(28)
डी.पी. मीणा को प्रीति से जब यह ज्ञात हुआ कि निदेशक के टूर पर होने के कारण उसके रिलीव होने में विलंब है तो उसने महानिदेशक से इस बारे में चर्चा की और उनकी अनुमति लेकर देहरादून के संयुक्त निदेशक, जो वहां प्रशासन भी देखता था, को फोन करके कहा, ''सर, महानिदेशक रामचन्द्रन साहब ने आपसे कहने के लिए मुझे आदेश दिया है कि आप प्रीति दास को तुरंत रिलीव कर दें।''
''मीणा, डायरेक्टर साहब टूर पर हैं।''
''सर, आप उनसे बात कर लें....प्रीति दास को कल दिल्ली पहुंचना चाहिए।''
ल्ेकिन ऐसा हुआ नहीं। निदेशक के आने के बाद ही प्रीति रिलीव हुई और दूसरे दिन दिल्ली के लिए रवाना हो गई। रवाना होने से पूर्व उसने मीणा से बात की अपने ठहरने की व्यवस्था के विषय में और मीणा ने उसे आश्वस्त किया कि वह उसके ठहरने के लिए ऑफिस के गेस्ट हाउस में व्यवस्था कर देगा। जब तक सरकारी आवास नहीं मिलता वह और सुधांशु वहां रह सकेंगे।
प्रीति देहरादून से सीधे गेस्ट हाउस गई जहां सुबह पारी में तैनात बाबू और चपरासी को उसके आने की सूचना मीणा ने दे रखी थी। प्रीति की गाड़ी के गेट में प्रवेश करते ही चपरासी और बाबू दौडे ग़ए और, ''मैम, आप चलें...सामान पहुंच जाएगा।''
प्रीति को बाबू उसके कमरे तक ले गया और चपरासी सामान ढो लाया। सामान अधिक था भी नहीं...केवल दो सूटकेस थे।
''हेलो'' बाबू जब सामान रखवा रहा था, प्रीति ने उसे संबोधित करते हुए कहा, ''गाड़ी रोक लेना...ड्राइवर मुझे हेडक्वार्टर छोड़ता हुआ लौट जाएगा।''
''जी मैम।'' बाबू बोला, ''मैम ब्रेकफास्ट तैयार है....आप मेस में लेंगी या....।''
''यहीं भेज देना।''
''जी मैम।'' बाबू जाने लगा तो प्रीति ने उसे रोका, ''हेलो....ह्वाट्स युअर नेम?''
''रमेश दयाल मैम।'' झुककर प्रीति का अभिवादन करता हुआ दयाल बोला।
''दयाल, ड्राइवर को भी ब्रेकफास्ट करवा देना।''
''जी मैम।''
नाश्ता करके प्रीति उसी टैक्सी से मुख्यालय गई। टैक्सी से उतरकर उसने ड्राइवर को 'थैंक्स' कहा और गेट की ओर बढ़ी जहां रिसेप्शन में पहले से ही पर्स से निकाल चुकी अपना ट्रांसफर आर्डर दिखाते हुए वह बोली, ''मेरा खयाल है मिस्टर डी.पी.मीणा ने मेरे गेट पास के लिए आपको कहा होगा।''
''यस मैम। गेट पास तैयार है।'' और रिसेप्शनिस्ट ने उसके लिए संभालकर रखा हुआ गेट पास उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, ''डोंट माइण्ड मैम, यहां सिग्नेचर कर देंगी।'' वह रजिस्टर में प्रीतिंके हस्ताक्षर की मांग रहा था।
प्रीति ने रिसेप्शनिस्ट की ओर देखा, जो एक वर्दीधारी अधेड़ था, और हस्ताक्षर कर दिए। गेट पास लेते हुए प्रीति ने नोट किया कि वह एक विजिटर पास था जिसका अर्थ था कि वह चार घण्टे के लिए बनाया गया था।
''डयूटी पास नहीं बनाया?'' वर्दीधारी रिसेप्शनिस्ट की ओर मुखातिब होते हुए उसने पूछा। वहां कई और लोग पास बनवाने के लिए पंक्ति में खड़े हुए थे और प्रीति के हस्तक्षेप से उनमें एक बेचैनी-सी हो रही थी। उनमें एक वर्दीधारी मध्यम श्रेणी अफसर भी था जो बीच में आ टपकी उस युवती को बार-बार घूर रहा था। उसके अनुसार यह एक प्रकार की अनुशासनहीनता थी।
''मैम मुझे कहा नहीं गया था कि ड्यूटी पास....।''
''मैंने अभी आपको अपना ट्रांसफर आर्डर दिखाया न ...।'' प्रीति ने पुन: ट्रांसफर आर्डर उसकी ओर बढ़ा दिया।
''सॉरी मैम।'' प्रीति से विजिटिंग पास लेकर वर्दीधारी रिसेप्शनिस्ट उसके स्थान पर डयूटी पास तैयार करने लगा था।
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आर.के. पुरम में प्ररवि विभाग का मुख्यालय जिस बिल्डिंग में था, उसमें प्रर विभाग और नौसे विभाग के कार्यालय भी थे और रिसेप्शन में प्रर विभाग के वर्दीधारी बाबुओं की डयूटी रहती थी। इस बिल्डिंग का निर्माण अंग्रेंजो ने द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान किया था। उसके आस-पास नौ और दो मंजिले भवनों का निर्माण भी उन्होंने करवाया था, जिनमें उनके कार्यालयों के अतिरिक्त अमेरिकी सेना के कार्यालय स्थापित थे। अंग्रेजों के जाने के बाद वहां के अधिकांश भवनों में विभिन्न बलों के कार्यालय शिफ्ट किए गए थे। केवल एक ही भवन ऐसा था, जिसमें केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय के एक कार्यालय को स्थान दिया गया था। इसी भवन में पोस्ट ऑफिस और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया भी अवस्थित थे। यही एक ऐसा भवन था जिसमें न सेक्योरिटी गार्ड थे और न रिसेप्शन, जबकि शेष सभी नौ भवनों में सेक्योरिटी गार्ड्स तैनात रहते थे।
जब तक प्रीति गेट पास बनवाती रही, देहरादून का टैक्सी ड्राइवर इस आशा में उसकी प्रतीक्षा करता रहा कि लौटकर वह उसके बिल का भुगतान करेगी। टैक्सी से उतर कर वह एकटक रिसेप्शन में खड़ी उसे देखता रहा, लेकिन जब वह अंदर चली गई तब ड्राइवर परेशान हुआ। फिर भी उसने कुछ देर प्रतीक्षा करने का निर्णय किया। बारह बज रहे थे और उसे देहरादून वापस लौटना था। वह बार-बार घड़ी देख रहा था और दो बार रिसेप्शन तक जाकर गलियारे में झांका भी था। गलियारे में आते-जाते लोग तो उसे दिखे लेकिन प्रीति का कहीं अता-पता नहीं था। दूसरी बार जब वह कुछ अधिक ही गलियारे में अंदर चला गया, सेक्योरिटी गार्ड ने टोका, ''किदर जाना मांगता?''
''वो मैडम...?''
''कौन मैडम...इदर तो बहुत सारी मैडम हैं... किसे पूछता?''
''मैडम प्रीति दास...देहरादून से आई हैं।''
''उधर रिसेप्शन में पूछने का।''
ड्राइवर रिसेप्शन में पहुंचा। रिसेप्शनिस्ट उस दिन विजिटर्स की भीड़ के कारण खीजा हुआ था। ड्राइवर की बात सुनकर खिझलाता हुआ बोला, ''इधर कोई प्रीति दास मैडम नहीं है।''
''सर, आध घण्टा पहले वो इधर ही खड़ी थीं पास बनवाने के लिए...।''
''क्या चाहता है उनसे?''
''सर, भाड़ा। गाड़ी का भाड़ा नहीं दिया मैडम ने।''
''बाद में आकर ले जाना ...मुझे काम करने दो।''
''सर, मुझे देहरादून जाना है। मैडम देहरादून से आयी हैं।''
रिसेप्शनिस्ट ने चुभती नजर से ड्राइवर को देखा। उसका चेहरा उसे रुआंसा और दयनीय दिखा। वह समझ गया कि अफसर बिना भुगतान किए अंदर चली गई है। उसे ड्राइवर से सहानुभूति हुई। बोला, ''गाड़ी में बैठो...अभी संदेश भेजता हूं।''
आध घण्टा और बीत गया। ड्राइवर की परेशानी बढ़ती जा रही थी। उसे चावला के शब्द याद आ रहे थे, ''पैसे मैडम से ले लेना।'' 'लेकिन यदि मैडम ने न दिए तो...।' ड्राइवर का चेहरा और अधिक उदास हो गया। उसकी बेचैनी बढ़ गयी। वह पुन: रिसेप्शनिस्ट के पास गया। उसे देख रिसेप्शनिस्ट को उसका काम याद आ गया। बोला, ''अरे मैं भूल गया था...सॉरी।'' फिर कुछ करता हुआ पूछा, ''क्या नाम बताया था मैडम का?''
''प्रीति दास।''
रिसेप्शनिस्ट ने रजिस्टर देखा और ड्राइवर से पूछा, ''मैडम ने तो डयूटी पास बनवाया है? उन्हें वापस जाना है?''
''वापस नहीं जाना...।''
रिसेप्शनिस्ट सोच में पड़ गया,''अच्छा, आप रुको।'' उसने अपने साथ सिविल ड्रेस में बैठे एक युवक से कहा, ''मैं प्ररवि विभाग तक जा रहा हूं...तुम लोगों के पास बना देना।'' और वह पुन: ड्राइवर की ओर मुखातिब होकर बोला, ''इधर ही रुकना।''
रिसेप्शनिस्ट प्ररवि विभाग में डी.पी.मीणा के पी.ए. के पास गया। प्राय: मीणा के पी.ए. के ही फोन उसके पास आते थे लोगों के पास बनवा देने के लिए। वह मीणा को भी पहचानता था, क्योंकि एक बार मीणा के एक रिश्तेदार युवक को उसके चेम्बर तक पहुंचाने का गौरव उसने प्राप्त किया था और मीणा से ''धन्यवाद'' सुनकर उस दिन सारा दिन प्रसन्न रहा था। वह जानता था कि प्ररवि विभाग उसके विभाग के वित्त का ऑडिट करता है और बहुत-से आर्थिक पहलुओं पर उसकी अनुमति के बिना उसका विभाग एक कदम भी आगे बढ़ाने में अक्षम रहता है, इसलिए परवि विभाग के अफसरों को वह सदैव सम्मान की दृष्टि से देखता और उन्हें आदर देता।
मीणा के पी.ए. ने रिसेप्शनिस्ट को बताया, ''मैम साहब के साथ महानिदेशक रामचन्द्रन साहब से मिलने गई है।''
''ड्राइवर को देहरादून वापस लौटना है।'' रिसेप्शनिस्ट के सामने ड्राइवर का उदास चेहरा घूम रहा था।
''आने पर मैं मैम को कह दूंगा।''
''आप ध्यान रखेंगे।'' रिसेप्शनिस्ट ने कहा और हड़बड़ाता हुआ, लगभग दौड़ता हुआ, रिसेप्शन की ओर लौट गया।
लगभग एक घण्टा बाद चपरासी ने पी.ए. को बताया कि मीणा सर अकेले वापस लौट आए हैं।
''मैम दास...?''
''वह साथ नहीं थीं साहब के।''
''हो सकता है साहब उन्हें उनके कमरे में, जिसमें उज्वल सूद बैठते थे, छोड़ आए हों। दौड़कर देख आओ।''
''सर, आप घण्टी का खयाल रखेंगे।''
''तू दौड़ जा...मैं बाहर ही खड़ा हूं। खुद ही सुन लूंगा।''
पी.ए. अपने केबिन के बाहर खड़ा हो गया, जहां से मीणा का चेम्बर पचीस कदम दूर था।
चपरासी हाथ हिलाता हुआ लौट रहा था, जिसका अर्थ था कि प्रीति दास उस कमरे में भी नहीं थीं। तभी चपरासी ने पी.ए. को आखों से इशारा किया जिसका अर्थ था कि प्रीति दास उसके पीछे आ रही हैं। पी.ए. ने मुड़कर देखा, लेकिन वह प्रीति से कुछ भी कहने का साहस नहीं जुटा पाया। प्रीति उसके बगल से गुजरती हुई मीणा के कमरे में चली गई। पी.ए. काफी देर तक केबिन के बाहर खड़ा सोचता रहा कि वह मीणा के चेम्बर में जाए या नहीं। तभी फोन की घण्टी बजी। फोन रिसेप्शनिस्ट का था, ''सर, मैडम से बात हुई?''
''अभी आई हैं। बात करके आपको रिंग करता हूं।''
''सर, ड्राइवर बहुत परेशान है।''
''उससे अधिक आप परेशान लग रहे हैं...आपका रिश्तेदार है ड्राइवर?''
''सर, कैसी बातें कर रहे हैं...रिश्तेदार की ही मदद की जानी चाहिए....आखिर इंसानियत भी कोई चीज होती है।'' रिसेप्शनिस्ट खीज उठा।
''होती है भाई, लेकिन इन अफसरों को यह पाठ कौन पढ़ाए। अफसर बनते ही यह पाठ ये लोग भूल जाते हैं।''
''सर, आप अंदर जाकर मैडम को बोलो...या...।''
''या क्या?''
''मैं पास बनाकर ड्राइवर को अंदर भेज दूं।''
''अपने साथ मेरी नौकरी भी लोगे।'' पी.ए. बोला, ''आपका अफसर ...क्या नाम है उसका...भाड़ में जाए नाम......मीणा के साथ अक्सर चाय पीने आता है।''
''सर, आप मौका देखकर बात कर आओ...अब देखो न सर, भूखा-प्यासा ड्राइवर हलाकान हो रहा है, जबकि उसे अभी पांच-छ: घण्टे का सफर तय करना है।''
फोन बंदकर पी.ए. ने बजरंगबली का नाम लिया और मीणा के चेम्बर का दरवाजा खोला, ''मे आई कम इन सर?'' कहता हुआ अंदर झांका।
''मीणा प्रीति से हंसकर कुछ कह रहा था। दरवाजा खुलते ही चेहरे पर गंभीरता ओढ़ उसने सिर हिलाया, जिसका अर्थ था कि पी.ए. अंदर दाखिल हो सकता है।
पी.ए. विनम्रतापूर्वक धीमे स्वर में बोला, ''मैम ड्राइवर आपका इंतजार कर रहा है।''
''क्यों?'' प्रीति अनभिज्ञता प्रकट करती हुई बोली।
''भाड़ा के लिए रुका हुआ है।''
मीणा ने पी.ए. को घूरकर देखा, जिसका अर्थ था कि यह बात कहते हुए उसने यह क्यों नहीं सोचा कि एक अफसर के सामने दूसरे अफसर से इस प्रकार की बात नहीं कही जानी चाहिए।
''ओ.के.।'' प्रीति दास के चेहरे पर तनाव आ गया, जिसे मीणा ने स्पष्ट अनुभव किया।
प्रीति ने पर्स खोला, उलटा-पलटा और मीणा से बोली, ''सॉरी सर, पैसे गेस्ट हाउस में ही छूट गए।''
''नो प्राब्लम प्रीति ...रिलैक्स...।'' मीणा पी.ए. की ओर मुड़ा, ''कैशियर को बोलो कि मैंने ड्राइवर का भुगतान करने के लिए कहा है...।''
''यस सर।'' पी.ए. मुड़ा। मीणा ने उसे रोका, ''सुनो।''
''जी सर।''
''कैशियर को कहना कि ड्राइवर से रसीद ले लेगा।''
''यस सर।''
पी.ए. चला गया तो मीणा बोला, ''रिलैक्स प्रीति...ये सब यहां होता रहता है। यहां जितने भी निदेशक टुअर पर आते हैं...सभी का भुगतान मुख्यालय को करना पड़ता है। तुम क्या समझती हो कि वे टुअर पर आने का भत्ता अपने कार्यालय से अग्रिम लेकर नहीं आते होंगे। ऐसे खर्चे मिसलेनियस कोड के अंतर्गत हमे करने पड़ते हैं। अफसर होने के कुछ लाभ मिलने ही चाहिए। डोंट वरी।''
प्रीति मीणा के तुम कहने पर चौंकी लेकिन प्रकट नहीं होने दिया। 'मीणा मुझसे कई वर्ष सीनियर हैं.... उनका बेतकल्लुफ मुझे तुम कहना अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिए...।' उसने सोचा था।
प्रीति ने 'वरी' को उसी दिन तिलांजलि दे दी थी जिस दिन वह अफसर बनी थी। उसने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को यह सब करते देखा था और तय कर लिया था कि अफसर होने की संपूर्ण प्राप्त और अप्राप्त सुविधाएं भोगना नए अवतार में उसका अधिकार है। उसने मीणा के सामने पर्स उलटने-पलटने का नाटक किया था, जबकि पर्स के एक खाने में वह सारी रकम पड़ी हुई थी जो उसे स्थानांतरण भत्ते के रूप में देहरादून कार्यालय से मिली थी।
''थैंक्स सर। मैं कल कैशियर को पैसे दे दूंगी।'' प्रीति ने कहा।
''मैंने कहा न कि चिन्ता मत करो।'' क्षणभर के लिए मीणा रुका, ''हां, हम क्या बात कर रहे थे!'' वह पुन: क्षणभर के लिए रुका, ''ओ.के....सुधांशु के शेरो शायरी की बात चल रही थी.... तो वह आलेख भी लिखता है...कहीं देखा नहीं...।''
''पटना के किसी अंग्र्रेजी समाचार पत्र में प्रकाशित हुए हैं शायद...और एक या दो टाइम्स ऑफ इंडिया में...।''
''और कविताएं...?''
''उनके विषय में मुझे जानकारी नहीं है।''
''यह बला कैसे पाल ली सुधांशु ने!'' और मीणा ठठाकर हंसा।
प्रीति चुप रही।
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(29)
पटना में सुधांशु ने गृहस्थी का पर्याप्त सामान एकत्रित कर लिया था। सामान ट्रक से बुक करवा कर वह दिल्ली आ गया। शनिवार था...अवकाश का दिन। सुबह जब सुधांशु गेस्ट हाउस पहुंचा, प्रीति सो रही थी। देर तक कमरे की घण्टी बजाने के बाद आंखें मलती हुई प्रीति ने दरवाजा खोला, ''तुम आ गए?'' प्रीति की आंखों में अभी भी नींद छायी हुई थी।
प्रीति के प्रश्न से सुधांशु अचकचा गया। समझ नहीं पाया कि वह क्या उत्तर दे। वह चुप रहा। दूसरे बेड पर अपना सूटकेस रख उसने प्रीति की ओर देखा। नींद में वह झूम रही थी।
''प्रीति तुम सो रहो...।''
''सॉरी सुधांशु...देर से सोयी थी...तीन बजे...। मुझे दस बजे जगा देना।''
''अच्छा।'' सुधांशु बाथरूम चला गया। लौटा तो प्रीति को खर्राटे लेते पाया। स्नान करते हुए उसे आठ बज गए। ब्रेकफास्ट के लिए दयाल ने दरवाजा नॉक किया। दरवाजे के पर्दे को हटा सुधांशु ने दरवाजा खोला और बाहर आ गया।
''गुड मॉर्निंग सर।'' सोत्साह दयाल बोला। वह सुधांशु को पहचान गया था।
''वेरी गुड मॉर्निंग।''
''सर ब्रेकफास्ट तैयार है....आप...।''
''प्रीति अभी सो रही है। मैं मेस में आ जाउंगा।''
''थैंक्यू सर।'' दयाल ने झुककर कहा और दूसरे कमरों की ओर बढ़ गया, जिनमें दो अन्य अधिकारी सपत्नीक ठहरे हुए थे, उनमें एक प्र.र. विभाग का था। प्ररवि विभाग के उस गेस्ट हाउस में जब कभी कमरे खाली होते प्र.र. विभाग के अफसरों को ठहरने की सुविधा दे दी जाती थी। दोनों विभाग एक-दूसरे की सुविधाओं का खयाल रखते थे।
ब्रेकफास्ट करके साढ़े नौ बजे जब सुधांशु कमरे में लौटा प्रीति तब भी सो रही थी। एक घण्टा तक सुधांशु अल्बेयर कामू का उपन्यास 'द फॉल' पढ़ता रहा। साढ़े दस बजे उसने प्रीति को आवाज दी।
''उठती हूं। दस मिनट।'' प्रीति ने पुन: चादर तान ली। वह ग्यारह बजे उठी और उठते ही बाथरूम चली गई। दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होने के बाद उसने पूछा, ''सुधांशु, तुमने ब्रेकफास्ट कर लिया?''
''हां।''
''और लोगे?''
''बिल्कुल नहीं।''
प्रीति ने दयाल को फोन मिलाया।
''गुड मॉर्निंग मैम।'' दयाल फोन पर ही झुक गया था।
''ब्रेक फॉस्ट में कुछ बचा है?''
''आप क्या लेना पसंद करेंगी मैम?''
''कुछ भी हल्का....वेज सैंडविच...।''
''अभी लाया मैम।''
और पांच मिनट के अंदर दयाल प्लेट में दो सैण्डविच लेकर आ पहुंचा।
''मैम, चाय या कॉफी?'' मेज पर प्लेट रखता हुआ दयाल बोला, ''सर आप क्या लेंगे?'' वह सुधांशु से पूछ रहा था, जो मोटी तकिये का सहारा लिए उपन्यास पढ़ रहा था।
''थैंक्स....नथिंग।''
''कॉफी ले लो सुधांशु।'' प्रीति बोली।
''कुछ समय पहले ही पी थी।''
''सर, काफी समय हो गया आपको कॉफी पिए हुए....।'' दयाल के स्वर में चाटुकारिता स्पष्ट थी।
''यहां की कॉफी अच्छी होती है सुधांशु।'' प्रीति ने दयाल की ओर देखा, जो विनय की प्रतिमूर्ति बना हुआ खड़ा था।
''मन नहीं है।''
''डू यू नो सुघांशु।...।'' प्रीति सैण्डविच कुतरते हुए बोली, ''मैं गेस्ट हाउस की इंचार्ज हूं इन दिनों। इसलिए मेरे लिए ये लोग अच्छी कॉफी बनाते हैं।''
''मैम, हम सभी के लिए अच्छी ही बनाते हैं...।''
प्रीति ने घूरकर दयाल को देखा।
''सॉरी मैम।''
''जाओ, दो अच्छी-सी कॉफी लेकर आओ।''
दयाल चला गया तो सैण्डविच की प्लेट थामे हुए प्रीति सुधांशु के निकट आयी, ''रात प्रोजेक्ट पर डिस्कशन होता रहा...।''
''कौन-सा प्रोजेक्ट?'' प्रीति की बात काट दी सुधांशु ने।
''हेडक्वार्टर ऑफिस की नई बिल्डिंग बननी है। उसी के बजट पर चर्चा थी होटल सम्राट में।''
''मुख्यालय का कांफ्रेंस हॉल छोटा पड़ रहा था?''
''यार, सुधांशु कैसी बातें करते हो। अब तुम किसान नहीं हो...क्लास वन अफसर हो। उसी प्रकार बातें सोचा और किया करो।''
''मतलब?''
''देखो, चर्चा में कई लोगों को शामिल होना था...महानिदेशक, अपर महानिदेशक प्रशासन और ऑडिट, डी.पी.मीणा, मैं और बिल्डर मनीष अग्रवाल थे।
''हेडक्वार्टर के कांफ्रेंस रूम में पचीस से अधिक लोगों के बैठने की जगह है।''
''ओफ्फोह।'' प्रीति जो सुधांशु के बेड पर बैठने ही जा रही थी, रुक गयी। खड़े हुए ही उसने सैण्डविच का टुकड़ा मुंह में लिया और बोली, ''बुरा मत मानना सुधांशु...क्लास वन अफसर होकर भी तुम्हारी सोच अभी गांव वाली ही है।''
''सो व्वाट?'' उपन्यास बिस्तर पर रखकर सुधांशु तनकर बैठ गया, ''गांव वाले...गांव वाले...क्या गांव वाले इंसान नहीं होते?''
''मैंने यह नहीं कहा।'' प्रीति को अपनी गलती का अहसास हुआ। 'मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था' उसने सोचा, ''सॉरी। लेकिन इतना सच है कि बड़ी बातें छोटे ढंग से नहीं सोची जातीं।''
''क्या मतलब?''
''मतलब यह कि बड़े कामों पर विचार के लिए भी एक अच्छे वातावरण की आवश्यकता होती है वैसे ही जैसे जब तुम्हें कुछ रचनात्मक लिखने के लिए एक अलग वातावरण की आवश्यकता होती होगी।''
''मैं कूड़ाघर के पास बैठकर भी लिख सकता हूं।''
''फिर तो लिखी गई चीज कूड़ा ही बनती होगी।''
सुधांशु का मन विचलित हो उठा। 'यह मेरे रचनाकार का अपमान है।' उसने सोचा, लेकिन बोला कुछ नहीं।
''मुझे अफसोस है सुधांशु। तुम्हे आहत करना मेरा उद्देश्य नहीं था।'' प्रीति ने आगे बढ़कर उसके गाल सहला दिए। तभी घण्टी बजी।
''कम इन।'' प्लेट थामे प्रीति दरवाजे की ओर बढ़ी, जहां पर्दा उठाकर ट्रे में कॉफी के प्याले सजाए दयाल प्रकट हुआ।
''मेरी कॉफी मेज पर और साहब की उन्हें दे दो।''
दयाल द्वारा बढ़ाया गया कप सुधांशु ने बेमन ले लिया और पीने भी लगा। अभी भी वह प्रीति की कही बात सोच रहा था।
दयाल चला गया तो प्रीति बोली, ''रामचन्द्रन सर चाहते थे कि बैठक गुप्त रहे। जब तक मंत्रालय और वित्त मंत्रालय से प्रपोजल की अनुमति नहीं मिल जाती, किसी को पता न चले। और दूसरा कारण यह कि दफ्तर में खाने-पीने का इंतजाम हो नहीं सकता था...खाने का हो जाता लेकिन पीने का....सरकारी दफ्तर में वह सब वर्जित है। इसलिए...।'' प्रीति ने प्लेट मेज पर रखी, कॉफी उठायी और सुधांशु के चेहरे की ओर देखती रही।
सुधांशु चुप रहा।
''बुरा मान गए?''
''बुरा क्या मानना। रामचन्द्रन साहब ने कुछ नया नहीं किया। नया तब करते जब यह मीटिगं दफ्तर में होती....लेकिन वह भी इस देश के लाखों ब्यूरोक्रेट्स में से एक हैं...उन जैसे ही और उन्हीं की तरह सोचने-करने वाले। निश्चित ही होटल सम्राट का हजारों रुपयों के बिल का भगतान कार्यालय ने किया होगा और कर्यालय को पैसा मंत्रालय से मिलता है। मंत्रालय को जनता से....अर्थात आम जनता के पैसों पर देश के विकास के नाम पर अफसर, मंत्री-नेता गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं। जितना धन देश के विकास में खर्च होता है उससे कई गुना अधिक इन लोगों की मस्ती में और उनकी जेबों में जाता है। जनता गरीब है...गरीब रहेगी, क्योंकि उसे गरीब बनाए रखने में ही इनके हित सधते रहेंगे....इनकी तिजोरियां भरती रहेंगी...यही सच है प्रीति और मैं अनुभव कर रहा हूं।'' उसने प्रीति के चेहरे पर दृष्टि डाली, ''मैं अनुभव कर रहा हूं कि कल तक आदर्श की बातें करने वाली तुम अब उसी ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा बनती जा रही हो जो जनता के धन का दुरुपयोग कर रही है।''
''मैं ऐसा नहीं मानती। हम काम करते हैं...काम करने वाले को अपने ढंग से काम करने की छूट मिलनी ही चाहिए....मैं नहीं समझती कि होटल सम्राट में मुख्यालय की नई बिल्डिंग के प्रोजेक्ट पर चर्चा करना कोई अपराघ था।''
''माफ करना।'' सुधांशु ने प्रीति के चेहरे पर दृष्टि गड़ा दी, ''जब इस मसले पर कांफ्रेंस रूम में चर्चा हो सकती थी तब हजारों खर्च करने का औचित्य समझ में नहीं आता...।''
''तुम नहीं समझोगे सुधांशु, क्योंकि जैसा तुम सोचते हो...देश का विकास उससे होने वाला नहीं है...।''
''मुझे अफसोस है कि मैं नहीं समझूंगा....कह सकती हो कि समझना ही नहीं चाहता।''
''छोड़ो इस बहस को। मीटिंग महानिदेशक ने तय की थी। हम व्यर्थ क्यों बहस करें उस पर।''
''क्योंकि तुम उसे सही सिध्द कर रही थी।''
''गलत मैं उसे कभी भी नहीं कहूंगी। मैं महानिदेशक होती तब मैं भी यही निर्णय लेती।''
''हुंह।''
''छोड़ो यार इस मीटिंग प्रकरण को। यह बताओ सामान कब आ रहा है?''
''दो-तीन दिनों में।''
''हमे कहीं एकमोडेशन देखना चाहिए?''
''इस शहर के बारे में मेरी जानकारी अधिक नहीं है ... खासकर दक्षिण दिल्ली की...।''
''ठीक है, मैं पता करूंगी।''
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प्रीति ने डी.पी. मीणा सहित कई लोगों को फोन किया और सभी ने दक्षिण दिल्ली में उनके लिए कहीं स्थान तलाश देने का भरोसा दिया लेकिन पलटकर उत्तर किसी ने नहीं दिया। सामान दिल्ली पहुंचने की सूचना कैरियर कंपनी ने सुधांशु को दे दी थी। जब किसी ने सहायता नहीं की तब सुधांशु ने रविकुमार राय को फोन किया, वस्तुस्थिति बतायी और समस्या रखी।
''कुछ करता हूं सुधांशु ...।''
रविकुमार राय ने अपने एक सेक्शन अफसर को यह काम सौंपा। सेक्शन अफसर ने अपने अधीनस्थ एक बाबू को कहा जिससे उम्मीद थी कि वही वह कार्य कर सकता था। बाबू ने लाजपत नगर के एक प्रापर्टी डीलर से बात की जिसने एक सप्ताह बाद पता करने के लिए कहा।
''सर एक सप्ताह में सुधांशु सर को मकान मिल जाएगा....पहले भी मिल सकता है।'' बाबू ने अपने सेक्शन अफसर को बताया और उसने आगे रविकुमार राय को रपट दी।
''ध्यान रखना।'' रवि ने सेक्शन अफसर से कहा और उस बात को भूल गया।
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'के' ब्लॉक, जहां के प्रधान निदेशक कार्यालय में सुधांशु दास ने ज्वायन किया, वहां दस वर्ष पहले तक हटमेण्ट्स का एक बड़ा कैम्पस था, जिसमें अन्य अनेक सरकारी कार्यालय थे। उसके आसपास ऐसे कई हटमेंट्स थे, जिनमें से दो को तोड़कर दो मंजिलें भवन बनाए गये थे। सबसे पहले 'के' ब्लॉक के हटमेंट्स को तोड़ा गया था। इस ब्लॉक के बहुत निकट एक मस्जिद थी, जिसकी देखरेख ऑकिऍलॉजिकॅल सर्वे ऑफ इंडिया करता था। इस ब्लॉक के आसपास सभी ब्लॉक्स में सरकारी कार्यालय, विशेषरूप से सुरक्षा बलों से संबन्धित कार्यालय थे। कहते हैं कि उन हटमेण्ट्स का निर्माण भी द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान किया गया था, जहां अमेरिका और ब्रिटिश फौजों के कार्यालय थे। अमेरिकी सैनिक दिनभर वहां कार्य करते ओर शामें उनकी उन महिलाओं के साथ गुलजार होतीं, जिन्हें विशेषरूप से उनके लिए सेना में भर्ती किया गया था। यही नहीं, कहते हैं कि उन दिनों दिल्ली कार्लगर्ल्स की मंडी में तब्दील हो चुकी थी। देश के कोने-कोने से युवतियां दिल्ली लायी गई थीं....दलालों के दल सक्रिय थे और एक हिन्दी साप्ताहिक की रपट के अनुसार दिल्ली में पहली बार यह सब व्यवस्थित रूप से प्रारंभ हुआ था।
'के' ब्लॉक के निकट स्थित मस्जिद, जिसके चारों ओर गोलाकार सड़क निकलती थी और पूरे समय वाहनों की व्यस्तता बनी रहती थी, का नाम मोती मस्जिद था। यह एक छोटी मस्जिद थी, जिसके विषय में कोई ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध नहीं थे। यह इतनी छोटी थी कि एक साथ सात-आठ लोग ही उसमें नमाज पढ़ सकते थे। बाहर भी इतना स्थान नहीं था और जो था वह ऑकिऍलॉजिकॅल विभाग की उपेक्षा के कारण टूटा-फूटा और यत्र-तत्र छोटी झाड़ियों से घिरा हुआ था। मस्जिद में बिजली की व्यवस्था नहीं थी और उसके दरवाजे पर खड़े होने पर उसके अंदर कबूतरों की गुटरूगूं सुनाई देती और उनके बीट की उबकाई पैदा करती गंध के साथ सीलन की बदबू भी नथुने फुलाने लगती थी। इस सबके बावजूद मस्जिद की टूटी-फूटी जगह पर उत्तर-पूर्व की ओर एक अधेड़ व्यक्ति ने चाय की दुकान सजा रखी थी। सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक उसका स्टोव जलता रहता और आसपास के कार्यालयों के दो-चार बाबू वहां हर समय चाय पी रहे होते। उस चाय वाले के सामने सड़क पार फुटपाथ पर एक और चायवाले की दुकान थी। उस चाय वाले की दुकान के पीछे किसी एम.पी. का बंगला था। मस्जिद के निकट वाली चाय की दुकान की अपेक्षा एम.पी. के बंगले की पिछली दीवार के साथ फुटपाथ पर की दुकान में अधिक बाबू चाय पीते थे। वहां खुली जगह थी, जिससे बाबुओं को झुण्ड में खड़े होकर गप्प लगाने में असुविधा नहीं होती थी। प्राय: दफ्तर से ऊबे, काम के बोझ से दबे बाबू दोनों दुकानों में चार-छ: के ग्रुप में आते और आध घण्टा डी.ए.,वेतन, महगाई और सरकारी भ्रष्टाचार पर चर्चा करते हुए अपने को हल्का करते। इनमें वे बाबू भी सक्रिय भागीदारी निभाते जो सीट पर होते ही ठेकेदारों से कमीशन की बातें करते थे। लेकिन जब भ्रष्टाचार की चर्चा छिड़ती वे सबसे आगे चर्चा में भाग लेते थे।
‘के’ ब्लॉक में प्ररवि विभाग के उस प्रधान निदेशक कार्यालय में प्रधान निदेशक चमनलाल पाल के अतिरिक्त एक संयुक्त निदेशक, एक उप निदेशक और दो सहायक निदेशक थे। एक सहायक निदेशक का पद रिक्त था और उसी रिक्त स्थान पर सुधांशु को पद-स्थापित किया गया था। पहली मुलाकात में प्रधान निदेशक चमनलाल पाल ने सुधांशु को लंबा भाषण दिया, जिसे 'यस सर' के कथन की निरंतरता के साथ सुधांशु ने सुना।
''हमें इस प्रकार काम करना होता है जिससे न प्रर बलों को कठिनाई हो और न ही उनकी सेवा में नियुक्त कांट्रैक्टर्स को।''
'' सर, कांट्रैक्टर्स का उनकी सेवा में नियुक्त होना....।''
''सेवा में नियुक्त होना....आई मीन ....उनके लिए समय से माल सप्लाई करना। प्रर बलों के लिए जो भी सामान....सुई से लेकर शराब की बोतलें, खाने के सामान से लेकर रेफ्रिजरेटर....अर्थात आवश्यकता की हर वस्तु कांट्रैक्टर्स द्वारा ही सप्लाई होता है। उनका भुगतान यह कार्यालय करता है, क्योंकि हम उनके ऑडिट अफसर हैं। हमें देखना यह होता है कि कांट्रैक्टर ने यदि समय से माल भेज दिया है और उसके बिल के साथ प्रर विभाग के प्रशासनिक अधिकारी का इस आशय का नोट नत्थी है कि सप्लाई हो चुकी है तब उसके बिलों के भुगतान में अधिक समय नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। करोड़ों की सप्लाई का भुगतान चार-छ: दिन विलंब से मिलने पर कांट्रैक्टर को लाखों का नुकसान होता है।''
''सर, आप बेफिक्र रहें।'' सुधांशु सोच रहा था कि इस बात के लिए मिस्टर लाल ने इतना लंबा भाषण क्यों दिया।
अपने चौड़े मुंह पर चौड़े होठ फैलाते हुए मुस्कराये प्रधान निदेशक, ''आपसे यही उम्मीद थी।''
चमन लाल पाल पांच फीट आठ इंच लंबा, सांवला, चौड़े शरीर का व्यक्ति था, जिसके गालों पर जवानी के मसों जैसे दाने उसके पचपन पार उम्र में भी स्पष्ट थे। वह जब हंसता उसके बड़े दांत उसके चेहरे को विचित्र बनाते। वह काफी सख्त अफसर माना जाता था, जिसके विषय में बाबुओं में चर्चा थी कि घर में उस पर उसकी बीबी का आतंक था, जो एक अंग्रेज महिला थी। चमल लाल पाल पंजाब के होशियारपुर के एक समृध्द परिवार से था। पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए वह आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय गया था, वहीं उसकी मुलाकात लिलि ब्राउन से हुई थी। लिली उसके साथ पढ़ती थी। लिली को सांवला, खोथरे चेहरे वाला, मजबूत कद-काठी का चमन लाल पाल भा गया था और वह उससे प्रेम करने लगी थी। उसकी नीली आंखों ने भांप लिया था कि पाल के हाथों उसका भविष्य सुखमय रहेगा चाहे वह ब्रिटेन में रहे और चाहे भारत में। अपने अंग्रेज प्रेमी को छोड़ वह पाल को प्रेम करने लगी थी और पाल के मन लिली पहले से ही चढ़ी हुई थी। प्रेम अपने परिणाम तक पहुंचा और दोनों ने लंदन के एक मंदिर में शादी कर ली। लिली के परिवार के लोगों के अलावा पाल के कुछ भारतीय मित्र इस बात के गवाह बने थे।
शिक्षा समाप्त कर जब चमनलाल पाल भारत वापस लौटा लिली उसके साथ थी। चमन पहले से ही जानता था कि उसके परिवार में लिली का स्वागत होगा, भले ही उसके बारे में उसने घर वालों को नहीं बताया था। और वैसा ही हुआ। पंजाब की धरती की यह खूबी है कि वह हर चीज को पचा लेती है, अपने में रचा-बसा लेती है और अपना लेती है। लिली पहले ही दिन से चमन लाल पाल के परिवार का हिस्सा बन गयी, लेकिन उसे अधिक समय तक होशियारपुर में नहीं रहना पड़ा। आई.ए.एस. की तैयारी के लिए चमन चण्डीगढ़ गया और लिली उसके साथ गयी...जाना ही था। वह अंग्रेज बाला चमन के अतिरिक्त किसी के साथ रह भी नहीं सकती थी।
चमन के प्ररवि विभाग में नियुक्त होने के कुछ वर्षों बाद लिली के तेवर बदलने लगे थे। हालात ये हुए कि कार्यालय में अधीनस्थों को मामूली और उपेक्षणीय मामलों पर अपमानित करने वाला चमन लाल पाल घर में लिली के सामन भीगी बिल्ली बन जाता था। लिली को अपने सौन्दर्य का अहसास था और यह भी अहसास था कि उस पर मुग्ध लाल पर वह शासन करने के लिए ही पैदा हुई थी जबकि लाल दफ्तर के बाबुओं और अपने अधीनस्थ अधिकारियों पर शासन के लिए जन्मा था।
पाल और लिली की एकमात्र संतान थी उनकी बेटी शेफाली, जो उन दिनों पचीस के लगभग थी और जब वह पांच वर्ष की थी, लिली ने उसे अपने भाई के पास लंदन भेज दिया था। तीन-चार वर्षों में कभी सप्ताह-दस दिनों के लिए वह उनके पास आती, वर्ना लाल और लिली ही उससे मिलने जाते। बेटी मां की प्रतिरूप थी और लिली का मानना था कि जवानी की गफलत में उसने लाल जैसे काले व्यक्ति को पसंद किया और पहले प्रमी को छोड़ जो लाल के गले में बाहें डालीं तो किसी दूसरे की ओर देखने का अवसर उसे नहीं मिला जबकि वह नहीं चाहती थी कि उसकी बेटी किसी काले भारतीय की पत्नी बने। वह अंग्रेज महिला से जन्मी थी और उसका विवाह अंग्रेज युवक से ही होना चाहिए। लिली भारत की उस संस्कृति की आलोचक थी जहां उन्मुक्त प्रेम प्रतिबन्धित था, लेकिन लुक-छुपकर वह सब होता जैसा ब्रिटेन में भी उसने नहीं देखा था। यद्यपि उसे लगता कि अपने प्रेम और समर्पण से उसने लाल को अपने बाहुपाशों में कैद कर रखा था, लेकिन कभी-कभी वह शंकालु हो उठती। और उसकी आशंका निर्मूल न थी। लिली से आतंकित लाल स्टॉफ और सहयोगियों में आश्रय खोजता रहता और कभी-कभी सफल भी होता। स्टॉफ में अपने आतंक को वह हथियार के रूप में प्रयोग करने लगा था और जहां भी तैनात रहा, किसी न किसी महिला कर्मचारी के समक्ष ऐसी स्थिति पैदा करने में सक्षम रहा, जिससे या तो वह उसकी शर्तें स्वीकार करने के लिए विवश होती या उसे नौकरी त्यागने के लिए या दूर-दराज स्थानांतरण पर जाने की तैयारी करनी पड़ती।
ऐसे प्रधान निदेशक से लंबा भाषण सुनकर वापस लौटे सुधांशु ने अपने कमरे में पहुंच एक-एक कर अपने अधीनस्थ अनुभाग अधिकारियों की बैठक की और उनसे कार्य की जानकारी प्राप्त की। ज्ञात हुआ कि उसे वे सेक्शन आबंटित किए गए थे, जो कांट्रेक्टर्स के बिलों का ऑडिट करते, सही पाये जाने पर उनके चेक तैयार करवाते और उन्हें डिस्पैच करवाते थे।
सुधांशु से पूर्व उस पद पर नियुक्त सहायक निदेशक के पदोन्नत होकर पूना जाने के बाद दो सप्ताह से वह पद खाली था। लाल उस कार्य को दूसरे सहयाक निदेशक को सौंपना नहीं चाहता था। उस कार्यालय का इंचार्ज होने के नाते वह वहां के समस्त कार्य के लिए उत्तरदायी था, लेकिन कुछ फाइलें ही उसके पास जाती थीं। खासकर वे फाइलें जिनपर निर्णय लेने का अधिकार दूसरे अधिकारियों को नहीं होता था...उन पर लाल ही निर्णय ले सकता था। उस बिल की फाइल जिसका भुगतान एक करोड़ रुपयों से अधिक होता, उसकी संस्तुति के लिए जाती थी। कांट्रैक्टर्स के बिल जिस सेक्शन में ऑडिट होते और जहां से उनके चेक बनते उस सेक्शन को ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन कहा जाता था। सहायक निदेशक के पदोन्न्त होकर जाने के बाद उस सेक्शन का काम लाल स्वयं देखता रहा था।
मीटिंग में अनुभाग अधिकारियों से काम समझने के बाद सुधांशु ने लेखाधिकारी के माध्यम से फाइलें भेजने के लिए उन्हें आदेश दिया। उसके बाद उसने संबध्द लेखाधिकारी को बुलाया और उस विषय पर चर्चा की। कुछ ही समय में फाइलों से सुघांशु की मेज भर गयी। फाइलें देखते हुए उसे आध घण्टा ही बीता था कि उसके पास कांट्रैक्टर्स के फोन आने प्रारंभ हो गए। सुधांशु जिस सेक्शन की फाइल देखता उसके सेक्शन अफसर को बुला लेता। हुआ यह कि जिन दो कांट्रैक्टर्स के फोन उसके पास आए उनके बिल से संबन्धित सेक्शन अफसर से उन्हीं के केस वह समझ रहा था। उसे आश्चर्य हुआ। 'ऐसा कैसे हुआ कि जिस समय वह उनके केस देख रहा है उसी समय वे फोन कर रहे है।' सुधांशु सोचने लगा। लेकिन इसे उसने संयोग माना।
''सर मैं....कंपनी से बोल रहा हूं...मेरा सत्तर लाख का बिल दो सप्ताह से रुका हुआ है। प्लीज आप उसे आज ही क्लियर कर दें....मेहरबानी होगी सर।'' कंपनी का एक्जीक्यूटिव बोल रहा था। सुधांशु ने सेक्शन अफसर की ओर देखा, वह फाइल में नजरें गड़ाए ऐसा प्रकट कर रहा था कि उसने कुछ सुना ही नहीं था।
''मैंने आज ही ज्वायन किया है। जहां दो सप्ताह धैर्य रखा....एक-दो दिन और रुकें....आपके चेक डिस्पैच हो जायेंगे।''
''सर, मेरा एक्जीक्यूटिव पर्सनली आकर ले जाएगा।''
''ऐसा नियम नहीं है। चेक आपको स्पीड पोस्ट से मिल जाएगा।''
और एक्जीक्यूटिव की बात सुने बिना ही सुधांशु ने फोन काट दिया। उसने फाइल पर नजर डाली ही थी कि दूसरी कंपनी के डायरेक्टर का फोन आ गया। उसे भी उसने वही जवाब दिया। ''इनको मेरा नाम भी पता था और कब ज्वायन किया यह भी....यह कैसे हुआ?'' सुधांशु ने सेक्शन अफसर से पूछा, जो अभी भी फाइल में कुछ पढ़ रहा था।
''सर, ये पता लगाते रहते हैं। मुख्यालय से लेकर मंत्रालय तक ये पता करते रहते हैं। भुगतान के मामले में एक दिन का विलंब भी इन्हें बर्दाश्त नहीं। मंत्रालय भी इनके पक्ष में रहता है, क्योंकि एक दिन भी विलंब से इनकी सप्लाई पहुंचने से हमारे प्रर बलों को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। खासकर खाने-पीने के बिलों के भगतान में....।''
''हुंह....।'' सुधांशु विषय की गंभीरता समझ रहा था और उसने उन दोनों कांट्रैक्टर्स के बिलों को न केवल पास किया, बल्कि दो घण्टे के अंदर उनके चेक बनवाकर सेक्शन अफसर को उन्हें डिस्पैच करने का आदेश भी दिया।