॉ हरदयाल से श्रीकृष्ण जी का पता लेकर मैं जब नोएडा के उनके जनता फ्लैट में पहुंचा तब उन्हें देखकर विश्वास ही नहीं हुआ कि यह वही श्रीकृष्ण हैं जो कभी हिन्दी प्रकाशन जगत में छाये हुए थे. और कहां विश्वासनगर में उनका भव्य मकान और कहां जनता फ्लैट!

मैं लगभग डेढ़ घण्टा उनके साथ रहा . वह गदगद थे . उस हालत में भी उनका लेखन कार्य चल रहा था. बच्चों के लिए कुछ लिख रहे थे. उनकी लगभग पचास पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें १४ पुस्तकें बड़ों के लिए हैं. उन्हें देखकर मैं सोचने के लिए विवश हुआ कि ईमानदारी और बिना छल-छद्म के प्रकाशन व्यवसाय चलाने वाले व्यक्ति का भविष्य श्रीकृष्ण जैसा हो सकता है. मुझे बहुत पहले भीष्म साहनी जी की साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित कहानी याद हो आयी जिसमें लेखक की स्थिति तो नहीं बदलती--- वह जैसा होता है वर्षों - वर्षों लिखने के बाद भी वैसा ही बना रहता है, जबकि एक प्रकाशक कुछ वर्षों में ही पूंजीपति हो जाता है. लेकिन ऎसे प्रकाशकों के मध्य अपवादस्वरूप श्रीकृष्ण जी जैसे प्रकाशक भी हैं, जो अपनी ईमानदारी के कारण वह जीवन जीने के लिए विवश हैं जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी. लेकिन वह इस बात से दुखी नहीं हैं---उनका दुख इस बात का है कि प्रकाशन जगत में भ्रष्टाचार गहराई तक फैल चुका है. अब बड़े -बड़े प्रकाशक नये लेखकों से पैसे लेकर उनकी पुस्तकें छाप रहे हैं. कुछ ऎसे भी हैं जो अप्रवासी हिंदी पंजाबी लेखकों की अनभिज्ञता और का लाभ उठाकर उनसे मोटी रकमें लेकर उनकी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं. उनके बल विदेश की यात्राएं कर रहे हैं. खरीद में बैठे अधिकारी का कुछ भी छाप रहे हैं. ऎसे अधिकारी मालामल भी हो रहे हैं और लेखक भी बन रहे हैं. परिणामतः हिन्दी साहित्य का स्तर गिर रहा है.

श्रीकृष्ण जी ने अपने प्रकाशकीय जीवन में कभी कुछ ऎसा नहीं किया . और जब किसी लेखक के खरीद करवा देने के छद्मजाल में फंसे तो उबर नहीं पाये. उन्हें प्रकाशकों की आजकी स्थिति से कष्ट होना स्वाभाविक है.

मैं उनके दीर्घायु होने की कामना करता हूं.