रूपसिंह चन्देल
महाराष्ट्र के आई.पी.एस. अधिकारी हेमंत करकरे की २६.११.०८ को मुम्बई आतंकवादी हमलों में हुई मृत्यु पर प्रश्न चिन्ह लगाकर उसे मालेगांव विस्फोट से जोड़ते हुए उसकी जांच की मांग करने वाले केन्द्रीय मंत्री ए.आर.अंतुले ने जो विवाद उत्पन्न किया उससे न केवल कांग्रेस संकट में घिर गयी बल्कि उससे पाकिस्तान को एक ऎसा हथियार उपलब्ध हो गया जिसका उपयोग उसने अपने ऊपर लगे आरोपों से दुनिया का ध्यान हटाने के लिए करना प्रारंभ कर दिया. लाहौर बम विस्फोट के लिए उसने भारत को जिम्मेदार ठहराते हुए कोलकता निवासी एक युवक को गिरफ्तार करने का दावा करते हुए यहां तक कह दिया कि भारत की धरती पर आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर हैं जिन्हें भारत नष्ट करे. ऎसा उसने पहली बार किया था और ऎसा मान्यवर अंतुले जी के वक्तव्य के बाद कहा गया. लेकिन पकिस्तानी झूठ का पर्दाफाश एक तालिबानी संगठन ने लाहौर बम विस्फोट की जिम्मेदारी लेकर कर दिया.
अंतुले साहब ने ऎसा क्यों कहा, इसका विश्लेषण कठिन नहीं है. इसका सीधा संबन्ध वोट बैंक से है. लेकिन ऎसा कहते समय वह यह कैसे भूल गये कि मारे गये पाकिस्तानी आतंकवादियों को मुम्बई में दफनाये न दिये जाने का निर्णय वहां के धार्मिक नेताओं ने किया था . यही नहीं जिस प्रकार से देश के लगभग सभी मुस्लिम संगठनों ने इस हमले की भर्त्सना की वह न केवल पहली बार था बल्कि प्रशंसनीय था. अंतुले जी के साथ कुछ मुस्लिम नेता अवश्य खड़े दिखे लेकिन उनकी संख्या नगण्य थी. अंतुले जी कितने ही बड़े नेता क्यों न हों, लेकिन वह संपूर्ण देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते . वक्त्व्य देते समय उन्होंने उस पर होने वाली तीखी प्रतिक्रिया और अपनी फजीहत का अनुमान नहीं लगाया होगा. इस प्रकरण में कुछ कम्युनि्स्ट नेता अंतुले के साथ खड़े दिखाई दिये. संभव है किसी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता की शह भी रही हो उन्हें . इस अनुमान को खारिज भले न किया जाये, लेकिन अंतुले जैसा वरिष्ठ नेता किसी के बहकावे में ऎसा आत्मघाती बयान देगा इस पर सहज विश्वास नहीं होता. दरअसल यह अंतुले जी की निजी सोच और वोट की राजनीति का ही परिणाम था. वह इतने भोले नहीं कि अपने वक्तव्य के भावी परिणाम से अनभिज्ञ थे. वह निश्चित ही जानते थे कि वह पाकिस्तान को हथियार थमाने जा रहे हैं.
महाराष्ट्र के आई.पी.एस. अधिकारी हेमंत करकरे की २६.११.०८ को मुम्बई आतंकवादी हमलों में हुई मृत्यु पर प्रश्न चिन्ह लगाकर उसे मालेगांव विस्फोट से जोड़ते हुए उसकी जांच की मांग करने वाले केन्द्रीय मंत्री ए.आर.अंतुले ने जो विवाद उत्पन्न किया उससे न केवल कांग्रेस संकट में घिर गयी बल्कि उससे पाकिस्तान को एक ऎसा हथियार उपलब्ध हो गया जिसका उपयोग उसने अपने ऊपर लगे आरोपों से दुनिया का ध्यान हटाने के लिए करना प्रारंभ कर दिया. लाहौर बम विस्फोट के लिए उसने भारत को जिम्मेदार ठहराते हुए कोलकता निवासी एक युवक को गिरफ्तार करने का दावा करते हुए यहां तक कह दिया कि भारत की धरती पर आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर हैं जिन्हें भारत नष्ट करे. ऎसा उसने पहली बार किया था और ऎसा मान्यवर अंतुले जी के वक्तव्य के बाद कहा गया. लेकिन पकिस्तानी झूठ का पर्दाफाश एक तालिबानी संगठन ने लाहौर बम विस्फोट की जिम्मेदारी लेकर कर दिया.
अंतुले साहब ने ऎसा क्यों कहा, इसका विश्लेषण कठिन नहीं है. इसका सीधा संबन्ध वोट बैंक से है. लेकिन ऎसा कहते समय वह यह कैसे भूल गये कि मारे गये पाकिस्तानी आतंकवादियों को मुम्बई में दफनाये न दिये जाने का निर्णय वहां के धार्मिक नेताओं ने किया था . यही नहीं जिस प्रकार से देश के लगभग सभी मुस्लिम संगठनों ने इस हमले की भर्त्सना की वह न केवल पहली बार था बल्कि प्रशंसनीय था. अंतुले जी के साथ कुछ मुस्लिम नेता अवश्य खड़े दिखे लेकिन उनकी संख्या नगण्य थी. अंतुले जी कितने ही बड़े नेता क्यों न हों, लेकिन वह संपूर्ण देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते . वक्त्व्य देते समय उन्होंने उस पर होने वाली तीखी प्रतिक्रिया और अपनी फजीहत का अनुमान नहीं लगाया होगा. इस प्रकरण में कुछ कम्युनि्स्ट नेता अंतुले के साथ खड़े दिखाई दिये. संभव है किसी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता की शह भी रही हो उन्हें . इस अनुमान को खारिज भले न किया जाये, लेकिन अंतुले जैसा वरिष्ठ नेता किसी के बहकावे में ऎसा आत्मघाती बयान देगा इस पर सहज विश्वास नहीं होता. दरअसल यह अंतुले जी की निजी सोच और वोट की राजनीति का ही परिणाम था. वह इतने भोले नहीं कि अपने वक्तव्य के भावी परिणाम से अनभिज्ञ थे. वह निश्चित ही जानते थे कि वह पाकिस्तान को हथियार थमाने जा रहे हैं.
हमारे देश के अधिकांश राजनीतिज्ञों के लिए देश से अधिक महत्वपूर्ण उनकी सीट है. सीट के लिए वे कुछ भी कर गुजरने में शर्म अनुभव नहीं करते.ये धर्मनिरपेक्षता का पाखण्ड करते हुए धार्मिक सद्भाव बिगाड़ने में सबसे आगे होते हैं. बांटो और शासन करो की नीति इन्हें विरासत में मिली है.
मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले में शहीद हुए लोगों की लाशों पर इन अवसरवादी राजनीतिज्ञों ने पहली बार अपने वोटों की राजनीति नहीं की, दिल्ली के बाटला हाउस में शहीद हुए मोहन चन्द शर्मा को लेकर कई नेताओं ने ऎसी ही राजनीति की थी. उनके नाम पुनः यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं, लेकिन इतना कहना आवश्यक लग रहा है कि तब भी हमारे कम्युनिस्ट नेताओं ने उन छद्म धर्मनिरपेक्षों के स्वर में स्वर मिलाते हुए बाटला हाउस मुठभेड़ की सी.बी.आई. जांच की मांग की थी. कम्युनिस्ट नेताओं की समझ और उनके देश हित सम्बन्धी सोच को इस बात से ही समझा जा सकता है कि कांग्रेस से समर्थन वापस लेने के बाद खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचने वाले तर्ज पर उन्होनें मायावती को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना प्रारभ कर दिया था. अब वे जयललिता की ओर उन्मुख हैं. ये दोनों महिला नेता भष्टाचार में आकंठ डूबी हुई हैं यह सभी जानते हैं और वे भी यह जानते हैं. उनके दयनीय आचरण, बौद्धिक दिवालियेपन और अवसरवादी राजनीति को जनता नहीं समझती यदि वे ऎसा मानते हैं तो यह उनका दुर्भाग्यपूर्ण भ्रम ही कहा जायेगा.
लेकिन मुम्बई हमले को कुछ बुद्धिजीवी भी अंतुले साहब की नजरों से ही देख रहे हैं. हाल ही में अरुन्धती राय का वक्तव्य आश्चर्यजनक था. लेखक को एक संवेदनशील प्राणी माना जाता है. उन्होंने कहा था कि मुम्बई हमला कश्मीर, गुजरात और बाबरी मस्जिद विध्वंस की प्रतिक्रिया था. सुश्री राय का वक्तव्य चौंकाता है. 'बाटला हाउस' को लेकर भी उन्होंने संदेह व्यक्त किया था. हिन्दी के कुछ लेखकों ने भी बाटला हाउस मुठभेड़ को फेक कहा था और कहा था कि मोहनचन्द शर्मा को दिल्ली पुलिसवलों ने ही गोली मारी थी और कि मारे गये या पकड़े गये युवक निर्दोष थे. अरुधंती राय ने कश्मीर में अमरनाथ भूमि विवाद के दौरान अलगाववादियों के पक्ष में बयान देते हुए कहा था, " भारत को कश्मीर को मुक्त कर देना चाहिए ----- इससे भारत स्वयं उस समस्या से मुक्त हो जायेगा." सुश्री राय से पूछा जाना चाहिए कि कश्मीर को मुक्त कर देने के बाद क्या भारत आंतकवादी हमलों से पूर्णरूप से मुक्त हो जाएगा और क्या वह यह मानती हैं कि भारत ने कश्मीर पर अवैध कब्जा कर रखा है . उनके इस वक्तव्य से ध्वनि तो यही निकलती है. लोकतंत्र में किसी को कुछ भी कहने का अधिकार है --- यह तो कहनेवाले को सोचना चाहिए कि वह कोई ऎसी बात न कहे जिससे देशद्रोह की गंध आती हो. जहां तक मैं समझता हूं अरुन्धती राय शायद ही कभी सक्रिय राजनीति में आयेंगी , अतः उन्हें अंतुले जैसे नेताओं की भांति नहीं बोलना चाहिए. गैरजिम्मेदार बयान देना और मुकर जाना अधिकांश नेताओं की विशेषता है, जिनके सरोकार केवल और केवल निजी होते हैं , लेकिन लेखक ------ उसे देश और समाज के प्रति बेहद जिम्मेदार होना चाहिए.
मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले में शहीद हुए लोगों की लाशों पर इन अवसरवादी राजनीतिज्ञों ने पहली बार अपने वोटों की राजनीति नहीं की, दिल्ली के बाटला हाउस में शहीद हुए मोहन चन्द शर्मा को लेकर कई नेताओं ने ऎसी ही राजनीति की थी. उनके नाम पुनः यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं, लेकिन इतना कहना आवश्यक लग रहा है कि तब भी हमारे कम्युनिस्ट नेताओं ने उन छद्म धर्मनिरपेक्षों के स्वर में स्वर मिलाते हुए बाटला हाउस मुठभेड़ की सी.बी.आई. जांच की मांग की थी. कम्युनिस्ट नेताओं की समझ और उनके देश हित सम्बन्धी सोच को इस बात से ही समझा जा सकता है कि कांग्रेस से समर्थन वापस लेने के बाद खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचने वाले तर्ज पर उन्होनें मायावती को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना प्रारभ कर दिया था. अब वे जयललिता की ओर उन्मुख हैं. ये दोनों महिला नेता भष्टाचार में आकंठ डूबी हुई हैं यह सभी जानते हैं और वे भी यह जानते हैं. उनके दयनीय आचरण, बौद्धिक दिवालियेपन और अवसरवादी राजनीति को जनता नहीं समझती यदि वे ऎसा मानते हैं तो यह उनका दुर्भाग्यपूर्ण भ्रम ही कहा जायेगा.
लेकिन मुम्बई हमले को कुछ बुद्धिजीवी भी अंतुले साहब की नजरों से ही देख रहे हैं. हाल ही में अरुन्धती राय का वक्तव्य आश्चर्यजनक था. लेखक को एक संवेदनशील प्राणी माना जाता है. उन्होंने कहा था कि मुम्बई हमला कश्मीर, गुजरात और बाबरी मस्जिद विध्वंस की प्रतिक्रिया था. सुश्री राय का वक्तव्य चौंकाता है. 'बाटला हाउस' को लेकर भी उन्होंने संदेह व्यक्त किया था. हिन्दी के कुछ लेखकों ने भी बाटला हाउस मुठभेड़ को फेक कहा था और कहा था कि मोहनचन्द शर्मा को दिल्ली पुलिसवलों ने ही गोली मारी थी और कि मारे गये या पकड़े गये युवक निर्दोष थे. अरुधंती राय ने कश्मीर में अमरनाथ भूमि विवाद के दौरान अलगाववादियों के पक्ष में बयान देते हुए कहा था, " भारत को कश्मीर को मुक्त कर देना चाहिए ----- इससे भारत स्वयं उस समस्या से मुक्त हो जायेगा." सुश्री राय से पूछा जाना चाहिए कि कश्मीर को मुक्त कर देने के बाद क्या भारत आंतकवादी हमलों से पूर्णरूप से मुक्त हो जाएगा और क्या वह यह मानती हैं कि भारत ने कश्मीर पर अवैध कब्जा कर रखा है . उनके इस वक्तव्य से ध्वनि तो यही निकलती है. लोकतंत्र में किसी को कुछ भी कहने का अधिकार है --- यह तो कहनेवाले को सोचना चाहिए कि वह कोई ऎसी बात न कहे जिससे देशद्रोह की गंध आती हो. जहां तक मैं समझता हूं अरुन्धती राय शायद ही कभी सक्रिय राजनीति में आयेंगी , अतः उन्हें अंतुले जैसे नेताओं की भांति नहीं बोलना चाहिए. गैरजिम्मेदार बयान देना और मुकर जाना अधिकांश नेताओं की विशेषता है, जिनके सरोकार केवल और केवल निजी होते हैं , लेकिन लेखक ------ उसे देश और समाज के प्रति बेहद जिम्मेदार होना चाहिए.