गजल- दर्द में
पाँच हाइकु -
राग सुरंगी
चांदनी से भर देगा....
मुफ़लिसों को वो थाम लेगा, नया दर देगा
जो भी होगा ज़रूरी, उनके लिये कर देगा।
आग से तप के वो निकला है बना कुंदन है
किसी को प्यार किसी को ज़मीनो ज़र देगा।
आसमां उसका इस क़दर है सितारों से भरा
वो अमावस को तेरी, चांदनी से भर देगा।
ऐसी बातें थे सुना करते उसके बारे में
मांग के देखो वो, बेख़ौफ़ अपना सर देगा।
मेरे हालात का न ज़िक्र उससे करना कभी
छोड़ना मुझको उसके दिल में दर्द भर देगा।
ख़ुद को अकेला पाते.....
वो जो हर रोज़ मुझे याद किया करते थे
आजकल मेरे बुलाने पे भी नहीं आते।
जब तलक काम था मैं धड़कनों में था उनकी
अब मेरे नाम से ही दिन ख़राब हो जाते।
साथ अपने मुझे पहलू में वो बिठाते थे
मेरी मौजूदगी से आज हैं वो घबराते।
मुझ को लाना औ छोड़ना कभी सुहाता था
अब तबीयत ख़राब रहती है वो फ़रमाते
भावनाओं से उनका कुछ नहीं लेना देना
पैसे वाले ही आज उनके दिल को हैं भाते।
न कोई दोस्त है न रिश्ता कोई है अपना
आज दुनिया में हैं वो ख़ुद को अकेला पाते।
ठोस सच्चाई ज़िन्दगी की जानते वो नहीं
सफ़र पे आख़री सब हाथ खाली ही जाते।
अकेलापन.....
नये बिम्ब नई अभिव्यक्ति
देश बदला, मिट्टी बदली
बदला कुल परिवेश
लगे कहीं से जो भी अपना
न चेहरा न वेश !
सुबह न कोई कोयल बोले
न चिड़िया चहचहाए
धुन्ध सुबह, धुन्धली हो शाम
खो गया हर वो नाम
जो कभी मिलने आता था
टेलिफ़ोन पर बतियाता था
कहीं भीतर तक दिल के
तारों को छू जाता था।
सुपर मार्किट की भीड़ में
सुबह की लोकल की भीड़ में
कार-बूट सेल की भीड़ में
फ़ुटबॉल प्रेमियों की भीड़ में
अपने आप को कहीं किसी
अकेले कोने में,
अकेला खड़ा पाता हूं।
किसी गहरी सोच में
डूब जाता हूं।
अपने इस अकेलेपन की अभिव्यक्ति
कहां कर पाता हूं शब्दों में ?
खो जाता हूं, डूब जाता हूं
शब्दों के मायाजाल में।
किन्तु शब्द ! न मिलते हैं !
न मेरे करीब आते हैं।
मुझे दौड़ाते हैं, थकाते हैं
और अकेला छोड़ जाते हैं।
रात को चांद
सितारों के हुजूम में चांद
अकेला चांद
फ़ैक्टरियों और कारों के
प्रदूषण से ग्रस्त चांद
पीला चान्द !
आंसुओं से गीला चांद !
मुझे देख कर मुस्कुराया
एक पीली कमज़ोर मुस्कान !
उससे, उसके अकेलेपन पर
करता हूं एक प्रश्न।
पीड़ा की एक वक्र रेखा
चीर कर निकल जाती है
उसका चेहरा ज़र्द ! !
शब्द अस्फुट से सुनाई
देते हैं फिर भी....
पहुंच जाते हैं मुझ तक।
अकेलेपन के लिये
नई शब्दावली ढूंढ रहे हो ?
पगला गये हो। क्यों व्यर्थ में
कुम्हला रहे हो ?
सबसे पहले अकेला था आकाश
फिर धरती अकेली थी
फिर अकेला था आदम।
उसके रहते, अकेली थी हव्वा
अकेलापन जीवन का सत्य है
शाश्वत है !
क्या उसके लिये नये बिम्ब चाहते हो ?
चाहते हो नई शब्दावली।
ढूंढो अपने ही युग में।
करो तलाश अपने आसपास।
विश्व युद्ध में पड़ा अकेला जर्मनी
गहन अकेला नाम, जिसे कहते थे सद्दाम
अकेला ही जला जो कभी था युगोस्लाविया
अफ़गानिस्तान भी दुखी अकेला
यही शब्द हैं, बिम्ब नये हैं
पूरे विश्व में नाम अकेले।
क्या ये बिम्ब अपनाओगे ?
अकेलापन दिखलाओगे ?
मैं एकाएक घबरा गया हूं
नेत्र गीले, स्वर भर्रा गया है
अकेला तो पहले भी था
अन्धेरा और हुआ सघन।
मुझसे छिन रहा है
मेरा अपना गगन।
……..मुसलमान हो गया।
अपने को हंसता देख मैं हैरान हो गया
तुझसे ही ज़िन्दगी मैं परेशान हो गया।
हैं कैसे कैसे लोग यहां आ के बस गये
बसता हुआ जो घर था, वो वीरान हो गया।
किसका करें भरोसा, ज़माने में आज हम
दिखता जो आदमी था वो शैतान हो गया।
इलज़ाम भी लगाने से वो बाज़ नहीं है
बन्दा था अक़्ल वाला वो नादान हो गया।
या रब दुआ है कीजियो उसपे करम सदा
वो दोस्त मेरा मुझ से ही अन्जान हो गया।
मैख़ाने में हमेशा निभाता था साथ वो
क़ाफ़िर था अच्छा खासा, मुसलमान हो गया।