प्राण शर्मा की तीन कविताएं
(१)
पहले अपनी बोली बोलो
फिर चाहे तुम कुछ भी बोलो
इंग्लिश बोलो, रूसी बोलो
तुर्की बोलो, स्पैनिश बोलो
अरबी बोलो, चीनी बोलो
जर्मन बोलो, डेनिश बोलो
कुछ भी बोलो लेकिन पहले
अपनी माँ के बोली बोलो
अपने बोली माँ के बोली
मीठी- मीठी, प्यारी- प्यारी
अपनी बोली माँ की बोली
हर बोली से न्यारी- न्यारी
अपनी बोली माँ की बोली
अपनी बोली से नफ़रत क्यों
अपनी बोली माँ की बोली
दूजे की बोली में ख़त क्यों
अपनी बोली का सिक्का तुम
दुनिया वालों से मनवाओ
खुद भी मान करो तुम इसका
औरों से भी मान कराओ
माँ बोली के बेटे हो तुम
बेटे का कर्त्तव्य निभाओ
अपनी बोली माँ होती है
क्यों ना सर पर इसे बिठाओ
(२)
क्यों कर हो आज तुम उल्टे तमाम काम
अपने दिलों की तख्तियों पर लिख लो ये कलाम
तुम बोंओंगे बबूल तो होंगे कहाँ से आम
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ
कहलाओगे जहान में तबतक फकीर तुम
बन पाओगे कभी नहीं जग में अमीर तुम
जब तक करोगे साफ़ न अपना ज़मीर तुम
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ
ये प्रण करो कि खाओगे रिश्वत कभी नहीं
गिरवी रखोगे देश की किस्मत कभी नहीं
बेचोगे अपने देश की इज्ज़त कभी नहीं
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ
देखो, तुम्हारे जीने का कुछ ऐसा ढंग हो
अपने वतन के वास्ते सच्ची उमंग हो
मकसद तुम्हारा सिर्फ बुराई से जंग हो
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ
उनसे बचो सदा कि जो भटकाते हैं तुम्हे
जो उल्टी--सीधी चाल से फुसलाते हैं तुम्हे
नागिन की तरह चुपके से डस जाते हैं तुम्हे
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ
जो क़ौमे एक देश की आपस में लड़ती हैं
कुछ स्वार्थों के वास्ते नित ही झगड़ती हैं
वे कौमें घास- फूस के जैसे ही सड़ती हैं
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ
जग में गंवार कौन बना सकता है तुम्हे
बन्दर का नाच कौन नचा सकता है तुम्हें
तुम एक हो तो कौन मिटा सकता है तुम्हे
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ
होने न पायें देश में भाषा - विवाद फिर
होने न पायें देश में बलवे - जिहाद फिर
होने न पायें देश में दंगे - फसाद फिर
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ
चलने न पायें देश में नफ़रत की गोलियां
फिरकापरस्ती की बनें हरगिज़ न टोलियाँ
सब शख्स बोलें प्यार की आपस में बोलियाँ
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ
सोचो, जरा विचारो कि तुमसे ही देश है
हर गंदगी बुहारो कि तुमसे ही देश है
तुम देश को संवारो कि तुमसे ही देश है
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ
मिलकर बजें तुम्हारी यूं हाथों की तालियाँ
जैसे कि झूमती हैं हवाओं में डालियाँ
जैसे कि लहलहाती हैं खेतों में बालियाँ
मेरे वतन के लोगो मुखातिम मैं तुमसे हूँ
(३)
कौवे ने कोयल से पूछा ,हम दोनो तन के काले हैं
फिर जग तुझपर क्यों मरता है मुझसे नफ़रत क्यों करता है
कोयल बोली ,सुन ए कौवे ,बेहद शोर मचाता है तू
अपनी बेसुर कांय - कांय से कान सभी के खाता है तू
मैं मीठे सुर में गाती हूँ, हर इक का मन बहलाती हूँ
इसीलिये जग को भाती हूँ,जगवालों का यश पाती हूँ
शेर हिरन से बोला -प्यारे ,हम दोनो वन में रहते हैं
फिर जग तुझ पर क्यों मरता है ,मुझसे नफ़रत क्यों करता है
मृग बोला -ए वन के राजा , तू दहशत को फैलाता है
जो तेरे आगे आता है, तू झट उसको खा जाता है
मस्त कुलांचें मैं भरता हूँ , बच्चों को भी बहलाता हूँ
इसीलिये जग को भाता हूँ , जगवालों का यश पाता हूँ
चूहे ने कुत्ते से पूछा , हम इक घर में ही रहते हैं
फिर जग तुझपर क्यों मरता है ,मुझसे नफ़रत क्यों करता है
कुत्ता बोला- सुन रे चूहे, तुझमें सद्व्यवहार नहीं है
हर इक चीज़ कुतरता है तू ,तुझमें शिष्टाचार नहीं है
मैं घर का पहरा देता हूँ ,चोरों से लोहा लेता हूँ
इसीलिये जग को भाता हूँ , जगवालों का यश पाता हूँ
मच्छर बोला परवाने से , हम दोनो भाई जैसे हैं
फिर जग तुझपर क्यों मरता है मुझसे नफ़रत क्यों करता है
परवाना बोला मच्छर से , तू क्या जाने त्याग की बातें
रातों में तू सोये हुओं पर करता है छिप- छिप कर घातें
मैं बलिदान किया करता हूँ , जीवन यूँ ही जिया करता हूँ
इसीलिये जग को भाता हूँ, जगवालों का यश पाता हूँ
मगरमच्छ बोला सीपी से , हम दोनो सागर वासी हैं
फिर जग तुझ पर क्यों मरता है,मुझसे नफ़रत क्यों करता है
सीपी बोली- जल के राजा ,तुझमें कोई शर्म नहीं है
हर इक जीव निगलता है तू , तेरा कोई धर्म नहीं है
मैं जग को मोती देती हूँ, बदले में कब कुछ लेती हूँ
इसीलिये जग को भाती हूँ, जगवालों का यश पाती हूँ
आंधी ने पुरवा से पूछा , हम दोनो बहने जैसी हैं
फिर जग तुझपर क्यों मरता है , मुझसे नफ़रत क्यों करता है
पुरवा बोली- सुन री आंधी , तू गुस्से में ही रहती है
कैसे हो नुक्सान सभी का , तू इस मंशा में बहती है
मैं मर्यादा में रहती हूँ ,हर इक को सुख पहुंचाती हूँ
इसी लिए जग को भाती हूँ,जगवालों का यश पाती हूँ
कांटे ने इक फूल से पूछा , हम इक डाली के वासी हैं
फिर जग तुझपर क्यों मरता है, मुझसे नफ़रत क्यों करता है
फूल बड़ी नरमी से बोला , तू नाहक ही इतराता है
खूब कसक पैदा करता है,जिसको भी तू चुभ जाता है
मैं हंसता हूँ , मुस्काता हूँ , गंध सभी में बिखराता हूँ
इसीलिये जग को भाता हूँ , जगवालों का यश पाता हूँ
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प्राण शर्मा का जन्म १३ जून १९३७ को वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में. पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी). १९५५ से लेखन . फिल्मी गीत गाते-गाते गीत , कविताएं और ग़ज़ले कहनी शुरू कीं.१९६५ से ब्रिटेन में.१९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.लेख - 'हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल" पुरवाई पत्रिका और अभिव्यक्ति वेबसाइट पर काफी सराहा गया. शीघ्र यह लेख पुस्तकाकार रूप में प्रकाश्य.२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित."गज़ल कहता हूं' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित.Coventry CVESEB, UK3, Crakston Close, Stoke Hill Estate,E-mail : pransharma@talktalk.net--