रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथाएं
(१)
धारणा
मैं इस शहर में बिल्कुल अनजान था । काफी भाग–दौड़ करके किसी तरह पासी मुहल्ले में एक मकान खोज सका था । परसों ही परिवार शिफ्ट किया था ।
बातों ही बातो में ऑफिस में पता चल गया कि मैं अपना परिवार पासी मुहल्ले में शिफ्ट कर चुका हूँ। बड़े साहब चौंके–’’ आप सपरिवार इस मुहल्ले में रह पाएँगे ?’’
‘‘क्या कुछ गड़बड़ हो गई सर ?’’ मैने हैरान होकर पूछा ।
‘‘बहुत गन्दा मुहल्ला है । यहॉं आए दिन कुछ न कुछ होता रहता है । सॅंभलकर रहना होगा ।’’ साहब के माथे पर चिन्ता की रेखाएँ उभरी–‘‘यह मुहल्ला गंदे मुहल्ले के नाम से बदनाम है । गुडागर्दी कुछ ज्यादा ही है ।’’
मैं अपनी सीट पर आकर बैठा ही था कि बड़े बाबू आ पहुचे–‘‘सर आपने मकान गंदे मुहल्ले में लिया है ?’’
‘‘लगता है मैने ठीक नही किया है ’’–मैं पछतावे के स्वर में बोला ।
‘‘हाँ सर,ठीक नहीं किया । यह मुहल्ला रहने लायक नहीं है । जितनी जल्दी हो सके, मकान बदल लीजिए उन्होंने अपनी अनुभवी आँखें मुझ पर टिका दीं ।
इस मुहल्ले में आने के कारण मैं चिन्तित हो उठा । घर के सामने पान–टॉफी बेचने वाले खोखे पर नजर गई । खोखे वाला काला–कलूटा मुछन्दर एक दम छॅंटा हुआ गुण्डा नजर आया । कचर–कचर पान चबाते हुए वह और भी वीभत्स लग रहा था ।
सचमुच मैं गलत जगह पर आ गया हूँ । मुझे रात भर ठीक से नींद नही आई । छत पर किसी के कूदने की आवाज आई। मेरे प्राण नखों में समा गए । मैं डरते–डरते उठा । दबे पॉंव बाहर आया । दिल जोरों से धड़क रहा था । मुँडेर पर नजर गई । वहॉं एक बिल्ली बैठी थी। आज दोपहर में बाजार से आकर लेटा ही था कि आँंख लग गई । कुछ ही देर बाद दरवाजे पर थपथपाहट हुई । दरवाजा खुला हुआ था। मैं हड़बड़ाकर उठा । सामने वही पान वाला मुछन्दर खड़ा मुस्करा रहा था । दोपहर का सन्नाटा । मुझे काटो तो खून नहीं ।
‘‘क्या–क्या बात है ?’’ मैंने पूछा ।
‘‘शायद आपका ही बच्चा होगा । टॉफी लेने के लिए आया था मेरे पास । उसने यह नोट मुझको दिया था’’–कहते हुए पान वाले ने सौ का नोट मेरी ओर बढ़ा दिया । मैं चौंका । वह सौ का नोट मेरी कमीज की जेब में था । देखा–जेब खाली थी लगता है सोनू ने मेरी जेब से चुपचाप यह नोट निकाल लिया था ।
‘‘टॉफी के कितने पैसे हुए ?’’
‘‘सिर्फ़ पचास पैसे । फिर कभी ले लेंगे’’– वह कचर–कचर पान चबाते हुए मुस्कराया । दूधिया मुस्कान से उसका चेहरा नहा उठा–‘‘अच्छा, बाबू साहब , प्रणाम ! कहकर वह लौट पड़ा ।
मैं स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रहा था ।
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(२)
बातों ही बातो में ऑफिस में पता चल गया कि मैं अपना परिवार पासी मुहल्ले में शिफ्ट कर चुका हूँ। बड़े साहब चौंके–’’ आप सपरिवार इस मुहल्ले में रह पाएँगे ?’’
‘‘क्या कुछ गड़बड़ हो गई सर ?’’ मैने हैरान होकर पूछा ।
‘‘बहुत गन्दा मुहल्ला है । यहॉं आए दिन कुछ न कुछ होता रहता है । सॅंभलकर रहना होगा ।’’ साहब के माथे पर चिन्ता की रेखाएँ उभरी–‘‘यह मुहल्ला गंदे मुहल्ले के नाम से बदनाम है । गुडागर्दी कुछ ज्यादा ही है ।’’
मैं अपनी सीट पर आकर बैठा ही था कि बड़े बाबू आ पहुचे–‘‘सर आपने मकान गंदे मुहल्ले में लिया है ?’’
‘‘लगता है मैने ठीक नही किया है ’’–मैं पछतावे के स्वर में बोला ।
‘‘हाँ सर,ठीक नहीं किया । यह मुहल्ला रहने लायक नहीं है । जितनी जल्दी हो सके, मकान बदल लीजिए उन्होंने अपनी अनुभवी आँखें मुझ पर टिका दीं ।
इस मुहल्ले में आने के कारण मैं चिन्तित हो उठा । घर के सामने पान–टॉफी बेचने वाले खोखे पर नजर गई । खोखे वाला काला–कलूटा मुछन्दर एक दम छॅंटा हुआ गुण्डा नजर आया । कचर–कचर पान चबाते हुए वह और भी वीभत्स लग रहा था ।
सचमुच मैं गलत जगह पर आ गया हूँ । मुझे रात भर ठीक से नींद नही आई । छत पर किसी के कूदने की आवाज आई। मेरे प्राण नखों में समा गए । मैं डरते–डरते उठा । दबे पॉंव बाहर आया । दिल जोरों से धड़क रहा था । मुँडेर पर नजर गई । वहॉं एक बिल्ली बैठी थी। आज दोपहर में बाजार से आकर लेटा ही था कि आँंख लग गई । कुछ ही देर बाद दरवाजे पर थपथपाहट हुई । दरवाजा खुला हुआ था। मैं हड़बड़ाकर उठा । सामने वही पान वाला मुछन्दर खड़ा मुस्करा रहा था । दोपहर का सन्नाटा । मुझे काटो तो खून नहीं ।
‘‘क्या–क्या बात है ?’’ मैंने पूछा ।
‘‘शायद आपका ही बच्चा होगा । टॉफी लेने के लिए आया था मेरे पास । उसने यह नोट मुझको दिया था’’–कहते हुए पान वाले ने सौ का नोट मेरी ओर बढ़ा दिया । मैं चौंका । वह सौ का नोट मेरी कमीज की जेब में था । देखा–जेब खाली थी लगता है सोनू ने मेरी जेब से चुपचाप यह नोट निकाल लिया था ।
‘‘टॉफी के कितने पैसे हुए ?’’
‘‘सिर्फ़ पचास पैसे । फिर कभी ले लेंगे’’– वह कचर–कचर पान चबाते हुए मुस्कराया । दूधिया मुस्कान से उसका चेहरा नहा उठा–‘‘अच्छा, बाबू साहब , प्रणाम ! कहकर वह लौट पड़ा ।
मैं स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रहा था ।
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(२)
जुलूस
‘‘इसे भी आज ही मरना था।’’
‘‘जीकर क्या करता?’’
‘‘अपने देश में भिखारियों की संख्या बढ़ती जा रही है।’’
पास से गुज़रता एक भिखारी ठिठक गया–‘‘अरे! ये तो जोद्धा है।’’
‘‘जोद्धा! किस लड़ाई का जोद्धा?’’ किसी ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में पूछा।
‘‘आज़ादी की लड़ाई में गोलियाँ खाई थीं इसने साहब। हाथ–पैर छलनी हो गए थे। न किसी ने रोटी दी न काम दिया। भीख माँगकर पेट भरता था.....’’ भिखारी बोला।
उसने पास में मैली–कुचैली झोली उलट दी। कई बदरंग चिट्ठियाँ इधर–उधर बिखर गईं–जोद्धा को बड़े–बड़े नेताओं के हाथ की लिखी चिट्ठियाँ।
विजय–जुलूस आगे निकल चुका था।
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(3)
संस्कार
साहब के बेटे और कुत्ते में विवाद हो गया। साहब का बेटा कहे जा रहा था–‘‘यहाँ बंगले में रहकर तुझे चोंचले सूझते हैं। और कहीं होते तो एक–एक टुकड़ा पाने के लिए घर–घर झाँकना पड़ता। यहाँ बैठे–बिठाए बढ़िया माल खा रहे हो। ज्यादा ही हुआ तो दिन में एकाध बार आने–जाने वालों पर गुर्रा लेते हो।’’
कुत्ता हँसा–‘‘तुम बेकार में क्रोध करते हो। अगर तुम भिखारी के घर पैदा हुए होते तो मुझसे और भी ईर्ष्या करते। जूठे पत्तल चाटने का मौका तक न मिल पाता। तुम यहीं रहो, खुश रहो, यही मेरी इच्छा है।’’
‘‘मैं तुम्हारी इच्छा से यहाँ रह रहा हूँ? हरामी कहीं के।’’ साहब का बेटा भभक उठा।
कुत्ता फिर हँसा–‘‘अपने–अपने संस्कार की बात है। मेरी देखभाल साहब और मेमसाहब दोनों करते हैं। मुझे कार में घुमाने ले जाते हैं। तुम्हारी देखभाल घर के नौकर–चाकर करते हैं। उन्हीं के साथ तुम बोलते–बतियाते हो। उनकी संगति का प्रभाव तुम्हारे ऊपर ज़रूर पड़ेगा। जैसी संगति में रहोगे, वैसे संस्कार बनेंगे।’’
साहब के बेटे का मुँह लटक गया। कुत्ता इस स्थिति को देखकर अफसर की तरह ठठाकर हँस पड़ा।
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(4)
साहब के बेटे और कुत्ते में विवाद हो गया। साहब का बेटा कहे जा रहा था–‘‘यहाँ बंगले में रहकर तुझे चोंचले सूझते हैं। और कहीं होते तो एक–एक टुकड़ा पाने के लिए घर–घर झाँकना पड़ता। यहाँ बैठे–बिठाए बढ़िया माल खा रहे हो। ज्यादा ही हुआ तो दिन में एकाध बार आने–जाने वालों पर गुर्रा लेते हो।’’
कुत्ता हँसा–‘‘तुम बेकार में क्रोध करते हो। अगर तुम भिखारी के घर पैदा हुए होते तो मुझसे और भी ईर्ष्या करते। जूठे पत्तल चाटने का मौका तक न मिल पाता। तुम यहीं रहो, खुश रहो, यही मेरी इच्छा है।’’
‘‘मैं तुम्हारी इच्छा से यहाँ रह रहा हूँ? हरामी कहीं के।’’ साहब का बेटा भभक उठा।
कुत्ता फिर हँसा–‘‘अपने–अपने संस्कार की बात है। मेरी देखभाल साहब और मेमसाहब दोनों करते हैं। मुझे कार में घुमाने ले जाते हैं। तुम्हारी देखभाल घर के नौकर–चाकर करते हैं। उन्हीं के साथ तुम बोलते–बतियाते हो। उनकी संगति का प्रभाव तुम्हारे ऊपर ज़रूर पड़ेगा। जैसी संगति में रहोगे, वैसे संस्कार बनेंगे।’’
साहब के बेटे का मुँह लटक गया। कुत्ता इस स्थिति को देखकर अफसर की तरह ठठाकर हँस पड़ा।
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(4)
मुखौटा
नेताजी को चुनाव लड़ना था। जनता पर उनका अच्छा प्रभाव न था। इसके लिए वे मुखौटा बेचने वाले की दूकान में गए। दूकानदार ने भालू, शेर, भेडिए,साधू–संन्यासी के मुखौटे उसके चेहरे पर लगाकर देखे। कोई भी मुखौटा फिट नहीं बैठा। दूकानदार और नेताजी दोनों ही परेशान।
दूकानदार को एकाएक ख्याल आया। भीतर की अँधेरी कोठरी में एक मुखौटा बरसों से उपेक्षित पड़ा था। वह मुखौटा नेताजी के चेहरे पर एकदम फिट आ गया। उसे लगाकर वे सीधे चुनाव–क्षेत्र में चले गए।
परिणाम घोषित हुआ। नेताजी भारी बहुमत से जीत गए। उन्होंने मुखौटा उतारकर देखा। वे स्वयं भी चौंक उठे–वह इलाके के प्रसिद्ध डाकू का मुखौटा था।
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(5)
दूकानदार को एकाएक ख्याल आया। भीतर की अँधेरी कोठरी में एक मुखौटा बरसों से उपेक्षित पड़ा था। वह मुखौटा नेताजी के चेहरे पर एकदम फिट आ गया। उसे लगाकर वे सीधे चुनाव–क्षेत्र में चले गए।
परिणाम घोषित हुआ। नेताजी भारी बहुमत से जीत गए। उन्होंने मुखौटा उतारकर देखा। वे स्वयं भी चौंक उठे–वह इलाके के प्रसिद्ध डाकू का मुखौटा था।
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(5)
दूसरा सरोवर
एक गाँव था। उसी के पास में था स्वच्छ जल का एक सरोवर। गाँव वाले उसी सरोवर का पानी पीते थे। किसी को कोई कष्ट नहीं था। सब खुशहाल थे।
एक बार उजले–उजले कपड़े पहनकर एक आदमी गाँव में आया। उसने सब लोगों को मुखिया की चौपाल में इकट्ठा करके बहुत अच्छा भाषण दिया। उसने कहा–‘‘सरोवर आपके गाँव में एक मील की दूरी पर है। आप लोगों को पानी लाने के लिए बहुत दिक्कत होती है। मैं जादू के बल पर सरोवर को आपके गाँव के बीच में ला सकता हूँ। जिसे विश्वास न हो वह मेरी परीक्षा ले सकता है। मैं चमत्कार के बल पर अपना रूप–परिवर्तन कर सकता हूँ। गाँव के मुखिया मेरे साथ चलें। मेरा चमत्कारी डंडा इनके पास रहेगा। मैं सरोवर में उतरूँगा। ये मेरे चमत्कारी डण्डे को जैसे ही ज़मीन पर पटकेंगे मैं मगरमच्छ का रूप धारण कर लूँगा। उसके बाद फिर डण्डे को ज़मीन पर पटकेंगे, मैं फिर आदमी का रूप धारण कर लूँगा।’’
लोग उसकी बात मान गए। उजले कपड़े किनारे पर रखकर वह पानी में उतरा। मुखिया ने चमत्कारी डण्डा ज़मीन पर पटका। वह आदमी खौफनाक मगरमच्छ बनकर किनारे की ओर बढ़ा। डर से मुखिया के प्राण सूख गए। हिम्मत जुटाकर उसने फिर डण्डा ज़मीन पर पटका। मगरमच्छ पर इसका कोई असर नहीं हुआ। नुकीले जबड़े फैलाए कांटेदार पूछ फटकारते हुए मगरमच्छ, मुखिया की तरफ बढ़ा। मुखिया सिर पर पैर रखकर भागा। डण्डा भी उसके हाथ से गिर गया।
अब उस सरोवर पर कोई नहीं जाता। उजले कपड़े आज तक किनारे पर पड़े हैं। गाँव वाले चार मील दूर दूसरे सरोवर पर जाने लगे हैं।
आज वह मगरमच्छ जगह–जगह नंगा घूम रहा है।
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(6)
एक बार उजले–उजले कपड़े पहनकर एक आदमी गाँव में आया। उसने सब लोगों को मुखिया की चौपाल में इकट्ठा करके बहुत अच्छा भाषण दिया। उसने कहा–‘‘सरोवर आपके गाँव में एक मील की दूरी पर है। आप लोगों को पानी लाने के लिए बहुत दिक्कत होती है। मैं जादू के बल पर सरोवर को आपके गाँव के बीच में ला सकता हूँ। जिसे विश्वास न हो वह मेरी परीक्षा ले सकता है। मैं चमत्कार के बल पर अपना रूप–परिवर्तन कर सकता हूँ। गाँव के मुखिया मेरे साथ चलें। मेरा चमत्कारी डंडा इनके पास रहेगा। मैं सरोवर में उतरूँगा। ये मेरे चमत्कारी डण्डे को जैसे ही ज़मीन पर पटकेंगे मैं मगरमच्छ का रूप धारण कर लूँगा। उसके बाद फिर डण्डे को ज़मीन पर पटकेंगे, मैं फिर आदमी का रूप धारण कर लूँगा।’’
लोग उसकी बात मान गए। उजले कपड़े किनारे पर रखकर वह पानी में उतरा। मुखिया ने चमत्कारी डण्डा ज़मीन पर पटका। वह आदमी खौफनाक मगरमच्छ बनकर किनारे की ओर बढ़ा। डर से मुखिया के प्राण सूख गए। हिम्मत जुटाकर उसने फिर डण्डा ज़मीन पर पटका। मगरमच्छ पर इसका कोई असर नहीं हुआ। नुकीले जबड़े फैलाए कांटेदार पूछ फटकारते हुए मगरमच्छ, मुखिया की तरफ बढ़ा। मुखिया सिर पर पैर रखकर भागा। डण्डा भी उसके हाथ से गिर गया।
अब उस सरोवर पर कोई नहीं जाता। उजले कपड़े आज तक किनारे पर पड़े हैं। गाँव वाले चार मील दूर दूसरे सरोवर पर जाने लगे हैं।
आज वह मगरमच्छ जगह–जगह नंगा घूम रहा है।
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(6)
खुशबू
दोनों भाइयों को पढ़ाने–लिखाने में उसकी उम्र के खुशनुमा साल चुपचाप बीत गए। तीस वर्ष की हो गई शाहीन इस तरह से। दोनों भाई नौकरी पाकर अलग–अलग शहरों में जा बसे।
अब घर में बूढ़ी माँ है और जवानी के पड़ाव को पीछे छोड़ने को मजबूर वह।
खूबसूरत चेहरे पर सिलवटें पड़ने लगीं। कनपटी के पास कुछ सफेद बाल भी झलकने लगे। आईने में चेहरा देखते ही शाहीन के मन में एक हूक–सी उठी–कितनी अकेली हो गई है मेरे जि़न्दगी। किस बीहड़ में खो गए मिठास भरे सपने।
भाइयों की चिट्ठियाँ कभी–कभार ही आती हैं। दोनों अपनी गृहस्थी में ही डूबे रहते हैं। उदासी की हालत में वह पत्र–व्यवहार बंद कर चुकी है। सोचते–सोचते शाहीन उद्वेलित हो उठी। आँखों में आँसू भर आए। आज स्कूल जाने का भी मन नहीं था। घर में भी रहे तो माँ की हाय–तौबा कहाँ तक सुने?
उसने आँखें पोंछीं और रिक्शा से उतरकर अपने शरीर को ठेलते हुए गेट की तरफ कदम बढ़ाए। पहली घंटी बज चुकी थी। तभी दीदीजी–दीदीजी की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ।
‘‘दीदीजी, यह फूल मैं आपके लिए लाई हूँ।’’ दूसरी कक्षा की एक लड़की हाथ में गुलाब का फूल लिए उसी तरफ बढ़ी।
शाहीन की दृष्टि उसके चेहरे पर गई। वह मंद–मंद मुस्करा रही थी। उसने गुलाब का फूल शाहीन की तरफ बढ़ा दिया। शाहीन ने गुलाब का फूल उसके हाथ से लेकर उसके गाल थपथपा दिए।
गुलाब की खुशबू उसके नथुनों में समाती जा रही थी। वह स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रही थी। उसने रजिस्टर उठाया और उपस्थिति लेने के लिए गुनगुनाती हुई कक्षा की तरफ तेजी से बढ़ गई।
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(7)
अब घर में बूढ़ी माँ है और जवानी के पड़ाव को पीछे छोड़ने को मजबूर वह।
खूबसूरत चेहरे पर सिलवटें पड़ने लगीं। कनपटी के पास कुछ सफेद बाल भी झलकने लगे। आईने में चेहरा देखते ही शाहीन के मन में एक हूक–सी उठी–कितनी अकेली हो गई है मेरे जि़न्दगी। किस बीहड़ में खो गए मिठास भरे सपने।
भाइयों की चिट्ठियाँ कभी–कभार ही आती हैं। दोनों अपनी गृहस्थी में ही डूबे रहते हैं। उदासी की हालत में वह पत्र–व्यवहार बंद कर चुकी है। सोचते–सोचते शाहीन उद्वेलित हो उठी। आँखों में आँसू भर आए। आज स्कूल जाने का भी मन नहीं था। घर में भी रहे तो माँ की हाय–तौबा कहाँ तक सुने?
उसने आँखें पोंछीं और रिक्शा से उतरकर अपने शरीर को ठेलते हुए गेट की तरफ कदम बढ़ाए। पहली घंटी बज चुकी थी। तभी दीदीजी–दीदीजी की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ।
‘‘दीदीजी, यह फूल मैं आपके लिए लाई हूँ।’’ दूसरी कक्षा की एक लड़की हाथ में गुलाब का फूल लिए उसी तरफ बढ़ी।
शाहीन की दृष्टि उसके चेहरे पर गई। वह मंद–मंद मुस्करा रही थी। उसने गुलाब का फूल शाहीन की तरफ बढ़ा दिया। शाहीन ने गुलाब का फूल उसके हाथ से लेकर उसके गाल थपथपा दिए।
गुलाब की खुशबू उसके नथुनों में समाती जा रही थी। वह स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रही थी। उसने रजिस्टर उठाया और उपस्थिति लेने के लिए गुनगुनाती हुई कक्षा की तरफ तेजी से बढ़ गई।
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(7)
अपने–अपने सन्दर्भ
इस भयंकर ठंड में भी वेद बाबू दूध वाले के यहाँ मुझसे पहले बैठे मिले। मंकी कैप से झाँकते उनके चेहरे पर हर दिन की तरह धूप–सी मुस्कान बिखरी थी।
लौटते समय वेदबाबू को सीने में दर्द महसूस होने लगा। वे मेरे कंधे, पर हाथ मारकर बोले–‘‘जानते हो, यह कैसा दर्द है?’’मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मद्धिम स्वर में बोले–‘‘यह दर्दे–दिल है। यह दर्द या तो मुझ जैसे बूढ़ों को होता है या तुम जैसे जवानों को।’’
मैं मुस्करा दिया।
धीरे–धीरे उनका दर्द बढ़ने लगा।
‘‘मैं आपको घर तक पहुँचा देता हूँ।’’ मोड़ पर पहुँचकर मैंने आग्रह किया–‘‘आज आपकी तबियत ठीक नहीं लग रही है।’’
‘‘तुम क्यों तकलीफ करते हो? मैं चला जाऊँगा। मेरे साथ तुम कहाँ तक चलोगे? अपने वारण्ट पर चित्रगुप्त के साइन होने भर की देर है।’’ वेद बाबू ने हंसकर मुझको रोकना चाहा।
मेरा हाथ पकड़कर आते हुए वेदबाबू को देखकर उनकी पत्नी चौंकी–‘‘लगता है आपकी तबियत और अधिक बिगड़ गई है? मैंने दूध लाने के लिए रोका था न?’’
‘‘मुझे कुछ नहीं हुआ। यह वर्मा जिद कर बैठा कि बच्चों की तरह मेरा हाथ पकड़कर चलो। मैंने इनकी बात मान ली।’’ वे हँसे
उनकी पत्नी ने आगे बढ़कर उन्हें ईज़ी चेयर पर बिठा दिया। दवाई देते हुए आहत स्वर मे कहा–‘‘रात–रात–भर बेटों के बारे में सोचते रहते हो। जब कोई बेटा हमको पास ही नहीं रखना चाहता तो हम क्या करें। जान दे दें ऐसी औलाद के लिए। कहते हैं–मकान छोटा है। आप लोगों को दिक्कत होगी। दिल्ली में ढंग के मकान बिना मोटी रकम दिए किराए पर मिलते ही नहीं।’’
वेदबाबू ने चुप रहने का संकेत किया–‘‘उन्हें क्यों दोष देती हो भागवान! थोड़ी–सी साँसें रह गई हैं, किसी तरह पूरी हो ही जाएगी–’’ कहते–कहते हठात् दो आँसू उनकी बरौनियों में आकर उलझ गए।
लौटते समय वेदबाबू को सीने में दर्द महसूस होने लगा। वे मेरे कंधे, पर हाथ मारकर बोले–‘‘जानते हो, यह कैसा दर्द है?’’मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मद्धिम स्वर में बोले–‘‘यह दर्दे–दिल है। यह दर्द या तो मुझ जैसे बूढ़ों को होता है या तुम जैसे जवानों को।’’
मैं मुस्करा दिया।
धीरे–धीरे उनका दर्द बढ़ने लगा।
‘‘मैं आपको घर तक पहुँचा देता हूँ।’’ मोड़ पर पहुँचकर मैंने आग्रह किया–‘‘आज आपकी तबियत ठीक नहीं लग रही है।’’
‘‘तुम क्यों तकलीफ करते हो? मैं चला जाऊँगा। मेरे साथ तुम कहाँ तक चलोगे? अपने वारण्ट पर चित्रगुप्त के साइन होने भर की देर है।’’ वेद बाबू ने हंसकर मुझको रोकना चाहा।
मेरा हाथ पकड़कर आते हुए वेदबाबू को देखकर उनकी पत्नी चौंकी–‘‘लगता है आपकी तबियत और अधिक बिगड़ गई है? मैंने दूध लाने के लिए रोका था न?’’
‘‘मुझे कुछ नहीं हुआ। यह वर्मा जिद कर बैठा कि बच्चों की तरह मेरा हाथ पकड़कर चलो। मैंने इनकी बात मान ली।’’ वे हँसे
उनकी पत्नी ने आगे बढ़कर उन्हें ईज़ी चेयर पर बिठा दिया। दवाई देते हुए आहत स्वर मे कहा–‘‘रात–रात–भर बेटों के बारे में सोचते रहते हो। जब कोई बेटा हमको पास ही नहीं रखना चाहता तो हम क्या करें। जान दे दें ऐसी औलाद के लिए। कहते हैं–मकान छोटा है। आप लोगों को दिक्कत होगी। दिल्ली में ढंग के मकान बिना मोटी रकम दिए किराए पर मिलते ही नहीं।’’
वेदबाबू ने चुप रहने का संकेत किया–‘‘उन्हें क्यों दोष देती हो भागवान! थोड़ी–सी साँसें रह गई हैं, किसी तरह पूरी हो ही जाएगी–’’ कहते–कहते हठात् दो आँसू उनकी बरौनियों में आकर उलझ गए।
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रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
जन्म : 19 मार्च 1949, बेहट जिला सहारनपुर, भारत में।
शिक्षा : एम ए-हिन्दी (मेरठ विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में) , बी एड
प्रकाशित रचनाएँ : 'माटी, पानी और हवा', 'अंजुरी भर आसीस', 'कुकडूँ कूँ', 'हुआ सवेरा' (कविता संग्रह), 'धरती के आँसू', 'दीपा', 'दूसरा सवेरा' (लघु उपन्यास), 'असभ्य नगर' (लघुकथा ``संग्रह),खूँटी पर टँगी आत्मा( व्यंग्य –संग्रह) अनेक संकलनों में लघुकथाएँ संकलित तथा गुजराती, पंजाबी, उर्दू एवं नेपाली में अनूदित।
सम्पादन :आयोजन एवं www.laghukatha.com (लघुकथा की एकमात्र वेबसाइट), http://patang-ki-udan.blogspot.com/ (बच्चों के लिए ब्लॉगर)
वेब साइट पर प्रकाशन:रचनाकार ,अनुभूति, अभिव्यक्ति,हिन्दी नेस्ट,साहित्य कुंज ,लेखनी,इर्द-गिर्द ,इन्द्र धनुष आदि ।
प्रसारण –आकाशवाणी गुवाहाटी ,रामपुर, नज़ीबाबाद ,अम्बिकापुर एवं जबलपुर से ।
निर्देशन: केन्द्रीय विद्यालय संगठन में हिन्दी कार्य शालाओं में विभिन्न स्तरों पर संसाधक(छह बार) ,निदेशक (छह बार) एवं : केन्द्रीय विद्यालय संगठन के ओरियण्टेशन के फ़ैकल्टी मेम्बर के रूप में कार्य
सेवा : 7 वर्षों तक उत्तरप्रदेश के विद्यालयों तथा 32 वर्षों तक केन्द्रीय विद्यालय संगठन में कार्य । साढ़े चौदह वषों तक प्राचार्य के रूप में कार्य । अब सेवा- निवृत्त ।
संपर्क:- 37, बी /2 रोहिणी सैक्टर -17
नई दिल्ली-110089
मोबाइल- 9313727493
दूरभाष-011-27581183
जन्म : 19 मार्च 1949, बेहट जिला सहारनपुर, भारत में।
शिक्षा : एम ए-हिन्दी (मेरठ विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में) , बी एड
प्रकाशित रचनाएँ : 'माटी, पानी और हवा', 'अंजुरी भर आसीस', 'कुकडूँ कूँ', 'हुआ सवेरा' (कविता संग्रह), 'धरती के आँसू', 'दीपा', 'दूसरा सवेरा' (लघु उपन्यास), 'असभ्य नगर' (लघुकथा ``संग्रह),खूँटी पर टँगी आत्मा( व्यंग्य –संग्रह) अनेक संकलनों में लघुकथाएँ संकलित तथा गुजराती, पंजाबी, उर्दू एवं नेपाली में अनूदित।
सम्पादन :आयोजन एवं www.laghukatha.com (लघुकथा की एकमात्र वेबसाइट), http://patang-ki-udan.blogspot.com/ (बच्चों के लिए ब्लॉगर)
वेब साइट पर प्रकाशन:रचनाकार ,अनुभूति, अभिव्यक्ति,हिन्दी नेस्ट,साहित्य कुंज ,लेखनी,इर्द-गिर्द ,इन्द्र धनुष आदि ।
प्रसारण –आकाशवाणी गुवाहाटी ,रामपुर, नज़ीबाबाद ,अम्बिकापुर एवं जबलपुर से ।
निर्देशन: केन्द्रीय विद्यालय संगठन में हिन्दी कार्य शालाओं में विभिन्न स्तरों पर संसाधक(छह बार) ,निदेशक (छह बार) एवं : केन्द्रीय विद्यालय संगठन के ओरियण्टेशन के फ़ैकल्टी मेम्बर के रूप में कार्य
सेवा : 7 वर्षों तक उत्तरप्रदेश के विद्यालयों तथा 32 वर्षों तक केन्द्रीय विद्यालय संगठन में कार्य । साढ़े चौदह वषों तक प्राचार्य के रूप में कार्य । अब सेवा- निवृत्त ।
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