गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

धारावाहिक उपन्यास

गलियारे
(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल

चैप्टर २८, २९ एवं ३०

(28)

डी.पी. मीणा को प्रीति से जब यह ज्ञात हुआ कि निदेशक के टूर पर होने के कारण उसके रिलीव होने में विलंब है तो उसने महानिदेशक से इस बारे में चर्चा की और उनकी अनुमति लेकर देहरादून के संयुक्त निदेशक, जो वहां प्रशासन भी देखता था, को फोन करके कहा, ''सर, महानिदेशक रामचन्द्रन साहब ने आपसे कहने के लिए मुझे आदेश दिया है कि आप प्रीति दास को तुरंत रिलीव कर दें।''

''मीणा, डायरेक्टर साहब टूर पर हैं।''

''सर, आप उनसे बात कर लें....प्रीति दास को कल दिल्ली पहुंचना चाहिए।''

ल्ेकिन ऐसा हुआ नहीं। निदेशक के आने के बाद ही प्रीति रिलीव हुई और दूसरे दिन दिल्ली के लिए रवाना हो गई। रवाना होने से पूर्व उसने मीणा से बात की अपने ठहरने की व्यवस्था के विषय में और मीणा ने उसे आश्वस्त किया कि वह उसके ठहरने के लिए ऑफिस के गेस्ट हाउस में व्यवस्था कर देगा। जब तक सरकारी आवास नहीं मिलता वह और सुधांशु वहां रह सकेंगे।

प्रीति देहरादून से सीधे गेस्ट हाउस गई जहां सुबह पारी में तैनात बाबू और चपरासी को उसके आने की सूचना मीणा ने दे रखी थी। प्रीति की गाड़ी के गेट में प्रवेश करते ही चपरासी और बाबू दौडे ग़ए और, ''मैम, आप चलें...सामान पहुंच जाएगा।''

प्रीति को बाबू उसके कमरे तक ले गया और चपरासी सामान ढो लाया। सामान अधिक था भी नहीं...केवल दो सूटकेस थे।

''हेलो'' बाबू जब सामान रखवा रहा था, प्रीति ने उसे संबोधित करते हुए कहा, ''गाड़ी रोक लेना...ड्राइवर मुझे हेडक्वार्टर छोड़ता हुआ लौट जाएगा।''

''जी मैम।'' बाबू बोला, ''मैम ब्रेकफास्ट तैयार है....आप मेस में लेंगी या....।''

''यहीं भेज देना।''

''जी मैम।'' बाबू जाने लगा तो प्रीति ने उसे रोका, ''हेलो....ह्वाट्स युअर नेम?''

''रमेश दयाल मैम।'' झुककर प्रीति का अभिवादन करता हुआ दयाल बोला।

''दयाल, ड्राइवर को भी ब्रेकफास्ट करवा देना।''

''जी मैम।''

नाश्ता करके प्रीति उसी टैक्सी से मुख्यालय गई। टैक्सी से उतरकर उसने ड्राइवर को 'थैंक्स' कहा और गेट की ओर बढ़ी जहां रिसेप्शन में पहले से ही पर्स से निकाल चुकी अपना ट्रांसफर आर्डर दिखाते हुए वह बोली, ''मेरा खयाल है मिस्टर डी.पी.मीणा ने मेरे गेट पास के लिए आपको कहा होगा।''

''यस मैम। गेट पास तैयार है।'' और रिसेप्शनिस्ट ने उसके लिए संभालकर रखा हुआ गेट पास उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, ''डों माइण्ड मैम, यहां सिग्नेचर कर देंगी।'' वह रजिस्टर में प्रीतिंके हस्ताक्षर की मांग रहा था।

प्रीति ने रिसेप्शनिस्ट की ओर देखा, जो एक वर्दीधारी अधेड़ था, और हस्ताक्षर कर दिए। गेट पास लेते हुए प्रीति ने नोट किया कि वह एक विजिटर पास था जिसका अर्थ था कि वह चार घण्टे के लिए बनाया गया था।

''डयूटी पास नहीं बनाया?'' वर्दीधारी रिसेप्शनिस्ट की ओर मुखातिब होते हुए उसने पूछा। वहां कई और लोग पास बनवाने के लिए पंक्ति में खड़े हुए थे और प्रीति के हस्तक्षेप से उनमें एक बेचैनी-सी हो रही थी। उनमें एक वर्दीधारी मध्यम श्रेणी अफसर भी था जो बीच में आ टपकी उस युवती को बार-बार घूर रहा था। उसके अनुसार यह एक प्रकार की अनुशासनहीनता थी।

''मैम मुझे कहा नहीं गया था कि ड्यूटी पास....।''

''मैंने अभी आपको अपना ट्रांसफर आर्डर दिखाया न ...।'' प्रीति ने पुन: ट्रांसफर आर्डर उसकी ओर बढ़ा दिया।

''सॉरी मैम।'' प्रीति से विजिटिंग पास लेकर वर्दीधारी रिसेप्शनिस्ट उसके स्थान पर डयूटी पास तैयार करने लगा था।

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आर.के. पुरम में प्ररवि विभाग का मुख्यालय जिस बिल्डिंग में था, उसमें प्रर विभाग और नौसे विभाग के कार्यालय भी थे और रिसेप्शन में प्रर विभाग के वर्दीधारी बाबुओं की डयूटी रहती थी। इस बिल्डिंग का निर्माण अंग्रेंजो ने द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान किया था। उसके आस-पास नौ और दो मंजिले भवनों का निर्माण भी उन्होंने करवाया था, जिनमें उनके कार्यालयों के अतिरिक्त अमेरिकी सेना के कार्यालय स्थापित थे। अंग्रेजों के जाने के बाद वहां के अधिकांश भवनों में विभिन्न बलों के कार्यालय शिफ्ट किए गए थे। केवल एक ही भवन ऐसा था, जिसमें केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय के एक कार्यालय को स्थान दिया गया था। इसी भवन में पोस्ट ऑफिस और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया भी अवस्थित थे। यही एक ऐसा भवन था जिसमें न सेक्योरिटी गार्ड थे और न रिसेप्शन, जबकि शेष सभी नौ भवनों में सेक्योरिटी गार्ड्स तैनात रहते थे।

जब तक प्रीति गेट पास बनवाती रही, देहरादून का टैक्सी ड्राइवर इस आशा में उसकी प्रतीक्षा करता रहा कि लौटकर वह उसके बिल का भुगतान करेगी। टैक्सी से उतर कर वह एकटक रिसेप्शन में खड़ी उसे देखता रहा, लेकिन जब वह अंदर चली गई तब ड्राइवर परेशान हुआ। फिर भी उसने कुछ देर प्रतीक्षा करने का निर्णय किया। बारह बज रहे थे और उसे देहरादून वापस लौटना था। वह बार-बार घड़ी देख रहा था और दो बार रिसेप्शन तक जाकर गलियारे में झांका भी था। गलियारे में आते-जाते लोग तो उसे दिखे लेकिन प्रीति का कहीं अता-पता नहीं था। दूसरी बार जब वह कुछ अधिक ही गलियारे में अंदर चला गया, सेक्योरिटी गार्ड ने टोका, ''किदर जाना मांगता?''

''वो मैडम...?''

''कौन मैडम...इदर तो बहुत सारी मैडम हैं... किसे पूछता?''

''मैडम प्रीति दास...देहरादून से आई हैं।''

''उधर रिसेप्शन में पूछने का।''

ड्राइवर रिसेप्शन में पहुंचा। रिसेप्शनिस्ट उस दिन विजिटर्स की भीड़ के कारण खीजा हुआ था। ड्राइवर की बात सुनकर खिझलाता हुआ बोला, ''इधर कोई प्रीति दास मैडम नहीं है।''

''सर, आध घण्टा पहले वो इधर ही खड़ी थीं पास बनवाने के लिए...।''

''क्या चाहता है उनसे?''

''सर, भाड़ा। गाड़ी का भाड़ा नहीं दिया मैडम ने।''

''बाद में आकर ले जाना ...मुझे काम करने दो।''

''सर, मुझे देहरादून जाना है। मैडम देहरादून से आयी हैं।''

रिसेप्शनिस्ट ने चुभती नजर से ड्राइवर को देखा। उसका चेहरा उसे रुआंसा और दयनीय दिखा। वह समझ गया कि अफसर बिना भुगतान किए अंदर चली गई है। उसे ड्राइवर से सहानुभूति हुई। बोला, ''गाड़ी में बैठो...अभी संदेश भेजता हूं।''

आध घण्टा और बीत गया। ड्राइवर की परेशानी बढ़ती जा रही थी। उसे चावला के शब्द याद आ रहे थे, ''पैसे मैडम से ले लेना।'' 'लेकिन यदि मैडम ने न दिए तो...।' ड्राइवर का चेहरा और अधिक उदास हो गया। उसकी बेचैनी बढ़ गयी। वह पुन: रिसेप्शनिस्ट के पास गया। उसे देख रिसेप्शनिस्ट को उसका काम याद आ गया। बोला, ''अरे मैं भूल गया था...सॉरी।'' फिर कुछ करता हुआ पूछा, ''क्या नाम बताया था मैडम का?''

''प्रीति दास।''

रिसेप्शनिस्ट ने रजिस्टर देखा और ड्राइवर से पूछा, ''मैडम ने तो डयूटी पास बनवाया है? उन्हें वापस जाना है?''

''वापस नहीं जाना...।''

रिसेप्शनिस्ट सोच में पड़ गया,''अच्छा, आप रुको।'' उसने अपने साथ सिविल ड्रेस में बैठे एक युवक से कहा, ''मैं प्ररवि विभाग तक जा रहा हूं...तुम लोगों के पास बना देना।'' और वह पुन: ड्राइवर की ओर मुखातिब होकर बोला, ''इधर ही रुकना।''

रिसेप्शनिस्ट प्ररवि विभाग में डी.पी.मीणा के पी.ए. के पास गया। प्राय: मीणा के पी.ए. के ही फोन उसके पास आते थे लोगों के पास बनवा देने के लिए। वह मीणा को भी पहचानता था, क्योंकि एक बार मीणा के एक रिश्तेदार युवक को उसके चेम्बर तक पहुंचाने का गौरव उसने प्राप्त किया था और मीणा से ''धन्यवाद'' सुनकर उस दिन सारा दिन प्रसन्न रहा था। वह जानता था कि प्ररवि विभाग उसके विभाग के वित्त का ऑडिट करता है और बहुत-से आर्थिक पहलुओं पर उसकी अनुमति के बिना उसका विभाग एक कदम भी आगे बढ़ाने में अक्षम रहता है, इसलिए परवि विभाग के अफसरों को वह सदैव सम्मान की दृष्टि से देखता और उन्हें आदर देता।

मीणा के पी.ए. ने रिसेप्शनिस्ट को बताया, ''मैम साहब के साथ महानिदेशक रामचन्द्रन साहब से मिलने गई है।''

''ड्राइवर को देहरादून वापस लौटना है।'' रिसेप्शनिस्ट के सामने ड्राइवर का उदास चेहरा घूम रहा था।

''आने पर मैं मैम को कह दूंगा।''

''आप ध्यान रखेंगे।'' रिसेप्शनिस्ट ने कहा और हड़बड़ाता हुआ, लगभग दौड़ता हुआ, रिसेप्शन की ओर लौट गया।

लगभग एक घण्टा बाद चपरासी ने पी.ए. को बताया कि मीणा सर अकेले वापस लौट आए हैं।

''मैम दास...?''

''वह साथ नहीं थीं साहब के।''

''हो सकता है साहब उन्हें उनके कमरे में, जिसमें उज्वल सूद बैठते थे, छोड़ आए हों। दौड़कर देख आओ।''

''सर, आप घण्टी का खयाल रखेंगे।''

''तू दौड़ जा...मैं बाहर ही खड़ा हूं। खुद ही सुन लूंगा।''

पी.ए. अपने केबिन के बाहर खड़ा हो गया, जहां से मीणा का चेम्बर पचीस कदम दूर था।

चपरासी हाथ हिलाता हुआ लौट रहा था, जिसका अर्थ था कि प्रीति दास उस कमरे में भी नहीं थीं। तभी चपरासी ने पी.ए. को आखों से इशारा किया जिसका अर्थ था कि प्रीति दास उसके पीछे आ रही हैं। पी.ए. ने मुड़कर देखा, लेकिन वह प्रीति से कुछ भी कहने का साहस नहीं जुटा पाया। प्रीति उसके बगल से गुजरती हुई मीणा के कमरे में चली गई। पी.ए. काफी देर तक केबिन के बाहर खड़ा सोचता रहा कि वह मीणा के चेम्बर में जाए या नहीं। तभी फोन की घण्टी बजी। फोन रिसेप्शनिस्ट का था, ''सर, मैडम से बात हुई?''

''अभी आई हैं। बात करके आपको रिंग करता हूं।''

''सर, ड्राइवर बहुत परेशान है।''

''उससे अधिक आप परेशान लग रहे हैं...आपका रिश्तेदार है ड्राइवर?''

''सर, कैसी बातें कर रहे हैं...रिश्तेदार की ही मदद की जानी चाहिए....आखिर इंसानियत भी कोई चीज होती है।'' रिसेप्शनिस्ट खीज उठा।

''होती है भाई, लेकिन इन अफसरों को यह पाठ कौन पढ़ाए। अफसर बनते ही यह पाठ ये लोग भूल जाते हैं।''

''सर, आप अंदर जाकर मैडम को बोलो...या...।''

''या क्या?''

''मैं पास बनाकर ड्राइवर को अंदर भेज दूं।''

''अपने साथ मेरी नौकरी भी लोगे।'' पी.ए. बोला, ''आपका अफसर ...क्या नाम है उसका...भाड़ में जाए नाम......मीणा के साथ अक्सर चाय पीने आता है।''

''सर, आप मौका देखकर बात कर आओ...अब देखो न सर, भूखा-प्यासा ड्राइवर हलाकान हो रहा है, जबकि उसे अभी पांच-छ: घण्टे का सफर तय करना है।''

फोन बंदकर पी.ए. ने बजरंगबली का नाम लिया और मीणा के चेम्बर का दरवाजा खोला, ''मे आई कम इन सर?'' कहता हुआ अंदर झांका।

''मीणा प्रीति से हंसकर कुछ कह रहा था। दरवाजा खुलते ही चेहरे पर गंभीरता ओढ़ उसने सिर हिलाया, जिसका अर्थ था कि पी.ए. अंदर दाखिल हो सकता है।

पी.ए. विनम्रतापूर्वक धीमे स्वर में बोला, ''मैम ड्राइवर आपका इंतजार कर रहा है।''

''क्यों?'' प्रीति अनभिज्ञता प्रकट करती हुई बोली।

''भाड़ा के लिए रुका हुआ है।''

मीणा ने पी.ए. को घूरकर देखा, जिसका अर्थ था कि यह बात कहते हुए उसने यह क्यों नहीं सोचा कि एक अफसर के सामने दूसरे अफसर से इस प्रकार की बात नहीं कही जानी चाहिए।

''ओ.के.।'' प्रीति दास के चेहरे पर तनाव आ गया, जिसे मीणा ने स्पष्ट अनुभव किया।

प्रीति ने पर्स खोला, उलटा-पलटा और मीणा से बोली, ''सॉरी सर, पैसे गेस्ट हाउस में ही छूट गए।''

''नो प्राब्लम प्रीति ...रिलैक्स...।'' मीणा पी.ए. की ओर मुड़ा, ''कैशियर को बोलो कि मैंने ड्राइवर का भुगतान करने के लिए कहा है...।''

''यस सर।'' पी.ए. मुड़ा। मीणा ने उसे रोका, ''सुनो।''

''जी सर।''

''कैशियर को कहना कि ड्राइवर से रसीद ले लेगा।''

''यस सर।''

पी.ए. चला गया तो मीणा बोला, ''रिलैक्स प्रीति...ये सब यहां होता रहता है। यहां जितने भी निदेशक टुअर पर आते हैं...सभी का भुगतान मुख्यालय को करना पड़ता है। तुम क्या समझती हो कि वे टुअर पर आने का भत्ता अपने कार्यालय से अग्रिम लेकर नहीं आते होंगे। ऐसे खर्चे मिसलेनियस कोड के अंतर्गत हमे करने पड़ते हैं। अफसर होने के कुछ लाभ मिलने ही चाहिए। डोंट वरी।''

प्रीति मीणा के तुम कहने पर चौंकी लेकिन प्रकट नहीं होने दिया। 'मीणा मुझसे कई वर्ष सीनियर हैं.... उनका बेतकल्लुफ मुझे तुम कहना अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिए...।' उसने सोचा था।

प्रीति ने 'वरी' को उसी दिन तिलांजलि दे दी थी जिस दिन वह अफसर बनी थी। उसने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को यह सब करते देखा था और तय कर लिया था कि अफसर होने की संपूर्ण प्राप्त और अप्राप्त सुविधाएं भोगना नए अवतार में उसका अधिकार है। उसने मीणा के सामने पर्स उलटने-पलटने का नाटक किया था, जबकि पर्स के एक खाने में वह सारी रकम पड़ी हुई थी जो उसे स्थानांतरण भत्ते के रूप में देहरादून कार्यालय से मिली थी।

''थैंक्स सर। मैं कल कैशियर को पैसे दे दूंगी।'' प्रीति ने कहा।

''मैंने कहा न कि चिन्ता मत करो।'' क्षणभर के लिए मीणा रुका, ''हां, हम क्या बात कर रहे थे!'' वह पुन: क्षणभर के लिए रुका, ''ओ.के....सुधांशु के शेरो शायरी की बात चल रही थी.... तो वह आलेख भी लिखता है...कहीं देखा नहीं...।''

''पटना के किसी अंग्र्रेजी समाचार पत्र में प्रकाशित हुए हैं शायद...और एक या दो टाइम्स ऑफ इंडिया में...।''

''और कविताएं...?''

''उनके विषय में मुझे जानकारी नहीं है।''

''यह बला कैसे पाल ली सुधांशु ने!'' और मीणा ठठाकर हंसा।

प्रीति चुप रही।

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(29)

पटना में सुधांशु ने गृहस्थी का पर्याप्त सामान एकत्रित कर लिया था। सामान ट्रक से बुक करवा कर वह दिल्ली आ गया। शनिवार था...अवकाश का दिन। सुबह जब सुधांशु गेस्ट हाउस पहुंचा, प्रीति सो रही थी। देर तक कमरे की घण्टी बजाने के बाद आंखें मलती हुई प्रीति ने दरवाजा खोला, ''तुम आ गए?'' प्रीति की आंखों में अभी भी नींद छायी हुई थी।

प्रीति के प्रश्न से सुधांशु अचकचा गया। समझ नहीं पाया कि वह क्या उत्तर दे। वह चुप रहा। दूसरे बेड पर अपना सूटकेस रख उसने प्रीति की ओर देखा। नींद में वह झूम रही थी।

''प्रीति तुम सो रहो...।''

''सॉरी सुधांशु...देर से सोयी थी...तीन बजे...। मुझे दस बजे जगा देना।''

''अच्छा।'' सुधांशु बाथरूम चला गया। लौटा तो प्रीति को खर्राटे लेते पाया। स्नान करते हुए उसे आठ बज गए। ब्रेकफास्ट के लिए दयाल ने दरवाजा नॉक किया। दरवाजे के पर्दे को हटा सुधांशु ने दरवाजा खोला और बाहर आ गया।

''गुड मॉर्निंग सर।'' सोत्साह दयाल बोला। वह सुधांशु को पहचान गया था।

''वेरी गुड मॉर्निंग।''

''सर ब्रेकफास्ट तैयार है....आप...।''

''प्रीति अभी सो रही है। मैं मेस में आ जाउंगा।''

''थैंक्यू सर।'' दयाल ने झुककर कहा और दूसरे कमरों की ओर बढ़ गया, जिनमें दो अन्य अधिकारी सपत्नीक ठहरे हुए थे, उनमें एक प्र.र. विभाग का था। प्ररवि विभाग के उस गेस्ट हाउस में जब कभी कमरे खाली होते प्र.र. विभाग के अफसरों को ठहरने की सुविधा दे दी जाती थी। दोनों विभाग एक-दूसरे की सुविधाओं का खयाल रखते थे।

ब्रेकफास्ट करके साढ़े नौ बजे जब सुधांशु कमरे में लौटा प्रीति तब भी सो रही थी। एक घण्टा तक सुधांशु अल्बेयर कामू का उपन्यास 'द फॉल' पढ़ता रहा। साढ़े दस बजे उसने प्रीति को आवाज दी।

''उठती हूं। दस मिनट।'' प्रीति ने पुन: चादर तान ली। वह ग्यारह बजे उठी और उठते ही बाथरूम चली गई। दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होने के बाद उसने पूछा, ''सुधांशु, तुमने ब्रेकफास्ट कर लिया?''

''हां।''

''और लोगे?''

''बिल्कुल नहीं।''

प्रीति ने दयाल को फोन मिलाया।

''गुड मॉर्निंग मैम।'' दयाल फोन पर ही झुक गया था।

''ब्रेक फॉस्ट में कुछ बचा है?''

''आप क्या लेना पसंद करेंगी मैम?''

''कुछ भी हल्का....वेज सैंडविच...।''

''अभी लाया मैम।''

और पांच मिनट के अंदर दयाल प्लेट में दो सैण्डविच लेकर आ पहुंचा।

''मैम, चाय या कॉफी?'' मेज पर प्लेट रखता हुआ दयाल बोला, ''सर आप क्या लेंगे?'' वह सुधांशु से पूछ रहा था, जो मोटी तकिये का सहारा लिए उपन्यास पढ़ रहा था।

''थैंक्स....नथिंग।''

''कॉफी ले लो सुधांशु।'' प्रीति बोली।

''कुछ समय पहले ही पी थी।''

''सर, काफी समय हो गया आपको कॉफी पिए हुए....।'' दयाल के स्वर में चाटुकारिता स्पष्ट थी।

''यहां की कॉफी अच्छी होती है सुधांशु।'' प्रीति ने दयाल की ओर देखा, जो विनय की प्रतिमूर्ति बना हुआ खड़ा था।

''मन नहीं है।''

''डू यू नो सुघांशु।...।'' प्रीति सैण्डविच कुतरते हुए बोली, ''मैं गेस्ट हाउस की इंचार्ज हूं इन दिनों। इसलिए मेरे लिए ये लोग अच्छी कॉफी बनाते हैं।''

''मैम, हम सभी के लिए अच्छी ही बनाते हैं...।''

प्रीति ने घूरकर दयाल को देखा।

''सॉरी मैम।''

''जाओ, दो अच्छी-सी कॉफी लेकर आओ।''

दयाल चला गया तो सैण्डविच की प्लेट थामे हुए प्रीति सुधांशु के निकट आयी, ''रात प्रोजेक्ट पर डिस्कशन होता रहा...।''

''कौन-सा प्रोजेक्ट?'' प्रीति की बात काट दी सुधांशु ने।

''हेडक्वार्टर ऑफिस की नई बिल्डिंग बननी है। उसी के बजट पर चर्चा थी होटल सम्राट में।''

''मुख्यालय का कांफ्रेंस हॉल छोटा पड़ रहा था?''

''यार, सुधांशु कैसी बातें करते हो। अब तुम किसान नहीं हो...क्लास वन अफसर हो। उसी प्रकार बातें सोचा और किया करो।''

''मतलब?''

''देखो, चर्चा में कई लोगों को शामिल होना था...महानिदेशक, अपर महानिदेशक प्रशासन और ऑडिट, डी.पी.मीणा, मैं और बिल्डर मनीष अग्रवाल थे।

''हेडक्वार्टर के कांफ्रेंस रूम में पचीस से अधिक लोगों के बैठने की जगह है।''

''ओफ्फोह।'' प्रीति जो सुधांशु के बेड पर बैठने ही जा रही थी, रुक गयी। खड़े हुए ही उसने सैण्डविच का टुकड़ा मुंह में लिया और बोली, ''बुरा मत मानना सुधांशु...क्लास वन अफसर होकर भी तुम्हारी सोच अभी गांव वाली ही है।''

''सो व्वाट?'' उपन्यास बिस्तर पर रखकर सुधांशु तनकर बैठ गया, ''गांव वाले...गांव वाले...क्या गांव वाले इंसान नहीं होते?''

''मैंने यह नहीं कहा।'' प्रीति को अपनी गलती का अहसास हुआ। 'मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था' उसने सोचा, ''सॉरी। लेकिन इतना सच है कि बड़ी बातें छोटे ढंग से नहीं सोची जातीं।''

''क्या मतलब?''

''मतलब यह कि बड़े कामों पर विचार के लिए भी एक अच्छे वातावरण की आवश्यकता होती है वैसे ही जैसे जब तुम्हें कुछ रचनात्मक लिखने के लिए एक अलग वातावरण की आवश्यकता होती होगी।''

''मैं कूड़ाघर के पास बैठकर भी लिख सकता हूं।''

''फिर तो लिखी गई चीज कूड़ा ही बनती होगी।''

सुधांशु का मन विचलित हो उठा। 'यह मेरे रचनाकार का अपमान है।' उसने सोचा, लेकिन बोला कुछ नहीं।

''मुझे अफसोस है सुधांशु। तुम्हे आहत करना मेरा उद्देश्य नहीं था।'' प्रीति ने आगे बढ़कर उसके गाल सहला दिए। तभी घण्टी बजी।

''कम इन।'' प्लेट थामे प्रीति दरवाजे की ओर बढ़ी, जहां पर्दा उठाकर ट्रे में कॉफी के प्याले सजाए दयाल प्रकट हुआ।

''मेरी कॉफी मेज पर और साहब की उन्हें दे दो।''

दयाल द्वारा बढ़ाया गया कप सुधांशु ने बेमन ले लिया और पीने भी लगा। अभी भी वह प्रीति की कही बात सोच रहा था।

दयाल चला गया तो प्रीति बोली, ''रामचन्द्रन सर चाहते थे कि बैठक गुप्त रहे। जब तक मंत्रालय और वित्त मंत्रालय से प्रपोजल की अनुमति नहीं मिल जाती, किसी को पता न चले। और दूसरा कारण यह कि दफ्तर में खाने-पीने का इंतजाम हो नहीं सकता था...खाने का हो जाता लेकिन पीने का....सरकारी दफ्तर में वह सब वर्जित है। इसलिए...।'' प्रीति ने प्लेट मेज पर रखी, कॉफी उठायी और सुधांशु के चेहरे की ओर देखती रही।

सुधांशु चुप रहा।

''बुरा मान गए?''

''बुरा क्या मानना। रामचन्द्रन साहब ने कुछ नया नहीं किया। नया तब करते जब यह मीटिगं दफ्तर में होती....लेकिन वह भी इस देश के लाखों ब्यूरोक्रेट्स में से एक हैं...उन जैसे ही और उन्हीं की तरह सोचने-करने वाले। निश्चित ही होटल सम्राट का हजारों रुपयों के बिल का भगतान कार्यालय ने किया होगा और कर्यालय को पैसा मंत्रालय से मिलता है। मंत्रालय को जनता से....अर्थात आम जनता के पैसों पर देश के विकास के नाम पर अफसर, मंत्री-नेता गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं। जितना धन देश के विकास में खर्च होता है उससे कई गुना अधिक इन लोगों की मस्ती में और उनकी जेबों में जाता है। जनता गरीब है...गरीब रहेगी, क्योंकि उसे गरीब बनाए रखने में ही इनके हित सधते रहेंगे....इनकी तिजोरियां भरती रहेंगी...यही सच है प्रीति और मैं अनुभव कर रहा हूं।'' उसने प्रीति के चेहरे पर दृष्टि डाली, ''मैं अनुभव कर रहा हूं कि कल तक आदर्श की बातें करने वाली तुम अब उसी ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा बनती जा रही हो जो जनता के धन का दुरुपयोग कर रही है।''

''मैं ऐसा नहीं मानती। हम काम करते हैं...काम करने वाले को अपने ढंग से काम करने की छूट मिलनी ही चाहिए....मैं नहीं समझती कि होटल सम्राट में मुख्यालय की नई बिल्डिंग के प्रोजेक्ट पर चर्चा करना कोई अपराघ था।''

''माफ करना।'' सुधांशु ने प्रीति के चेहरे पर दृष्टि गड़ा दी, ''जब इस मसले पर कांफ्रेंस रूम में चर्चा हो सकती थी तब हजारों खर्च करने का औचित्य समझ में नहीं आता...।''

''तुम नहीं समझोगे सुधांशु, क्योंकि जैसा तुम सोचते हो...देश का विकास उससे होने वाला नहीं है...।''

''मुझे अफसोस है कि मैं नहीं समझूंगा....कह सकती हो कि समझना ही नहीं चाहता।''

''छोड़ो इस बहस को। मीटिंग महानिदेशक ने तय की थी। हम व्यर्थ क्यों बहस करें उस पर।''

''क्योंकि तुम उसे सही सिध्द कर रही थी।''

''गलत मैं उसे कभी भी नहीं कहूंगी। मैं महानिदेशक होती तब मैं भी यही निर्णय लेती।''

''हुंह।''

''छोड़ो यार इस मीटिंग प्रकरण को। यह बताओ सामान कब आ रहा है?''

''दो-तीन दिनों में।''

''हमे कहीं एकमोडेशन देखना चाहिए?''

''इस शहर के बारे में मेरी जानकारी अधिक नहीं है ... खासकर दक्षिण दिल्ली की...।''

''ठीक है, मैं पता करूंगी।''

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प्रीति ने डी.पी. मीणा सहित कई लोगों को फोन किया और सभी ने दक्षिण दिल्ली में उनके लिए कहीं स्थान तलाश देने का भरोसा दिया लेकिन पलटकर उत्तर किसी ने नहीं दिया। सामान दिल्ली पहुंचने की सूचना कैरियर कंपनी ने सुधांशु को दे दी थी। जब किसी ने सहायता नहीं की तब सुधांशु ने रविकुमार राय को फोन किया, वस्तुस्थिति बतायी और समस्या रखी।

''कुछ करता हूं सुधांशु ...।''

रविकुमार राय ने अपने एक सेक्शन अफसर को यह काम सौंपा। सेक्शन अफसर ने अपने अधीनस्थ एक बाबू को कहा जिससे उम्मीद थी कि वही वह कार्य कर सकता था। बाबू ने लाजपत नगर के एक प्रापर्टी डीलर से बात की जिसने एक सप्ताह बाद पता करने के लिए कहा।

''सर एक सप्ताह में सुधांशु सर को मकान मिल जाएगा....पहले भी मिल सकता है।'' बाबू ने अपने सेक्शन अफसर को बताया और उसने आगे रविकुमार राय को रपट दी।

''ध्यान रखना।'' रवि ने सेक्शन अफसर से कहा और उस बात को भूल गया।

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(30)

'के' ब्लॉक, जहां के प्रधान निदेशक कार्यालय में सुधांशु दास ने ज्वायन किया, वहां दस वर्ष पहले तक हटमेण्ट्स का एक बड़ा कैम्पस था, जिसमें अन्य अनेक सरकारी कार्यालय थे। उसके आसपास ऐसे कई हटमेंट्स थे, जिनमें से दो को तोड़कर दो मंजिलें भवन बनाए गये थे। सबसे पहले 'के' ब्लॉक के हटमेंट्स को तोड़ा गया था। इस ब्लॉक के बहुत निकट एक मस्जिद थी, जिसकी देखरेख ऑकिऍलॉजिकॅल सर्वे ऑफ इंडिया करता था। इस ब्लॉक के आसपास सभी ब्लॉक्स में सरकारी कार्यालय, विशेषरूप से सुरक्षा बलों से संबन्धित कार्यालय थे। कहते हैं कि उन हटमेण्ट्स का निर्माण भी द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान किया गया था, जहां अमेरिका और ब्रिटिश फौजों के कार्यालय थे। अमेरिकी सैनिक दिनभर वहां कार्य करते ओर शामें उनकी उन महिलाओं के साथ गुलजार होतीं, जिन्हें विशेषरूप से उनके लिए सेना में भर्ती किया गया था। यही नहीं, कहते हैं कि उन दिनों दिल्ली कार्लगर्ल्स की मंडी में तब्दील हो चुकी थी। देश के कोने-कोने से युवतियां दिल्ली लायी गई थीं....दलालों के दल सक्रिय थे और एक हिन्दी साप्ताहिक की रपट के अनुसार दिल्ली में पहली बार यह सब व्यवस्थित रूप से प्रारंभ हुआ था।

'के' ब्लॉक के निकट स्थित मस्जिद, जिसके चारों ओर गोलाकार सड़क निकलती थी और पूरे समय वाहनों की व्यस्तता बनी रहती थी, का नाम मोती मस्जिद था। यह एक छोटी मस्जिद थी, जिसके विषय में कोई ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध नहीं थे। यह इतनी छोटी थी कि एक साथ सात-आठ लोग ही उसमें नमाज पढ़ सकते थे। बाहर भी इतना स्थान नहीं था और जो था वह ऑकिऍलॉजिकॅल विभाग की उपेक्षा के कारण टूटा-फूटा और यत्र-तत्र छोटी झाड़ियों से घिरा हुआ था। मस्जिद में बिजली की व्यवस्था नहीं थी और उसके दरवाजे पर खड़े होने पर उसके अंदर कबूतरों की गुटरूगूं सुनाई देती और उनके बीट की उबकाई पैदा करती गंध के साथ सीलन की बदबू भी नथुने फुलाने लगती थी। इस सबके बावजूद मस्जिद की टूटी-फूटी जगह पर उत्तर-पूर्व की ओर एक अधेड़ व्यक्ति ने चाय की दुकान सजा रखी थी। सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक उसका स्टोव जलता रहता और आसपास के कार्यालयों के दो-चार बाबू वहां हर समय चाय पी रहे होते। उस चाय वाले के सामने सड़क पार फुटपाथ पर एक और चायवाले की दुकान थी। उस चाय वाले की दुकान के पीछे किसी एम.पी. का बंगला था। मस्जिद के निकट वाली चाय की दुकान की अपेक्षा एम.पी. के बंगले की पिछली दीवार के साथ फुटपाथ पर की दुकान में अधिक बाबू चाय पीते थे। वहां खुली जगह थी, जिससे बाबुओं को झुण्ड में खड़े होकर गप्प लगाने में असुविधा नहीं होती थी। प्राय: दफ्तर से ऊबे, काम के बोझ से दबे बाबू दोनों दुकानों में चार-छ: के ग्रुप में आते और आध घण्टा डी.ए.,वेतन, महगाई और सरकारी भ्रष्टाचार पर चर्चा करते हुए अपने को हल्का करते। इनमें वे बाबू भी सक्रिय भागीदारी निभाते जो सीट पर होते ही ठेकेदारों से कमीशन की बातें करते थे। लेकिन जब भ्रष्टाचार की चर्चा छिड़ती वे सबसे आगे चर्चा में भाग लेते थे।

के ब्लॉक में प्ररवि विभाग के उस प्रधान निदेशक कार्यालय में प्रधान निदेशक चमनलाल पाल के अतिरिक्त एक संयुक्त निदेशक, एक उप निदेशक और दो सहायक निदेशक थे। एक सहायक निदेशक का पद रिक्त था और उसी रिक्त स्थान पर सुधांशु को पद-स्थापित किया गया था। पहली मुलाकात में प्रधान निदेशक चमनलाल पाल ने सुधांशु को लंबा भाषण दिया, जिसे 'यस सर' के कथन की निरंतरता के साथ सुधांशु ने सुना।

''हमें इस प्रकार काम करना होता है जिससे न प्रर बलों को कठिनाई हो और न ही उनकी सेवा में नियुक्त कांट्रैक्टर्स को।''

'' सर, कांट्रैक्टर्स का उनकी सेवा में नियुक्त होना....।''

''सेवा में नियुक्त होना....आई मीन ....उनके लिए समय से माल सप्लाई करना। प्रर बलों के लिए जो भी सामान....सुई से लेकर शराब की बोतलें, खाने के सामान से लेकर रेफ्रिजरेटर....अर्थात आवश्यकता की हर वस्तु कांट्रैक्टर्स द्वारा ही सप्लाई होता है। उनका भुगतान यह कार्यालय करता है, क्योंकि हम उनके ऑडिट अफसर हैं। हमें देखना यह होता है कि कांट्रैक्टर ने यदि समय से माल भेज दिया है और उसके बिल के साथ प्रर विभाग के प्रशासनिक अधिकारी का इस आशय का नोट नत्थी है कि सप्लाई हो चुकी है तब उसके बिलों के भुगतान में अधिक समय नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। करोड़ों की सप्लाई का भुगतान चार-छ: दिन विलंब से मिलने पर कांट्रैक्टर को लाखों का नुकसान होता है।''

''सर, आप बेफिक्र रहें।'' सुधांशु सोच रहा था कि इस बात के लिए मिस्टर लाल ने इतना लंबा भाषण क्यों दिया।

अपने चौड़े मुंह पर चौड़े होठ फैलाते हुए मुस्कराये प्रधान निदेशक, ''आपसे यही उम्मीद थी।''

चमन लाल पाल पांच फीट आठ इंच लंबा, सांवला, चौड़े शरीर का व्यक्ति था, जिसके गालों पर जवानी के मसों जैसे दाने उसके पचपन पार उम्र में भी स्पष्ट थे। वह जब हंसता उसके बड़े दांत उसके चेहरे को विचित्र बनाते। वह काफी सख्त अफसर माना जाता था, जिसके विषय में बाबुओं में चर्चा थी कि घर में उस पर उसकी बीबी का आतंक था, जो एक अंग्रेज महिला थी। चमल लाल पाल पंजाब के होशियारपुर के एक समृध्द परिवार से था। पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए वह आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय गया था, वहीं उसकी मुलाकात लिलि ब्राउन से हुई थी। लिली उसके साथ पढ़ती थी। लिली को सांवला, खोथरे चेहरे वाला, मजबूत कद-काठी का चमन लाल पाल भा गया था और वह उससे प्रेम करने लगी थी। उसकी नीली आंखों ने भांप लिया था कि पाल के हाथों उसका भविष्य सुखमय रहेगा चाहे वह ब्रिटेन में रहे और चाहे भारत में। अपने अंग्रेज प्रेमी को छोड़ वह पाल को प्रेम करने लगी थी और पाल के मन लिली पहले से ही चढ़ी हुई थी। प्रेम अपने परिणाम तक पहुंचा और दोनों ने लंदन के एक मंदिर में शादी कर ली। लिली के परिवार के लोगों के अलावा पाल के कुछ भारतीय मित्र इस बात के गवाह बने थे।

शिक्षा समाप्त कर जब चमनलाल पाल भारत वापस लौटा लिली उसके साथ थी। चमन पहले से ही जानता था कि उसके परिवार में लिली का स्वागत होगा, भले ही उसके बारे में उसने घर वालों को नहीं बताया था। और वैसा ही हुआ। पंजाब की धरती की यह खूबी है कि वह हर चीज को पचा लेती है, अपने में रचा-बसा लेती है और अपना लेती है। लिली पहले ही दिन से चमन लाल पाल के परिवार का हिस्सा बन गयी, लेकिन उसे अधिक समय तक होशियारपुर में नहीं रहना पड़ा। आई.ए.एस. की तैयारी के लिए चमन चण्डीगढ़ गया और लिली उसके साथ गयी...जाना ही था। वह अंग्रेज बाला चमन के अतिरिक्त किसी के साथ रह भी नहीं सकती थी।

चमन के प्ररवि विभाग में नियुक्त होने के कुछ वर्षों बाद लिली के तेवर बदलने लगे थे। हालात ये हुए कि कार्यालय में अधीनस्थों को मामूली और उपेक्षणीय मामलों पर अपमानित करने वाला चमन लाल पाल घर में लिली के सामन भीगी बिल्ली बन जाता था। लिली को अपने सौन्दर्य का अहसास था और यह भी अहसास था कि उस पर मुग्ध लाल पर वह शासन करने के लिए ही पैदा हुई थी जबकि लाल दफ्तर के बाबुओं और अपने अधीनस्थ अधिकारियों पर शासन के लिए जन्मा था।

पाल और लिली की एकमात्र संतान थी उनकी बेटी शेफाली, जो उन दिनों पचीस के लगभग थी और जब वह पांच वर्ष की थी, लिली ने उसे अपने भाई के पास लंदन भेज दिया था। तीन-चार वर्षों में कभी सप्ताह-दस दिनों के लिए वह उनके पास आती, वर्ना लाल और लिली ही उससे मिलने जाते। बेटी मां की प्रतिरूप थी और लिली का मानना था कि जवानी की गफलत में उसने लाल जैसे काले व्यक्ति को पसंद किया और पहले प्रमी को छोड़ जो लाल के गले में बाहें डालीं तो किसी दूसरे की ओर देखने का अवसर उसे नहीं मिला जबकि वह नहीं चाहती थी कि उसकी बेटी किसी काले भारतीय की पत्नी बने। वह अंग्रेज महिला से जन्मी थी और उसका विवाह अंग्रेज युवक से ही होना चाहिए। लिली भारत की उस संस्कृति की आलोचक थी जहां उन्मुक्त प्रेम प्रतिबन्धित था, लेकिन लुक-छुपकर वह सब होता जैसा ब्रिटेन में भी उसने नहीं देखा था। यद्यपि उसे लगता कि अपने प्रेम और समर्पण से उसने लाल को अपने बाहुपाशों में कैद कर रखा था, लेकिन कभी-कभी वह शंकालु हो उठती। और उसकी आशंका निर्मूल न थी। लिली से आतंकित लाल स्टॉफ और सहयोगियों में आश्रय खोजता रहता और कभी-कभी सफल भी होता। स्टॉफ में अपने आतंक को वह हथियार के रूप में प्रयोग करने लगा था और जहां भी तैनात रहा, किसी न किसी महिला कर्मचारी के समक्ष ऐसी स्थिति पैदा करने में सक्षम रहा, जिससे या तो वह उसकी शर्तें स्वीकार करने के लिए विवश होती या उसे नौकरी त्यागने के लिए या दूर-दराज स्थानांतरण पर जाने की तैयारी करनी पड़ती।

ऐसे प्रधान निदेशक से लंबा भाषण सुनकर वापस लौटे सुधांशु ने अपने कमरे में पहुंच एक-एक कर अपने अधीनस्थ अनुभाग अधिकारियों की बैठक की और उनसे कार्य की जानकारी प्राप्त की। ज्ञात हुआ कि उसे वे सेक्शन आबंटित किए गए थे, जो कांट्रेक्टर्स के बिलों का ऑडिट करते, सही पाये जाने पर उनके चेक तैयार करवाते और उन्हें डिस्पैच करवाते थे।

सुधांशु से पूर्व उस पद पर नियुक्त सहायक निदेशक के पदोन्नत होकर पूना जाने के बाद दो सप्ताह से वह पद खाली था। लाल उस कार्य को दूसरे सहयाक निदेशक को सौंपना नहीं चाहता था। उस कार्यालय का इंचार्ज होने के नाते वह वहां के समस्त कार्य के लिए उत्तरदायी था, लेकिन कुछ फाइलें ही उसके पास जाती थीं। खासकर वे फाइलें जिनपर निर्णय लेने का अधिकार दूसरे अधिकारियों को नहीं होता था...उन पर लाल ही निर्णय ले सकता था। उस बिल की फाइल जिसका भुगतान एक करोड़ रुपयों से अधिक होता, उसकी संस्तुति के लिए जाती थी। कांट्रैक्टर्स के बिल जिस सेक्शन में ऑडिट होते और जहां से उनके चेक बनते उस सेक्शन को ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन कहा जाता था। सहायक निदेशक के पदोन्न्त होकर जाने के बाद उस सेक्शन का काम लाल स्वयं देखता रहा था।

मीटिंग में अनुभाग अधिकारियों से काम समझने के बाद सुधांशु ने लेखाधिकारी के माध्यम से फाइलें भेजने के लिए उन्हें आदेश दिया। उसके बाद उसने संबध्द लेखाधिकारी को बुलाया और उस विषय पर चर्चा की। कुछ ही समय में फाइलों से सुघांशु की मेज भर गयी। फाइलें देखते हुए उसे आध घण्टा ही बीता था कि उसके पास कांट्रैक्टर्स के फोन आने प्रारंभ हो गए। सुधांशु जिस सेक्शन की फाइल देखता उसके सेक्शन अफसर को बुला लेता। हुआ यह कि जिन दो कांट्रैक्टर्स के फोन उसके पास आए उनके बिल से संबन्धित सेक्शन अफसर से उन्हीं के केस वह समझ रहा था। उसे आश्चर्य हुआ। 'ऐसा कैसे हुआ कि जिस समय वह उनके केस देख रहा है उसी समय वे फोन कर रहे है।' सुधांशु सोचने लगा। लेकिन इसे उसने संयोग माना।

''सर मैं....कंपनी से बोल रहा हूं...मेरा सत्तर लाख का बिल दो सप्ताह से रुका हुआ है। प्लीज आप उसे आज ही क्लियर कर दें....मेहरबानी होगी सर।'' कंपनी का एक्जीक्यूटिव बोल रहा था। सुधांशु ने सेक्शन अफसर की ओर देखा, वह फाइल में नजरें गड़ाए ऐसा प्रकट कर रहा था कि उसने कुछ सुना ही नहीं था।

''मैंने आज ही ज्वायन किया है। जहां दो सप्ताह धैर्य रखा....एक-दो दिन और रुकें....आपके चेक डिस्पैच हो जायेंगे।''

''सर, मेरा एक्जीक्यूटिव पर्सनली आकर ले जाएगा।''

''ऐसा नियम नहीं है। चेक आपको स्पीड पोस्ट से मिल जाएगा।''

और एक्जीक्यूटिव की बात सुने बिना ही सुधांशु ने फोन काट दिया। उसने फाइल पर नजर डाली ही थी कि दूसरी कंपनी के डायरेक्टर का फोन आ गया। उसे भी उसने वही जवाब दिया। ''इनको मेरा नाम भी पता था और कब ज्वायन किया यह भी....यह कैसे हुआ?'' सुधांशु ने सेक्शन अफसर से पूछा, जो अभी भी फाइल में कुछ पढ़ रहा था।

''सर, ये पता लगाते रहते हैं। मुख्यालय से लेकर मंत्रालय तक ये पता करते रहते हैं। भुगतान के मामले में एक दिन का विलंब भी इन्हें बर्दाश्त नहीं। मंत्रालय भी इनके पक्ष में रहता है, क्योंकि एक दिन भी विलंब से इनकी सप्लाई पहुंचने से हमारे प्रर बलों को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। खासकर खाने-पीने के बिलों के भगतान में....।''

''हुंह....।'' सुधांशु विषय की गंभीरता समझ रहा था और उसने उन दोनों कांट्रैक्टर्स के बिलों को न केवल पास किया, बल्कि दो घण्टे के अंदर उनके चेक बनवाकर सेक्शन अफसर को उन्हें डिस्पैच करने का आदेश भी दिया।

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रविवार, 9 अक्टूबर 2011

धारावाहिक उपन्यास

’गलियारे’
(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल

(चैप्टर २६ और २७)

(26)

तीन महीने तक सुधांशु को स्थानांतरण के लिए प्रतीक्षा करना पड़ा। इस मध्य सुबोध ने गांव के खेत अधाई पर दे दिए और घर में ताला बंद कर सुगन्धि के साथ पटना आ गए।

''अब नौकरानी की जरूरत नहीं...मैं आ गई हूं...सब संभाल लूंगी।''

''नहीं मां....आपके पहले रहते भी वह आती थी.....।'' सुधांशु नहीं चाहता था कि मां को अधिक काम करना पड़े। वह बोला, ''आप बस किचन का काम करें...शेष काम करने के लिए उसे आने दें।''

सुबह-शाम किचन के काम में सुगन्धि को अधिक समय नहीं लगता था...शेष दिन वह खाली रहती थी। गांव में दिन भर काम करने वाली सुगन्धि के लिए दिन काटना कठिन हो जाता था। वही हाल सुबोध का था।

''पिता जी, आप दोनों सुबह-शाम टहलने निकल जाया करें...कुछ दूर पर पार्क है...मैं आपको कल सुबह चलकर बता दूंगा। दिन में भी....जब भी आप चाहें वहां चले जायें...आप लोगों को यहां कुछ असुविधा तो होगी....लेकिन...।''

''नहीं बेटा, असुविधा बिल्कुल नहीं, लेकिन अधिक सुविधा इंसान में जंग लगा देती है।''

''इसीलिए कहा।''

अगले दिन सुबह सुधांशु मां-पिता के साथ पार्क गया। रास्ता सीधा था। भटकने की संभवना नहीं थी, फिर भी उसने दोनों को घर का पता लिखकर दे दिया, जिसे सुबोध ने कुर्ता की जेब में और सुगन्धि ने धोती के खूंट से बांध लिया था। लेकिन वे भटके नहीं और एक घण्टा बाद ही लौट आये, क्योंकि सुगन्धि को चिन्ता थी सुधांशु के लिए नाश्ता-लंच तैयार करने की।

दिन में भी सुबोध र सुगन्धि मेड सर्वेण्ट के काम समाप्त कर लौट जाने के बाद पार्क में जा बैठते थे। कभी-कभी सुबोध वहां के माली के पास पहुंच फूल-पौधों के विषय में चर्चा करते और अवसर देख उसे खेैनी बनाने के लिए कहते। कभी स्वयं अपनी चुनौटी निकाल, जिसे वह कमर के पास धोती में लपेट रखते थे, बायीं गदोली पर तंबाकू रख चूना मिला दाहिने हाथ के अंगूठे से रगड़ने लगते।

कुछ दिनों में ही सुबोध और सुगन्धि की ऊब समाप्त होने लगी थी। एक दिन रात डिनर के समय सुगन्धि बोली, ''बेटा, तुम हियां और बहू देहरादून में अकेली....महीना में एक बार चले जाया करो या प्रीति को यहां बुला लिया करो।''

सुधांशु चुप भोजन करता रहा।

''कब तक तुम दोंनो को अलग नौकरी करनी होगी?'' बेटे को चुप देख सुगन्धि बोली।

''क्या कह सकता हूं...होने को कल ट्रांसफर हो जाये और न होने को एक साल भी न हो...।''

''तुम ऐसा करो....।''

सुधांशु मां की ओर देखने लगा जो बात बीच में छोड़ बेटे की ओर देख रही थी कि वह कुछ कहेगा या नहीं।

''बोलो।'' सुधांशु बोला।

''मुझे देहरादून बहू के पास छोड़ दो....उसे भी खाने-पीने की परेशानी हो रही होगी....तुम्हारे पापा तुम्हारे पास बने रहेंगे और....''

मां की बात बीच में ही काटकर सुधांशु बोला, ''मां, प्रीति को अभी तक मकान नहीं मिला...वह इंस्पेक्शन बंग्लो में एक कमरे में रह रही है।''

''तो क्या? मैं भी उसीमें रह लूंगी। कमरे के एक कोने में खाना पकाने का इंतजाम कर लूंगी...यह कोई बड़ी बात थोड़ी ही है।''

''मां तुम भी....।'' सुधांशु मुस्कराया।

''क्यों?''

''प्रीति को खाने की समस्या नहीं है। वहां मेस है....उसे कोई परेशानी नहीं है वहां।''

''फिर एक काम कर.....।''

सुधांशु मां की ओर देखने लगा।

''मुझे आए बीस दिन हुए...प्रीति से मिलने की इच्छा है। तू उसे बुला दे यहां। एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आ जाए....मिलने की बहुत इच्छा है।''

''अच्छा...।''

और सुधांशु ने सुबह कार्यालय पहुंचते ही प्रीति को फोन किया, ''प्रीति मां आयी हुई हैं।....तुमसे मिलना चाहती हैं...इस वीकएण्ड में आ जाओ।''

''यार, यहां इतना अधिक काम है कि छुट्टी वाले दिनों में भी आराम नहीं...।''

''हुंह।'' सुघांशु गंभीर हो उठा।

''बुरा मान गए?'' प्रीति ने पूछा।

''नहीं, मैं तुम्हारी स्थिति समझ सकता हूं। देख लो....आ सको तो...।'' उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

''मैं कोशिश करूंगी।''

'वास्तविकता यह थी कि प्रीति स्वयं कार्य निकाल लेती थी और अपने उपनिदेशक और संयुक्त निदेशक को अनुरोध करती कि अवकाश के दिन वह कार्यालय आना चाहेगी जिससे वह शेष कार्यों को सम्पन्न कर सके। उसके उच्चाधिकारियों को इसमें क्या परेशानी होनी थी। परेशानी होती प्रशासन अनुभाग और प्रीति के सेक्शन अफसरों और बाबुओं को। प्रशासन अनुभाग के दो बाबुओं को आना होता, क्योंकि कार्यालय खुलवाने की जिम्मदारी उन्हीं की होती....बन्द करवाने की भी। और प्रीति स्वयं तय करती कि उसके अधीनस्थ किस सेक्शन अफसर, लेखाधिकारी और बाबुओं को आना होगा। एक दिन पहले वह उस संबद्ध लेखाधिकारी को बुलाती और जिन्हें बुलाना होता उनके लिए निर्देश देती....''प्रशासन से उनके आने के लिए गेट पास की व्यवस्था के लिए कह दो.....सभी ठीक समय से आएंगे....।''

''जी मैम।'' लेखाधिकारी अपने से आधी आयु की उस नयी सहायक निदेशक के सामने गर्दन झुकाकर कहता।

होता यह कि स्टॉफ नियत समय पर कार्यालय में उपस्थित होता, जबकि प्रीति ग्यारह बजे से बारह बजे के मध्य पहुंचती। कार्यालय की दूरी इंस्पेक्शन बंग्लो से एक किलोमीटर के लगभग थी। प्रीति पैदल ही कार्यालय आती-जाती थी। कार्यालय में बाबू उसे 'ततैया' कहने लगे थे। सात सौ पैंतीस की संख्या वाले उस कार्यालय के सभी बाबू और छोटे अधिकारियों में प्रीति को लेकर चर्चा थी कि उस जैसी अफसर उन लोगों ने अपने जीवन में नहीं देखा था।

''जुमा-जुमा आठ दिन की नौकरी में जब इस लड़की के ये तेवर हैं तब निदेशक बनने पर तो यह स्टॉफ का जीना दूभर कर देगी....जबकि अभी मेम साहबा खुद भी प्रोबेशन पर हैं।''

''कई बार उलट भी होता है। ज्यों-ज्यों आदमी उन्नति करता जाता है विनम्र होता जाता है। हो सकता है इन मेम साहबा के साथ भी ऐसा ही हो।''

''जो भी हो, लेकिन जब इसके तेवर अभी से ऐसे हैं तब आगे का कोन कहे।''

''यार, बात ये है कि मेम साहबा फ्रस्ट्रेटेड हैं। पति पटना पड़ा है....अकेली रहती हैं। बाकी सभी ठहरे परिवार वाले....पति-पत्नी सुख लूटने वाले...तुम उसकी पीड़ा को समझने का प्रयत्न करो....हफ्ते में एक दिन भी संसर्ग मिले तो गुस्सा ठंडा रहे।'' कोई बाबू कहता तो पूरा सेक्शन ठठाकर हंस पड़ता, दरवाजे की ओर देखता हुआ कि उनकी हंसी किसी अफसर ने सुनी तो नहीं। और इसप्रकार हंसता हुआ यदि प्रीति दास मैम सुन लें तब तो गजब ही हो जाये।

''लेकिन है शार्प दिमाग गुरू....छोटी सी चूक भी पकड़ लेती है।'' कोई कहता।

''होगी क्यों नहीं....बाप जी आई.ए.एस. थे और पति भी....।''

''अरे छोड़ पति को....वह तो अभी भी देहाती दिखता है.....पता नहीं एडीशनल सेक्रेटरी की बेटी को कैसे पटा लिया पट्ठे ने।''

''अरे उसने नहीं, इसीने पटाया। कोई बता रहा था...अरे भाई आपना सुदीप ...वह भी इन्हीं के कॉलेज में पढ़ता था...शायद इनसे जूनियर था...अब देखो किश्मत कि वह यू.डी.सी. है और ये दोनाें....।''

''तुम भी तो...डी.यू. के किसी अच्छे कॉलेज से हो।''

''हां, हंसराज से....।'' बताने वाले का चेहरा उदास हो गया। वह टोकने वाले का आभिप्राय समझ गया था।

''है सारा खेल किश्मत का ही...मेरी पारिवारिक स्थिति ऐसी थी कि मुझे ग्रेजुएशन के बाद ही नौकरी करनी पड़ी....छोटी से शुरूआत की थी....चांदनी चौक के एक लाला का एकाउण्ट्स देखने से ....और सुदीप...उसकी स्थिति तो ऐसी न थी।''

''देख भाई, पूरा कॉलेज ही अगर आई.ए.एस. ...पी.सी.एस. बनने लगे तब बाबू कौन बनेगा। सुदीप ने मस्ती ली....यूडीसी है....अपने ही कॉलेज की प्रीति दास से डांट खाता है। एक दिन बता रहा था कि पहली मुलाकात में प्रीति मैम की आंखें उसे देख चमक उठी थीं....शायद वह चमक उसे पहचाने जाने की थी, लेकिन कहता था कि क्षणमात्र में ही भाव बदल लिए थे 'ततैया' ने और शुरू कर दिया था डंक से नश्तर लगाना। किसी ड्राफ्ट को तैयार करने में सुदीप ने कोई फिगर गलत लिख दी थी....करोड़ों की गड़बड़ हो रही थी जिसे 'ततैया' ने पकड़ लिया था। कहां सुदीप कॉलेज का रिश्ता जोड़ने जा रहा था और कहां उस पर डंक प्रहार होने लगे थे।

''ये अफसर ऐसे रिश्तों के पनपने से पहले ही उसे जड़ से काट फेंकते हैं....हिन्दुस्तान की ब्यूरोक्रेसी की यही तो खूबी है।''

''दुनिया के दूसरे देशों में भी यह कौम एक जैसी है। अपने अधीनस्थों के साथ तानाशाहों जैसा व्यवहार, उन्हें कीड़े-मकोड़ों से अधिक न समझना उनकी फितरत होती है। मैं एक अफसर की कहानी सुनाता हूं।''

''सुना। लेकिन घड़ी पर नजर रखना।''

दोनों बाबू लंच में गुनगुनी धूप में पार्क में लेटे हुए थे।

''इससे पहले मैं दिल्ली में था सेना भवन में। वहां जो निदेशक था, उसका पी.ए. उसका बचपन का साथी था। साथी यूं कि दोंनों के पिता ने इसी विभाग में क्लर्क की हैसियत से नौकरी शुरू की थी। निदेशक के पिता ने सेक्शन अफसर की परीक्षा उत्तीर्ण की और प्रोन्नति पाकर लेखाधिकारी बनकर रिटायर हुआ, लेकिन पी.ए. का पिता क्लर्क से सीनियर यूडीसी ही बन पाया। दोनों के पिता दिल्ली में एक साथ एक ही दफ्तर में ...शायद मुख्याालय में थे और आर.के.पुरम में उनके सरकारी क्वार्टर अगल-बगल थे। पढ़ते दोंनो अलग स्कूलों में थे, लेकिन शाम को खेलते साथ थे। आठवीं तक का साथ था दोनों का। फिर निदेशक के पिता प्रमोट होकर देहरादून के इसी कार्यालय में आ गये और पी.ए. का पिता स्थानांतरण करवाकर मद्रास चला गया। दोनों ही परिवार तमिलयन थे। पी.ए. साहब हाई स्कूल से आगे नहीं पढ़े ओर स्टेनोग्राफी सीखकर विभाग में स्टेनोटाइपिस्ट बन गए, जबकि निदेशक ने डी.यू. के हिन्दू कॉलेज से फिजिक्स में एम.एस.सी किया और आई.ए.एस. में आ गया। पी.ए. साहब रगड़-घिट्टकर स्टेनोटाइपिस्ट से सीनियर पी.ए. बने, जबकि निदेशक अब प्रधान निदेशक बनने की पंक्ति में खड़ा है।''

''होता है भाई.... ऐसा होता है।'' दूसरा बोला।

''असली बात तो रह ही गयी। निदेशक अपने पी.ए. को दिन में कम से कम पांच बार अवश्य डांटता था। मामूली बातों पर भी....अगर उसकी बीबी का फोन होता और पी.ए. उसकी बीबी को नमस्ते नहीं करता तब भी उसे वह डांटता कि उसे उसकी बीबी से बात करने की तमीज नहीं है। बचपन में साथ खेलने की बातें अतीत में ही दफ्न हो चुकी थीं।''

''यार, मैं तो बाबू ही बन पाया, लेकिन ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मेरे दोनों बेटों में से किसी एक को वह आई.ए.एस अवश्य बनाए। अपना बुढ़ापा भी सुधर जायेगा।''

''चल उठ।'' घड़ी देखता दूसरा बाबू बोला, ''चलकर दफ्तर में बुढ़ापा संवारना।''

दूसरे ने भी घड़ी देखी और हड़बड़ाकर उठ बैठा, ''चल यार।'' उबासी लेता हुआ वह बोला और जूते पहनने लगा।

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दो दिन का अवकाश लेकर प्रीति पटना पहुंची। अपने आने की सूचना उसने सुधांशु को नहीं दी थी। उसके आते ही सुगन्धि का चेहरा खिल उठा। उसने लपककर बहू को गले लगाया और वह देर तक उसे चिपटाये रहती, लेकिन प्रीति ने, ''कब आई अम्मा जी?'' कहकर उसे अपने से अलग किया और तुरंत रूमाल निकाल उसे नाक से लगा बोली, ''अकेली ही आई हैं या अंकल भी हैं।''

''हम दोंनो ही आए हैं।'' हुलसते हुए सुगन्धि ने कहा। प्रीति दूसरे कमरे की ओर लपकी तो सुगन्धि उसके पीछे हो ली। सुधांशु उस कमरे में दाढ़ी बना रहा था। प्रीति ने सुगन्धि की ओर ध्यान न देकर सुधांशु को 'हेलो' कहा।

''तुमने बताया नहीं....मैं आ जाता स्टेशन।''

''बस अचानक ही बना कार्यक्रम....।''

''चलते समय ही फोन कर दिया होता।''

''स्टेशन से यहां तक आ सकती थी....आ गयी। न आ पाती तब बता देती।''

सुगन्घि दरवाजे पर खड़ी पति-पत्नी की बातें सुनती रही। वह चाहती थीं कि प्रीति उसके पास बैठे....बातें करे, लेकिन प्रीति अटैची से कपड़े निकाल सास की ओर ध्यान दिए बिना बाथरूम की ओर लपक गयी।

''नाश्ता बनाई बेटा?'' सुगन्धि ने सुधांशु से पूछा।

''मैं भी स्नान कर लूं मां...तब तक पिता जी को नाश्ता करवाओ।''

''वो अभी तक नहीं लौटे....पारक से।''

''उन्हें आ जाने दो।''

सुधांशु के कहने के साथ ही सुबोध अंदर दाखिल हुए। सुगन्धि ने उनके अंदर कदम रखते ही हुलसते हुए कहा, ''प्रीति आई है तुमसे मिलने।''

''सच?''

''हां, बाथरूम में है। पूछ रही थी कि मैं अकेली आयी हूं या आप भी आए हैं।''

''बहू हम दोंनो का बहुत खयाल रखने वाली है।''

''धन्न भाग हमार।'' सुगन्धि ने ऊपर की ओर हाथ उठाकर कहा।

लगभग आध घण्टा में प्रीति स्नान करके बाहर निकली और सुधांशु के कमरे की ओर बढ़ गयी।

''सुघांशु, बाथरूम में तंबाकू की गंध क्यों है?''

''तंबाकू?'' सुधांशु अचकचा गया।

''ऐसा लगा कि किसी ने वहां तंबाकू थूका है।''

''तुम्हे भ्रम हुआ है।''

''तुम स्वयं देख लो।''

''हो सकता है पिता जी ने गलती से....।'' सुघांशु इससे आगे कुछ नहीं कह पाया।

''यार, घर है....बाथरूम कोई पीकदान तो नहीं....अंकल को बता देना।''

सुधांशु चुप रहा। दूसरे कमरे में प्रीति से मिलने के लिए उद्यत खड़े सुबोध के कानों में जब प्रीति के शब्द पड़े अपराधबोध से उन्होंने अपने को जमीन में गड़ा हुआ अनुभव किया।

''ट्रांसफर की कोई जानकारी?'' प्रीति ने सुधांशु की ओर मुड़कर पूछा।

''कोई सूचना नहीं।'' सुधांशु का स्वर उदास था।

''डी.पी. मीणा से बात करते....उन्होंने कहा था...।''

''हुंह।'' सुधांशु के मस्तिष्क में अभी भी तंबाकू की बात घूम रही थी, 'पिता जी से कह सकूंगा यह बात!' वह सोच रहा था।

सुधांशु का उत्तर न मिलने पर प्रीति ही बोली, ''मैं ही किसी दिन उनसे बात करूंगी।''

''ओ.के.।''

सुबोध दास सोफे पर धंसे बैठे थे। चेहरे पर उदासी की परत थी। प्रीति औपचारिक ढंग से उन्हें 'हेलो अंकल' कहती हुई किचन की ओर गई, जहां सुगन्धि नाश्ता तैयार करने में व्यस्त थी।

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(27)

''बेटा, मैं गांव जाने की सोच रहा हूं।'' संकुचित स्वर में सुबोध दास ने प्रीति के देहरादून जाने के एक सप्ताह बाद कहा।

''अभी आए हुए अधिक दिन नहीं हुए पिता जी।''

''तुम्हारी अम्मा का जी नहीं लग रहा।'' सुबोध ने पत्नी से पहले ही गांव जाने की योजना पर चर्चा कर ली थी। पूछने पर कहा था, ''सुगन्धि, खाली बैठना अब खलने लगा है। पारक में मालियों के साथ कितनी देर बैठूं....? घर में मेरे लिए कोई काम नहीं....जिन्दगी भर काम में लगा रहने वाला व्यक्ति इस तरह खाली बैठेगा तो उसकी उमर घटेगी .....।''

''मन तो मेरा भी नहीं लगता यहां। सारी जिन्दगी गांव में बीत गई...घूम-फिरकर मन वहीं पहुंच जाता है।''

''मैं सुधांशु से कहूंगा।''

''लेकिन मेरे जाने से उसे परेशानी होगी।''

''जब तुम नहीं आयी थी तब भी तो वह रह ही रहा था। काम वाली उसके लिए खाना बनाती थी...आगे भी बनायेगी।''

सुगन्धि सोच में पड़ गयी थी। देर तक सोचने के बाद बोली थी, ''तुमही बात कीन्ह्यो बबुआ से।''

''मैं ही करूंगा।''

और जब सुबोध ने सुघांशु से गांव जाने की चर्चा छेड़ी तब सुधांशु ने उनके प्रस्ताव को सहजता से लिया और हां कह दी। सुबोध ने उसे यह एहसास नहीं होने दिया कि प्रीति की तंबाकू की बात ने उन्हें इतनी जल्दी गांव लौटने का निर्णय करने के लिए प्रेरित किया है।

मां और पिता के गांव जाने के बाद सुधांशु देहरादून गया। प्रीति तब भी इंस्पेक्शन बंग्लो में रह रही थी। उसे सरकारी मकान एलाट हुआ था जिसे लेने से उसने इंकार कर दिया था, क्योंकि उसे डी.पी. मीणा ने आश्वस्त किया था कि शीघ्र ही उसका ट्रांसफर होगा और उसे और सुधांशु को एक ही स्टेशन में भेजा जाएगा। वह स्टेशन कौन-सा होगा यह बात मीणा ने नहीं बतायी थी।

सुधांशु के देहरादून से वापस लौटने के लगभग पन्द्रह दिन बाद एक दिन मुस्कराते हुए दलभंजन सिंह सुधांशु के कमरे में प्रविष्ट हुए। वह लंबे, छरहरे, गोरे और गोल-चपटे चेहरे पर लंबी मूंछों वाले व्यक्ति थे।

''बधाई सुघांशु।''

''सर।'' खड़ा होते हुए सामने कुर्सी की ओर इशारा कर बैठने का अनुरोघ करत हुए सुधांशु बोला। युवा अधिकारियों को संकेत में वरिष्ठ अधिकारी यह बता देते थे कि उनके कमरे में जब भी कोई वरिष्ठ अधिकारी आए और वह संयुक्त निदेशक या निदेशक स्तर का हो तो उनके बैठने के लिए उसे अपनी कुर्सी खाली कर देनी चाहिए। प्राय: वरिष्ठ उस पर नहीं बैठते, लेकिन कुछ को उसके द्वारा छोड़ी गई कुर्सी ही पसंद आती है। इसे वे अपनी वरिष्ठता का अधिकार मानते हैं। दलभंजन सिंह सुधांशु के संयुक्त निदेशक थे। प्रारंभ में उनके प्रवेश करते ही सुधांशु ने उनके लिए अपनी कुर्सी छोड़ दी थी, लेकिन, ''बैठो यंगमैन...।'' हाथ से उसे बैठने का इशारा करते हुए दलभंजन सिंह ने कहा था। उसके बाद से सुधांशु उन्हें सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने का अनुरोध करता था।

''तुम्हारा ट्रांसफर आर्डर आ गया है। कब रिलीव होना चाहते हो?''

''सर, कहां के लिए है?''

''प्रधान निदेशक कार्यालय के. ब्लॉक, नई दिल्ली के लिए।''

नई दिल्ली सुनते ही क्षणांश के लिए सुधांशु का चेहरा निष्प्रभ हो गया, जिसे दलभंजन सिंह ने गौर किया।

''परेशान न हो...तुम्हारी बेगम का आर्डर भी साथ ही हुआ है।'' कहते हुए दलभंजन सिंह ने ट्रांसफर आर्डर सुधांशु के सामने रख दिया।

प्रीति का ट्रांसफर नई दिल्ली में मुख्यालय में किया गया था।

''दस दिन का ज्वायनिंग टाइम दिया गया है। सोचकर बता देना कब रिलीव होना चाहोगे।''

''जी सर।''

दलभंजन सिंह के जाने के बाद सुधांशु ने प्रीति को ट्रंकाल बुक किया।

'प्रीति ने मुझे बताया नहीं। उसे इस विषय में अवश्य पता चल गया होगा।' सुधांशु सोचने लगा था।

'लेकिन यह मात्र तुम्हारा अनुमान है। हो सकता है उसे पता ही न चला हो...लेकिन उसने मीणा से बात करने की बात कही थी ....बात की होगी, लेकिन बताया नहीं मुझे।'

'इसमें बताने जैसा क्या था सुधांशु।' एक और आवाज।

'संबन्धों से अधिक पद को महत्व देने लगी है वह।'

'नौकरी प्रारंभ करते समय गोपनीयता की शपथ लेने का मतलब क्या, यदि उसका पालन न किया जाये।'

'हो सकता है उसे आज ही प्रशासन ने सूचित किया हो। वह प्रशासन में है नहीं....प्रशासन के लोग आडिट वालों को महत्व नहीं देते।' वह यह सोच ही रहा था कि फोन की घण्टी घनघनाई।

''सर, आपने देहरादून के लिए....नंबर पर काल बुक किया है?''

''जी।''

''एक मिनट होल्ड करें सर।'' एक्सचेंज से किसी युवती का स्वर सुनाई दिया।

''हां, सर बात करें।''

''हेलो...हेलो....हां...प्रीति....। अरे फोन को यह क्या हो रहा है। लाइन कट रही है ...हेलो एक्सचेंज...एक्सचेंज....।''

''जी सर।'' ऑपरेटर का स्वर कानों से टकराया।

''लाइन कट गई।''

''आप फोन रख दें सर....मैं दोबारा मिलाती हूं''

''ओ.के.।''

सामने खुली पड़ी फाइल पर नजरें गड़ाए सुधांशु कॉल की प्रतीक्षा करता रहा। आध घण्टा बीत गया। इस दौरान उसने फाइल के नोट पर एक शब्द भी नहीं लिखा और न ही उसे पढ़ा। वही पृष्ठ आघ घण्टा तक खुला रहा। एक सेक्शन अफसर आया, जिसे उसने वापस लौटा दिया।

आध घण्टा बाद कॉल लगी। आवाज साफ थी, उधर प्रीति थी।

''प्रीति, तुम्हें ट्रांसफर आर्डर मिला?''

''मिला नहीं, सूचना मिल गयी है।''

''कब मिली?''

''आज सुबह।''

''तुम्हे पहले से मालूम था?'' मन में दबी बात जुबान पर आ ही गयी।

''कैसे मालूम होता?''

''तुमने फोन किया था?''

''किसे?''

''तुमने कहा था...कहा था...मीणा को फोन करने के लिए...।''

''मीणा सर, महानिदेशक नहीं हैं ओर न ही वह मंत्रालय में हैं। ट्रांसफर मंत्रालय से किए जाते हैं।''

''ओ.के.।'' सुधांशु प्रीति के उत्तरों से अचंभित था। उसे लगा कि वह उससे नहीं अपने किसी अधीनस्थ अफसर से बातें कर रही थी।

''रिलीव होकर पटना आओगी?'' मन के गुबार को निकालकर सुधांशु ने पूछा।

''जैसा कहो।''

एक बार फिर सपाट-सा उत्तर। क्षणभर सोचता रहा सुधांशु। मन में आया कि कह दे कि पटना न आकर वह सीधे दिल्ली पहुंचे। लेकिन मन में आयी बात को दरकिनार कर वह बोला, ''साथ चलना ठीक होगा।''

''आ जाऊंगी।'' प्रीति का स्वर धीमा था।

''कब?''

''रिलीव होना मेरे वश में नहीं है। रिलीव होने की तिथि निश्चित होने के बाद ही बता पाउंगी।''

''हुंह।''

प्रीति ने फोन काट दिया।

दो मिनट बाद ऑपरेटर का फोन आया, ''सर बात हो चुकी?''

''हो गयी ...धन्यवाद।''

''थेैंक्स सर।'' ऑपरेटर कह रही थी, ''एम.टी.एन.एल. की सेवाएं लेने के लिए आपका धन्यवाद सर।''

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सुधांशु प्रीति से पहले रिलीव हो गया। उसने प्रीति को फोन कर जानना चाहा कि वह कब तक रिलीव होगी!

''निदेशक साहब टूर पर हैं। उनके लौटने के बाद ही स्पष्ट हो पाएगा।'' प्रीति ने कहा।

''मैं आज अपना आरक्षण करवा लूंगा...सामान भी पैक करना शुरू कर दूंगा...।''

''तुम दिल्ली पहुंचो....मैं तुमसे वहीं मिलूंगी।''

''ठीक है।''

लेकिन प्रीति सुधांशु से पहले ही दिल्ली पहुंच गयी। हुआ यह कि डी.पी. मीणा ने उसे फोन किया और पूछा कि वह कब रिलीव हो रही है? प्रीति ने उसे भी निदेशक के टूर से लौट आने के बाद रिलीव होने की बात कही।

''प्रीति दास।'' स्वर को खींचते हुए जिसमें एक प्रकार का वरिष्ठताभाव था मीणा बोला, ''आपका चयन जिस सीट के लिए हुआ है वहां एक सहायक निदेशक की अविलंब आवश्यकता है। महानिदेशक साहब चार बार मुझसे पूछ चुके हैं कि आप कब आ रही है।?''

''सर।'' प्रीति ने विनम्रता प्रदर्शित करते हुए कहा, ''सर, डायरेक्टर साहब के टूर से लौटने के बाद ही...।''

''कहां गए हैं डायरेक्टर ?''

''जम्मू।''

''मैं बात करता हूं उनसे....।''

''जी सर।''

मुख्यालय में जिस सीट के लिए प्रीति का चयन हुआ था वह प्रशासन में स्थानातंरण से संबध्द थी। प्रशासन में प्रोजेक्ट और प्रमोशन आदि मामले मीणा देखता था। स्थानांतरण की सीट महत्वपूर्ण थी और उस पर तैनात सहायक महानिदेशक को एक सप्ताह पूर्व चेन्नई स्थानांतरित किया गया था। वास्तविकता यह थी कि प्रीति के फोन के बाद मीणा ने महानिदेशक सी. रामचन्द्रन से प्रीति और सुधांशु के विषय में चर्चा की थी और वहां स्थानांतरण्ा से संबध्द सहायक महानिदेशक, जो उससे कनिष्ठ था और एक प्रकार से उसके अधीन भी, के कार्य से असंतुष्टि व्यक्त करते हुए कहा था, ''सर, उस स्थान पर एक चुस्त और कुशल सहायक महानिदेशक को नियुक्त करें तभी कार्य चल पाएगा। उज्वल सूद की कार्यविधि के कारण बहुत से मामले रुके हुए हैं।''

''पुट अप देयर प्रोफाइल्स।''

डी.पी. मीणा ने सुधांशु और प्रीति की प्रोफाइल्स पहले से ही निकाल रखी थीं। विभाग के सभी प्रथम श्रेणी अधिकारियों की निजी फाइलें मुख्यालय में सुरक्षित रखी जाती थीं। एडमिन-एक सेक्शन उनकी साज-संभाल करता था, और वह सेक्शन भी डी.पी. मीणा के पास था। डी.पी. मीणा अपने निर्णय संयुक्त महानिदेशक को भेजता और वह महानिदेशक को, लेकिन बहुत से मामले ऐसे भी थे जिन्हें वह सीधे महानिदेशक से डिस्कस करता था। महानिदेशक उसके कार्य से संतुष्ट थे और संतुष्टि का कारण कार्य के साथ उसका चाटुकारितापूर्ण व्यवहार और भाषा थी।

महानिदेशक के कमरे से निकल मीणा सीधे एडमिन-एक सेक्शन में गया। कमरे में मीणा के प्रवेश करते ही सेक्शन अफसर उठ खड़ा हुआ। बाबुओं में सन्नाटा छा गया। वैसे तो वहां प्रत्येक समय मरणासन्न सन्नाटा ही छाया रहता था, लेकिन बीच-बीच में बाबू अपनी गर्दनें सीधा करने के लिए एक-दूसरे से मुखातिब हो लेते थे और फुसफुसाते हुए बातें कर लिया करते थे, लेकिन जब भी मीणा, जो तब तक उप-महानिदेशक के पद पर पदोन्नत हो चुका था, उस कमरे में प्रवेश करता सुई गिरने की आवाज भी सुनाई दे जाती थी। फाइलों में बाबू कागज भी यों पलटते कि आवाज उसके अतिरिक्त कोई अन्य नहीं सुन पाता।

''स्वामीनाथन, कम हियर।'' मीणा ने बाबुओं पर उपेक्षापूर्ण दृष्टि डाली और कमरे से बाहर जाने के लिए मुड़ा।

''सर'' मीड़ा के मुड़ते ही स्वामीनाथन भी नोट पैड और पेन लेकर चश्मा संभालता हुआ उसके पीछे हो लिया था। अपने चेम्बर में पहुंच, हाथ की फाइल मेज पर पटक दरवाजे के पास सिमटे-सिकुड़े खड़े स्वामीनाथन को लक्ष्यकर मीणा बोला, ''सुधांशु दास और प्रीति दास की पर्सनल फाइल्स तुरंत लेकर आओ।''

''यस सर।'' स्वामीनाथन तेजी से मीणा के कमरे से बाहर निकला और लगभग दौड़ता-सा अपने कमरे में प्रविष्ट हुआ और दोंनो की पर्सनल फाइल्स जो पहले से ही तैयार उसकी मेज पर खी हुई थीं, लेकर मीणा को पकड़ा दीं।

मीणा तब तक मेज के पास ही खडा था। उसने फाइलों पर सरसरी दृष्टि डाली। स्वीमीनाथन हाथ बांधे खड़ा रहा।

''ओ.के.।'' मीणा बुदबुदाया और फाइलें लेकर अपने चेम्बर से बाहर निकल गया। स्वामीनाथन द्विविधा में रहा कि वह वहां खड़ा रहे या अपनी सीट पर जाए। 'साहब कुछ बोले नहीं। खड़ा रहता हूं तो मुसीबत...बोल सकते हैं कि जब मैं चेम्बर में नहीं था तब वह क्यों खड़ा रहा, और चला जाता हूं तो पूछ सकते हैं कि मेरी इजाजत के बिना क्यों चले गए थे।'

'बड़ी ही कुत्ती नौकरी है स्वामीनाथन। इससे अच्छा था मद्रास में कोई दुकान कर लेता...।' उसने सोचा, ''स्साली नौकरी तो इन अफसरों की है। एक अफसर दूसरे के लिए कैसे जान दे रहा है। स्वयं फाइलें थामकर महानिदेशक सर के पास दौड़ गया है, लेकिन यदि यही किसी बाबू का मामला होता तब उसे दुत्कार देते....कहते नौकरी करनी है तब जहां भी भेजा जा रहा है...नौकरी कर...जा वहां या नौकरी छोड़ दे।'

'बाबू बाबू का गला रेतने को तैयार रहता है...अफसर हर समय उसके लिए तलवार थामे रहता है, लेकिन एक अफसर दूसरे की मदद करने को तत्पर रहता है...ये एक-दूसरे के गुनाहों पर पर्दा डालते रहते हैं। कभी ही किसी अफसर के खिलाफ कार्यवाई होती हैं.....वह भी तब जब कोई बड़ा अफसर अपने अधीनस्थ अफसर से किसी बात से चिढ़ जाता है या उस अफसर के भ्रष्ट कारनामों से विभाग को अधिक आलोचना झेलनी पड़ रही होती है या किसी अफसर के खिलाफ कार्यवाई के लिए कोई राजनैतिक दबाव होता है।'

'जांच एजेंसियां भी अफसरों की ओर से पहले आंखें बंद करने का प्रयास करती हैं। वह कार्यवाई तभी करती हैं जब ऊपरी दबाव होता है। यह वर्ग का मामला है। गरीब घर के बच्चे भी जब इस वर्ग का हिस्सा बन जाते हैं तब उनकी मानसिकता भी बदल जाती है। वे जिस वर्ग से आते हैं उसे ही सबसे पहले भूलने का प्रयत्न करते हैं। जिन्हें आभिजात्यता विरासत में मिली है, आम आदमी के शब्द से वे नावाकिफ हैं। दफ्तर में सेक्शन अफसर, बाबू, चपरासी ....सभी उनके लिए उसी प्रकार हैं जैसे एक समय किसी जमींदार के लिए किसान और मजदूर थे। एकाउण्ट्स अफसर उनके लिए कारिन्दा की भांति हैं, जिन्हें वे जब-तब यह एहसास करवाते रहते हैं कि कल तक वह भी किसान ही था...अर्थात बाबुओं की जमात में ही था और अभी भी वह ग्रुप बी गजटेड अफसर ही है.....जिसकी औकात भी बाबुओं से एक कौड़ी ही अधिक है।'

स्वामीनाथन मुख्यालय में आने से पूर्व मद्रास में था और अपेक्षाकृत सुखी था। यद्यपि ब्यूरोक्रेट्स को उसने वहां भी उसी रूप में देखा-जाना था, लेकिन जिस सेक्शन में था वहां का वातावरण इतना दमघोंटू नहीं था। मुख्यालय में वह अनुभव करता था कि पूरे कार्यालय में कोई काली छाया मंडराती रहती है। कहीं कोई चोर आंख है जो उन पर नजर रख रही है और उनकी क्षण-क्षण की गतिविधियों की सूचना मीणा सहित अन्य उच्च अधिकारियों तक पहुंचाती रहती है।

स्वामीनाथन मुख्यालय के दमघोंटू वातावरण के विषय में तमिल भाषा में सोचता था। वह प्राय: कहता कि हर व्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही सोचता है। काम की भाषा भले ही उसकी कुछ भी क्यों न हो, लेकिन सोच की भाषा उसकी मातृभाषा ही होती है।

मीणा के चेम्बर में खड़े रहते उसे जब पन्द्रह मिनट बीत गए, वह बेचैन हो उठा। 'अधिक देर रुकना ठीक नहीं।' उसने सोचा। उसने धीरे से दरवाजा खोला और गैलरी में झांककर देखा, 'शायद मीणा आ रहा हो'', लेकिन मीणा उसे नहीं दिखा। गैलरी में बिछी लाल कार्पेट की चमक थी या हर अफसर के दरवाजे पर स्टूल पर मुस्तैदी से बैठा चपरासी था। वातावरण में एक अजीब-सी गंध व्याप्त थी। वह गंध थी कमरों में आने-जाने वालों के साथ बाहर आती रूम फ्रेशनर की मिली-जुली गंध। अफसरों के कपड़ों में बसी डियोड्रेण्ड की गंध भी वहां बस चुकी थी, लेकिन उस मिश्रित गंध के अतिरिक्त उसने एक और ऐसी गंध अनुभव की जिसने उसके अंदर एक उदासीनता उत्पन्न कर दी। उसकी बेचैनी बढ़ गयी और उसने तेजी से दबे पांव गैलरी पार की और अपने कमरे की ओर बढ़ गया।

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मीणा ने महानिदेशक से सुधांशु और प्रीति की फाइलों में आदेश ले लिया और तत्काल मंत्रालय में अपने समकक्ष अधिकारी के नाम एक डेमी ऑफीशियल पत्र लिखकर स्वामीनाथन से कहा, ''इसे एक घण्टे के अंदर डिलवर करवा दो।''

''जी सर।'' स्वामीनाथन वह पत्र लेकर मीणा के चेम्बर से निकलने ही वाला था कि मीणा बोला, ''स्वयं चले जाओ।''

''जी सर।'' स्वामीनाथन जानता था कि आदेश आदेश होता है और वह अपने कमरे में न जाकर कार्यालय से बाहर निकल गया। उसके जाने के बाद मीणा ने मंत्रालय में अपने समकक्ष अधिकारी को फोन पर स्वीमीनाथन के आने का उद्देश्य समझा दिया।

दो दिन बाद मंत्रालय से सुधांशु और प्रीति के स्थानांतरण के साथ उज्वल सूद के स्थानांतरण के आदेश आ गए थे। उज्वल सूद को उसी दिन शायं कार्यालय से निकलने के बाद, लेकिन गेट से बाहर जाने से पहले चपरासी से वापस बुलवाया गया था और स्वामीनाथन ने उसे बंद लिफाफे में उसका ट्रांसफर आर्डर पकड़ा दिया था।

उज्वल सूद ने वहीं लिफाफा खोलकर ट्रांसफर आर्डर देखा था और उसका चेहरा मुर्झा गया था। उसने केवल इतना ही कहा था, ''थैंक्स स्वामीनाथन...आपके बॉस जीते...मैं हारा...।''

''सॉरी सर।''

सूद ने स्वामीनाथन के पास ट्रांसफर आर्डर की दूसरी प्रति पर स्वीकृति देकर अपना आदेश जेब में रखा था और चुपचाप गेट से बाहर चला गया था।

स्वामीनाथन 'आपके बॉस जीते...मैं हारा।' के अर्थ तलाशता अपने कमरे में लौट गया था। उसे वह घटना याद आ गयी थी, जिसे लेकर मीणा उज्वल सूद पर बरस पड़ा था, लेकिन उज्वल सूद मीणा से जूनियर होते हुए भी अनी बात पर अड़ा रहा था।

विवाद पुरुष और महिला कर्मियों के ट्रांसफर को लेकर था। पुरुषकर्मी पिछले दस वर्षों से दिल्ली में था जबकि उसका परिवार जबलपुर में था। विभागीय नियमानुसार दस वर्ष के बाद दिल्ली से बाहर लोगों के स्थानांतरकर दिए जाते थे, लेकिन यह आवश्यक नहीं था कि उन्हें मनचाहे स्थान पर ही भेजा जाए। वह एक कुशल कर्मी था...विनम्र भी, लेकिन उसकी कमी यह थी कि न वह चाटुकारिता करता था और न ही अधिक व्यवहारकुशल था। कार्य दक्ष होने के बावजूद उसके अंदर बैठा गंवई व्यक्ति उसे सही समय पर सही निर्णय नहीं लेने देता था। हुआ यह कि एक दिन डी.पी.मीणा उसके अनुभाग में गया। वह एक ऑडिट अनुभाग था। ऑडिट में प्रशासन के किसी अधिकारी का पहुंचना अप्रत्याशित-सी घटना थी। उसके पहुंचते ही पूरे सेक्शन में हड़कंप मच गया। सेक्शन अफसर हाथ में पेन थामे सीट से उछल पड़ा तो बाबू कैसे बैठे रह सकते थे। सभी खड़े हो गये थे जैसे किसी कक्षा में विद्यालय के आचार्य के पहुंचने पर छात्र खड़े हो जाते हैं। नहीं खड़ा हुआ तो वह कर्मी, जो मात्र सीनियर ऑडीटर यानी वरिष्ठ यूडीसी था। दो मिनट ही रुका था मीणा उस अनुभाग में, लेकिन उस सीनियर ऑडीटर के बैठे रहने को उसने नोट किया था। अपने कमरे में पहुंचने के बाद उसने उस ऑडिट अनुभाग के अनुभाग अधिकारी को इंटरकॉम पर उस सीनियर ऑडीटर को भेजने के लिए कहा था।

घबड़ाया हुआ वह सीनियर ऑडीटर जब मीणा के चेम्बर में दाखिल हुआ तब गंभीर और रूखे स्वर में पूछा था डी.पी. मीणा ने, ''कितने दिनों से विभाग मेंं हो?''

''सर पन्द्रह वर्ष हो चुके हैं।''

''पहले कहां थे?''

''जबलपुर में सर।'' कांपते स्वर में सीनियर ऑडीटर बोला।

''कहां जाना चाहते हो?''

''सर, सर...।'' सीनियर ऑडीटर को लगा कि उसका भय सही नहीं है, मीणा सर तो उसकी मन की बात पूछ रहे हैं।

''मैंने जो पूछा, सुना नहीं?'' इस बार मीणा की आवाज कुछ और ऊंची थी।

''सर, मेहरबानी होगी....जबलपुर भेज दें...बच्चे ....।''

उसकी बात बीच में ही काटकर मीणा चीखा, ''तुम्हारे बच्चों का ठेका ले रखा है डिपार्टमण्ट ने....डिपार्टमण्ट से पूछकर बच्चे पैदा किए थे। इस विभाग में आते समय नहीं जाना था कि आल इंडिया ट्रांसफरेबुल जॉब है?''

''सर....।'' सीनियर ऑडीटर को लगा कि उसकी पैण्ट गीली हो गयी है।

''किसी सीनियर अफसर को आदर देना नहीं जानते और चाहते हो कि तुम्हें मनचाही जगह ट्र्रांसफर दे दिया जाये। कब से मुख्यालय में हो?''

''सर दस साल हो चुके।''

''ओ.के....।'' मीणा ने उसे घूरकर देखा और बोला, ''गेट आउट।''

''सर...सर...मुझे माफ कर दें....सर।'' सीनियर ऑडीटर की आंखें छलछला आयीं। अब उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था।

''आय से... गेट आउट....।'' मीणा इतनी जोर से चीखा कि बाहर गैलरी में बैठे चपरासी सकते में आ गए।

सीनियर ऑडीटर बाहर निकला तो मीणा ने उज्वल सूद को तलब किया, ''मिस्टर सूद'' सीनियर ऑडीटर का नाम बताकर मीणा बोला, ''अंडमान निकोबार के लिए इसका ट्रांसफर आर्डर तैयार कर लाओ।''

''सर, पिछले दिनों आपने ही इसके जबलपुर ट्रांसफर की एप्रूवल दी थी।''

''अब मैं जो कह रहा हूं.... वह करो।''

''सर पुन: नोट पुट अप करना होगा। आप ही अपनी एप्रूवल को बदल सकते है...।'' सूद कहना चाहता था कि यदि उसने उस एप्रूवल के बावजूद उस ऑडीटर को अंडमान निकोबार स्थानांरित किया तो कल को मीणा ही उसकी गर्दन पकड़कर पूछ सकता है कि ऐसा कैसे हुआ, जबकि उसने उसे जबलपुर के लिए एप्रूव किया था।

''नोट पुट अप करने में विलंब मत करो....सीधे ट्रांसफर आर्डर तैयार कर दो।''

''सर...।''

''व्वॉट?''

''उसे इस प्रकार ट्रांसफर आर्डर देना आपकी एप्रूवल के विरुद्ध होगा।''

''मैं कह जो रहा हूं।''

''ठीक है सर, मैं दस मिनट में नोट लिख लाता हूं...।''

''मिस्टर सूद...।''

''जी सर।''

''आप मुझसे जूनियर होकर मेरी अवहेलना कर रहे हैं।''

''माफी चाहूंगा सर, मैं वहीं कर रहा हूं, जो नियमानुसार है।'' सूद भी डायरेक्ट आई.ए.एस. अलाइड में था और उसे भी इस बात का गरूर था।

''ठीक है...नोट पुट अप करो।''

सूद ने नोट पुट अप कर उस सीनियर ऑडीटर के पूर्व तय स्थानांतरण को निरस्त कर कार्यालय बंद होने से पूर्व उसे अंडमान का ट्रांसफर आर्डर पकड़ा दिया था। अंडमान निकोबार का ट्रांसफर आर्डर देख वह सीनियर ऑडीटर अपनी सीट पर ही मूर्छित होकर गिर गया था। दफ्तर में अफरा-तफरी मच गयी थी, लेकिन सभी बाबुओं को घर जाने की जल्दी थी इसलिए वे रुके नहीं थे और दूसरे अधिकारियों ने उस ओर इसलिए ध्यान देना उचित नहीं समझा था क्योंकि सब तक यह सूचना पहुंच चुकी थी कि उसकी मूर्छा का कारण उसका ट्रांसफर आर्डर था और ट्रांसफर मीणा की नाराजगी का परिणाम था। मीणा के मामले में टांग अड़ाने का साहस किसी में नहीं था। वरिष्ठ अधिकारियों तक ऐसे मसले जाते ही न थे। बाबुओं के लिए चिन्तित होना उनकी पद-प्रतिष्ठा के प्रतिकूल था।

बात मीणा तक पहुंची। मीणा ने उस सीनियर ऑडीटर के सेक्शन अफसर को कहलवाया कि उस बला को ऑटो में डालकर वह उसे उसके घर पहुंचा दे और सेक्शन अफसर ने मीणा के आदेश का पालन किया था।

दूसरा मामला एक युवा महिला कर्मी का था, जो अपना स्थानांतरण मेरठ चाहती थी, क्योंकि वह वहीं की रहने वाली थी और उसे प्रतिदिन मेरठ से दिल्ली आना-जाना होता था। दिल्ली में अकेले रहना उसे खतरनाक लगता था और डेली पैसेंजरी के अपने खतरे थे। यह खतरा तब और बढ़ता प्रतीत होता जब मेरठ शटल जिससे वह लौटती थी रात देर से मेरठ पहुंचती थी। जब यह समाचार अखबारों में छपा और मेरठ शटल में चर्चा का विषय बना कि दिल्ली पलवल शटल की एक दैनिक यात्री युवती को चार युवकों ने चेन पुलिंग कर ट्रेन से उतारकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया तब से वह अधिक ही परेशान रहने लगी थी। उसे तीन वर्ष हो चुके थे नियुक्ति पाये और प्रारंभ से ही वह मुख्यालय में नियुक्त थी। अपने स्थानांतरण के लिए वह उज्वल सूद से मिली थी। सूद ने आश्वासन दिया था। उसने उसका केस मीणा के समक्ष प्रस्तुत किया था। मीणा चुप सुनता रहा था। लेकिन कोई आश्वासन नहीं दिया था। वह महिला कर्मचारी आगे भी तीन बार उज्वल सूद से मिली। तीसरी बार उज्वल सूद ने उसे मीणा से मिलने की सलाह दी, ''मीणा सर ओ.के. कर देंगे तभी आपके ट्रांसफर पर विचार संभव होगा।'' उज्वल यह नहीं कह सकता था कि वह ट्रांसफर कर ही देगा।

मीणा के पी.ए. के माध्यम से युवती मीणा से मिली। युवती को देखते ही मीणा की आंखें चमक उठीं और उसने कहा, ''एक सप्ताह बाद पता कर लेना।''

एक सप्ताह बाद मीणा ने उससे कहा, ''फिलहाल संभव नहीं है....आप दो महीने बाद मिलें।''

दो महीने बाद मीणा ने युवती से जो प्रस्ताव किया उसे सुन युवती के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी थी। मीणा का प्रस्ताव सुनते ही वह फूट-फूटकर रोने लगी थी। उसे रोता देख मीणा ने घण्टी बजायी थी और चपरासी से उज्वल सूद को बुला लाने के लिए कहा था। युवती को चेम्बर से बाहर निकल जाने का आदेश दिया था।

''उज्वल मेरठ की जिस लड़की के ट्रांसफर की आपने चर्चा की थी....मुझसे मिलने की सलाह उसे आपने दी थी?''

''सर, मैंने आपसे पूछ लिया था।''

''ओ.के....उसे आज ही दिल्ली कैण्ट कार्यालय भेज दो....इस कार्यालय योग्य नहीं है वह। मुझे काम करने वाले लोग चाहिए रोने वाले नहीं।''

''लेकिन सर।''

''लेकिन क्या?''

''कैण्ट से डेली पैसेंजरी उसके लिए....।''

''इसका ठेका विभाग ने नहीं लिया।''

''लेकिन फिर भी सर....मुझे उसमें कोई कमी नहीं दिखती ...।''

''सूद, मैं जो कह रहा हूं वह करो....आप पहले भी मुझे चलाने की कोशिश कर चुके हों...इट्ज एनफ....।''

और उसी 'एनफ' का खामियाजा भुगतने के लिए सूद को मद्रास स्थानांतरित किया गया था।

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