यह आलेख मुझे डॉ. दीप्ति गुप्ता ने भेजा था. मैं उनका हृदय से आभारी
हूं.
औरतों के नज़रिये से
व्याधि पर कविता
या कविता की व्याधि
शालिनी माथुर
साहित्य का कोई प्रयोजन तो होता ही होगा, लोकसंग्रह ,आत्माभिव्यक्ति
, संस्कृति को समृद्ध करना या फिर हिन्दी की फ़िल्म डर्टी पिक्चर की भांति एन्टरटेन्मेन्ट एन्टरटेन्मेन्ट एंड एन्टरटेन्मेन्ट।
कविता करने वालों को कहानीकारांे , नाटककारों, और निबन्धकारों की अपेक्षा अधिक स्वतंत्रता
है। कविता भाव प्रधान हो सकती है, भावना प्रधान हो सकती है , अर्थवान् भी और निरर्थक
भी । कविता एब्सर्ड भी होती है। पर कविता को कुछ न कुछ तो निरूपित करना होगा चाहे वह
निरर्थकता या एब्सर्डिटी ही क्यों न हो। कविता ने शिल्प के अनुशासन से तो स्वयं को
मुक्त कर लिया है - न छंद ,न लय, न अलंकार , न छवियां,न बिम्ब। कविता अब गाई भी नहीं
जाती ,पढ़ ली जाती है। तो क्या पढ़ कर समझी भी न जाए ? पाठक कविता से क्या अपेक्षा करे
? खास कर जब कवि कवयित्री स्वयं को नारीवाद जैसे मानवीय विषय का प्रवक्ता बताते हुए
अमानवीय रचनाएं करें, निरन्तर करते रहें और
करते ही चले जाएं। वे व्याधि पर कविता करें, इस चेतना के बग़ैर कि व्याधि से
जूझ रहे मानव समाज को कैसा लगता होगा?
बीमारी एक खास किस्म का
रूपक बनाती है- अंधता , हैज़ा , कुष्ठ , प्लेग ,टी0बी0 कैंसर और अब एड्स। अबे अंधा है
क्या , कोढ़ की तरह सड़ना , प्लेग की तरह फैलना , टी0बी0 या राजरोग से गलना , कैंसर की तरह जड़ जमाना यह सारे
शब्द और मुहावरे मनुष्य की हृदय हीनता प्रदर्शित करते है। बातचीत और बतकहियों में रोग
को मुहावरे की तरह इस्तेमाल करना एक प्रकार की कू्ररता है जिसे लोग बिना विचारे करते
रहते हैं। सूसन साॅन्टैग जो स्वयं कैंसर से पीड़ित होकर इलाज से ठीक हुई थीं अपनी पुस्तक
इलनेस एज़ मेटाफ़ोर में कहती है कि ऐसे प्रयोगों से रोग ही नहीं रोगी भी कलंकित होता
है ।वह निरूत्साहित हो जाता है , चुप्पी साध लेता है और शर्मिन्दा हो कर इलाज कराने
से झिझकने लगता है। व्याधि को रूपक बनाते ही हम व्याधि को ख़तरनाक और असाध्य बना देते
हैं। इससे रोगियों का एक अलग वर्ग तैयार हो जाता है- आइसोलेटेड - अलग थलग अपने कर्मों
का फल भोगते हुए, अपने अंत की प्रतीक्षा करते हुए।
सूसन साॅन्टैग का लेख इलनेस एज़ मेटाफ़ोर 1978 में छपा और बहुत चर्चित
हुआ। स्वयं कैंसर का इलाज करवाते समय उन्होंने पाया कि किस प्रकार बीमारी को रूपकों
और मिथकों से जोड़ने से उत्पन्न मानसिक दबाव अनेक मरीजों कीे मौत का कारण बनता है। वे
कहती हैं कैंसर केवल एक बीमारी है- (जस्ट अ डिज़ीज ) अभिशाप नहीं , सज़ा नहीं , शर्मिन्दगी
नहीं। इसका इलाज हो जाए तो यह ठीक हो जाता है।
साहित्य में क्या स्त्री दृष्टि और पुरुष दृष्टि अलग होती होगी ? यह
प्रश्न अक्सर हमारे सामने आ खड़ा होता है। आज स्तन के कैंसर पर लिखी गई पवन करण की कविता
’स्तन’ और अनामिका की कविता ‘ब्रेस्ट कैंसर’ की समीक्षा करते समय उŸार ढूंढ़ने का प्रयास
कर लेते हैं। क्या अनामिका की दृष्टि पवन करण की दृष्टि से अलग है? क्या अनामिका की
दृष्टि पवन करण की दृष्टि से अलग होनी चाहिए, क्योंकि अनामिका स्त्री हंै? क्या पुरुष
के पास पुरुष दृष्टि और स्त्री के पास स्त्री
दृष्टि होती है? या कवि चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष हो, दृष्टियां दो प्रकार की होती
हैं मर्दवादी और नारीवादी, या फिर मानवीय और अमानवीय।
स्त्री का वक्षस्थल पुरुष
कवियों का प्रिय विषय रहा है। उसका वर्णन सामान्यतः सौन्दर्य वर्णन के लिए श्रंृगारिक
भाव से किया जाता रहा है। स्त्री शरीर के उतार चढ़ावों को निरूपित करने के लिए अनेक
उपमाएं दी जाती रहीं हैं। क्या किसी पुरुष ने अपने किसी अंग के बारे में इस प्रकार
का वर्णन या निरूपण किया है ? शायद नहीं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही वर्ष
पूर्व तक कविता लेखन पूरी तरह पुरुष वर्चस्व के अधीन था। पर आज हमारे सामने जो कविताएं
हैं वे इसी सदी में लिखी गई हैं। ये कविताएं उन समयों में लिखी गई हैं जिन समयों में
जाॅन स्टुअर्ट मिल और मैरी वोल्टसनक्राफ्ट स्वतंत्रता तथा स्त्री पुरुष समकक्षता के
सिद्धान्त प्रतिपादित कर चुके थे। ये कविताएं घोषित रूप से स्वयं को स्त्री का पक्षधर
कहने वाले नारीवादी कवियों की हैं।ये स़्त्री के ‘ब्रेस्ट कैंसर’ पर लिखी गई कविताएं
हैं।
इस विषय पर द ब्यूटी मिथ में नाओमी वुल्फ़ नेे गम्भीर चर्चा की है। वे
बताती हैं कि किस प्रकार पुरुष के शरीर के नग्न निरूपण को अश्लील समझा जाता है और उस
पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है चाहे वह एड्स जैसी बीमारियों के विषय में जागरूकता हेतु
ही क्यों न किया गया हो, और किस प्रकार स्त्री के वक्षस्थल का सार्वजनिक स्थल पर प्रर्दशन
के लिए प्रयोग होता रहा है, कभी विज्ञापन के रूप में , कभी फिल्म के रूप में , कभी
गीतों के रूप में । इस प्रकार पुरुष का शरीर बेहद सम्भ्रान्त तरीक़े से ढका रहता है
जिससे वह शालीन बना रहता है, और स्त्री का
शरीर और उसकी चोली विज्ञापन और पर्दे पर थिरकती रहती है , जिससे उसका शरीर बाज़ारू बनता
है। जो संस्कृतियाँ स्त्रियों को सामान्यतः नग्न निरूपित करती हैं और पुरुष को नहीं,
वे लगातार धीरे धीरे असमानता सिखाती हैं।
भारत में भी राई नर्तकियां, बेड़िनें और नौटंकी में नाचने वाली ग़रीब
औरतें भी अपने चेहरे पर घंूघट ढककर,और छाती खोलकर दो पैसों की ख़ातिर नाचती रही हैं
और बेशऊर मर्द उन पर चवन्नियां लुटाते रहे हंै। नौटंकी देखने औरतें नहीं आतीं-नौटंकी
मर्दांे का तमाशा है। इन बेचेहरा औरतों की कोई पहचान नहीं। वे औरत ज़ात हैं,उनका वक्षस्थल
ही उनकी पहचान है। चवन्नी उसी का न्योछावर की जाती है।
पवन करण ने भी इसी विषय पर कविता लिखी है, कविता का शीर्षक है ’ स्तन
’।
’’ इच्छा होती तब वह धंसा लेता
उनके बीच अपना सिर /... ”और तब तक उन पर आंखें गड़ाये रखता, जब तक वह उठ कर भाग नहीं जाती सामने से “....या
लजा कर अपने हाथों से छुपा नहीं लेती उन्हें/...अंतरंग क्षणों में उन दोनों को/ हाथों
में थाम कर उससे कहता/ यह दोनों तुम्हारे पास अमानत है मेरी / मेरी खुशियाॅ/ इन्हें
संभाल कर रखना/ वह इन दोनों को कभी शहद के छत्ते/ तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता/
’’ ... ”वह भी जब कभी खड़ी होकर आगे आईनेके / इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती “....“मगर
रोग ऐसा घुसा उसके भीतर/ कि उनमें से एक को ले कर
ही हटा देह से।कोई उपाय भी न था सिवा इसके/ उपचार ने उदास होते हुए समझाया/...
अब वह इस बचे हुए एक के बारे में/ कुछ नहीं कहता उससे ,/ वह उसकी तरफ देखता है।/ और
रह जाता है कसमसा कर। /.... मगर उसे हर समय महसूस होता है।/ उसकी देह पर घूमते उसके
हाथ।/ क्या ढूंढ रहे है कि उस वक्त वे/ उसके मन से भी अधिक मायूस हंै।”....”उस खो चुके
एक के बारे में भले ही। एक दूसरे से न कहते हों वह कुछ। मगर वह विवश जानती है। उसकी
देह से उस एक के हट जाने से। कितना कुछ हट गया उनके बीच से। “
कवि पवन करण उक्Ÿा गद्यात्मक
पंक्तियों को स्तन शीर्षक वाली कविता के रूप में ’ स्त्री मेरे भीतर ’ नामक संग्रह
में संग्रहीत करते हैं।
पवन करण की कविता में स्त्री
शरीर पुरुष शरीर का खिलौना है, पुरुष के रमण के लिए, देखें वह स्त्री देह के लिए किस
प्रकार के उपमान प्रयोग करते हंैै वह इन दोनों को कभी शहद के छत्ते/ तो कभी दशहरी आमों
की जोड़ी कहता/। पवन करण की कविता स्त्री देह को गोश्त के टुकड़े के रूप में निरूपित
करती है जिसे पुरुष लालची निगाहों से देखता है ”और तब तक उन पर आंखें गढ़ाये रखता, जब
तक वह उठ कर भाग नहीं जाती सामने से “ पवन करण की कविता की स्त्री भी स्वयं को गोश्त का टुकड़ा ही समझती है ”वह भी जब कभी खड़ी होकर
आगे आईने के / इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती‘‘।
पोर्नोग्राफर शरीर को मन विहीन हृदय विहीन वस्तु के रूप में निरूपित
करता है आत्मीयता (इंटिमेसी) और सम्बन्ध (कनेक्शन) रहित।( सूसन ग्रिफिन )पवन करण की
एक यही कविता नहीं अधिकांश कविताएं पोर्नाेग्राफी की श्रेणी में आती है क्योंकि उनमें
शरीर (बाडी) को मन(माइंड) से अलग करके देखा गया है तथा स्त्री शरीर को पुरुष के अधिपत्य
की भूमि माना गया है। पवन करण के पुरुष के हाथों में स्त्री शरीर ही नहीं उसके अलग-अलग
अंग एक खिलौना हैं।
कविता में निरूपित पुरुष स्त्री को केवल देह के रूप में ही नहीं देह के केवल रमणीय अंगों के रूप में देख सका। देह भी ऐसी जो कैंसर से ग्रस्त है, कैंसर भी ऐसा जिससे शरीर का पूरा एक अंग काट कर निकालना
पड़ा। दुःखद तो यह है कि कविता का समर्पण नाम
लेकर किया गया, ”संगीता रंजन के लिए जिसे छाती के कैंसर के कारण अपना एक स्तन गंवाना
पड़ा। “ सभ्य समाज में एक आँख वाले , एक टांग वाले , एक हाथ वाले व्यक्ति की विकलांगता
को द्य्रोतित करने वाले शब्द कहना उचित नहीं समझा जाता , वहाँ स्त्री के एक ब्रेस्ट
को कैंसर के कारण काट दिये जाने पर ऐसी कविता लिखी गई और नाम लेकर व्याधि ग्रस्त स्त्री
को समर्पित की गई ।
स्त्री पुरुष से हीनतर है
, वह पुरुष के अधीन है, इस बात को पोर्नोग्राफ़र इतनी बार कहता है कि लोग इस बात पर
यकीन करने लगते हैं। (सूसन ग्रिफ़िन ) पवन करण की स्त्री भी अपने शरीर को पुरुष की दृष्टि
से देखती है। वह आब्जेक्टिफ़ाइड है (वस्तूकृृृत), कंट्रोल्ड ( विवश ), और ह्यूमिलिएटेड
( अपमाानित ) कि उसे कैंसर से मरने से बचने के लिए स्तन गंवाना पड़ा। ”उस खो चुके एक
के बारे में भले ही। एक दूसरे से न कहते हो वह कुछ। मगर वह विवश जानती है। उसकी देह
से उस एक के हट जाने से। कितना कुछ हट गया उनके बीच से। “ स्त्री ‘विवश’ है, पोर्नाेग्राफी
की क्लासिकल स्त्री छवि ।
पवन करण के पुरुष को इस बात का संतोष नहीं कि सर्जरी से उसकी सहचरी
को जीवन के कई नए वर्ष मिल गए।मगर उसे हर समय महसूस होता है।/ उसकी देह पर घूमते उसके
हाथ।/ क्या ढूंढ रहे है कि उस वक्त वे।/ उसके मन से भी अधिक मायूस हंै।” पवन करण को संदेह का लाभ दें तब भी पाएंगे कि कवि की सहानुभूति
स्त्री के नहीं पुरुष के प्रति है जिसका खिलौना शल्य चिकित्सा से कट गया। पुरुष के
पास शरीर भी है और मन भी क्योंकि खिलौना टूट जाने से उसका मन मायूस है और हाथ भी। पवन
करण कहते हैं कि शरीर के विरूपित हो जाने से स्त्री को हानि हो न हो पुरुष को होती
है क्यों कि वह स्त्री शरीर से उस तरह से नहीं खेल सकता जिस तरह खेलना चाहता है और पुरुष यदि स्त्री में रुचि लेना बंद कर दे तो
स्त्री का जीवन निरर्थक है क्यों कि स्त्री की प्रसन्नता इसी में है कि पुरुष का हाथ
उसकी देह से खेले।
’’ पोर्नोग्राफर स्त्री की हीनता ( इन्फीरियोरिटी ) में पूरा यकीन रखता
है। वह इस बात में इतना गहरा विश्वास रखता है कि वह इसे सिद्धान्त ( डाॅक्ट्रिन ) के
रूप में नहीं कहता। वह इसेेे एक सच्चे तथ्य (फैक्ट) के रूप में कहता है। वह यह नहीं
कहता कि मुझे यह कहना है कि स्त्री हीन होती है। स्त्री कमतर है, सामान्यतः इस बात
को वह इतनी बार कहता जाता है- इशारों से ,और
वाक्यों से, कि इस प्रश्न पर बहस की कोई गुंजायश ही नहीं रह जाती। ’’ ( सूसन ग्रिफिन
) उक्त परिभाषा पर पवन करण शत प्रतिशत सही उतरते हैं।
पवन करण अपवाद को नियम
के रूप में स्थापित करते हैं। उनकी कविता दुःख क्षोभ या खेद से नहीं लिखी गई है, न
ही ऐसा सोचने वाले पुरुष के प्रति हिकारत से। वह कविता यकीन के साथ लिखी गई है। पाठक
देख सकते है कि पवन करण यह नहीं मानते कि स्त्री को इस रूप में देखना गलत है , उन्हें
यकीन है कि स्त्री शरीर की यही उपयोगिता है। संभव है डेविल्ज़ एडवोकेट बन कर कोई कहे
कि कुछ पुरुषों की यही धारणा होती होगीे, परन्तु
यूं तो कुछ पुरुष पेडोफ़ैलिक भी होते हैं। क्या हम उन मानसिक व्याधिग्रस्त पुरूषों को
छोटे बच्चों का यौनिक और कामुकतापूर्ण नखशिख वर्णन करने की अनुमति दंेगे और पुरस्कृत
करेंगे?
पोर्नोग्राफर डिटर्मिनिस्टिक
होते हंै, वे सोचते हैं, ठीक है, लोग ऐसे ही होते हंै, और हम उन्हें वह ही दे रहे हैं
जो वे चाहते हैं। पर यह सच नहीं है। सच यह है कि संस्कृति का निर्माण हम स्वंय करते
है। (सूसन ग्रिफ़िन ) पवन करण के पात्र कीचड़ से सने हैं और यह कीचड़ भी उन्होंने खुद ही तैयार किया है। शल्य क्रिया
के बाद एक स्तन वाली स्त्रीे पवन करण के पुरुष का प्रेम नहीं पा सकती। पवन करण की स्त्री
पुरुष के हाथों विवश है और अपमानित उस पुरूष के हाथों ,जो उसके शरीर का मालिक था। पोर्नोग्राफी
का मकसद है- दूसरे के शरीर पर कब्ज़ा ( मास्ट्री आॅफ़ दीज़ अदर्स ) ।
पवन करण की इस कविता को वीभत्स कहना भी वीभत्स रस का अपमान करना है
क्योंकि वीभत्स भी एक रस है जो सामान्यीकृत हो कर पाठकों तक पहुंचाता है। पोर्नोग्राफी
में नग्नता और पीड़ा पहुँचाना शामिल हो यह ज़रूरी नहीं। उनकी कविता हृदयहीन और अमानवीय
है, जिसमें स्त्री विवश ,वस्तूकृत और अपमानित है। यह पोर्नोग्राफी की शास्त्रीय रचना है- हैवानियत
से भरी। ( मैं पाशविकता की जगह हैवानियत शब्द का प्रयोग कर रही हूं क्यांेकि पशु जगत
में ऐसे नृशंसता अकल्पनीय है। )
इसी वर्ष 2012 में
प्रतिष्ठित साहित्यकार और नारीवादी चिंतक एड्रियन रिच का निधन हो गया। 1880 में लिखे
अपने लेख ’’ कम्पलसरी हेट्रोसेक्सुअलिटी एंड लेस्बियन एक्ज़िस्टेंस’’ में वे पितृृसत्ता को पुरुष द्वारा स्त्री के शरीर, पैसे और भावना
पर अधिपत्य (मेल राइट आॅफ फ़िज़िकल , इकोनामिक एंड इमोशनल एक्सेस टु वुमन ) स्थापित करने
का एक हिंसक राजनीतिक उपकरण सिद्ध करती हैं । पवन करण कहते हैं ’’ उन दोनों को हाथों
में थामकर उससे कहता। ये दोनों तुम्हारे पास अमानत है मेरी। मेरी खुशियां इन्हें संभाल
कर रखना। ’’ स्त्री का वक्षस्थल स्त्री के अंग है या पुरुष की अमानत और अधिपत्य क्षेत्र? एड्रियन रिच ने विस्तार से विचार किया है कि किस
प्रकार मर्दवादी विवरणों और छवियों के कारण स्त्रियां स्वयं अपने ही शरीर को अपनी दृष्टि
से देख पाने में असमर्थ रहती हंै।
उधर पत्रिका पाखी के
फरवरी 2012 के स्त्री लेखन विशेषांक में ‘‘हिन्दी की समकालीन कवयित्रियों मंे शीर्ष पर विराजमान ’’ कवयित्री अनामिका की कविता
प्रकाशित हुई है, बे्रस्ट कैंसर । वे कहती हैं,
’’ दुनियां की सारी स्मृतियों
को/ दूध पिलाया मैंने, /हां, बहा दीं दूध की नदियां! , तब जाकर /मेरे इन उन्नत पहाड़ों
की /गहरी गुफाओं मंे /जाले लगे! कहते हैं महावैद्य/ खा रहे हैं मुझको ये जाले/और मौत
की चुहिया/ मेरे पहाड़ों में / इस तरह छिप कर बैठी है कि यह निकलेगी तभी जब पहाड़ खोदेगा
कोई!निकलेगी चुहिया तो देखूंगी मैं भी, सर्जरी की प्लेट में रखे खुदे फुदे नन्हें पहाड़ों
से हंस कर कहूंगी -हलो कहो कैसी रही ? अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट््टी!दस बरस की
उम्र से तुम मेरे पीछे पड़े थे,/ अंग संग मेरे लगे ऐसे, दूभर हुआ सड़क पर चलना ! बुलबुले
अच्छा हुआ फूटे !कर दिया मैंने तुम्हें अपने सिस्टम से बाहर!/मेरे ब्लाउज़ में छिपे
मेरी तकलीफों के हीरे ,हलो/कहो कैसे हो?“
“जैसे निर्मूल आाशंका के सताए /एक कोख के जाए /तोड़ लेते हैं सम्बन्ध/
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है!/जाने दो जो होता है सो होता है,मेरे किए जो हो सकता
था -मैंने किया,/ दुनियां की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैने!/,हां, बहा दीं दूध
की नदियां!/ तब जाकर /जाले लगे मेरे इन उन्नत पहाड़ों की /गहरी गुफाओं मंे !/लगे तो
लगे उससे क्या !/दूधों नहाएं और पूतों फलें मेरी स्मृतियां”
कवयित्री ने यह कविता उŸाम पुरुष ( फ़स्र्ट पर्सन )यानी ’’ मैं ’’इस्तेमाल
करते हुए लिखी है, यद्यपि कविता किसी अन्य स्त्री की व्याधि पर लिखी गई है और उन्हीं
वनिता टोपो को निवेदित की है।
बे्रस्ट कैंसर शीर्षक वाली कविता में ब्रेस्ट के लिए ’’ उन्नत पहाड़ों
की गहरी गुफाओं ’’ वाला उपमान कितना उपयुक्त है? पहाड़ों और गुुफाओं का दूध से तो दूर
दूर तक कोई सम्बन्ध है ही नहीं पर क्या व्याधि ग्रस्त अंगों के लिए सौन्दर्य वर्णन
के लिए प्रयोग किए जाने वाले उपमानों का प्रयोग उचित प्रतीत हो रहा है? उŸाम पुरुष
में लिखी इस कविता में , मेरे उन्नत पहाड़ों
की गहरी गुफाओं का प्रयोग स्त्री द्वारा स्वयं
अपना नखशिख वर्णन करने के लिए किया गया है। हमें याद होगा कि एक राज्य की भूतपूर्व
मुख्यमंत्री ने स्वयं अपनी ही मूर्तियां बनवा कर , स्वयं उनका अनावरण किया था। हिन्दी
की इस कविता में स्त्री स्वयं अपनी देह के सौन्दर्य का वर्णन करके अपनी देह को स्वयं
ही अनावृŸा कर रही है। यहां प्रश्न अनावरण का नहीं निरूपण का है।
अश्लीलता निर्वस्त्रता
में नहीं होती। सड़क पर पत्थर फोड़ती हुई स्त्री जब बच्चे को सार्वजनिक स्थान पर दूध
पिलाती है , कभी कभी मध्य तथा उच्च आय वर्ग की स्त्री भी बस या ट्रेन में ऐसा करती
देखी जा सकती हैं , तब अश्लीलता का अहसास नहीं होता। पर जब कोई स्त्री बेध्यानी का
अभिनय करती हुई जान बूझ कर सबके सामने पल्ला
सरकाती है , और ध्यान से चारों ओर देखती कि सबने उसे ध्यान से देखा या नही ंतब वह अश्लील
हरकत कर रही होती है। लम्पट पुरुष इस हरकत पर मस्त हो सकते हैैं पर ऐसा करते समय वह
उन स्त्रियों को भी निर्वस्त्र कर रही होती है जो निर्वस्त्र नहीं होना चाहतीं। ठीक
उसी तरह जिस तरह पोस्टर पर बनी नग्न और अपमानित स्त्री की छवि वहां से गुज़रने वाली
हर स्त्री को नग्न अनुभव कराती है। इसमें पूरी स्त्री जाति के वे सदस्य भी नग्न हो
जाते हैं जो नग्न नहीं होना चाहते ।
कवयित्री ‘‘संसार की
स्मृतियों को दूध पिलाया’’,‘‘बहा दीं दूध की नदियां’’ ,पदों का प्रयोग करती हैं। संसार
की स्मृतियों का ब्रेस्ट कैंसर नामक व्याधि से क्या लेना देना? इलनेस एज़ मेटाफ़ोर नामक
पुस्तक में इस विषय पर गहन चिन्तन है । चिकित्सक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि
इस व्याधि का इंसान के व्यक्तित्व से कोई ताल्लुक नहीं है, न स्वभाव से न स्मृति से
। यह व्याधि नवजात शिशुओं तक को हो जाती है। यदि स्मृतियों का कोई अर्थ लगाना भी चाहंे
तो कह सकतेे हंै कि स्मृतियों को वक्षस्थल
में सहेजा जा सकता है ,पर तब वक्षस्थल का अर्थ मन होता है। यहां पर कवयित्री मन नहीं
स्तन के बारे में बात कर रही हंै।
इसके बाद का पद है ’’तब
जाकर ’’। हम लोग हिन्दी भाषा में कहते हैं, ’’हमने कटरा से तेरह किलो मीटर चढ़ाई की
तब जाकर वैष्णों देवी के दर्शन हुए ’’, ’’पार्वती ने पर्वत पर वर्षों तप किया तब जाकर
शिव जैसा पति पाया’’, ’’सिद्धार्थ ने वर्षों तक साधना की तब जाकर ज्ञान प्राप्त हुआ
और वे बुद्ध कहलाए ’’, या ’’मैं रिज़र्वेशन कराने के लिए ’वृद्धों विकलांगों तथा महिलाओं
’ वाली टिकट खिड़की के सामने एक घंटा पंक्ति
में खड़ी रही तब जाकर रेल का टिकट मिला’’। स्पष्ट है ’तब जाकर ’ पद का प्रयोग तब किया
जाता है जब हम किसी वस्तु या अवस्था को प्राप्त करना चाहें और उसके लिए कठिन प्रयास
करें ’ तब जाकर ’ वह वस्तु या अवस्था प्राप्त हो। अनामिका अपनी कविता की प्रारम्भिक
पंक्तियों में कहती हंै, बहा दीं दूध की नदियां तब जाकर मेरे उन्नत पहाड़ों की गहरी
गुफाओं में जाले लगे और यही रूपक आरम्भ से अन्त तक चलता रहता है।
वे फैले हुए कैंसर के लिए जाले लगने का रूपक इस्तेमाल करती हैं। क्या
वे जाले लगवाना चाहती थीं ? क्या वे जाले लगवाने के लिए प्रयास रत थीं ‘‘मेरे किए जो
हो सकता था -मैंने किया,’’ ? दृष्टव्य है वे किसी छोटी मोटी बीमारी या दुःख दर्द की
बात नहीं कर रहीं, वे कैंसर की बात कर रहीं हैं , वैसा कैंसर जो इतना फैल चुका हो कि
पूरा अंग काट कर शरीर से अलग करना पडे़। व्याधि यथार्थ होती है रूपक नहीं।
वे निर्मूल आशंका पद का प्रयोग करती हंै, जैसे दो भाई निर्मूल आंशका
से पुराना सम्बन्ध तोड़ लेते है वैसे ही स्त्री ने अपने स्तनों से सम्बन्ध तोड़ लिया।
कैंसर के पूरी तरह फैल जाने के बाद ही ऐसी सर्जरी होती है। डाक्टर किसी भी अंग का रिमूवल
तभी करता है जब और कोई उपाय नहीं रहता। ऐसी सर्जरी निर्मूल आंशका से नहीं होती।
प्रसिद्ध कहानीकार मार्क
ट्वेन का कथन है कि शब्द के सही प्रयोग ( करेक्ट यूज़ ) और लगभग सही प्रयोग ( आलमोस्ट
करेक्ट यूज़ ) के बीच उतना ही बड़ा अन्तर है जितना आसमान में कड़कने वाली बिजली और जुगनू
में। उन्नत पहाड़,नन्हें पहाड़ , तकलीफों के हीरे , मौत की चुहिया ,बुलबुले, शरीर के
एक ही अंग के लिये इतने सारे परस्पर विरोधाभासी उपमान? “स्मृतियों को दूध पिलाया
,’’ ’’तब जाकर जाले लगे’’, ‘‘लगे तो लगे ’’ ’’दूधों नहाए पूतांे फलें मेरी स्मृतियां’’
यह सब पदों और शब्दों का सही प्रयोग है या लगभग सही प्रयोग? ’’
कवयित्री को इस व्याधि के ख़तरे का पूरा ज्ञान है। परन्तु कवयित्री
को मुहावरे इस्तेमाल करने का इतना शौक है कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया की तर्ज़ पर वे
कैंसर को मौत की चुहिया बताती हैं, जिसे महावैद्य ने बाहर निकाला। वे यह भूल जाती कि
महावैद्य ने जिन्हें बाहर निकाला वह चुहिया नहीं थी पूरे पहाड़ ही थे जिनमें जाले लग
गये थे। वे यह भी भूल र्गइं कि जिन्हें वे उन्नत पहाड़ बता रही थीं, उन्हें वे सर्जरी
की प्लेट में रखे नन्हें पहाड़ कहने लगीं जबकि सामान्य व्यक्ति भी जानता है कि शरीर
से बाहर निकाल दिए जाने पर शरीर के अंग कई गुना बड़े दिखाई देते हैं क्योंकि वातावरण
के प्रभाव से वे फूल जाते हैं।
मेरा उद्देश्य चीरफाड़ पर लिखी गई कविता की चीरफाड़ करना नहीं ह,ै मेरा
उद्देश्य इस ओर संकेत करना है कि अपने समय की सबसे ख़तरनाक बीमारी पर इतनी निर्दयता
, क्रूरता और संवेदनहीनता से खिलवाड़ करती हुई कविता लिखते हुए एक कवयित्री को ज़रा भी
संकोच का अनुभव नहीं हुआ ।
अंग्रेज़ी के प्राख्यात कवि कीट्स की टी0बी0 के कारण हुई मौत इतनी रोमांटिक
मानी गई ,कि अनेक लोग जवानी में वैसी मौत पाने की चाहत करने लगे। पच्चीस वर्ष की आयु
में वास्तविक जीवन में व्याधि और मौत दर्दनाक होती है। तब टी0बी असाध्य रोग था। दर्द
की असहनीयता के कारण कीट्स अफी़म खाते थे। मरने से कुछ पहले तो उन्होेंने अफ़ीम की पूरी
बोतल मंगा ली थी और उनके मित्र को भय लगने लगा था कि दर्द से छुटकारा पाने के लिए वे
कहीं पूरी बोतल खा कर खुदखुशी न कर लें। कीट्स को अपने जीवन की क्षण भंगुरता का दुःख
था, उन्हें अपनी बीमारी से तकलीफ़ थी। उन्होंने अपनी समाधि के पत्थर पर लिखे जाने वाले
हर्फ़ खुद ही लिखे थे, ’’ यहाँ सो रहा है वह व्यक्ति, जिसका नाम पानी पर लिखा था
’’ (हियर लाइज़ ही हूज़ नेम वाज़ रिट इन वाटर्स)। आज उमड़ने और कल मिट जाने का उन्हें दुःख
था। व्याधियां यथार्थ होती हैं रूपक नहीं। जवानी में बीमार होकर तपेदिक से मर जाना
तमाशबीनों के लिए रूमानी हो सकता बीमार के लिए नहीं। मौत चुहिया नहीं होती ।
हम अनामिका की इस कविता का सहानुभूति पूर्ण पाठ करें और उन्हें इस बात
का श्रेय देना भी चाहें तो नहीं दे सकते कि वे यह यह कह रही हैं कि हिंसक दृष्टि वाले
पुरुषों से दस वर्ष की बच्ची भी त्रस्त है और स्त्री को अपने वक्षस्थल के कारण अपमानित
और जोखिम ग्रस्त (वल्नरेबल) होना पड़ता है
, इसलिए बेहतर है कि वह अंग हो ही न। परन्तु वे यह नहीं कह रहीं । वे प्रारम्भ से अन्त
तक वक्षस्थल का वर्णन सौन्दर्य बोधक उपमानों के साथ करती हैं और अन्त में उल्लास से
भर उठती हैंै ‘‘ बुलबुले अच्छा हुआ फूटे’’ ,कि अंग काट दिए गए तो अच्छा हुआ।शरीर के
अंग का कटना दारूण दुःख होता है। क्या कोई भी स्त्री या पुरुष अपने शरीर को कटवा डालना
चाह सकता हैै, और कटवा डालना भी व्याधि से ग्रस्त हो कर जिसे पाने के लिए स्त्री ने
दूध की नदियां बहा दीं , और व्याधि भी ऐसी जो जाले की तरह फैल गई और अंग काट कर ही
ठीक हो सकी क्योंकि यदि नहीं काटा जाता तो व्यक्ति की मृत्यु हो हो सकती थी। अन्तिम
हृदय हीन पंक्यिां है- लगे तो लगे उससे क्या !/दूधों नहाएं और पूतों फलें मेरी स्मृतियां”।
मुहावरे इस्तेमाल करने को उतावली कवयित्री यह बताना भूल गईं कि ऐसी कौन सी स्मृतियां
है जो मन का नहीं स्तन का दूध पीती हंै।अनामिका की कविता रोगी का मनोबल बढ़ाने का केवल
नाटक करती है। दरअसल अनामिका भी स्त्री शरीर को पोर्नोग्राफ़र की दृृष्टि से ही देखती
हैें।
‘‘पोर्नोग्राफर शरीर और मन
का द्वैेत स्थापित करता है। पोर्नोग्राफ़र असामान्य होता है,वह स्त्री को अपने शरीर से नफ़रत करना सिखाता है।’’
(सूसन ग्रिफ़िन ) क्या कोई भी सामान्य बुद्धि वाला स्त्री पुरुष या बच्ची बच्चा अपने
शरीर को कटवा डालने पर खुश हो सकता हैै? अनामिका की कविता में स्त्री बहुत खुश हैै,वहसर्जरी
की प्लेट में रखे अपने कटे हुए अंगों से हंस
कर बातें कर रही है - हलो कहो कैसी रही ? पवन करण का पुरुष स्त्री को पोर्नोग्राफ़र
की दृृष्टि से निरूपित कर रहा है और अनामिका की स्त्री पोर्नोग्राफ़र की दृृष्टि से
निरूपित हो रही है।
सूसन ग्रिफिन का कहना है कि पोर्नोग्राफी सैडिज्म है। ’’ एक औरत जब
ऐसी सड़क या मुहल्ले में प्रवेश करती है जहाँ स्त्री शरीर की पोर्नोग्राफ़िक छवियाँ प्रर्दशित
की गई हों , वह तुरन्त शर्मिन्दा हो जाती है। पोर्नोग्राफिक छवियों की वीथि में प्रवेश
करते ही वह स्वयं ही उनमें से एक छवि हो जाती है कि वह उसका शरीर है जो सार्वजनिक प्रदर्शन
के लिए लगाया गया है। यदि वह स्वयं भी पोर्नोग्राफी में रूचि रखती है तो वह पोर्नोग्राफिक
स्पेक्युलेशन का विषय बनती है।यदि वह दहशत में आ जाती है और ऐसी छवि के प्रति घृणा
से विमुख हो जाती है , तो वह पोर्नोग्राफी की शिकार (विक्टिम) बन जाती है। इस प्रकार
बिना अपमानित हुए वह पोर्नोग्राफी से बच नहीं सकती। इस तरह पोर्नोग्राफी सारी महिलाओं
के प्रति सेडिज्म का उपकरण बनती है। ’’ नाओमीे वुल्फ़ भी पोर्नोग्राफी की पत्रिकाओं
के सार्वजनिक पोस्टरों में पीटी जाती हुई
, खून से सराबोर , हाथ पांव बंधी हुई स्त्री की छवियों का उदाहरण देेती हैं ।अनामिका
की स्त्री पोर्नोग्राफी की विक्टिम है।
पवनकरण और अनामिका ने व्याधि पर ही कविता नहीं लिखी हंै उन्हांेने स्तन
की व्याधि पर पर कविता लिखी है। स्तन एग्ज़ाॅटिक है। क्या वे किसी अन्य अंग के रिमूवल
पर ऐसी कविता लिखते? क्या वे एम्प्यूटेशन से काटी गई टांगों से पूछतीं कहो कैसी हो
प्यारी बहनों, अच्छा हुआ कट र्गइं। क्या वे किसी बीमारी से निकाली गई आंखों की पुतलियों
से पूछतीं, कैसी हो प्यारी कौड़ियों, अच्छा हुआ निकाल दी र्गइं, बहुत दुखती थीं , चश्मा
पहनना पड़ता था। इन दोनों में से एक कवि की कविताएं कदाचित् बी.ए. के पाठ्यक्रम में
चलती हैं , और दूसरी कवयित्री शायद बी. ए. को पढ़ाती हैं।
एक विशेषता यह है कि पवन करण और अनामिका इन दोनों ने नाम लेकर उन स्त्रियों
पर कविता लिखी है, जिनको बे्रस्ट कैंसर हुआ। बिग बाॅस नामक सबसे घटिया टी0वी0 सीरियल
में ब्रिटेन की जेड गुडी आई थीं, जिन्होेंने भारतीय प्रतिभागी शिल्पा शेट्टी को डाॅग
(कुŸाा) कह कर तमाशा खड़ा किया था। जेड गुडी की भी कैंसर से ही मृत्यु हुई थी। उन्होेंने
अपनी मौत को टी0 वी0 पर प्रर्दशित करने के अधिकार बेचेे थे। इन दोनों कवियों ने भी
शायद इन स्त्रियों से अधिकार खरीदे होेंगे। बाजा़र में बेचने के लिए बीमारी और मौत
भी बहुत बड़ा तमाशा है।
इन कवियों ने भले ही कैंसर
पीड़ित स्त्रियों से अनुमति ले ली होगी पर हजारों लाखों लोग ऐसे हैं जो इस व्याधि से
जूझ रहे हैं । व्याधि लाइलाज नहीं, पर इलाज कष्ट साध्य है। इसके कारण का पता नहीं है,
इसलिए इसके साथ रहस्यमयता और दहशत जुड़ी हुई है। व्याधि पर ऐसी कविता पढ़ कर हजारों पीड़ितों
का मन दहशत से भर जाता है।
सिल्विया प्लाथ नामक एक महान् नारीवादी कवयित्री हुई हैं। उन्होंने
एक कवि से विवाह किया। उनकी दो संताने हुई। सिल्विया प्लाथ की कविताओं को उनके जीवन काल में ही बड़ी सराहना
मिली थी।बत्तीस साल की उम्र में अवसाद ग्रस्त हो कर सिल्विया प्लाथ ने ओवन में अपना
सिर डाल कर आत्महत्या कर ली थी। जब उन पर फिल्म बनाने की पेशकश हुई, सिल्विया प्लाथ
की पुत्री इस पर बहुत व्यथित हुई और उन्होंने अपनी मृृत माँ की अस्वाभाविक असामयिक
मृत्यु पर फिल्म बनाने को मूंगफली चबाती हुई जनता को एक परिवार की त्रासदी पर गुदगुदाने का गिरावट भरा प्रयास बताया। सिल्विया प्लाथ की
मृत्यु के समय उनकी पुत्री फ्रीडा ह्यूज़ चार वर्ष की थी,बड़ी हो कर वे कवयित्री बनीं।
फ्रीडा ह्यूज़ की कविता है-
’’और अब ,
वे एक फिल्म बनाना चाहते हैं
,
जिस तिस के लिए ,
जिसमें इतनी भी क्षमता नहीं
,
कि स्वयं कल्पना कर सकें उस
शरीर की
जिसका सिर तंदूर में पड़ा हो
,
वह शरीर जो अपने बच्चों को
अनाथ छोड़ कर जा रहा हो।
वे सोचते हंै , मैं उन्हें
अपने माँ के शब्द दे दूं ,
जिन्हें वे अपने बनाए हुए हैवान
पुतले के मुंह में ठूंस सकें-
उनकी सिल्विया - आत्मघाती कठपुतली
।’’
सिल्विया प्लाथ की बेटी की कविता उन शवभक्षी लोगों पर प्रहार करती है
जिन्हें जानने की उत्सुकता और लालसा है कि ओवन में पड़े सिर वाला शव कैसा लगता है- वे
आत्महत्या को चित्रित करने को लालयित हंै। खतरनाक बीमारी को रूपक के रूप में प्रयोग
करते हुए अंगभंग के मरीज़ पर कविता लिखना और नाम लेकर समर्पित करना वैसा ही है।
यह आलेख नग्नता के खिलाफ नहीं है । यह आलेख स्त्री शरीर के पोर्नाेग्राफिक
निरूपण के खिलाफ है और व्याधि के हृदयहीन क्रूर निरूपण के खिलाफ भी। ऐसी कविताएं पोर्नोग्राफी
के उपभोक्ताओं के लिए लिखी जाती है। ऐसी कविताओं से पोर्नोग्राफी के नए नए उपभोक्ता
भी बनते हैं। यह एक फायदेमंद व्यवसाय हैै।
पवन करण की कविताओं से मेरा परिचय भले ही पहली बार पिछले ही वर्ष हुआ
जब मैंने उनकी पुस्तक ‘‘स्त्री मेरे भीतर’’ पढ़ी ,परन्तु पुस्तक में उल्लेख है कि उन्हेें
अनेेक पुरस्कार मिल चुके हैं। ‘‘स्त्री मेरे भीतर ’’में संग्रहीत पवन करण की एक यही
कविता नहीं अनेक अन्य कविताएं भी पोर्नोग्राफी
की शास्त्रीय रचनाएं है जिनमें स्त्री विवश ,वस्तूकृत और अपमानित है।
यह समय कुछ ज़रूरी सवाल उठाने का है। स्त्री के शरीर के पोर्नोग्राफिक
निरूपण और व्याधि पर अनुत्तरदायित्वपूर्ण अमानवीय और कू्रर कविता के विषय में औचित्य
का प्रश्न उठाना मैं ज़रूरी समझती हूं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या केवल कवियों के
पास ही है? पाठकों के पास भी तो कोई अधिकार होंगे? मैं पाठकों के अधिकार का प्रयोग
करते हुए यह प्रश्न उठा रही हूं।
शेयर मार्केट में एक
फिनाॅमिना होता है ,इसमें कुछ दलाल मिल कर एक समूह बना लेते हंै जिसको कार्टेल कहते
हैं। वे लोग मिल कर किसी भी बेहद घटिया कम्पनी के शेयर खरीदते जाते हैं जिससे उस का
मूल्य अस्वाभाविक रूप से बढ़ जाता है। इससे घटिया कम्पनी को लाभ होता है। वे ही लोग
मिल कर कम्पनियों के शेयरों के दाम अस्वाभाविक रूप से घटाते बढ़ाते रहते हैं । कार्टेल
बनाना हमारे देश में आर्थिक अपराध माना जाता है। आपको याद होगा कि केतन पारेख आदि दलाल
एक बार इसी अपराध में जेल भी गए थे। कार्टेल को इस सब से भले ही लाभ होता हो पर इससे
देश की अर्थव्यवस्था नष्ट हो जाती है।
हिन्दी के कवियों के
कार्टेल ने पवन करण पर दांव खेला है। कार्टेल के लाभ हानि के बारे में नहीं कह सकती,
पर इससे साहित्य की हानि तो हुई ही है। साहित्य में इस अपराध की कोई सज़ा नहीं। यह एक
खुला खेल है। इस बाजा़र में स्त्री शरीर सबसे ज्यादा बिकाऊ चीज़ है। पर क्या व्याधियां
भी इसमें बेची जाएंगीं ? मेरे प्रश्न स्त्री शरीर के बारे में ही नहीं व्याधि के बारे
में भी हंै। ये व्याधि पर लिखी कविताएं हैं या ये व्याधि ग्रस्त कविताएं हैं , उन कवियों
द्वारा लिखी हुई हृदयहीन कविताएं जिन्हें कविताएं लिखते चले जाने की व्याधि है ?
हिन्दी साहित्य में
स्त्री की इस दशा का ज़िम्मेदार कौन है?
इस प्रश्न के उŸार में हमारे कवियों का कार्टेल मौन
है।
(कवि
धूमिल की कविता पर आधारित)
व्याधियां यथार्थ होती हैं रूपक नहीं। बीमारी की
गम्भीरता , बीमारी के साथ जुड़ी तकलीफ़ ,असहनीय दर्द , दुर्बलता ,जीर्ण होते हुए शरीर,
बिस्तर पर पड़े रहने की मजबूरी , अंगों के कट जाने , शरीर के विरूपित हो जाने और अपने
परिवार जनों और हमदर्दो की आंखों से बरसती सहानुभूति और उनके चेहरों परा लिखे ख़ौफ
से आंकी जाती है। बीमारी को इतनी बेदर्दी बेरहमी और गै़र जिम्मेदारी से निरूपित करने
वाले हिन्दी के शीर्षस्थ माने जाने वाले ये कवि कवयित्री नृशंसता की हद तक संवेदनहीन
हैं।
अंग्रेज़ी में वेश्यावृŸिा करवाने को फ़्लेश ट्रेड कहते हैं जिसमें स्त्री
एक व्यक्ति न हो कर गोश्त होती है केवल गोश्त। पवन करण और अनामिका दोनों स्त्री शरीर
के लिए ऐसे उपमानों और रूपक का प्रयोग करते है कि वे स्त्री को व्यक्ति की जगह फ़्लेेश
बना देते है। अनामिका की कविता शरीर के प्रति अनसेल्फ़कांशस बनाने वाली कविता नहीं है
यह शरीर के प्रति अतिरिक्त सजगता मिटाने वाली कविता भी नहीं है। अनामिका की कविता की
स्त्री भी स्वयं को गोश्त का टुकड़ा ही समझती
है अन्तर यह है कि पवन करण की कविता की ‘‘वह विवश जानती है। उसकी देह से उस एक के हट
जाने से। कितना कुछ हट गया उनके बीच से। ’’ और अनामिका की कविता की स्त्री ‘‘सर्जरी
की प्लेट में रखे खुदे फुदे नन्हें पहाड़ों से हंस कर कहती है...अंततः मैंने तुमसे पा
ही ली छुट््टी! ’’गोश्त का टुकड़ा हट जाने से वह उल्लास से भर जाती है। उल्लास का अन्दाज़
आप इसी बात से लगा सकते हैं कि अनेक कहावतों और मुहावरों से युक्त इस कविता में बारह
विस्मयादि बोधक चिन्ह हैं।
आज से सौ वर्ष पहले जन्मे लेखक मंटो ने एक कहानी लिखी थी ‘ठंडा गोश्त’।
चर्चित होने की लालसा से प्रेरित हो कर पोर्नोग्राफिक माइंड से लिखने वाले अनेक अन्य
रचनाकार अपने घटियापन को न्यायसंगत ठहराने के लिए आजकल यह कहते पाए जाते हैं कि अश्लीलता
का आरोप तो मंटो पर भी लगाया गया था । ऐसे
लोगों को यह अहसास ही नहीं, कि मंटो की उस मार्मिक कहानी का ध्वन्यार्थ था कि मानव
शरीर को गोश्त समझ कर व्यवहार करने वाला व्यक्ति निर्वीर्य हो जाता है। उस कहानी मेें
यह ध्वनि इतनी प्रखर थी कि पाठक उस ध्वनि को आज भी नहीं भूले । (स्तन तथा ब्रेस्ट कैंसर
इन दोनों गर्हणीय कविताओं के साथ मंटो की उस हृदय स्पर्शी रचना का उल्लेख मात्र करने
का भी मुझे खेद है।) मैं यहां यह भी स्पष्ट कर दूं कि यह टिप्पणी स्तन और ब्रेस्ट कैंसर
इन दो कविताओं पर है, इन कवियों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर नहीं।
बचपन में अध्यापिकाएं
हमसे कहती थीं- गाय पर निबन्ध लिखो। बच्चे लिखते थे- गाय के दो सींग होते हैं, चार
टांगंे होती है , एक पूँछ होती है , चार थन होते हैं। गाय हमें दूध देती है। गाय हमारी
माता है। कुछ बडे़ हो गए तो हमने एक चुटकुला सुना। अध्यापिका ने बच्चों से गाय पर निबन्ध
लिखने को कहा। सब बच्चे लिखने लगे। दो बच्चे कक्षा से बाहर चले गए। थोड़ी देर में वे
कक्षा में लौटे। उनके साथ एक गाय थी । वे गाय के शरीर के ऊपर कलम और स्याही से निबन्ध
लिख कर गाय को कक्षा में हांक लाये थे। अध्यापक के पूछने पर उन्होंने ढिठाई से कहा
आप ही ने तो कहा था कि गाय पर निबन्ध लिखो। चुटकुला सुन कर हम हंस पड़ते थे।
आज कहा जा रहा है ,
स्त्री को चर्चा से केन्द्र में लाओ। स्त्री पर कुछ लिखो। स्त्री के शरीर पर लिखी कविताएं
हैं - स्त्री के दो स्तन होते हैं / वेे पर्वत के समान होते हैं / वे दशहरी आम के समान
होते हैं/ उनमें से दूध की नदियां बहती हंै/ उनसे पुरुष खेल सकता है/ यदि उनमें से
एक कट जाए तो पुरुष के हाथ मायूस हो जाते हैं/ यदि दोनों ही कट जाएं तो स्त्री उल्लास
से भर जाती है/ आदि। पवन करण और अनामिका ने व्याधि से ग्रस्त , दर्द से दुखते हुए
, मृत्यु के भय से आक्रान्त , शल्य चिकित्सा के कारण विरूपीकृत स्त्री के शरीर पर नश्तर
से कविताएं उकेर दीं और स्त्री के रक्त स्नात अनावृत शरीर को हम सब के बीच ला खड़ा किया।
मगर इस बार इन दोनों कवियों के इस क्रूर , हिंसक , बर्बर और निहायत ग़लीज़ मजाक़ पर हंस
पाना हमारे लिए मुमकिन नहीं।
शालिनी माथुर,ए 5/6 कारपोरेशन फ़्लैट््स, निराला नगर, लखनऊ फोन
9839014660
17 मई 2012