लावण्या शाह की पांच कविताएं
मौन गगन दीप
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विक्षुब्ध्ध तरँग दीप,
मँद ~ मँद सा प्रदीप्त,
मौन गगन दीप !
मौन गगन, मौन घटा,
नव चेतन, अल्हडता
सुख सुरभि, लवलीन!
मौन गगन दीप !
झाँझर झँकार ध्वनि,
मुख पे मल्हार
कामना असीम,
रे, कामना असीम, !
मौन गगन दीप!
चारु चरण, चपल वरण,
घायल मन बीन!
रे, कामना असीम !
मौन गगन दीप!
वेणु ले, वाणी ले,
सुरभि ले, कँकण ले,
नाच रही मीन!
मौन गगन दीप !
जल न मिला, मन न मिला,
स्वर सारे लीन!
नाच रही मीन
मौन गगन दीप!
सँध्या के तारक से,
मावस के पावस से,
कौन कहे रीत ?
प्रीत करे , जीत,
ओ मेरे, सँध्या के मीत!
मेरे गीत हैँ अतीत.
बीत गई प्रीत !
मेरे सँध्या के मीत
-कामना अतीत
रे, कामना अतीत !
मौन गगन दीप !
मौन रुदन बीन,
रे, कामना असीम, !
मौन गगन दीप !
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विक्षुब्ध्ध तरँग दीप,
मँद ~ मँद सा प्रदीप्त,
मौन गगन दीप !
मौन गगन, मौन घटा,
नव चेतन, अल्हडता
सुख सुरभि, लवलीन!
मौन गगन दीप !
झाँझर झँकार ध्वनि,
मुख पे मल्हार
कामना असीम,
रे, कामना असीम, !
मौन गगन दीप!
चारु चरण, चपल वरण,
घायल मन बीन!
रे, कामना असीम !
मौन गगन दीप!
वेणु ले, वाणी ले,
सुरभि ले, कँकण ले,
नाच रही मीन!
मौन गगन दीप !
जल न मिला, मन न मिला,
स्वर सारे लीन!
नाच रही मीन
मौन गगन दीप!
सँध्या के तारक से,
मावस के पावस से,
कौन कहे रीत ?
प्रीत करे , जीत,
ओ मेरे, सँध्या के मीत!
मेरे गीत हैँ अतीत.
बीत गई प्रीत !
मेरे सँध्या के मीत
-कामना अतीत
रे, कामना अतीत !
मौन गगन दीप !
मौन रुदन बीन,
रे, कामना असीम, !
मौन गगन दीप !
(2)
उडान
गीत बनकर गूँजते हैँ, भावोँ के उडते पाख!
कोमल किसलय, मधुकर गुँजन,सर्जन के हैँ साख!
मोहभरी, मधुगूँज उठ रही, कोयल कूक रही होगी-
प्यासी फिरती है, गाती रहती है, कब उसकी प्यास बुझेगी?
कब मक्का सी पीली धूप, हरी अँबियोँ से खेलेगी?
कब नीले जल मेँ तैरती मछलियाँ, अपना पथ भूलेँगीँ ?
क्या पानी मेँ भी पथ बनते होँगेँ ? होते होँगे, बँदनवार ?
क्या कोयल भी उडती होगी, निश्चिन्त, गगन पथ निहार ?
मानव भी छोड धरातल, उपर उठना चाहता है -
तब ना होँगे नक्शे कोई, ना होँगे कोई और नियम !
कवि की कल्पना के पाँख उडु उडु की रट करते हैँ!
दूर जाने को प्राण, अकुलाये से रहते हैँ
हैँ बटोही, व्याघ्र, राह मेँ घेरके बैठे जो पथ -
ना चाहते वो किसी का भी भला ना कभी !याद कर नीले गगन को, भर ले श्वास, उठ जा,
उडता जा, "मन -पँखी" अकुलाते तेरे प्राण!
भूल जा उस पेड को, जो था बसेरा तेरा, कल को,
भूल जा , उस चमनको जहाँ बसाया था तूने डेरा -
ना डर, ना याद कर, ना, नुकीले तीर को !
जो चढाया ब्याघने, खीँचे, धनुष के बीच!
सन्न्` से उड जा ! छूटेगा तीर भी नुकीला -
गीत तेरा फैल जायेगा, धरा पर गूँजता,
तेरे ही गर्म रक्त के साथ, बह जायेगा !
एक अँतिम गीत ही बस तेरी याद होगी !
याद कर उस गीत को, उठेगी टीस मेरी !
"मन -पँछी "तेरे ह्रदय के भाव कोमल,
हैँ कोमल भावनाएँ, है याद तेरी, विरह तेरा,
आज भी, नीलाकाश मेँ, फैला हुआ अक्ष्क्षुण !
(3)
प्रलय
देख रही मैँ, उमड रहा है, झँझावात प्रलय का !
निज सीमित व्यक्तित्त्व के पार, उमड घुमड, गर्जन तर्जन!
हैँ वलयोँ के द्वार खुले, लहराते नीले जल पर !
सागर के वक्षसे उठता, महाकाल का घर्घर स्वर,
सृष्टि के प्रथम सृजन सा, तिमिराच्छादीत महालोक
बूँद बनी है लहर यहाँ, लहरोँ से उठता पारावार,
ज्योति पूँज सूर्य उद्`भासित, बादल के पट से झुककर
चेतना बनी है नैया, हो लहरोँ के वश, बहती जाती ~
क्षितिज सीमा जो उजागर, काली एक लकीर महीन!
वही बनेगी धरा, हरी, वहीँ रहेगी, वसुधा, अपरिमित!
गा रही हूँ गीत आज मैँ, प्रलय ~ प्रवाह निनादित~
बजते पल्लव से महाघोष, स्वर, प्रकृति, फिर फिर दुहराती!
(4)
मानवता
" मानवता " किन,किन रुपोँ मेँ दीख जाती है ?
सोचो सोचो, अरे साथियों गौर करो इन बातोँ पे
कहीँ मुखर हँसी मेँ खिलती वो, खिली धूप सी,
और कहीँ आशा- विश्वास की परँपरा है दर्शाती,
कहीँ प्राणी पे घने प्रेम को भी बतलाती
वात्सल्य, करुणा,खुशी,हँसी, मस्ती के तराने,
आँसू - विषाद की छाया बन कर भी दीख जाती
यही मानव मन से उपजे भाव अनेक अनमोल,
मानवता के पाठ पढाते युगोँ से, अमृत घोल !
(5)
समय की धारा मेँ बहते बहते,
हम आज यहाँ तक आये हैँ
बीती सदीयोँ के आँचल से,
कुछ आशा के, फूल चुरा कर लाये हैँ !
हो मँगलमय प्रभात, पृथ्वी पर,
मिटे कलह का कटु उन्माद !
वसुँधरा हो हरी -भरी फिर,
चमके खुशहाली सा - प्रात: !!
हम आज यहाँ तक आये हैँ
बीती सदीयोँ के आँचल से,
कुछ आशा के, फूल चुरा कर लाये हैँ !
हो मँगलमय प्रभात, पृथ्वी पर,
मिटे कलह का कटु उन्माद !
वसुँधरा हो हरी -भरी फिर,
चमके खुशहाली सा - प्रात: !!
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लावण्या शाह सुप्रसिद्ध कवि स्व श्री नरेंद्र शर्मा जी की सुपुत्री हैं और वर्त्तमान में अमेरिका में रह कर अपने पिता से प्राप्त काव्य -परंपरा को आगे बढा रही हैं . समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में बी ए. (आनर्स ) की उपाधि प्राप्त लावण्या जी प्रसिद्द पौराणिक धारावाहिक "महाभारत " के लिए कूछ दोहे भी लिख चुकी हैं . इनकी कूछ रचनाएँ और स्व० नरेंद्र शर्मा और स्वर -सम्राज्ञी लता मंगेशकर से जुड़े संस्मरण , रेडियो से भी प्रसारित हो चुके हैं .
इनकी एक पुस्तक "फिर गा उठा प्रवासी " प्रकाशित हो चुकी है जो इन्होंने अपने पिता जी की प्रसिद्द कृति "प्रवासी के गीत " को श्रद्धांजलि देते हुये लिखी है .
उनके अपने ही शब्दों में परिचय के लिए यहाँ क्लिक कीजिए : "परिचय "
इनकी एक पुस्तक "फिर गा उठा प्रवासी " प्रकाशित हो चुकी है जो इन्होंने अपने पिता जी की प्रसिद्द कृति "प्रवासी के गीत " को श्रद्धांजलि देते हुये लिखी है .
उनके अपने ही शब्दों में परिचय के लिए यहाँ क्लिक कीजिए : "परिचय "
लावण्या जी की 'रेडियो -वार्ता ' सुनने के लिए , यहाँ क्लिक कीजिए : Remembering Pt. Narendra Sharma