रामकुमार कृषक की पांच ग़जलें
(१)
हम बाजुबान हों न हों चर्चा तो आम है
जो कुर्सियों के लोग उन्हीं का निज़ाम है
पेजों के ठीक बीच आज वे ही दिप रहे
जिनका कि हाशियों प' असल में मुक़ाम है
हर ओर अचरजों की भीड़ -भाड़ कम नहीं
हंटर भी उसके हाथ जो कि बेलगाम है
क्योंकर ये इत्र बात पसीने की अब सुने
इसको वही हलाल हमें जो हराम है
नद्दी के तीर तीरथों की बात क्या करें
घाटों प' मरघटों का खास इंतजाम है
संसद में कुर्सियां हैं कुर्सियां रियासतें
सेवक हैं स्वामियों-सा संग तामझाम है
हर देश के हर चौक प' कायम अभी सलीब
सच बोलने का सिर्फ यही तो इनाम है
इस देश की हालत प' मेरे दोस्त ज़रा सोच
जब से हुआ आज़ाद तभी से गुलाम है !
(२)
जो कुर्सियों के लोग उन्हीं का निज़ाम है
पेजों के ठीक बीच आज वे ही दिप रहे
जिनका कि हाशियों प' असल में मुक़ाम है
हर ओर अचरजों की भीड़ -भाड़ कम नहीं
हंटर भी उसके हाथ जो कि बेलगाम है
क्योंकर ये इत्र बात पसीने की अब सुने
इसको वही हलाल हमें जो हराम है
नद्दी के तीर तीरथों की बात क्या करें
घाटों प' मरघटों का खास इंतजाम है
संसद में कुर्सियां हैं कुर्सियां रियासतें
सेवक हैं स्वामियों-सा संग तामझाम है
हर देश के हर चौक प' कायम अभी सलीब
सच बोलने का सिर्फ यही तो इनाम है
इस देश की हालत प' मेरे दोस्त ज़रा सोच
जब से हुआ आज़ाद तभी से गुलाम है !
(२)
हम नहीं खाते हमें बाज़ार खाता है
आजकल अपना यही चीज़ों से नाता है
पेट काटा हो गई खासा बचत घर में
है कहां चेहरा मुखौटा मुस्कराता है
है खरीदारी हमारी सब उधारी पर
बेचनेवाला हमें बिकना सिखाता है
नाम इसका और उसके दस्तखत हम पर
चेक बियरर हैं जिसे मिलते भुनाता है
सामने दिखता नहीं ठगिया हमें यों तो
हां, कोई भीतर ठहाका -सा लगाता है !
(३)
आजकल अपना यही चीज़ों से नाता है
पेट काटा हो गई खासा बचत घर में
है कहां चेहरा मुखौटा मुस्कराता है
है खरीदारी हमारी सब उधारी पर
बेचनेवाला हमें बिकना सिखाता है
नाम इसका और उसके दस्तखत हम पर
चेक बियरर हैं जिसे मिलते भुनाता है
सामने दिखता नहीं ठगिया हमें यों तो
हां, कोई भीतर ठहाका -सा लगाता है !
(३)
सोचकर बैठी है 'घर से' डाकिया बीमार है
बेखबर आंगन खबर से डाकिया बीमार है
गांव घर पगडंडियां सड़कें वही मोटर वही
पर खुशी आए किधर से डाकिया बीमार है
दो महीने हो गए पैसा नहीं पाती नहीं
कुछ न कुछ आता शहर से डाकिया बीमार है
सैकड़ों खतरे सदा परदेस का रहना बुरा
सूखना हरदम फिकर से डाकिया बीमार है
आंख दाईं लैकती है और सपने भी बुरे
बिल्लियां रोती हैं सुर से डाकिया बीमार है
बाल-बच्चों का न उसका पैरहन साबुत रहा
खुलनेवाले हैं मदरसे डाकिया बीमार है
भूख -बेकारी दवा-दारू कुबेरों की नज़र
हर कदम लड़ना जबर से डाकिया बीमार है !
(४)
बेखबर आंगन खबर से डाकिया बीमार है
गांव घर पगडंडियां सड़कें वही मोटर वही
पर खुशी आए किधर से डाकिया बीमार है
दो महीने हो गए पैसा नहीं पाती नहीं
कुछ न कुछ आता शहर से डाकिया बीमार है
सैकड़ों खतरे सदा परदेस का रहना बुरा
सूखना हरदम फिकर से डाकिया बीमार है
आंख दाईं लैकती है और सपने भी बुरे
बिल्लियां रोती हैं सुर से डाकिया बीमार है
बाल-बच्चों का न उसका पैरहन साबुत रहा
खुलनेवाले हैं मदरसे डाकिया बीमार है
भूख -बेकारी दवा-दारू कुबेरों की नज़र
हर कदम लड़ना जबर से डाकिया बीमार है !
(४)
आखर - आखर आंखें हैं
कोंपल-कोंपल शाखें हैं
अंबर तो खाली अंबर
धरतॊ की सौ पांखें हैं
मरहम-मरहम हाथ कहां
अब तो सिर्फ सलाखें हैं
जब से वो लौटे पढ़कर
जाने क्या-क्या भाखें हैं
दिल की हालत पूछो हो
ढलती उम्र कुलांचें हैं !
(५)
कोंपल-कोंपल शाखें हैं
अंबर तो खाली अंबर
धरतॊ की सौ पांखें हैं
मरहम-मरहम हाथ कहां
अब तो सिर्फ सलाखें हैं
जब से वो लौटे पढ़कर
जाने क्या-क्या भाखें हैं
दिल की हालत पूछो हो
ढलती उम्र कुलांचें हैं !
(५)
धूप निकली और मौसम खुल गया
आसमां का चेहरा भी धुल गया
खिड़कियां खुलकर मिलीं, कहने लगीं
रंग रिश्तों का फिज़ां में घुल गया
टूटना संबध का कुछ यों लगा
ज्यों सफ़र के बीच कोई पुल गया
दर्द कुछ गहरा गया, तड़पा गया
पास से गाकर कोई बुलबुल गया
हम उसे गते रहे, सुनते रहे
उनका बाजूबंद जो खुल-खुल गया !
*********
वरिष्ठ कवि और ग़ज़लकार रामकुमार कृषक का जन्म 1 अक्टूबर 1943 को मुरादाबाद के गुलड़िया (पो. अमरोहा) उत्तर प्रदेश में हुआ था. आप हिन्दी में एम.ए. और साहित्यत्न हैं. कृषक जी की अब तक प्रकाशित कृतियां हैं: बापू(1969), ज्योति (1972), सुर्खियों के स्याह चेहरे (1977), नीम की पत्तियां(1984), फिर वही आकाश (1991), आदमी के नाम पर मज़हब नहीं(1991), मैं हूं हिंदुस्तान (1998) और, लौट आएंगी आंखें (2002) कविता पुस्तकें . एक कहानी संग्रह – नमक की डलियाँ (1980) और बच्चों तथा नवसाक्षरों के लिए सात अन्य पुस्तकें 'कर्मवाची शील" नामक संपादित कृति. 'अपजस अपने नाम' (शीघ्र प्रकाश्य गज़ल संग्रह). इसके अतिरिक्त विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों में सक्रिय हिस्सेदारी. जन संस्कृति मंच की दिल्ली इकाई के संस्थापक सदस्य. अनेक महत्वपूर्ण काव्य संग्रहों और पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. हिन्दी अकादमी, दिल्ली सहित कुछ अन्य संस्थाओं से पुरस्कृत - सम्मानित. 'अलाव' और 'नई पौध' पत्रिकाओं का सम्पादन और प्रकाशन.सम्पर्क : सी-3/59, सादतपुर विस्तार, दिल्ली - 110094दूरभाष : 09868935366
आसमां का चेहरा भी धुल गया
खिड़कियां खुलकर मिलीं, कहने लगीं
रंग रिश्तों का फिज़ां में घुल गया
टूटना संबध का कुछ यों लगा
ज्यों सफ़र के बीच कोई पुल गया
दर्द कुछ गहरा गया, तड़पा गया
पास से गाकर कोई बुलबुल गया
हम उसे गते रहे, सुनते रहे
उनका बाजूबंद जो खुल-खुल गया !
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वरिष्ठ कवि और ग़ज़लकार रामकुमार कृषक का जन्म 1 अक्टूबर 1943 को मुरादाबाद के गुलड़िया (पो. अमरोहा) उत्तर प्रदेश में हुआ था. आप हिन्दी में एम.ए. और साहित्यत्न हैं. कृषक जी की अब तक प्रकाशित कृतियां हैं: बापू(1969), ज्योति (1972), सुर्खियों के स्याह चेहरे (1977), नीम की पत्तियां(1984), फिर वही आकाश (1991), आदमी के नाम पर मज़हब नहीं(1991), मैं हूं हिंदुस्तान (1998) और, लौट आएंगी आंखें (2002) कविता पुस्तकें . एक कहानी संग्रह – नमक की डलियाँ (1980) और बच्चों तथा नवसाक्षरों के लिए सात अन्य पुस्तकें 'कर्मवाची शील" नामक संपादित कृति. 'अपजस अपने नाम' (शीघ्र प्रकाश्य गज़ल संग्रह). इसके अतिरिक्त विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों में सक्रिय हिस्सेदारी. जन संस्कृति मंच की दिल्ली इकाई के संस्थापक सदस्य. अनेक महत्वपूर्ण काव्य संग्रहों और पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. हिन्दी अकादमी, दिल्ली सहित कुछ अन्य संस्थाओं से पुरस्कृत - सम्मानित. 'अलाव' और 'नई पौध' पत्रिकाओं का सम्पादन और प्रकाशन.सम्पर्क : सी-3/59, सादतपुर विस्तार, दिल्ली - 110094दूरभाष : 09868935366