बुधवार, 23 मार्च 2011
कविताएं
युवा कवयित्री अल्पना भारती की दो कविताएं
(१)
आदमी का खोल पहनकर,
कुछ-कुछ आदमी हो जाता हूँ
रोता हूँ, हँसता हूँ,
पर ज़्यादातर चुप रहता हूँ
सोचता भी हूँ
बड़ी बातों पर कम,छोटी बातो पर ज्यादा
जब वक़्त पुकारता है,उठ, खड़ा हो,
अपनी सोच को आवाज़ दे,बोल!
तो चुप रह जाता हूँ.
और जब बोलने से बात बिगड़ जाती है,
मन मैं कुछ चिटक कर रह जाता है
और सोचता हूँ की मैं क्यों बोला,
तो पाता हूँ की मैं बोल जाता हूँ
अभी कल,
उन्होंने बुलाया बोलने
मैं गया नहीं
लगा ,क्यूँ बोलूं,बोलने से क्या होगा
तो आदमी की तरह चुप रह और नहीं बोला.
आज उन्होंने नहीं बुलाया,मुझे बोलने नहीं बोला .
पर पता नहीं क्यूँ ?कुछ कसमसा रहा है,
कुछ है जो जीने नहीं दे रहा
सांस खुलकर नहीं आ रही
बड़ी बैचैनी सी है
क्या चुप रहूँ ?या कुछ बोलूं?
ये चक्रवात सा क्या है?
मेरी आत्मा में
अर्रें आत्मा!!
ये क्या है? क्या बला है ?
कभी लगा ही नहीं की मुझ में भी एक आत्मा है,
जिसका रिश्ता सिर्फ मेरे बदन से नहीं,
सिर्फ मेरे वजूद से नहीं, पूरी कायनात से है
हर आत्मा से है,भगवान् से है
(सुनते तो यही आये हैं,शायद सच हो?)
मुझमें भी आत्मा है!
अब सिर्फ एक "आदमी" नहीं रहा मैं
हाँ!
हाँ!जो कल रात मेरे घर मैं आग लगाई गयी तो मेरा खोल जल गया शायद
मेरा आदमी का खोल जल गया
अब आदमी नहीं रहा मैं
आदमी का खोल नहीं पहनता
खुल कर बोलता हूँ
अपनी आत्मा की आवाज़ पर
हर किसी के लिए
हाँ! हर किसी आत्मा के लिए
(२)
लरज़ती आवाज़ से जब निकलते हैं दहकते सवाल
ज़माना सहम जाता हैं
ज़वाब कहीं नहीं होते,
देने पड़ते है इम्तिहान,
खून की स्याही से लिख-लिख कर,
तब कहीं जाकर अखब़ार के कुछ पन्नो पर खबर छपती हैं.
ग़र खूं पानी हैं तो ख़बर भी बासी होंगी
ग़र खूं में उबाल नहीं तो ख़बर क्यों कर झकझोर पाएगी
नसों मैं जोश उबाला ले
खूं लावे की तरह गर्म
और दिल मैं अपना ही नहीं ,ज़माने का दर्द हो तो उठो,और पीछे देखो,
एक हुजूम तुम्हारे साथ है
तुम्हारे तेवर उसका बर्दाश्त है,
आगे बढ़ो
कायनात तुम्हारे साथ है.....
****
अल्पना भारती
जन्म-३१ जुलाई १९७४
शिक्षा-स्नातकोत्तर (इतिहास).
• भरतनाट्यम में पारंगत
• विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं और कहानियां प्रकाशित.
पता - के -१,साऊथ पार्क,सेरिलिंगाम्पल्ली,
हैदराबाद.
ई मेल : alpanabharati@gmail.com
सोमवार, 7 मार्च 2011
आलेख
चित्र : बलराम अग्रवाल
हिंदी साहित्य बनाम प्रवासी हिंदी साहित्य
देवी नांगरानी
श्री रूपसिंह चँदेल जी के इस ब्लाग पर <http://www.vaatayan.blogspot.com/>
वातायन में ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत प्रकाशित मेरे छोटे-से आलेख - ’हिन्दी साहित्य बनाम प्रवासी हिन्दी साहित्य’ पर्याप्त चर्चित हुआ, जिसपर साहित्यकारों और पाठकों ने अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए. न्यूजर्सी (अमेरिका) वासी हिन्दी और सिन्धी साहित्यकार देवी नांगरानी ने मेरे आलेख में अपनी प्रतिक्रिया तो व्यक्त की ही उन्होंने अलग से एक आलेख भी लिखा, जो रचना समय के इस अंक में प्रकाशित है. देवी जी के अतिरिक्त मुझे हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक डॉ. कमलकिशोर गोयनका जी का आलेख भी मिला, जो उनके हस्तलेख में नौ पृष्ठों का है और जिसमें डॉ. गोयनका ने अपने तर्कों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि प्रवासी लेखकों द्वारा लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य के लिए ’प्रवासी हिन्दी साहित्य’ का प्रयोग अनुचित नहीं है. इस आलेख को भी मैं प्रकाशित करना चाहता हूं, लेकिन कुछ असुविधाओं के कारण इसे तत्काल नहीं प्रकाशित कर पा रहा हूं.
मित्रो से आग्रह है कि देवी नांगरानी जी के प्रस्तुत आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया से मुझे और उन्हें अवश्य अवगत कराएंगे.
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हिंदी साहित्य बनाम प्रवासी हिंदी साहित्य
देवी नांगरानी
श्री रूपसिंह चँदेल जी के इस ब्लाग पर <http://www.vaatayan.blogspot.com/>
"हिंदी साहित्य बनाम प्रवासी हिंदी साहित्य" नाम का लेख पढ़ा और साथ में यू.के. के ग़ज़लकार श्री प्राण शर्मा जी की यह रचना, जिसने सोच में फिर से एक बार तहलका मचा दिया :
"साहित्य के उपासको, ए सच्चे साधको "
कविता कथा को तुमने प्रवासी बना दिया
मुझको लगा कि ज्यों इन्हें दासी बना दिया "
मुझको लगा कि ज्यों इन्हें दासी बना दिया "
प्रसव पीड़ा की गहराई और गीराई उनकी इस रचना में महसूस की जाती है जब देश के बाहर रहने वाले सहित्यकार को प्रवासी के नाम से अलंक्रित किया जाता है. क्या कभी अपनी मात्र भाषा भी पराई हुई है? कभी शब्दावली अपरीचित हुई है? इस वेदना को शब्दों का पैरहन पहनाते हुए वे भारत माँ की सन्तान को निम्मलिखित कविता में एक संदेश दे रहे है.... यही परम सत्य है, अनुज नीरज का कथन
"शब्द, भाव प्रवासी कैसे हो सकते हैं.?????
साहित्य को चार दीवारों में बाँध कर नहीं रखा जा सकता...खुशबू कभी बंधी है किसी से....!! बिलकुल इस दिशा में एक सकारात्मक संकेत है. और अनेक लेखकों ने अपनी अपनी राय यहाँ दर्ज की है ..
<http://www.blogger.com/comment.g?blogID=417740764999982630&postID=187777425560164328>
<http://www.blogger.com/comment.g?blogID=417740764999982630&postID=187777425560164328>
भारत माँ हमारी जन्मदातिनी है. क्या देश से दूर परदेस में जाने से रिश्तों के नाम बदल जाते हैं? अगर नहीं तो प्रवासी शब्द किस सँदर्भ में उपयोग हो रहा है? भाषा का विकास हमारा विकास है, और यह सिर्फ देश में ही नहीं, यहाँ विदेश में भी हो रहा है इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता. एक लेखक ने यहाँ तक कहा है "व्यक्ति प्रवास करता है, कविता नहीं। कविता तो हृदय की भाषा है" सूरज की रोशनी की तरह भाषा पर हर हिंदोस्तानी का उतना ही अधिकार है जितना एक बालक का माँ की ममता पर होता है. ये उसका हक़ है और इस विरासत को उससे कोई नहीं छीन सकता!.पानी पर लकीरे खींचने से क्या पानी अलग होता है.
ह्यूसटन की जानी मानी साहित्यकार इला प्रसाद का, (प्रवासी नहीं कहूँगी) का इस विषय में अपना मत है, वे कहती हैं :
"होना यही चाहिए कि हम प्रवासी सम्मेलनों से बचें प्रवासी के लेबल के साथ छपने से इनकार करें मेरी मुसीबत तो यह है कि जो पत्रिकाएँ मुझे अतीत में बिना इस शीर्षक के छापती रहीं आज उस शीर्षक के साथ छाप रही हैं यह बताता है कि यह शब्द किस तेजी से प्रयोग में आ रहा है यह ध्यानाकर्षित करने का तरीका हो सकता है किन्तु इस बैसाखी की जरूरत नहीं होनी चाहिए "
साहित्य और समाज का आपस में गहरा संबंध है. एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता, एक का प्रभाव दुसरे पर अनिवार्य रूप से पड़ता ही है, दोनों एक दूसरे के निर्माण में सहयोगी हैं. इसमें भारतीय संस्कृति की आत्मा की संवेदनशीलता, उदारता, सदाचरण, एवं सहस जैसे मानवीय गुण हैं. आदमी प्रवासी होता है, साहित्य नहीं. देस विदेस के बीच एक नयी उड़ान भरता प्रवासी साहित्य हर बदलती विचारधारा के परिवर्तित मूल्यों से परिचित कराता हुआ, अपने विचार निर्भीकता से, स्पष्टता से और प्रमाणिकता से व्यक्त करके यथार्थ की परिधि में प्रवेश पाता है. प्रवास में रहकर यहाँ का लेखक दोहरी मान्यताओं तथा रोज़मर्रा के अनुभव को कलमबंद कर रहा है. इसमें क्या प्रवासी है? भाषा प्रवासी नहीं होती, सोच प्रवासी नहीं होती तो अभिव्यक्ति कैसे "प्रवासी" के नाम से अलंकृत हो सकती है? किसी भाषा में समुचित योग्यता के विकास के लिए उस भाषा पर कार्य करना तथा उस भाषा का नियमित प्रयोग करना अनिवार्य है. पर यहाँ तो बात हमारी मात्रभाषा और राष्टभाषा हिंदी की है. हिंदी भाषा नहीं है, एक प्रतीक है. हिंदी का विकास हो रहा है और बढ़ावा मिल रहा है उसमें प्रवासी भारतीयों की भागीदारी बराबर रही है.
दरअसल साहित्य एक ऐसा लोकतंत्र है जहाँ हर व्यक्ति अपनी कलम के सहारे अपनी बात कह और लिख सकता है, यह आज़ादी उसका अधिकार है..हाँ नियमों की परिधि में रहकर! लेखक का रचनात्मक मन शब्दों के जाल बुनकर अपने मन की पीढ़ा को अभिव्यक्त करता है. लिखता वह अपने देश की भाषा में है, पर परदेस में बैठकर, और उसे प्रवासी साहित्य कहा जाता है. लेखक सोच के ताने बने बुनता है हिज्दी में, लिखता है हिंदी में, पर वह साहित्य कहलाया जाता है प्रवासी. ऐसे लगता है जैसे भाषा को ही बनवास मिल गया है.!!
द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन मारिशस में प्रस्तुत डॉ. ओदोलेन स्मेकल के भाषण के एक अंश में हिन्दी-राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता के संदर्भ में कहा था- ''मेरी दृष्टि में जो स्वदेशी सज्जन अपनी मातृभाषा या किसी अपनी मूल भारतीय भाषा की अवहेलना करके किसी एक विदेशी भाषा का प्रयोग प्रात: से रात्रि तक दिनों दिन करता है, वह अपने देश में स्वदेशी नहीं, परदेशी है।'' अगर यह सच है तो प्रवास में हिंदी साहित्य लिखने वाला भारतीय प्रवासी कैसे हो सकता है? (प्रवासी व्याकुलता से)
तमिलनाडू हिन्दी अकादमी के अध्यक्ष डा॰ बालशौरि रेड्डी का इस विषय पर एक सिद्धाँतमय कथन है "हिंदी का साहित्य जहाँ भी रचा गया हो और जिसने भी रचा हो, चाहे वह जंगलों में बैठ कर लिखा गया हो या ख़लिहानों में, देश में हो या विदेश में, लिखने वाला कोई आदिवासी हो, या अमेरिका के भव्य भवन का रहवासी, वर्ण, जाति धर्म और वर्ग की सोच से परे, अपनी अनुभूतियों को अगर हिंदी भाषा में एक कलात्मक स्वरूप देता है, तो वह लेखक हिन्दी भाषा में लिखने वाला क़लमकार होता है और उसका रचा साहित्य हिन्दी का ही साहित्य है।" (प्रवासी व्याकुलता से)
गर्भनाल के ३७ अंक में रेनू राजवंशी गुप्ता का आलेख" अमेरिका का कथा-हिंदी साहित्य" पढ़ा. हिंदी भाषा को लेकर जो हलचल मची हुई है वह हर हिन्दुस्तानी के मन की है, जहाँ कोई प्रवासी और अप्रवासी नहीं, बस देश और देश की भाषा का भाव जब कलम प्रकट करती है तो जो मनोभाव प्रकट होते हैं उन्हें किसी भी दायरे में कैद करना नामुमकिन है. न भाषा की कोई जात है न लेखन कला की. रेणुजी का कथन "हिंदी लेखकों ने कर्मभूमि बदली है" इस बात का समर्थन है!
साहित्य कोई भी हो, कहीं भी रचा गया हो, अगर हिंदी में है तो निश्चित ही वह हिंदी का साहित्य है.
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रचनाकार परिचय:-
रचनाकार परिचय:-
जन्मः ११ मई, १९४१ कराची
शिक्षाः बी.ए अर्ली चाइल्डहुड में, न्यू जर्सी, गणित का भारत व न्यू जर्सी से डिगरी हासिल .
सम्प्रतिः शिक्षिका, न्यू जर्सी.यू.एस.एक्रुतियां
प्रकाशन : "ग़म में भींजीं ख़ुशी" सिंधी भाषा में पहला- गज़ल संग्रह २००४
"चरागे-दिल" हिंदी में पहला गज़ल-संग्रह, २००७
"उडुर-पखिअरा" ( सिंधी भजन- संग्रह, २००७)
“ दिल से दिल तक" (हिंदी ग़ज़ल- संग्रह २००८)"
आस की शम्अ" (सिंधी ग़ज़ल -सँग्रह २००८)"
सिंध जी आँऊ जाई आह्याँ" (सिंधी काव्य- संग्रह, २००९) -कराची में छपा
"द जर्नी " (अंग्रेजी काव्य- संग्रह २००९)
कलम तो मात्र इक जरिया है, अपने अँदर की भावनाओं को मन की गहराइयों से सतह पर लाने का. इसे मैं रब की देन मानती हूँ, शायद इसलिये जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमाँ बन जाता है.
संपर्कःAdd: 9-D Corner View Society, 15/33 Road, Bandra, Mumbai 4000५0, Ph: 9867855751Email:dnangrani@gmail.com
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