लियो तोलस्तोय की जीवनी के स्थान पर इस बार प्रस्तुत है मेरे शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ’गलियारे’ का एक अंश. यह अंश हाल ही में जनसत्ता के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित हुआ है.
कल्पतरु
रूपसिंह चन्देल
प्रीति का परिश्रम सफल रहा और वह भी आई.ए.एस.
एलायड में चुनी गयी। संयोग ही कहा जाएगा कि उसका चयन भी प्ररवि विभाग के लिए हुआ। अनिवार्य
विभागीय प्रशिक्षण के लिए उसे देश के विभिन्न कार्यालयों में जाना पड़ा। सुधांशु पटना
में ही अवस्थित रहा। कभी कुछ दिनों के लिए मां उसके साथ आकर रहीं शेष समय वह अकेले
ही रहा। उसने एक मेड सर्वेण्ट खोज ली थी जो मां के रहने के दौरान भी घर के
काम कर जाती थी। इन दो वर्षों में मां कुल तीन महीने उसके पास रहीं और उन्हीं दिनों
पिता सुबोध भी दो सप्ताह रहकर गये थे। सुबोध प्राय: सुधांशु की अनुपस्थिति में पत्नी
से चर्चा करते, ''सुगन्धि, भगवान हमारा जैसा बेटा सभी को दे। बेटे
ने बहू भी काबिल खोजी....अब हम दोंनो की जिन्दगी से दलिद्दर दूर हो गये। अपना बुढ़ा़पा
सुख में बीतेगा....न हार-पतार की चिन्ता न गाय-बैलों के सानी-पानी, गोबर-घूर की परवाह। खेत बटाई को उठा देंगे और ठाठ से बबुआ के पास आकर रहेंगे।''
''बहुत ऊंचे ख्वाब हैं तुम्हारे।'' मुस्कराकर एक दिन सुगन्धि बोली
थी।
''इसमें ऊंचे ख्वाब की क्या बात! सुधांशु ने कितनी ही बार कहा
नहीं ये सब!''
''हां,
कहा तो है, लेकिन अगर बहू....।''
समझ गए थे सुबोध कि सुगन्धि क्या कहना चाहती
है। टोका, ''संस्कारी घर की लड़की है...पढ़ी-लिखी---ऊंचा ओहदेवाली हो जाने से संस्कार
थोड़े ही छूट जाते हैं।''
''अभी तो ट्रेनिंग में है। पता नहीं दोंनो साथ रह भी पाते हैं
या नहीं।''
''जरूर रहेंगे। सरकार की कोशिश यही रहती है कि पति-पत्नी साथ रहें।''
''ऐसे कह रहे हो, जैसे तुमही सरकार हो।''
हो...हो कर हंस दिए थे सुबोध, ''सब भली-भली सोचो सुधांशु
की अम्मा।''
दो वर्षों में सुधांशु ने विश्व साहित्य के महान
रचनाकारों को खोज-खोजकर पढ़ डाला। कविताएं लिखने का सिलसिला बदस्तूर जारी था। पहले वह
अंग्रेजी में लिखता था,
और एक कविता छोड़कर उसकी कोई भी कविता अंग्रेजी में प्रकाशित नहीं
हुई थी। उसने अपनी कुछ कविताएं एक वरिष्ठ कवि को भेजीं। एक सप्ताह में ही उनका उत्तर
उसे मिला। उन्होंने कविताओं की प्रशंसा करते हुए लिखा था, ''सुधांशु आपकी कविताएं अच्छी हैं, लेकिन सहजता का
अभाव है। मैं इसे अभिव्यक्ति का संकट कहना पसंद करूंगा, क्योंकि
आप सोचते अपनी मातृभाषा में और लिखते अपनी कार्यभाषा में हैं। आपकी मातृभाषा हिन्दी
है। यदि आप इन्हीं भावों को अपनी मातृभाषा में व्यक्त करें तो बहुत अच्छा होगा।''
उनके पत्र ने उसके भ्रम को तोड़ दिया था। उसने
अपनी समस्त अंग्रेजी कविताओं को फाड़कर फेक दिया। वह नये सिरे से अपने रचनाकार के विषय
में सोचने लगा। उसने हिन्दी में लिखना प्रारंभ किया। बहुत कम समय में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं
में उसकी कविताएं प्रकाशित होने लगीं। अब वह सम-सामयिक विषयों पर आलेख अंग्रेजी के
अतिरिक्त हिन्दी में भी लिखने लगा था। अंग्रेजी में उसके आलेख पढ़कर और यह जानकर कि
वह पटना में ही प्ररवि विभाग में कार्यरत है, उस जैसे साहित्य प्रेमी दो अधिकारियों ने, जिनमें एक आयकर विभाग में सहायक आयुक्त था और दूसरा रेलवे में निदेशक,
उससे संपर्क किया। वे दोंनो 'कल्पतरु' नामक संस्था के सदस्य थे। संस्था
की रविवार शाम पाक्षिक गोष्ठी होती थी। इन गोष्ठियों का आयोजन सहायक आयकर आयुक्त दिनेश
सिन्हा के घर होता। सुधांशु को भी कविताएं पढ़ने के लिए बुलाया जाने लगा। कभी-कभी वह
जाता, कविताएं सुनाता और उसे हर कविता पर दाद मिलती। वह अनुभव
करता कि वहां लोग सभी की कविताओंं की प्रशंसा ही करते थे भले ही कविता अच्छी न हो।
रेलवे के निदेशक स्वामीनाथन तमिल थे और तमिल में कविताएं लिखते थे। वह उनकी कविता समझ
नहीं पाता था जबकि शेष सभी 'वाह...वाह.... स्वामीनाथन साहब.....क्या
गजब के भाव हैं.....बहुत खूब।' वह समझ नहीं पाता कि शेष भी
उसी की भांति तमिल भाषा नहीं जानते फिर भी प्रशंसा के पुल कैसे बांध लेते हैं।'
'कल्पतरु' में स्वामीनाथन को छोड़कर सभी हिन्दी साहित्यकार थे और दो ऐसे
रचनाकार भी थे जो हिन्दी में प्रतिष्ठा पा चुके थे। जब वह उन्हें स्वामीनाथन की रचनाओं
की प्रशंसा करते देखता तब आंशकित हो उठता और कुछ गोष्ठियों में जाने के बाद उस पर उस
रहस्य से पर्दा उठ गया था। प्रत्येक गोष्ठी के बाद मंहगे खाद्य पदार्थों के साथ मंहगी
शराब की बोतलें खोली जातीं। दिनेश सिन्हा साग्रह लोगों को पेग भरने के लिए उत्साहित
करता। दिनेश का नौकर आइस क्यूब ट्रे में रख जाता। सोडा वाटर की भी व्यवस्था होती। सिन्हा
उसे भी ड्रिंक के लिए मनाता, मनुहार करता, लेकिन वह स्पष्ट इंकार कर देता। जलेबी के कुछ टुकड़े, कुछ नमकीन और एक पनीर पकौड़ा लेकर
वह शेष सामग्री की ओर देखता भी नहीं था जबकि वहां उपस्थित लोग प्लेट आते ही उस पर यों
टूटते कि दो मिनट में प्लेट की सामग्री समाप्त हो जाती। दिनेश का नौकर पर्दे की ओट
में खड़ा रहता और प्लेट खाली होते ही दूसरी प्लेट रख जाता ...खाली प्लेट उठा ले जाता।
नौकर की पत्नी किचन में पुन: खाली प्लेट भर देती, जिसे थाम नौकर फिर पर्दे की ओट आ खड़ा होता।
लोग ड्रिंक लेते और ठहाके लगाते, जो सुधांशु को कर्णकटु लगता।
कभी कोई साहित्यकार ठहाके के साथ कहता, ''सिन्हा, आज किस लाला की जेब खाली की थी?''
''गुरू, माल छको...आम खाया करो....पत्ते मत गिना करो।''
''यार,
बुरा क्यों मानते हो?
मैं ठहरा फटीचर साहित्यकार, लेकिन इतना तो समझता ही हूं कि तू अपनी टेंट से हर पन्द्रह दिन
में ये दावत नहीं कर सकता।''
''सुकांत....अगली बार आप गोष्ठी में नहीं आएंगे।'' सिन्हा बोलता।
''सच कड़वा होता है दिनेश सिन्हा। सुकांत नहीं आएंगे तो दूसरे भी
नहीं आएंगे। तुम अपनी जेब से नहीं खिला-पिला रहे.....ऐं....ऽ..ऽ...इतनी धमकी किसलिए!
दुनिया जानती है कि इनकमटैक्स और सेल्सटैक्स के कुछ अफसर रिश्वतखोर होते हैं.....और
यदि वे साहित्य में हुए तो जब तक पद पर रहते हैं तब तक साहित्य में छाये रहने की कोशिश
करते रहते हैं। लेकिन उसके बाद....।'' अविनाश बोलता।
ठहाका।
सिन्हा चुप रहता। सोचता, 'ये कुत्ते हैं...टुकड़ा मिलता
है इसीलिए इधर-उधर मेरी रचनाओं की प्रशंसा करते हैं। कुछ दिन और झेलनी होगी ये ज़िल्लत....स्थापित
होने के लिए इनके गले सींचते रहना होगा। उसके बाद....।'
''लेकिन यह बात हम सभी मानते हैं कि कमाते तो बहुतेरे हैं लेकिन
वे अपनी तिजोरी भरते हैं...नामी बेनामी सम्पत्ति बनाते हैं, जबकि दिनेश भाई उसमें से कुछ हिस्सा
हम सब पर भी खर्च करते हैं।''
''पाप धो लेते हैं दिनेश सिन्हा।'' विराट ...कोमलकांत विराट बोलता।
विराट एक स्थानीय अखबार में पत्रकार था और फीचर के साथ कविताएं लिखता था।
''बहुत हो गया .....ये सब बंद करो...वर्ना सिन्हा नाराज हो गया
तो मुफ्त की बंद हो जायेगी।'' अविनाश लंबी डकार लेता हुआ बोलता।
फिर एक ठहाका लगता और लोग अपने गिलास पुन: भरने
लगते।
''यार दिनेश, बुरा न मानना। शराब साली सिर चढ़कर बोलने लगती है....वह भी जब
मुफ्त की हो तो और अधिक।''
सुकांत कहता,
''यह पेग तुम्हारी आगामी कविता के नाम।'' और वह पूरा पेग एक साथ खाली कर जाता।
ऐसा हर बार होता था।
* * * *
दिनेश सिन्हा कवि था। अर्थशास्त्र में एम.ए.
करने के पश्चात् वह आई.आर.एस. के लिए चुना गया और उसकी पहली पोस्टिंग अहमदाबाद हुई
थी। दो वर्ष वहां रहने के पश्चात् वह बड़ौदा, सूरत होता हुआ पटना पहुंचा था। कविताएं वह आपने छात्र जीवनकाल
से ही लिख रहा था, लेकिन सिविल सेवा की तैयारी, चयन, प्रशिक्षण के दौरान साहित्य से वह दूर रहा।
अहमदाबाद पोस्टिंग के बाद व्यवस्थित होने के पश्चात वह पुन: साहित्योन्मुख हुआ। उसकी
कविताएं कुछ समाचार पत्रों के रविवासरीय परिशिष्टों, कादम्बनी
तथा कुछ लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। लेकिन जिस साहित्यिक माहौल की वह आवश्यकता
अनुभव करता वह अहमदाबाद और सूरत में उसे नहीं मिला। बड़ोदा में कुछ लोग मिले,
जुड़े, लेकिन उन्हें हल्का कवि मानकर उसने
उनसे दूरी बना ली। विवेचना करने पर उसने पाया कि उसके ब्यूराक्रेटिक रंग-ढंग से वे
लोग ही उससे अलग हो गये थे।
जब वह बड़ौदा में था उसकी शादी बनारस के एक व्यवसायी
परिवार में हुई। उसकी पत्नी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से राजनीतिशात्र में पी-एच.डी.
कर रही थी। दिनेश सिन्हा सांवले रंग, मध्यम कद, मोटी नाक और छोटी आंखों
वाला युवक था, वहीं उसकी पत्नी शुभांगी अप्रतिम सुन्दरी थी।
विवाह के समय शुभांगी की थीसिस समाप्ति के निकट थी और उसे आशा थी कि उसे बनारस के किसी
महाविद्यालय में प्राघ्यापकी मिल जाएगी। लेकिन पिता और परिवार के दबाव, जिन पर समाज द्वारा उंगली उठाए जाने का भय था, के कारण उसे विवाह करना पड़ा था।
शुभांगी स्वतंत्रचेता युवती थी और पारिवारिक
तादात्म्य स्थापित करते हुए वह अपने व्यक्तित्व के प्रति जागरूक थी। वह नहीं चाहती
थी कि वह वैसा जीवन जिए जैसा उसकी मां-नानी ने जिया, जहां प्रारंभ में पति का आदेश और
फिर बच्चों के आदेश के समक्ष उसका कोई स्वर न हो। वाणीविहीन नहीं रहना चाहती थी वह
और बड़ोदा में जब छ: महीने बीत गए उसने एक दिन दिनेश सिन्हा से बनारस जाकर यथाशीघ्र
थीसिस समाप्त कर प्रस्तुत कर आने की बात छेड़ी।
''मेरी नौकरी तुम्हें छोटी लगती है?'' दिनेश तमतमा उठा।
''मैंने यह नहीं कहा। लेकिन मैं पी-एच.डी. की डिग्री लेना चाहती
हूं।''
''मेम साहब, डिग्री में क्या रखा है। छोटी-सी प्राध्यापकी मिल जाएगी उससे.....यही
न! वह भी बनारस या आसपास मिली तब अपना जीवन क्या होगा...सोचा है?''
''मैंने प्राध्यापकी की बात नहीं की....पी-एच.डी. की बात की है।
केवल एक चैप्टर रह गया था,
जिसके नोट्स ले रखे थे। लिखना और सबमिट ही करना है। डिग्री कभी भी व्यर्थ नहीं
जाती। जीवन में कभी भी वह उपयोगी सिद्ध हो सकती है।''
''डाक्टर बन जाओगी....या राजनीति में जाने का इरादा है?''
''मेरे व्यक्तित्व की कोई स्वतंत्र इकाई नहीं होनी चाहिए?''
''अवश्य...अवश्य...मेम साहब।'' चेहरे पर व्यंग्यात्मकता ला दिनेश सिन्हा बोला, ''अपने व्यक्तित्व की स्वंतत्रता
के लिए पारिवारिक संस्था को होम कर देना चाहती हो?''
''आप इस प्रकार ऊल-जुलूल बातें क्यों कर रहे हैं?'' पहली बार शुभांगी ने संतुलन खोया।
''तो सुन लो...बहस मैं करना नहीं चाहता। दफ्तर ही उसके लिए पर्याप्त
है। शादी करने से पहले यह सब सोचना चाहिए था। एक आई.आर.एस. से शादी न करके किसी क्लर्क
से करती तो वह तुम्हारी पी-एच.डी. की डिग्री को अपने माथे पर लगाए घूमता। तुम्हारी
प्राध्यापकी को कंधे पर बैठाता, क्योंकि उसे घर चलाने और बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए
कमाऊ पत्नी की जरूरत होती। मुझे नहीं है। पैसों की कमी है? नोंटो से घर भर दूंगा...उससे तुम्हारी
सारी डिग्रियां दब जायेंगी। मेम साहब, दुनिया में डिग्री-विग्री कोई नहीं पूछता....नोंटो की वकत है।''
''आपके नोट आपको ही मुबारक मिस्टर दिनेश सिन्हा।'' दांत पीस लिए शुभांगी ने, ''मुझे डिग्री चाहिए....मेरा स्वप्न
था पी-एच.डी करना। इतना श्रम करके उसे यूं नहीं छोड़ सकती। हराम की कमाई से मैं घृणा
करती हूं।''
''मैं हराम की कमाई कर रहा हूं?'' दिनेश सिन्हा चीखा था।
''अभी आपने ही कहा....और क्या मैं देख नहीं रही। मैं ऐसे जीवन
की आदी नहीं।''
''तुम्हारे घरवाले ईमानदारी की कमाई करते हैं?''
''शत-प्रतिशत।''
शुभांगी के पिता और भाई बनारसी साड़ियों के एक्सपोर्टर
थे।
''शुभांगी ....कान खोलकर सुन लो...मैं तुम्हारी डिग्री के पक्ष
में नहीं हूं...डिग्री या मुझे...तुम्हें एक को चुनना होगा।'' कहकर पैर पटकता दिनेश सिन्हा कार्यालय
चला गया था।
और दिन भर गहन चिन्तन-मनन के बाद शुभांगी ने
पी-एच.डी. का चयन किया था। दोंनो के मध्य दो दिनों तक संवादहीनता रही थी। लेकिन तीसरे
दिन शुभांगी ने दिनेश को अपने चयन से अवगत कर दिया था। इस मध्य उसने बनारस पिता-भाइयों
से बात की थी। वस्तस्थिति स्पष्ट करते हुए कहा था, ''मुझे थीसिस पूरा करना है....जो
दिनेश नहीं चाहता। उसके विरोध के बावजूद वह बनारस आ रही है। यदि वे लोग उसका साथ नहीं
देना चाहते तो वह कोई व्यवस्था सोचकर आगे कदम बढ़ाए....।''
''कैसी बात कर रही हो बेटा। तुम सीधे घर आओ। मैं दिनेश से बात
कर लूंगा।'' पिता ने कहा था।
''आप उसे फोन नहीं करेंगे। वह एक जाहिल ब्योरोक्रेट है....इंसान
नहीं...शायद अधिकांश ब्यूरोक्रेट इंसान नहीं रह पाते...।''
''ऐसा नहीं कहते शुभांगी। दिनेश को मैं समझा लूंगा। तुम उससे कहकर
आ जाओ।''
और तीसरे दिन शुभांगी ने दिनेश को इतना ही सूचित
किया कि वह अगले दिन बनारस जाएगी। सुनकर दिनेश का चेहरा अपमान और क्रोध से लाल हो उठा
था। वह कुछ कहना चाहता था,
लेकिन बिना कुछ कहे कमरे से बाहर चला गया था।
और अगले दिन सुबह की फ्लाइट से शुभांगी बनारस
पहुंच गयी थी।
* * * *
शुंभागी ने पी-एच.डी. की और बनारस के एक महाविद्यालय
में प्राध्यापक नियुक्त हो गयी। उसके पिता ने उसके बनारस पहुंचने के बाद दिनेश से बात
की, लेकिन
उसने जिस रुखाई से उत्तर दिए उसने उन्हें आहत किया था। पिता पटना में दिनेश के पिता-मां
से मिले, लेकिन उन्होंने दो टूक उत्तर दिया, ''मेरे बेटे की कोई गलती नहीं लाल साहब। आपकी बेटी को बनारस से मोह था तो
उसे शादी ही नहीं करनी चाहिए थी।''
''मोह....?'' इस आरोप ने पिता को और अधिक घायल किया था।
''जब वह पति के साथ नहीं रहना चाहती तब या तो शादी नहीं करती....या
अब तलाक ले ले।''
''तलाक...?'' क्या कह रहे हैं सिन्हा
साहब? शुभांगी के पिता कटे वृक्ष
की भांति सोफे पर ढह गये थे।
''हम भारतीय हैं लाल साहब और भारतीय परम्पराओं को मानते हुए ही
जीना चाहते हैं। अभी हम योरोप-अमेरिका जैसा नहीं...कभी होंगे...संभव नहीं है। भारतीय
संस्कृति इसीलिए दुनिया में श्रेष्ठ है...और...।''
''यही भारतीय संस्कृति है कि पत्नी को उच्च शिक्षा से वंचित किया
जाये?'' दिनेश सिन्हा के पिता की
बात बीच में ही काटकर शुभांगी के पिता बोले, ''पुरुष कुछ भी करे, लेकिन लड़की को आगे बढ़ने का अधिकार भारतीय संस्कृति में नहीं
है?''
''होगा...दूसरे घरों में...मेरे घर में लड़की शादी तक जितना चाहे
पढ़ ले...उसके बाद उसे पति के साथ रहना होता है। मेरी बेटियां अपना जीवन सही ढंग से
जी रही हैं....।''
''शुभांगी ही कौन-सा गलत ढंग से जीना चाहती है।''
''मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता लाल साहब। लेकिन इतना कह देना
चाहता हूं कि आपकी बेटी के नखरे मेरा बेटा नहीं उठा सकता। या तो आपकी बेटी दिनेश के
अनुसार रहे या अलग हो ले....तलाक ले ले।''
''वह कुछ नहीं लेगी, लेकिन यदि आप चाहते हैं तो बेटे को बोलें कि वह तलाक की अर्जी
दे दे...शुभांगी तलाक देगी या नहीं ....यह निर्णय उसे ही करना है....मेरे लिए लड़का-लड़की
में कोई फर्क नहीं....।''
और सामने मेज पर रखी चाय और अन्य सामग्री की ओर देखे बिना ही लाल साहब सिन्हा के
घर से बाहर आ गये थे।
दिनेश ने एक वर्ष तक शुभांगी के लौट आने की प्रतीक्षा
की थी, लेकिन
जब वह नहीं लौटी और उसे यह सूचना मिली कि वह बनारस के एक महाविद्यालय में प्राध्यापक
नियुक्त हो गयी हैं तब उसने एक वकील से बात की थी। कुछ दिनों बाद दिनेश ने तलाक का
नोटिस भेजवाया, लेकिन शुभांगी ने उत्तर नहीं दिया। तलाक का
प्रॉसेस प्रारंभ हुआ, लेकिन शुभांगी ने सोच लिया था कि वह
उसे सहजता से मुक्त नहीं करेगी। करेगी तो उसके अहंकार को तोड़ने के बाद। और निरंतर पड़ने
वाली तारीखों में शुभांगी का वकील जो तर्क प्रस्तुत करता उससे दिनेश सिन्हा का पक्ष
कमजोर हो जाता। सात साल से मामला अदालत में विचाराधीन था और दिनेश सिन्हा शहर-दर शहर
घूमता पटना पहुंच चुका था। पटना स्थानांतरण उसने करवाया इसी उद्देश्य से था। उम्र उसकी
सैंतीस पार पहुंच चुकी थी। महिलाओं के मामले में उसकी प्रतिष्ठा खराब थी और व्यापारियों
में वह खासा चर्चित था। व्यापारी वर्ग उससे प्रसन्न था,क्योंकि
उसके कारण वे सफलतापूर्वक लाखों की कर चोरी कर पाने में सफल थे।
सुधांशु को यह सब जानकारी नहीं थी, लेकिन सातवीं गोष्ठी के बाद
जब वह दिनेश सिन्हा के घर से निकला सुकांत उसके साथ चल पड़ा और उसने विस्तार से दिनेश
सिन्हा के विषय में उसे बताया था।
* * * * *
''दिनेश सिन्हा ने अपने ससुर को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।'' सुकांत ने आगे बताना प्रारंभ किया, ''बनारस के अपने समकक्ष आयकर अधिकारी, जो इसका बैचमेट भी रहा था, को कहकर शुभांगी के पिता के घर
और ऑफिस में छापा मरवाया,
लेकिन उन लोंगो का व्यवसाय साफ-सुथरा होने के कारण इसे मुंह की खानी पड़ी। उन लोंगो
ने कभी आयकर चोरी नहीं की थी , जैसा कि इस देश के बड़े व्यापारी करते हैं और उस काले धन को विदेशी
बैंको में जमाकर सुख की नींद सोते हैं। देश के उस धन से दूसरे देश समृद्ध हों, क्या यह देशद्रोह नहीं है?'' सुकांत के स्वर में रोष था।
''इससे बड़ा देशद्रोह क्या होगा, लेकिन यह केवल बड़े उद्योगपति या मझोले व्यवसायी ही नहीं
कर रहे, नेता, बड़े अफसर और अभिनेता-अभिनेत्रियां
भी कर रहे हैं। इसी बिहार के कई बड़े नेताओं ने अपनी काली कमाई स्विश बैंकों में जमा
किया हुआ है। स्विश ही नहीं, जर्मनी, फ्रांस, मलेशिया....और भी कितने ही देशों के बैंक इनके पनाहगाह हैं।
बिहार ही क्यों.....देश का कोई भी राज्य ऐसे नेताओं से खाली नहीं है। जब सत्ताधीश इस
दौड़ में सबसे आगे हैं,
तब उद्योगपति क्यों पीछे रहें....इतिहास गवाह है कि उन्होंने देश की नहीं सदैव
अपनी परवाह की...ये सब देशद्रोही हैं....इन्हें
मौत की सजा मिलनी चाहिए,
लेकिन देगा कौन.... जब सजा देने वाले ही भ्रष्ट हों?''
''शत-प्रतिशत सच सुधांशु...।'' राह चलते सुकांत ने सुधांशु के चेहरे पर दृष्टि डाली, फिर बोला, ''दिनेश के कितने ही किस्से हैं....पैसा
जो लूट रहा है पट्ठा...पैसे में बड़ी ताकत होती है सुधांशु जी।''
''हां।'' सुधांशु चाहता था कि सुंकांत शीघ्र अपनी बात समाप्त करे। वह
घर जाने के लिए रिक्शा लेना चाहता था और नहीं चाहता था कि सुकांत उसके साथ उसके घर
जाये।
''सुधांशु जी, यदि आपको जल्दी न हो तो सामने रेस्टॉरेण्ट में बैठकर बातें करें....एक
कप कॉफी भी पी लूंगा आपसे।''
चेहरे पर दयनीयता लाता हुआ सुकांत बोला।
सुधांशु ने क्षणभर के लिए सोचा और रेस्टॉरेण्ट
की ओर मुड़ गया।
एक कोने की मेज पर बैठता हुआ सुकांत बोला, ''क्या लेंगे सुधांशु जी।''
''आप जो लेना चाहें।''
''मैं.....मैं कटलेट और कॉफी....।'' और उसने बेयरे की ओर इशारा किया
जो पानी के दो गिलास ट्रे पर रखे उन्हीं की ओर आ रहा था।
''जी सर।'' गिलास मेज पर रखता हुआ बेयरा बोला।
''दो प्लेट कटलेट....और कॉफी।'' सुकांत ने आर्डर किया।
''कटलेट एक प्लेट और दो कॉफी...।'' सुधांशु ने बेयरे को टोका, ''सिन्हा साहब के यहां का अभी तक
हजम नहीं हुआ।''
''अरे जनाब, आपने खाया ही क्या था....टूंगा था। आप भी कैसे कवि हैं....।''
सुधांशु ने उत्तर नहीं दिया।
''हां,
तो मैं आपको अपने दिनेश सिन्हा साहब के विषय में बता रहा था.... जनाब का पत्नी
के साथ संबन्ध रहा नहीं,
लेकिन जवानी तो जवानी ठहरी...लगे इधर-उधर हाथ-पैर मारने। अपनी पी.ए. पर नज़र गड़ा
दी। उसने नज़र पहचानी और प्रशासन के हेड से जाकर गुहार लगायी कि उसे सिन्हा जी से बचाया
जाये।''
''क्या कर दिया सिन्हा ने?'' प्रसाशन का हेड भी मनचला था।
''मेरी आबरू का प्रश्न है....।'' रो पड़ी थी पी.ए.। हेड को दया आयी, लेकिन एक अफसर, माफ करना आप भी अफसर हैं, और मैं एक अफसर की कहानी बखान
रहा हूं....तो एक अफसर दूसरे अफसर के पी.ए. को उसके पास से बिना उससे तहकीकात किये
कैसे हटा सकता था....और प्रशासन के हेड ने सिन्हा से पूछा...सिन्हा ने पी.ए. को बुलाकर
पूछा...धमकाया और सुनते हैं कि यहां तक कहा कि यदि उसने वह नहीं किया जो वह चाहता है
तो उसकी नौकरी सुरक्षित नहीं रहेगी। पी.ए. इतना डरी कि उसने अवकाश ले लिया....मेडिकल...बीमार
हो गयी। प्रशासन में उस पी.ए. की फाइल इस मेज से उस मेज घूमने लगी और एक दिन उस पी.ए.
को दिल्ली ट्रांसफर कर दिया गया। सिन्हा की समस्या जहां थी वहीं बनी रही। लेकिन सवाल
जवानी का था...पत्नी से तलाक का मामला हवा में तैर रहा था। विभाग में चर्चा थी और पट्ठा
सांड़ की तरह मस्त था। फिर पता चला कि इसने किसी व्यवसायी से पैसों की मांग ही नहीं
की, किसी कॉलगर्ल को भेजने
की बात भी कही...वह भी किसी होटल में, जिसका खर्च भी व्यवसायी को ही उठाना था। यह सिलसिला चल निकला।
और जानते हैं....इसीलिए पटना में अपना घर होने के बावजूद जनाब मां-बाप-भाई के साथ नहीं
रहते।''
सुधांशु कॉफी पीता चुपचाप सुन रहा था।
''लेकिन सिन्हा साहब का मन उनसे भी नहीं भर रहा था। 'कल्पतरु' की बैठकें होती ही थीं, और एक दिन कुमुदिनी जी किसी कवि
के साथ एक बैठक में पधारीं। कुमुदिनी जी को तो आप जानते ही होंगे?''
''उनकी एक या दो कविताएं देखी है....पढ़ी नहीं।'' सुधांशु ने शांत भाव से कहा।
''हैं वह सिन्हा की ही आयु की। बचपन में कभी चेचक निकले होंगे, जिनके दाग अभी भी स्पष्ट हैं।
गोरा रंग....कुछ भारी,
अधिक नहीं, शरीर, तीखे नाक-नक्श....एक प्रकार से
आकर्षक हैं। पति से चार वर्ष पहले उनका तलाक हो चुका है, क्योंकि पति को उन पर सम्पादकों
का नैकट्य प्राप्त करने का संदेह हो गया था, जो कि सच भी है। कुमुदिनी जी कविताएं प्रकाशित करवाने के लिए
किसी भी हद तक जाने को उद्यत रहती हैं....यश लिप्सा ने उन्हें तलाक तक पहुंचा दिया
और ऐसे ही विकट समय में सिन्हा साहब से उनकी मुलाकात हुई। एक नज़र में ही दोनों ने एक-दूसरे
की आवश्यकता पहचान ली। सिन्हा ने दिल्ली के एक प्रकाशक से शीघ्र ही उनका कविता संग्रह
प्रकाशित करवाने का आश्वासन दिया और कुमुदिनी जी सिन्हा के बंगले की जब-तब शोभा बढ़ाने
लगीं। अब वह गोष्ठी में नहीं आतीं। आतीं हैं तब जब सिन्हा उन्हें बुलाता है।'' बात बीच में ही रोककर सुकांत ने
बेयरे को इशारा किया और उसके आने के बाद मेज साफ करके कुछ देर बाद फिर दो कॉफी लाने
के लिए कहा।
''आप अपने लिए मंगा लें....मेरी इच्छा नहीं है।'' सुधांशु बोला।
''भई,
केवल एक कॉफी लाना...।''
बेयरे को आर्डर कर वह सुधांशु की ओर मुड़ा, -''सिन्हा के जीवन का यह विद्रूप पक्ष आप मेरे समक्ष क्यों उद्धाटित
कर रहे हैं?''
''वाह जनाब, अभी आप नये हैं।....आपको पता होना चाहिए कि हिन्दी साहित्य में
कैसे-कैसे लोग हैं।''
''ऐसे लोग सदैव रहे हैं...कोई नई बात नहीं है।''
''हां,
रहे हैं...और हिन्दी साहित्य ही क्यों..... पूश्किन के किस्से अजब-गजब हैं। गृहस्वामी
उन्हें महानकवि के नाते घर बुलाता...स्वागत करता और पूश्किन उसकी पत्नी ही नहीं बेटियों
तक के साथ संबन्ध स्थापित कर लेते। पढ़ा है मैंने कि एक जमींदार ने उनसे प्रभावित होकर
उनकी आवभगत की और उन्होंने उसके घर ऐसी सेंध लगायी कि उसकी पांच बेटियों पर हाथ साफ
कर गये। एक रानी ने उन्हें बुलाया...मतलब साफ है, लेकिन पहरेदार चौकन्ने ....पूश्किन को रानी के बेड के
नीचे घण्टों लेटे रहना पड़ा....तापमान शून्य से नीचे....कांपते कुड़कुड़ाते रहे लेकिन
पट्ठे ने हार नहीं मानी। रानी की मेहरबानी पाकर उसकी नौकरानी के माध्यम से भोराहरे
महल से बाहर निकल पाने में सफल रहे वह महान कवि....तो हमारे सिन्हा साहब के किस्से
कुछ अलग नहीं, बस अंतर यही है कि वह कभी
पूश्किन की दुम भी नहीं बन पायेंगे क्योंकि उनकी रचनाओं में दम नहीं है।''
''हुंह।''
''वह कितने गहरे पानी में हैं, जान गए होंगे....लेकिन पद है जनाब के पास और काली कमायी
है, जिसे वह लुटा रहा है। वह
जो चाहे कर सकता है। हम जैसे कवि अच्छी कविताएं झोले में डाले छपवाने के लिए सम्पादकों
के चक्कर लगाते रहते हैं,
लेकिन सम्पादक सिन्हा के अतिथि बनते हैं और उसकी कविताएं छपती रहती हैं जबकि हम
जैसों की सखेद वापस लौटा दी जाती हैं।''
''ऐसा होता है।''
''माफ करना सुधांशु जी....आप भी अफसर हैं, लेकिन मैं समझ चुका हूं आपको
....आपके साथ यह नहीं हो पाएगा। आप उस जैसे नहीं है। इसलिए आपको मुझसे अधिक संघर्ष
करना होगा रचनाएं प्रकाशित करवाने के लिए। आपको बता दूं ...बहुत से सम्पादक चाहते हैं
कि अफसर उनके काम आए और वे अफसर के। आप वैसा नहीं कर पाएगें शायद....और आपकी कविताएं
महीनों-सालों सप्पादकों की फाइल में दबी पड़ी रहेंगी।''
''मुझे अफसोस नहीं होगा। रचनाएं प्रकाशित करवाने के लिए मैं गलत
मार्ग नहीं अपनाऊंगा।''
''मैंने कहा न!'' अपनी बात सच सिद्ध होती देख सुकांत किलककर बोला।
बेयरा कॉफी रख गया।
''आप भी लेते तो अच्छा होता।''
''आप पियें।''
''धन्यवाद।'' कॉफी होंठों से लगाता सुकांत बोला, ''कार्लगर्ल....कुमुदिनी...ये वे
लोग हैं, जिन्हें बदले में दिनेश
सिन्हा से कुछ मिलता है,
लेकिन वह नौकर ....जो सिन्हा के यहां हम सभी के लिए खाने-पीने की व्यवस्था में
जुटा रहता है निरीह-सा....आप जानते हैं वह कौन है?''
''नहीं।''
''दिनेश सिन्हा का चपरासी। उसने यह गलती की कि सिन्हा से अपने
परिवार के रहने के लिए उसका सर्वेण्ट क्वार्टर मांगा और सिन्हा को एक गुलाम की जरूरत
थी। जिस दिन चपरासी उस क्वार्टर में आया, सिन्हा की बहुत-सी समस्याएं हल हो गयीं।''
''मसलन?''
''बंगले की सफाई, रख-रखाव, चाय-नाश्ता, लंच और डिनर...सब उस चपरासी और उसकी बीबी के जिम्मे....सिन्हा
मस्त। चपरासी की क्या औकात कि वह कुछ सौ महीने की बचत के लिए सिन्हा की गुलामी से इंकार
करता। वह फंस चुका है....और सिन्हा उसे निचोड़ रहा है। चपरासी की बीबी जवान है....बहुत
सुन्दर है....और सुनते हैं....।''
''मैं समझ गया आप जो कहना चाहते हैं।'' सुधांशु ने टोका।
''अब आप उसके व्यक्तित्व के इस निकृष्ट पहलू को समझ चुके हैं....एक
और पहलू है, जिसकी ओर मित्रों का ध्यान
नहीं गया। जाता भी कैसे! सिन्हा ने क्या किया, कैसे किया यह कैसे पता चलता....वह सब इतना सुव्यवस्थित था कि
किताब प्रेस में चली गयी....उसके कितने ही अंश कई पत्र-पत्रिकाओं में छपे ...सिन्हा
ने वाहवाही लूटी,
लेकिन काम किया दूसरे लोंगो ने।''
''किस पुस्तक की बात आप कर रहे हैं?'' क्षणभर रुककर सुधांशु पुन: बोला, ''वही जिसके धारावाहिक अंश 'स्वर्णप्रभा' पत्रिका में प्रकाशित हुए थे....कुछ
एक हिन्दी रविवासरीय ने भी प्रकाशित किए थे।''
''जी बिल्कुल वही....देश विभाजन को लेकर थी.....'गांधी बनाम जिन्ना'। शीघ्र ही वह एक प्रतिष्ठित प्रकाशक
से आने वाली है और सुना है कि कोई पायेदार केन्द्रीय मंत्री दिल्ली में उसका लोकार्पण
करेंगे।''
''उसकी क्या कहानी है?''
''जब यह योजना सिन्हा के दिमाग में आयी उन दिनों यह बड़ौदा में
था। संपर्क बहुत-से लोंगो के साथ इसके हो गये थे...खासकर दिल्ली में इसने अपनी जड़ें
जमा ली थीं। इसने दिल्ली के एक कवि, एक कथाकार, एक पत्रकार और उज्जैन के एक अन्य कथाकार को बड़ौदा बुलाया। सिन्हा
ने बड़ौदा के एक फाइव स्टार होटल में इन्हें पन्द्रह दिनों तक ठहराया। विषय से संबन्धित
सामग्री उनको उपलब्ध करवायी और वह क्या चाहता है ....कैसी पुस्तक लिखना चाहता है यह
समझाते हुए उन लोंगो से कहा कि वे उसके विषय को दृष्टिगत रखते हुए नोट्स तैयार कर दें।
उन लोंगो ने पन्द्रह दिनों में वह सब कर दिया जो सिन्हा चाहता था। नोट्स के रूप में
प्राप्त तीन सौ पृष्ठों की सामग्री को सिन्हा को विषयानुसार प्रस्तुत करना था
..... और उसने सहजता से वह कर लिया था। अब वह शीघ्र ही पुस्तकाकार रूप में पाठकों के
समक्ष होगी।''
''आपको यह सब कैसे मालूम?'' सुधांशु को लगा कि वह कोई कल्पित कहानी सुन रहा था।
''मुझे दिल्ली के कवि महोदय ने बताया....जब मैं दिल्ली में उनके
घर गया। वह चार दिन पहले ही बड़ौदा से लौटे थे। गदगद थे फाइव स्टार होटल में ठहरने...ए.सी.
टू टियर की यात्रा से...शायद पहली बार एसी में उन्होंने यात्रा की थी।''
''लेकिन फाइव स्टार होटल....?''
''जी फाइव स्टार....लेकिन उसका खर्च तो किसी लाला ने दिया होगा।'' कुछ देर चुप रहकर सुकांत बोला, ''तो ऐसे कवि ....और अब लेखक भी
....हैं दिनेश कुमार सिन्हा जी।''
बेयरा बिल ले आया। सुधांशु ने पेमेण्ट किया, जिसे प्लेट में लेकर बेयरा
चला गया।
''आप कब से कल्पतरु की गोष्ठियों में आ रहे हैं?''
''जब से कल्पतररु की कल्पना सिन्हा ने की।''
''ओ.के.।'' सुधांशु सामने मेज पर बैठे जोड़े की ओर देखता रहा क्षणभर तक।
''मुझे यह सब आज ज्ञात हुआ, लेकिन आपको पहले से ही ज्ञात था
कि सिन्हा दुष्ट चरित्र व्यक्ति है फिर भी आप उसके यहां की गोष्ठियों में जाते रहे।'' सुधांशु ने सुकांत के चेहरे
पर नजरें गड़ा दीं।
''सुधांशु जी, हम जैसे कवियों को मुफ्त की पीने को जहां भी मिलती है...वहां
जाने से परहेज नहीं....पिलाने वाले के चरित्र से हमें क्या....हमें पीने-खाने से मतलब।
अपनी औकात जेब से खरीदकर पीने की नहीं, सो महीने में तीन-चार बार जहां भी मुफ्त की मिली चले गए...उस
व्यक्ति के चरित्र की ओर से आंखे बंद कर पिया-खाया और चले आए....भाड़ में जाये वह और
उसका साहित्य। आपने देखा,
मैं सिन्हा के मुंह पर उसकी कविता के खिलाफ बोलता हूं। मैं डरता नहीं....वह स्साला
कौन अपनी जेब से पिलाता-खिलाता है....।''
''हुंह।''
बेयरा प्लेट में सजाकर पैसे ले आया। उसके लिए
टिप छोड़कर सुधांशु उठ खड़ा हुआ। सुकांत को भी उठना पड़ा। वह बोला, ''बुरा न मानना सुधांशु जी...मैं
आगे भी सिन्हा के यहां जाता रहूंगा....हीं...हीं....पीना और कविता लिखना मेरी कमजोरी
है।''
''आप अवश्य जाते रहें सुकांत जी।'' रेस्टॉरेण्ट से बाहर निकल सुधांशु
ने सुकांत से हाथ मिलाया और एक रिक्शा रोक उसपर चढ़ गया।
''ओ.के.....फिर मिलेंगे सुधांशु जी।'' सुकांत ने हाथ उठाकर कहा।
''श्योर।''
सुघांशु उसके बाद कल्पतरु की गोष्ठियों में नहीं
गया और न ही बाद में वह दिनेश सिन्हा से कभी मिला।
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