मेरी अपनी बात
रूपसिंह चन्देल
वरिष्ठतम कथाकार, चिन्तक-विचारक और सम्पादक राजेन्द्र यादव मानते हैं कि हिन्दी कविता
मर रही है. कविता ही क्यों आज हिन्दी कहानी की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. कवि-कथाकार
चेहरे पर उदासी लिए कहते सुने जाते हैं कि पाठक की रुचियां बदल गयी हैं. पाठक नहीं
रहे. उनकी रचनाओं के पाठक क्यों नहीं रहे यह क्या वे नहीं जानते? जिन्हें हम विश्व
के महान रचनाकार मानते हैं वे आज भी क्यों उतना ही पढ़े जाते हैं जितना वर्षों-वर्षों
पहले पढ़े जाते थे. वे सदैव पढ़े जाते रहेंगे. क्यों?
वास्तविकता यह है कि रचनाकारों ने स्वयं को पाठकों से अपने को काट लिया
है. पाठक क्या चाहता है या तो वे जानते नहीं या जानना नहीं चाहते. चर्चा के फेर
और फरेब में वे वह सब लिख रहे हैं जो पाठकों को स्वीकार नहीं. ’कथादेश’ के अगस्त,२०१२ अंक में शालिनी माथुर के आलेख
’व्याधि पर कविता या कविता की व्याधि’ (कथादेश – जून, २०१२) पर प्रकाशित पाठकों की प्रतिक्रिया
इस बात का प्रमाण है. पाठकों से अधिक क्या
वे रचनाकार ईमानदार हो सकते हैं जो अपने-अपनों के बचाव में कलम भांजने लगते हैं!
एक बार पुनः लियो तोलस्तोय का उदाहरण देना चाहता हूं. एक मित्र से संवाद के दौरान उन्होंने
कहा, “मुझे आलोचकों की परवाह नहीं. मैं पाठकों के लिए लिखता हूं… रचनाकार को पाठक ही
जिन्दा रखते हैं.” इस कथन में भाषा मेरी है लेकिन भाव लियो के ही हैं.
शालिनी
माथुर का उपरोक्त आलेख मैंने ’रचना समय’ में २३ जून,२०१२ को प्रकाशित किया था (http://wwwrachanasamay.blogspot.in/2012/06/blog-post.html).
इस पर पाठकों की प्रतिक्रियाएं स्पष्ट हैं. इसी विषय को आधार बनाकर लिखा गया
डॉ. दीप्ति गुप्ता का आलेख ’कविता को लगा कैंसर’ रचना समय में १० अगस्त,२०१२ को प्रकाशित हुआ
(http://wwwrachanasamay.blogspot.in/2012/08/blog-post_10.html). इस आलेख पर पाठकों ने खुलकर अत्यंत ईमानदारी से अपनी
बात कही. लंदन के महेन्द्र दवेसर जी के पत्र की मार्मिकता हृदयविदारक है. उसी
क्रम में मैं डॉ. दीप्ति गुप्ता का एक और आलेख –’प्रतिवाद का प्रतिवाद’ प्रकाशित कर
रहा हूं, जो प्रिंट मीडिया में पहले ही चर्चित हो चुका है. आशा है कि रचना समय के पाठक
इस आलेख पर अपने सुस्पष्ट विचार लिखेंगे.
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प्रतिवाद
का प्रतिवाद
~ डा. दीप्ति गुप्ता
शालिनी जी के सुचिंतित आलेख के खिलाफ,
अनामिका जी और अर्चना जी (‘कथादेश’: संपादन सहयोगी) आप दोनों
के प्रतिवाद पढ़े और यह जानकर खेद हुआ कि आपको यह बात कतई समझ नहीं आ
रही है कि ‘ब्रैस्ट कैन्सर’ तथा ‘स्तन’ जैसी निंदनीय कविताओं से साहित्य उपकृत नही
अपितु अपकृत हो रहा है ! मैं फिर से दोहराना चाहूँगी कि अनामिका और पवन करण
जी की कवितायेँ नारी के अस्तित्व और अस्मिता पे भारी चोट करती हुई हमारे
सामने आयी हैं ! कविता जैसी साहित्यक विधा हो या नारी-विमर्श जैसा
सार्वकालिक मुद्दा, वह किसी की बपौती नहीं है कि जिसका जब जैसा मन आया, उसके
साथ दुर्व्यवहार कर लिया और उसके नाम पर अपने मन का मैल निकाल दिया !
अनामिका जी, आगे बढ़ने से पहले, मैं
जानना चाहती हूँ कि आपके द्वारा तीन पाश्चात्य लेखकों की पंक्तियों का
हिन्दीकरण उद्धृत करने के पीछे औचित्य और उद्देश्य क्या
है ??!!
१)Memory. Imagination
and the (M)Other by Dr, Sue Charlie -an
irigarayan reading of ‘Villette’ (लेखक का नाम ?)
२)माफ़ कीजिएगा, दूसरे
उद्धरण में आपने ‘विलेट’ को फ्रैंच फेमिनिस्ट ‘इरिगेरी’ की कृति बना
दिया है ! वस्तुत: ‘विलेट’ शेरेलैट ब्रौंट का उपन्यास है ! आपने उनके
नाम का तो उल्लेख दोनों स्थानों में ही नहीं किया है ! मूल लेखक का नाम देने में
कुछ परेशानी थी क्या ?
३) अमेरिकन लेखक टोनी
मॉरिसन का उपन्यास, ‘द बिलवेड’(The Beloved) जो Afro-American slave - Margret Garner के जीवन पर आधारित, कुछ अंतर कथाओं को तहत अन्य विषयों को समेटता हुआ
‘स्लेवरी’ से जुड़ा है ! यह वस्तुत: slavery के psychological impacts और
माँ-बेटी के रिश्तों की विचारशील गाथा है - इसे प्रस्तुत करने का क्या
औचित्य था, यह मेरी तुच्छ बुद्धि की समझ से परे है ! या के आप पाठकों
को शब्दों के जखीरे में उलझा कर, उन्हें असली मुद्दे से भटकाना
चाहती थी ! जैसे कि वी.आई.पी.सिन्डरोम से अभिभूत हुए लोग, मन ही मन ‘आदरयुक्त
भय’ से, सामने बोल रहे व्यक्ति के सामने ‘जी हाँ, जी हाँ’ करते नज़र आते हैं;
वैसे ही आपने यहाँ ‘पाश्चात्य लेखक सिन्डरोम’ रच कर, अपनी बात को एक सशक्त जामा
पहनने की कोशिश की है क्या ?! लेकिन जिन्होने थोडा बहुत भी पाश्चात्य साहित्य पढ़ा
है, वे यहाँ इन अप्रासंगिक उल्लेखों से खीज ही महसूस करेगें ! अफसोस
!
आप
जैसी सुधी और नारी-विमर्श का परचम सम्हालने वाली साहित्यकार यदि
संवेदनाहीन,विचारहीन ‘अरचनात्मक सृजन’ की पक्षधर होगीं तो साहित्य की सबसे सुकुमार
विधा (कविता) क्यों न तलातल में जाएगी ? साहित्य की किसी भी विधा के माध्यम से
अपने भावों और विचारों को, ‘मुक्त भाव’ से अभिव्यक्त करने का यह मतलब नहीं कि कोई
भी इंसान - चाहे वह मर्द हो या औरत- अशिष्ट और असंस्कृत हो जाए ! अनामिका जी
और पवन करण जी अपनी-अपनी कविताओं के भाव, भाषा और अभिव्यक्ति पर
ज़रा तटस्थता से दृष्टिपात करें ! साहित्यिक और आम पाठक दोनों के दिलो-दिमाग
में पहली बार(अभिधा), दूसरी बार(लक्षणा) तीसरी बार (व्यंजना) आप दोनों की
कविताओं को पढने पर, एक ही अर्थ बारम्बार उतरता है, जो कविता की उन सामान्य
विशेषताओं (विशिष्ट की तो बात ही भूल जाएँ) संवेदनात्मकता, भावात्मकता,
काव्यात्मकता और कलात्मकता से परे है, जिनके दायरे में पाठक कविता पाठ
के समय सहज ही बंधता चला जाता है और कविता के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता
है ! आपकी ‘ब्रैस्ट कैन्सर’ तथा ‘स्तन’ कविताओं को पढकर पाठक और कविता
के मध्य एक खाई बनती चली जाती है ! पाठक का भावनात्मक और मानसिक ज़ायका खराब कर,
उसे ऎसी कसैली अनुभूति देती हैं कि उसके दिलो-दिमाग पर विकृती की
तरंगे प्रहार करने लगती है ! अर्चना जी और अनामिका जी, कविता का
असली और सही अर्थ वही होता है जो प्रथम पाठ में उभर कर आता है व दिल में
समा जाता है ! उसके बाद कविता के कितने भी पुनर्पाठ किए जाए, उस पहले अर्थ की ही
गहरी और सघन परतें खुलती हैं ! अर्चना जी, आपने अपने लेख में जो यह बात कही
है कि कविता का अर्थ/भाव पहले अर्थ से, हट कर भी समझा जा सकता है, तो यह
मात्र रचना पर, सायास अपने मन के भावों को आरोपित करने का खिलवाड है और कुछ
नहीं ! विशेषकर जब कविता से बारम्बार, कुरूप और विकृत भाव उभर
कर आते हो और उन पर अर्चना जी किसी तीसरे नेत्र से, बिना बात ही खूबसूरती के
दर्शन करती हुई, दूसरों को भी उसे दिखाने का निरर्थक प्रयास करती हो, तो, यह
हरकत कुछ उसी तरह हैं जैसे किसी खुशबू रहित फूल से ज़बरदस्ती
अनिर्वचनीय सुगंध को महसूस करने का निरर्थक प्रयास करना ! ‘दिल के बहलाने को
ग़ालिब ख्याल अच्छा है ....’!
अर्चना जी की बात चलिए एक दफे
मान भी ली जाए, तो इन कविताओं में इक्का -दुक्का श्लेष अलंकार भी तो
नहीं है कि पाठक कंटेंट्स के एक से अधिक अर्थ लगा सके और दूसरा पाठ कर सके
! भई, बड़ी ही दयनीय स्थिति है इन कविताओं की ! इन कविताओं की तो चाल भी और
ताल भी इतनी बेढब और अटपटी है कि काव्यप्रेमी पाठक संज्ञाशून्य सा महसूस करे
! अर्चना जी, किसी का बचाव करने का यह तात्पर्य भी नहीं कि आप सबको
कविता पाठ करना सिखाने लगे ! जितने पाठकों ने ये कवितायेँ पढ़ी है, सभी ने इनके
खिलाफ प्रतिक्रियाएं दी हैं ! जिनमें से कुछ ‘कथादेश’ में प्रमाण रूप में मौजूद है
ही और उनके अलावा सैकड़ों की संख्या में पत्रिका से बाहर घनीभूत
होती जा रही है ! खेद और क्रोध के रूप में फूटी ये सब प्रतिक्रियाएं
साहित्य के नियमित विचारशील और संवेदनशील साहित्यकारों एवं पाठकों की हैं ! वे
दकियानूसी, रूढीवादी या कुन्द बुद्धि पाठक नहीं हैं ! वे जीवन के किसी
भी पक्ष को लेकर संकुचित और कुण्ठित सोच भी नहीं रखते यानी के उदार और विशद
दृष्टि वाले हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे अशिष्टता और अभद्रता से
लैस रचनाओं को सर-आँखों पर लें और साहित्य की गरिमा ध्वस्त करने वाले
रचनाकारों की कुंठाओं और अनर्गल बातों को नज़रंदाज़ कर, उनकी कविताओं में जबरदस्ती सौंदर्य
और संवेदनाएँ ढूंढ कर ‘वाह वाह’ करें !
ब्रैस्ट कैन्सर’ और ‘स्तन’, इन दोनों ही
कविताओं में न तो संवेदनाएँ है, न मर्मस्पर्शी भाव हैं और न ही नारी-विमर्श
है – आखिर ये हैं क्या ?
अनामिका बहना, आप शालिनी जी की भाषा को
‘मर्दवादी फटकार’ कह रही हैं – एकबारगी यह कहने से पहले आप अपनी कविता की भाषा
और भाव भी तो देखिए ! जब आप मर्दवादी भाषा में, मर्दवादी भाव कविता
में उडेलेगी तो शालिनी जी भी मर्दवादी भाषा में आपसे बात करेगी, इसमें
आपको आपत्ति क्यों ? आपका यह कहना कि आपने ऎसी नारियाँ नहीं देखी जो शालिनी
जी के अनुसार, अपने वक्षस्थल से आँचल गिरा कर अपने को एक्सपोज
करती हैं ! कोई बात नही - अपनी और पवन करन जी की कविता को देख लीजिए,
वह वक्षस्थल से आँचल गिरा कर अपने को एक्सपोज करने वाली नारी की
तरह ही है जिसे देखकर, लोग खुद शर्म से नज़रे नीची कर ले ! नारी
विमर्श या प्रगतिशीलता या ब्रैस्ट कैंसर के नाम पर ऎसी भोंडी कवितायेँ
लिखना, नग्नता नही तो और क्या है ? लफ्फाजी में निष्णात इंसान, दूसरे व्यक्ति के
वस्त्र उतारे बिना भी, उसे नग्न कर देता है - कुछ ऐसा ही आपकी और पवन जी की
कविताएँ कर रही हैं ! ब्रैस्ट कैंसर से पीड़ित - अपीड़ित, हर नारी को आपने इन
कविताओं में निर्वस्त्र कर डाला है ! ‘नारी अंग’ (स्तनों ) को बालापन से
बडेपन की अवस्था तक, अनेक रूपों में प्रस्तुत कर दिया है ! क्या यह
शोभनीय है ? श्लाघ्य है ? क्या यह काव्य-विधा, नारी और ब्रैस्ट कैंसर
जैसी गंभीर बीमारी के साथ भद्दा मजाक नहीं है ? आप उसमे कैंसर की बात कर ही
नहीं रही, सिर्फ उन्नत पहाड़ जैसे स्तनों की बात कर रही हैं ! आप
ईमानदारी से यह बता दीजिए कि इसे पढकर रोग से जूझ रही नारी के
प्रति सहानुभूति, करुणा, दर्द के एहसास जैसा एक भी भाव आपके मन में उभरा ?
नारी सौंदर्य और मातृत्व के प्रतीक अंगों को ‘खुदे फुदे नन्हे
पहाड़ों को ‘‘ हेलो, कहो, कैसी रही ??’ इस तरह संबोधित करना, मानो
उनसे हँसी ठिठोली हो रही हो जबकि कैंसर जैसा गंभीर रोग उन्हें जकडे हुए हो और
औरत की जान पे बनी हो; क्या ऎसी कविता सराहना योग्य है ? इसी तरह, पवन
करण भी नारी के वक्षस्थल को शहद का छत्ता और दशहरी आमो की ऐसी जोडी
बताते हैं जिनके बीच वे जब तब अपना सर धंसा लेते
हैं या फिर उन्हें कामुक की तरह आँखें गड़ा कर देखते रहते हैं – ये कैंसर
रोग को, स्तन पर झेल रही महिला के लिए उनकी सम्वेदनशील नज़र
है....वाह क्या नज़र है , क्या संवेदनशीलता है !!
अनामिका जी, आपने शालिनी जी द्वारा आपत्ति जताने के प्रतिवाद में लिखा है कि
कलपना और कोसना हीनतर प्रयोग हैं ! तो फिर आप अपनी कविता
में इस हीनतर प्रयोग को क्यों अपनाए हुए हैं - ‘दस वर्ष की उम्र से उनके पीछे
पड़े थे’ / जिनकी वजह से दूभर हुआ सड़क पे चलना ...यह कोसना और
कलपना नहीं है तो और क्या हैं ? आगे, आपकी मैं इस बात सहमत हूँ कि भाषा
का सार्थक प्रयोग ‘उदबोधन’ है, लेकिन अनामिका बहन, वह ‘उदबोधन’ तक ही
सीमित रहे तो बात समझ आती है - पर जब वह ‘उदबोधन’ के बजाय निकृष्ट
कामुक ‘उत्तेजन’ बन जाए तो हीनतर ही नहीं, घातक भी होता है -
साहित्य के लिए, पाठक के लिए और खुद रचनाकार के लिए ! आप माने न माने, सच्चाई यही
है ! आपकी और पवन करण जी की कविता इस तरह कौंधती है कि पाठक मन
को ‘उदात्त’ (जो कि काव्य विधा के सर्वोत्तम गुणों मे से एक
है)अवस्था में ले जाने के बजाय अनुदात्त और असात्त्विक मनोभूमि में ले जा कर
पटक देती है ! जहाँ एक ओर पवन जी की कविता कुत्सित भावों को जगाती है, वहाँ
दूसरी ओर आपकी कविता कुत्सित और वितृष्णा, दोनों भावों को उद् बुद्ध
करती है ! यह कैसा खुराफाती उद् बोधन है अनामिका जी ? आपने ठीक लिखा कि
ईसामसीह ने यह कहा कि - ‘हे ईश्वर इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते
कि ये क्या कर रहे हैं ’ - ये बात आप पर और पवन करण जी पर
सही उतरती है कि आप दोनों नहीं जानते कि आप ब्रैस्ट कैंसर जैसे गंभीर रोग से
ग्रसित नारी के स्तनों पे कामुकता, हँसी ठिठोली, अपरिपक्व संवाद, उनके आकार प्रकार
का वर्णन करते हुए – क्या कर रहे हैं ! एक गंभीर और दर्दनाक मुद्दे की
कैसी छीछालेदर की हैं आप दोनों ने ! हे ईशु, हे ईश्वर इन दोनों कवियों को
माफ करना, भविष्य के लिए सद् बुद्धि देना कि ये कभी भी न तो
कविता के साथ, न किसी के रोग के साथ और किसी रोगी के साथ इस तरह का खिलवाड
करें ! आप भले ही, विषयान्तर करते हुए अपने आलेख में, येशु,
परमहंस आदि विभूतियों के कितने भी अप्रासंगिक उदाहरण दे दें, गोल-गोल घुमाकर सबको
दिग्भ्रांत करने की कोशिश करें - इससे कुछ होने वाला नहीं ! आपकी कविता का सच तो
पहली पंक्ति से ही, परनाले की तरह उछलता हुआ बेरतीब सा बहा चला आता है
!
आगे आपने आपने ‘गुड़’ चुभलाने की आदत छुडवाने
का ठीक उदहारण दिया है, वह भी आप पर सही उतरता है यानि के किसी की भाषा ठीक करनी
हो तो, पहले आप अपनी भाषा सुधारे, अपना लेखन सुधारे ! दूसरों की प्रतिक्रिया
तो ‘क्रिया’ की अनुगूंज होती है ! जैसी पहल करने वाले की ‘क्रिया’
होगी, वैसी ही उसके बाद, दूसरों की ‘प्रतिक्रया’ होगी !
पवन जी की कविता का सन्देश साफ
है जिसे अर्चना जी उद्धृत करती हुई उसके समर्थन में बोलती दिखती है !
पवन करण जी के अनुसार, कैंसर पीड़ित नारी का एक स्तन न रहने पर
उसके प्रेमी-पति के मध्य रिश्ता भी खत्म होने लगता है – कविता में यह भाव
सन्देश देता है कि रिश्ते मात्र दैहिक होते हैं ? यदि शरीर का कोई अंग छिन्न-
भिन्न हुआ या उसका सौंदर्य खत्म हुआ, तो अपनों का प्रेम भाव भी खत्म
हो जाता है. वाह, पवन जी ! क्या सच्चे और प्रगाढ़ रिश्ते इतने थोथे होते हैं
? अपना प्रियजन चाहे औरत हो या बच्चा – गंभीर रोग से ग्रस्त
होने पर उस पर अधिक ध्यान जाता है, उस पर अधिक ख्याल और प्यार उमडता है, उसके किसी
भी अंग के चले जाने के बाद, उसका पहले से भी अधिक ध्यान रखा जाने लगता है -
खासतौर से उसकी भावनाओं का !
अनामिका
जी, आप जिस ‘सम्वेदनशील धैर्य’ की बात कर रही हैं, यदि आपने कविता लिखने से
पहले, खुद ‘संवेदनशील धैर्य’ की बात समझी होती तो, आप ऎसी कविता न
लिखती, जो पाठक मन में गांठे डालती ! गांठे कुंठा की हों या
कैंसर की, जिसके पडती हैं, उसके दुष्प्रभावों को तो उन्हें झेलने वाला ही
जानता है !
भर्त्सना
योग्य वस्तु की ही भर्त्सना की जाती है ! आज तक कालिदास, भवभूति,
प्रसाद, निराला, महादेवी, पन्त,कीट्स, यीट्स की कविताओं की तो किसी ने
भर्त्सना नहीं की क्योंकि उन्होंने पोर्न या वितृष्णा जगाने वाली कविताएँ नहीं
लिखी कभी - कवि वे भी थे ! आपकी और पवन जी की कवितायेँ पढने वाले को भर्त्सना
के लिए उकसाती है ! दोष पढने वालों का नहीं हैं - दोष है आपके लेखन का ! यह मत
भूलिए कि अगर आपकी नज़र में आपकी कविता पढने वाले पाठक ‘हडबडिया’
हो सकते हैं; तो पाठकों की नज़र में आप भी ‘हडबडिया’ और
‘गडबडिया’ कवयित्री हो सकती हैं ! आपने प्रतिवाद किया है कि लडकियों
में उग्रता वाला ‘वाई’ फैक्टर नहीं होता - ज़ाहिर है आप
में भी नहीं होगा, तो फिर आपने ‘वाई’ फैक्टर वाली कविता कैसे लिख डाली
?श्रुतियों –अनुश्रुतियों से भरी रुद्रवीणा सी - पढ़ी-लिखी,
चेतन,परिष्कृत अनामिका जी की कलम से ऎसी
अपरिष्कृत और बेसुरी कविता कैसे निकली
?
इस ‘प्रतिवादी
आलेख’ में आपने अश्वेत ‘ग्रेस निकोलस’ की कविता का जो
एक निहायत ही फूहड़ और शर्मनाक हिन्दीकरण, ‘कथादेश’ जैसी प्रतिनिधि साहित्यिक
पत्रिका में पेश किया हैं - यह पत्रिका और हिन्दी काव्य साहित्य
पर एक बदनुमा दाग है ! एकबारगी अश्लील कवितायेँ तो उत्तेजना पैदा
करती है किन्तु आपकी और पवन जी की कवितायेँ तो वितृष्णा पैदा करती हैं !
सिल्विया,हिटलर रेडह्यूज का जो आपने उल्लेख
किया है वह कितना अप्रासंगिक और बेमेल है ! कहाँ पति के प्रेम से वंचित
पत्नी की पीड़ा और कहाँ शारीरिक व्याधि - कैंसर से पीड़ित औरत की वेदना
! दोनों के मनोविज्ञान और मानसिक पीड़ा में अंतर होता है ! आपने आगे ‘ठेका’
लेने की बात कही है; अनामिका जी, ठेका किसी भी चीज़ का हो – वो भी लेखन
के क्षेत्र में – वाकई बुरा होता है ! आपने कविता की उदात्तता, गरिमा को
कैंसर लगाने का जो ठेका ले रखा है – उसे छोड़ दें, तो शालिनी जी
और हम कविता की गरिमा और सहजता की रक्षा के लिए ‘नैतिकता’
का ठेका एकदम छोड़ देगे ! सुकून भरी निस्तब्धता में जब कर्ण कटु
अभद्र सी आहट होती है, सारी कायनात चौकन्नी हो कर, उस खुरदुरे स्वर को
चुनौती देने को तत्पर हो जाती है ! आपकी और पवन जी की कविता, सबका सुकून चैन
छीनता, एक ऐसा ही खुरदुरा स्वर है, जिसने हमें चौकन्ना बना कर चुनौती
देने को तत्पर कर दिया है !
ब्रैस्ट कैंसर और स्तन जैसी फूहड़
कविताओं के पक्ष में आवाज़ उठाती, अर्चना जी; यह बताएँ कि
आज नारी, पितृसत्ता की गढ़ंतो से जकडी कहाँ बैठी है
? पितृसत्ता से मुक्त हुई, वह अपने निर्णय, मानसिक और भावनात्मक स्तर
पर खुद ले रही है ! बल्कि अब तो पति और पिता उसकी सलाह लेने लगे हैं !
वह उन्हें मशवरे देने लगी है ! पुरुष भी नारी की क्षमता और योग्यता के
प्रति आस्थावान हो गया है ! लेकिन आज नारियों की एक
जमात, मुक्त न होकर - ‘उन्मुक्त’ हुई, ‘स्वछन्द उडती’ हुई,
रुग्ण मानसिकता को लिए, इंसानियत रहित व्यवहार करने पे तुली है !
निर्लज्ज होकर अभद्र भाषा बोलती है, लिखती हैं और अपरिष्कृत
साहित्य गढती है !
अनामिका जी,
पहले आपकी उन्मुक्त कविता और उसके बाद प्रतिवाद स्वरूप, तीव्र गति से
स्फुरित होता आलेख – (बकौल आपके: ब्रैस्ट कैंसर को झेलते स्तनों वाली)
नारी की मानसिक बेड़ियों की नहीं - अपितु उन्मुक्त, स्वच्छंद नारी के
बडबोलेपन की कहानी कह रहा है ! याद रखिए, कुतर्कों के सहारे, गलत बात
को सही सिद्ध नहीं किया जा सकता ! इसलिए हमारा नेक सुझाव मानिए
और अपनी अतिवादी, मर्दवादी लेखनी को सम्हालिए तथा साहित्य को विकृत मत बनाइए
! प्रगति की बातें कीजिए किन्तु प्रगति के नाम पर अझेल लेखन मत कीजिए
! मन की तराजू में - अपनी और पाठकों की - दोनों की बातों को
तौल लीजिए और ईमानदारी से परखिए कि कौन कितने पानी में है !
हाँ, चलते-चलते अर्चना वर्मा जी से एक बात कहना चाहूँगी कि यदि आपको
लगता है विरोधी लेखकों का एक कार्टेल अभद्र और फूहड़ रचनाओं के विरुद्ध उठ
खडा हुआ है, तो आपने उन्हें ‘कर्टेल’ (Curtail) यानी उनकी काट-छांट करने में कोई
कसर छोडी है क्या ! क्योंकि उक्त कविताओं के विपक्ष में आपके पास
पहुंचे सशक्त आलेखों को या तो आपने उड़ा दिया, या इक्का दुक्का
को कतर-ब्यौत कर के, एक - आधे पेज पर छाप कर पेश कर दिया ! यह कहाँ का न्याय
है ?
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डॉ. दीप्ति गुप्ता
शिक्षा: आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी)
एम.ए. (संस्कृत), पी.एच-डी (हिन्दी)
रुहेलखंड विश्वविद्यालय,बरेली, हिन्दी विभाग में अध्यापन (1978 – 1996)
हिन्दी विभाग, जामिया
मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली में
अध्यापन (१९९६ -१९९८)
हिन्दी विभाग, पुणे
विश्वविद्यालय में अध्यापन (1999-2001)
विश्वविद्यालयी नौकरी के दौरान, भारत
सरकार द्वारा, १९८९ में ‘मानव
संसाधन विकास मंत्रालय’, नई दिल्ली में ‘ शिक्षा
सलाहकार’ पद पर तीन वर्ष के डेप्युटेशन पर
नियुक्ति (1989- 1992)
सम्मान : Fannstory.com – American Literary site पर English Poems ‘’All Time Best’ ’से
सम्मानित.
प्रकाशित कृतियाँ :
1. महाकाल से मानस का
हंस – सामाजिक मूल्यों और आदर्शों की एक
यात्रा, (शोधपरक - 2000)
2. महाकाल से मानस का
हंस – तत्कालीन इतिहास और परिस्थितियों
के परिप्रेक्ष्य में, (शोधपरक -2001)
3. महाकाल से
मानस का हंस – जीवन दर्शन, (शोधपरक 200३)
4. अन्तर्यात्रा ( काव्य
संग्रह - 2005),
5. Ocean In The Eyes ( Collection of Poems - 2005)
6. शेष प्रसंग (कहानी
संग्रह -2007),
7. समाज और सँस्कृति
के चितेरे – अमृतलाल नागर, (शोधपरक - 2007)
8. सरहद
से घर तक (कहानी संग्रह, 2011),
9. लेखक के
आईने में लेखक – संस्मरण संग्रह शीघ्र प्रकाश्य
अनुवाद : राजभाषा
विभाग, हिन्दी संस्थान, शिक्षा निदेशालय, शिक्षा
मंत्रालय, नई दिल्ली, McGrow Hill Publications, New Delhi, ICSSR, New
Delhi, अनुवाद संस्थान, नई दिल्ली, CASP Pune,
MIT Pune, Multiversity Software Company Pune,
Knowledge Corporation Pune, Unicef, Airlines, Schlumberger (Oil based)
Company, Pune के लिए अंग्रज़ी-हिन्दी
अनुवाद कार्य !
सम्प्रति : पूर्णतया रचनात्मक
लेखन को समर्पित और पूना
में स्थायी निवास !
मोबाइल : 098906 33582
ई मेल पता: drdeepti25@yahoo.co.in