रविवार, 19 दिसंबर 2010

पुस्तक चर्चा

छाया - बलराम अग्रवाल

भूमिका

अबाधित पठनीयता

रूपसिंह चन्देल

‘विष्णुगुप्त चाणक्य’ जैसे कालजयी उपन्यास के प्रणेता वरिष्ठ रचनाकार वीरेन्द्रकुमार गुप्त की कृतियों में न केवल जीवन की वैविध्यता परिलक्षित है प्रत्युत उनका विशिष्ट जीवन-दर्शन भी उद्भासित है । उनके उपन्यास ‘प्रियदर्शी’ और ‘विजेता’ बौद्धदर्शन की एकदम नवीन व्याख्या प्रस्तुत करते हैं तो पस्तुत उपन्यास ‘जीवन के सात रंग’ में वह प्रेम के सात रूपों को सहज और सरल रूप में चित्रित करने में सफल रहे हैं । न केवल उनके पूर्व प्रकाशित उपन्यासों बल्कि प्रस्तुत उपन्यास से भी यह सिद्ध होता है कि वह कथाकार मात्र नहीं , चिन्तक , विचारक और विश्लेशक भी हैं और ये विशेषताएं उन्हें अन्य समकालीन रचनाकारों से अलगाती हैं ।

आजीवन साहित्य और शिक्षा , अध्ययन और अध्यापन के लिए समर्पित वीरेन्द्र जी सदैव भीड़ से अलग रहकर एक साधक की भांति कर्मलीन रहे, आत्म-प्रक्षेपण की कला वे न सीख सके और शायद यही कारण रहा कि उनके साहित्यिक अवदान का प्राप्य उन्हें नहीं मिल सका । उन्होंने जैनेन्द्र जी का अभूतपूर्व साक्षात्कार किया , जो ‘समय और हम’ शीर्षक से जैनेन्द्र जी के नाम से प्रकाशित हुआ । यह विश्व में एक साहित्यकार का एक साहित्यकार द्वारा किया गया सबसे वृहद् साक्षात्कार है , जिसमें साक्षात्कर्ता अर्थात वीरेन्द्र जी को पृष्ठभूमि में डाल दिया गया।

वीरेन्द्र जी परिवेश , वातावरण और पात्रानूकूल भाषा का निर्वाह कर कृति को प्रवाहमय और सरस बना देते हैं । शिल्प के प्रति न वह लापरवाह हैं और न ही दुराग्रही । पात्रों और घटनाओं को वे उनके अपने अंतर्वेग से बहने देते हैं, उन पर छाते नहीं । पाठक भी उनकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होता ।

‘जीवन के सात रंग’ का केन्द्रीय विषय प्रेम है । ‘प्रेम’ शब्द कहने-सुनने में जितना सामान्य प्रतीत होता है उतना ही यह गूढ़ है । दो खण्डों में विभक्त इस उपन्यास में वर्तमान से लेकर पूर्वजन्म के प्रेम से पाठक का साक्षात होता है । मंजु और कमल का प्रेम उनमें से एक है जिसमें नारी का एक ऐसा स्वरूप प्रकट होता है जो अपने पूर्व प्रेमी अर्थात् कमल से घृणा करने के बावजूद उसे अंत तक अंतर्तम से प्रेम करती रहती है । प्रेम के भिन्न-भिन्न रूपों को चित्रित करते इस उपन्यास में आद्यंत औत्सुक्य और अबाधित पठनीयता विद्यमान है ।

01.03.2010

बी-3/230 , सादतपुर विस्तार ,
दिल्ली - 110 094
मो. 09810830957
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जीवन के सात रंग - वीरेन्द्र कुमार गुप्त
भावना प्रकाशन, A-109, पटपड़गंज,
दिल्ली - ११० ०९१
पृष्ठ -२२५, मूल्य - २५०/-

रपट

चित्र - बलराम अग्रवाल

संगोष्ठी रिपोर्ट

महेशः दर्पण की पुस्तक पूश्किन के देस में ने मुझे 60 साल पीछे पहुंचा दिया है। चेखव को मैंने आगरा में पढऩा शुरू किया था। कोलकता की नैशनल लायब्रेरी में भी मैं चेखव के पत्र पढ़ा करता था। इस पुस्तक में एक पूरी दुनिया है जो हमें नॉस्टेल्जिक बनाती है। यह विचार हंस के संपादक और वरिष्ठï कथाकार राजेन्द्र यादव ने सामयिक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पूश्किन के देस में पर आधारित संगोष्ठी में व्यक्त किए। इसे रशियन सेंटर और परिचय साहित्य परिषद ने संयुक्त रूप से आयोजित किया था।

श्री यादव ने कहा : सन् 1990 में मैं भी रूस गया था। कुछ स्मृतियां मेरे पास भी थीं। इसे पढक़र वे और सघन हुई हैं। एक कुशल यात्रा लेखक की तरह महेश दर्पण ने बदले हुए रूस को देखते हुए भी बताया है कि अब भी रूस में बहुत कुछ बाकी है। यह पुस्तक मेरे स्मृति कोश में बनी रहेगी। ऐसे बहुत कम लोग हुए हैं, जैसे काफी पहले एक किताब प्रभाकर द्विवेदी ने लिखी थी-‘पार उतर कहं जइहों’।
प्रारंभ में कवि-कथाकार उर्मिल सत्यभूषण ने कहा : यह पुस्तक हमें रूसी समाज, साहित्य और संस्कृति से परिचित कराते हुए ऐसी सैर कराती है कि एक-एक दृश्य आंखों में बस जाता है। अब तक हम यहां रूस के जिन साहित्यकारों के बारे में चर्चा करते रहे हैं, उनके अंतरंग जगत से महेश जी ने हमें परिचित कराया है।
महेश दर्पण को फूल भेंट करते हुए रशियन सेंटर की ओर से येलेना श्टापकिना ने अंग्रेजी में कहा कि एक भारतीय लेखक की यह किताब रूसी समाज के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार करती है। इस पठनीय पुस्तक में लेखक ने कई जानकारियां ऐसी दी हैं जो बहुतेरे रूसियों को भी नहीं होंगी।

कथन के संपादक और वरिष्ठ कथाकार रमेश उपाध्याय ने कहा कि महेश दर्पण ने इस पुस्तक के माध्यम से एक नई विधा ही विकसित की है। यह एक यात्रा वृतांत भर नहीं है। इसे आप एक उपन्यास की तरह भी पढ़ सकते हैं। रचनाकारों के म्यूजियमों के साथ ही महेश दर्पण की नजर सोवियत काल के बाद के बदलाव की ओर भी गई है। अनायास ही उस समय से इस समय की तुलना भी होती चली गई है। श्रमशील और स्नेही साहित्यकर्मी तो महेश हैं ही, उनका जिज्ञासु मन भी इस पुस्तक में सामने आया है। मुझे ही नहीं, मेरे पूरे परिवार को यह पुस्तक अच्छी लगी।

वरिष्ठ उपन्यासकार चित्रा मुद्गल ने कहा : मैं महेश जी की कहानियों की तो प्रशंसिका तो हूं ही, यह पुस्तक मुझे विशेष रूप से पठनीय लगी। रूसी समाज को इस पुस्तक में महेश ने एक कथाकार समाजशास्त्री की तरह देखा है। यह काम इससे पहले बहुत कम हुआ है। रूसी समाज में स्त्री की स्थिति और भूमिका को उन्होंने बखूबी रेखांकित किया है। बाजार के दबाव और प्रभाव के बीच टूटते-बिखरते रूसी समाज को लेखक ने खूब चीन्हा है। यह पुस्तक उपन्यास की तरह पढ़ी जा सकती है। बेगड़ जी की तरह महेश ने यह किताब डूबकर लिखी है। रूस के शहरों और गांवों का यहां प्रामाणिक विवरण है जो हम लोगों के लिए बेहद पठनीय बन पड़ा है।
सर्वनाम के संस्थापक संपादक और वरिष्ठï कवि-कथाकार विष्णु चंद्र शर्मा ने कहा : महेश मूलत: परिवार की संवेदना को बचाने वाले कथाकार हैं। इस किताब में भी उनका यह रूप देखने को मिलता है। उन्होंने बदलते और बदले रूस के साथ सोवियत काल की तुलना भी की है। वह रूसी साहित्य पढ़े हुए हैं। वहां के म्यूजियम और जीवन को देखकर उन्होंने ऐसी चित्रमय भाषा में विवरण दिया है कि कोई अच्छा फिल्मकार उस पर फिल्म भी बना सकता है। अनिल जनविजय के दोनों परिवारों को आत्मीय नजर से देखा है। यह पुस्तक बताती है कि अभी बाजार के बावजूद सब कुछ नष्टï नहीं हो गया है। आजादी मिलने के बाद हिन्दी में यह अपने तरह की पहली पुस्तक है जिससे जाने हुए लोग भी बहुत कुछ जान सकते हैं।

प्रारंभ में कथाकार महेश दर्पण ने कहा : जो कुछ मुझे कहना था, वह तो मैं इस पुस्तक में ही कह चुका हूं। जैसा मैंने इस यात्रा के दौरा महसूस किया, वह वैसा का वैसा लिख दिया। अब कहना सिर्फ यह है कि रूसी समाज से उसकी तमाम खराबियों के बावजूद, हम अभी बहुत कुछ सीख सकते हैं। विशेषकर साहित्य, कला और संस्कृति के संरक्षण के बारे में। यह सच है कि अनिल जनविजय का इस यात्रा में साथ मेरे लिए एक बड़ा संबल रहा है। दुभाषिए का इंतजाम न होता तो बहुत कुछ ऐसा छूट ही जाता जिसे मैं जानना चाहता था।
इस संगोष्ठी में हरिपाल त्यागी, नरेन्द्र नागदेव, प्रदीप पंत, सुरेश उनियाल, सुरेश सलिल, त्रिनेत्र जोशी, तेजेन्द्र शर्मा, मृणालिनी, लक्ष्मीशंकर वाजपेई, भगवानदास मोरवाल, हरीश जोशी, केवल गोस्वामी, रामकुमार कृषक, योगेन्द्र आहूजा, वीरेन्द्र सक्सेना, रूपसिंह चंदेल, प्रेम जनमेजय, हीरालाल नागर, चारु तिवारी, राधेश्याम तिवारी, अशोक मिश्र, प्रताप सिंह, क्षितिज शर्मा और सत सोनी सहित अनेक रचनाकार और साहित्य रसिक मौजूद थे।
प्रस्तुति : दीप गंभीर