(युवा चित्रकार पराग तोमर कीपेण्टिंग)
युवा कवि सौरभ राय न केवल एक सफल कवि हैं बल्कि एक अच्छे अनुवादक भी हैं. उन्होंने अनेक अहिन्दी भाषी कवियों की कविताओं के अनुवाद किए हैं. रचना समय में इस बार प्रस्तुत हैं सौरभ राय की कविताएं और साथ ही के. सच्चिदानन्दन और काजी नज़रुल इस्लाम की कविताओं के उनके द्वारा किए गए अनुवाद.
के. सच्चिनन्दन की कविता
पागल
वो किसी जात का नहीं है न ही किसी धर्म का । लिंग – शर्म – शिष्टता की परिभाषाओं से परे सिद्धांतों से दूर बहुत दूर उसका भोलापन हमारे लिए असाध्य दुर्गम है । उसकी भाषा सपनों की नहीं एक अलग ही यथार्थ में जीता है वो ! उसकी वासना चाँद की दूधिया रोशनी जो पूर्णिमा को समस्त आकाश में रात भर उमड़ती है । आकाश की तरफ नज़रें उठाकर वो ताकता रहता है अनजाने देव पुरुषों की तरफ । कंधे झटकता हुआ वो हिलाता है अपने विराट पंख उसे दिखलाई देती है कीट पतंगों की आत्मा राह चलते वो नमस्कार करता है कुत्तों को । उसे दिखलाई देता है दरख्तों का ख़ून बस स्टैंड पर बैठा वो सुनता है शेरों की दहाड़ वो बिलौटे की चमकती आँखों में झाँक देखता रहता है स्वर्ग के मनोरम दृश्य । वो चींटियों की कतार पर कान टेक घंटों सुनता रहता है उनका संगीत । वो हवा को थपकते हुए साध लेता है असंख्य चक्रवात । वो चलते हुए अचानक गुस्से से कुचल देता है किसी धधकते ज्वालामुखी को बदल देता है उसे उर्वरा खेत में । वो अद्भुत समय यात्री ! उसकी शताब्दी बीतती एक सेकेंड में ! बीस सेकेंड और वो क्रूस पर लटका मिलता । छह सेकेंड और - वो शांत बैठा होता बोधगया के अंजीर के नीचे । दिन भर में वो ख़त्म कर देता है समस्त पृथ्वी की संरचना । वो बेचैन भटकता है नीचे दहकती है उसकी नयी नवेली पृथ्वी । वो पागल हमारे जैसा पागल नहीं है ।। [Translation of K Satchidanandan's masterpiece Branthanmar (The Mad), originally written in Malayalam] काज़ी नज़रुल इस्लाम की कविताबिरोधी
बोलो,वीर !बोलो, चिर उन्नत मम शीश ! मेरा शीश निहार देखो झुका पड़ा है शिखर हिमाद्री । बोलो, वीर बोलो, महा विश्व महा आकाश चीर चंद्र-सूर्य-ग्रहों से आगे धरती-पाताल-स्वर्ग भेद ईश्वर का सिंहासन छेद उठा हूँ मैं मैं-धरती का एकमात्र शाश्वत विस्मय । देखो मेरे नेत्रों में रूद्र भगवान जले जय का दिव्य टीका ललाट पर चिर: स्थिर ! बोलो, वीर ! बोलो, चिर उन्नत मम शीश ! मैं दायित्वहीन, क्रूर, नृशंस महाप्रलय का नटराज मैं साईक्लोन, विध्वंस मैं महाभय मैं पृथ्वी का अभिशाप मैं निर्दयी सब कुछ तोड़ फोड़ मैं नहीं करता विलाप मैं अनियम उच्छ्रुन्खल मैं कुचल चलता नियम-क़ानून-श्रंखल मैं नहीं मानता कोई प्रभुता मैं टार्पेडो मैं बारूदी विस्फोट शीश बनकर उठा मैं धूरजती मैं अकाल वैशाख का परम अंधड़ विद्रोही - मैं विश्व विधात्री का विद्रोही पुत्र नंग धड़ंग लम्भड़ ! बोलो, वीर ! बोलो, चिर उन्नत मम शीश ! मैं बवंडर, मैं तूफ़ान मैं उजाड़ चलता पथ के विषय तमाम मैं नृत्य-पागल-छंद अपने ताल पर नाचता मैं मुक़्त जीवन-आनंद ! मैं हमीर, मैं छायानट, हिन्डोल मैं चिर चंचल उछल कूद मैं नृत्योन्माद, हिलकोल ! मैं अपने मन की करता नहीं मुझे कोई लज्जा मैं शत्रु से करूँ आलिंगन चाहे मृत्यु से लड़ूं पंजा ! मैं उन्मात मैं झंझा
मैं महामारी
धरित्री की बेचैनी
शासन का खौफ़,संहार
मैंप्रचंड चिर अधीर ! बोलो, वीर ! बोलो, चिर उन्नत मम शीश ! मैं चिर दुरंत, दुर्मति मैं दुर्गम भर प्राणों का प्याला पीता भरपूर मद हरदम मैं होमशिखा मैं जमदग्नि मैं यक्ष पुरोहित अग्नि मैं लोकालय, मैं शमशान मैं अवसान निशावसान मैं इद्राणी पुत्र हाथ में चाँद
ललाट पर सूर्य युगल
एक हाथ में स्नेह बंशी
दूजे में रण बिगुल
मैं कृष्ण कंठ
मंथन विष पीकर
मैं व्योमकेश
गंगोत्री का पागल पीर ! बोलो, वीर ! बोलो, चिर उन्नत मम शीश ! मैं सन्यासी, मैं सैनिक मैं युवराज, वैरागी मैं बेदविन, मैं चंगेज़ मैं बाग़ी सलाम ठोकता केवल ख़ुदको मैं वज्र मैं ब्रह्मा का हुँकार मैं इस्राफिल की तुरही मैं पिनकपाणी का डमरू त्रिशूल ओमकार मैं धर्मराज का दंड मैं चक्र, महाशंख
प्रणव नाद प्रचंड ।
मैं आगबबूले दुर्वासा का शिष्य
जलाकर रख दूँगा विश्व
मैं प्राण भरा उल्लास
मैं सृष्टि का शत्रु
मैं महा त्रास
मैं महाप्रलय का अग्रदूत
राहू का ग्रास
मैं कभी प्रशांत कभी अशांत
बावला स्वेच्छाचारी
मैं सूर्य के रक़्त में सिंची
एक नई चिंगारी ! मैं महासागर का गरज मैं अपगामी, मैं अचरज मैं बंधन मुक़्त कन्या-कुमारी नयनों की चिंगारी मैं सोलह वर्ष का युवक प्रेमी, अविचारी मैं ह्रदय में अटका हुआ प्रेम रोग का हूक मैं हर्ष असीम अनंत विधवा
मैं वंध्या का दुःख
मैं विधि का ग्रास
मैं अभागे का
दीर्घश्वास
मैं वंचित, व्यथित, पथवासी
मैं निराश्रय पथिकों का सन्ताप
अपमानितों का परिताप
अस्वीकृत प्रेमी की उत्तेजना
मैं विधवा की जटिल वेदना ।
मैं अभिमानी
मैं चित् चुम्बन
मैं चिर-कुमारी कन्या के
थर-थर हाथों का
प्रथम स्पर्श
मैं झुके नयनों का खेल
कसे आलिंगन का हर्ष
मैं यौवन
चंचल नारी का प्रेम
चूड़ियों की खन-खन
मैं सनातन शिशु
नित्य किशोर
मैं तनाव मैं यौवन से सहमी बाला
के आँचल का खींचाव ।
मैं उत्तर वायू-अनिल-शमक
उदास पूर्वी हवा
मैं पथिक कवि की गभीर रागिनी
मैं गीत, मैं दवा
मैं आग में जलता निरंतर अमित प्यास
मैं रूद्र रौद्र रवी मैं घृणा, अविश्वास
मैं रेगिस्तान में झर-झर
झरता एक झरना
मैं श्यामल शांत धुंधला
एक सपना, मैं सपना ! मैं तीव्र आनंद में दौड़ रहा ये क्या उन्माद ! मैं उन्माद ! मैंने जान लिया है ख़ुदको आज खुल गए है सब बाँध ! मैं उत्थान, मैं पतन मैं अचेतन में भी चेतन मैं विश्व द्वार पर वैजयंती मानव विजय केतन !
विजयोल्लास में ताली पीट
मेरा अश्व बुर्राक़
स्वर्ग मर्त रौंधता
नशे में धुत्त
मैं उसे हाँक
मैं वसुधा पर
उभरा आग्नेयगिरि
जंगल में फैलता दावानल
मैं पाताल-पतित पागल
अग्नि का दूत
मैं करलव, मैं कोलाहल
मैं दामिनी के पंख पर चढ़ उड़ता
प्रकृति का दंभ
मैं धसकती धरती के ह्रदय में
सहसा भूमिकम्प
मैं वासुकी का फण
मैं दूत ज़िब्राइल का
जलता अंजन
मैं विष
मैं अमृत
मैं समुद्र मंथन ।
मैं देव शिशु मैं चंचल
मैं दांत से नोच डालता
विश्व माँ का अंचल
ऑर्फियस की बाँसुरी बजाता
ज्वर ग्रस्त संसार को मैं
बड़ी ममता से सुलाता
मैं श्याम की बंशी
नदी से उछल
छू लेता महाकाश
मेरे भय से धुमिल
स्वर्ग का निखिल प्रकाश
मैं बग़ावत का अखिल दूत
मैं उबकाई नरक का
प्राचीन भूत ! मैं प्रबल जलप्रलय वन्या कभी धरती को सींच कभी उजाड़ मैं छीन लूँगा विष्णु के वक्ष से युगल कन्या ! मैं अन्याय मैं उल्का
मैं शनि
मैं धूमकेतू में जलता
विषधर कालफणी ।
मैं छिन्नमस्ता चंडी
मैं सर्वनाश का दस्ता
मैं जहन्नुम की आग मैं बैठ
बच्चे सा हँसता ।
मैं विन्मय मैं चिन्मय
मैं अजर-अमर-अक्षय
मैं अव्यय
मैं मानव-दानव-देवताओं का भय
में विश्व का चिर दुर्जय
जगदीश्वर ईश्वर
मैं पुरुषोत्तम सत्य
मैं रौंधता फिरता
स्वर्ग पाताल मर्त्य
अश्वत्थामा कृत्य
मैं नटराज का नृत्य
मैं उन्माद !
मैं उन्माद !
मैंने जान लिया है ख़ुदको आज खुल गए है सब बाँध ! मैं परशुराम की कठोर कुठार निःक्षत्रिय करूँगा विश्व लाऊँगा शांति शांत उदार मैं बलराम का हल यज्ञकुंड में होगा दाहक दृश्य ! मैं महा विद्रोही ! अक्लांत ! उस दिन होऊँगा शांत - जब उत्पीड़ितों का क्रंदन शोक आकाश वायू में नहीं गूँजेगा । जब अत्याचारी का खड्ग तुणीर निरीह के रक़्त से नहीं रंजेगा । मैं विद्रोही-रण-क्लांत मैं उस दिन होऊँगा शांत ! पर तबतक - मैं विद्रोही भृगु बन भगवान के वक्ष को भी लातों से देता रहूँगा दस्तक । तबतक -
मैं विद्रोही, वीर
पीकर जगत् का विष
बन विजय ध्वजा अभीक
विश्व रणभूमी के बीचोंबीच
खड़ा रहूँगा अकेला
चिर उन्नत शीश !! [Translation of rebel poet Kazi Nazrul Islam's Birodhi(1922), originally written in Bangla]
सौरभ राय की पांच कविताएं
भौतिकी
याद हैं वो दिन संदीपन जब हम रात भर जाग कर हल करते थे रेसनिक हेलिडे एच सी वर्मा इरोडोव ? हम ढूंढते थे वो एक सूत्र जिसमे उपलब्ध जानकारी डाल हम सुलझा देना चाहते थे अपनी भूख पिता का पसीना माँ की मेहनत रोटी का संघर्ष देश की गरीबी ! हम कभी घर्षणहीन फर्श पर फिसलते दो न्यूटन का बल आगे से लगता कभी स्प्रिंग डाल कर घंटों ऑक्सिलेट करते रहते और पुली में लिपट कर उछाल दिए जाते प्रोजेक्टाइल बनाकर ! श्रोडिंगर के समीकरण और हेसेनबर्ग की अनिश्चित्ता का सही अर्थ समझा था हमने | सारे कणों को जोड़ने के बाद अहसास हुआ था - “अरे ! एक रोशनी तो छूट गयी !” हमें ज्ञात हुआ था इतना संघर्ष हो सकता है बेकार हमारे मेहनत का फल फूटेगा महज़ तीन घंटे की एक परीक्षा में | पर हम योगी थे हमने फिज़िक्स में मिलाया था रियलपॉलिटिक ! हमने टकराते देखा था पृथ्वी से बृहस्पति को | हमने सिद्ध किया था कि सूरज को फ़र्क नहीं पड़ता चाँद रहे न रहे | राह चलती गाड़ी को देख उसकी सुडोलता से अधिक हम चर्चा करते रोलिंग फ़्रीक्शन की | eiπ को हमने देखा था उसके श्रृंगार के परे हमने बहती नदी में बर्नोली का सिद्धांत मिलाया था हमने किसानों के हल में टॉर्क लगाकर जोते थे खेत | हम दो समय यात्री थे बिना काँटों वाली घड़ी पहन प्रकाश वर्षों की यात्रा तय की थी हमने ‘उत्तर = तीन सेकंड’ लिखते हुए | आज वर्षों बाद मेरी घड़ी में कांटें हैं जो बहुत तेज़ दौड़ते हैं जेब में फ़ोन फ़ोन में पैसा तुम्हारा नंबर है पर तुमसे संपर्क नहीं है | पेट में भूख नहीं बदहज़मी है | देश में गरीबी है | सच कहूँ संदीपन सूत्र तो मिला समाधान नहीं ||सिनेमा
सूरज की आँखें टकराती हैं कुरोसावा की आँखों से सिगार के धुंए से धीरे धीरे भर जाते हैं गोडार्ड के चौबीस फ्रेम । हड्डी से स्पेसशिप में बदल जाती है क्यूब्रिक की दुनिया बस एक जम्प कट की बदौलत और चाँद की आँखों में धंसी मलती है मेलिएस की रॉकेट । इटली के ऑरचिर्ड में कॉपोला के पिस्टल से चलती है गोली वाइल्ड वेस्ट के काउबॉय लियॉन का घोड़ा फांद जाता है चलती हुई ट्रेन । बनारस की गलियों में दौड़ता हुआ नन्हा सत्यजीत राय पहुँचता है गंगा तट तक माँ बुलाती है चेहरा धोता हुआ पाता है चेहरा खाली चेहरा जुड़ा हुआ इन्ग्मार बर्गमन के कटे फ्रेम से । फेलीनी उड़ता हुआ अचानक बंधा पता है आसमान से गिरता है जूता चुपचाप हँसता है चैपलिन फीते निकाल नूडल्स बनता जूते संग खाता है । बूढ़ा वेलेस तलाशता है स्कॉर्सीज़ की टैक्सी में रोज़बड का रहस्य । आइनस्टाइन का बच्चा तेज़ी से सीढ़ियों पर लुढ़कता है । सीढ़ियाँ अचानक घूमने लगती हैं अपनी धुरी पर नीचे मिलती है हिचकॉक की लाश ! एक समुराई धुंधले से सूरज की तरफ चलता जाता है । हलकी सी धूल उड़ती है । स्क्रीन पर लिखा हुआ सा उभरने लगता है - ‘ला फ़िन’ ‘दास इंड’ ‘दी एन्ड’ रील घूमती रहती है ।संतुलन
मेरे नगर मेंमर रहे हैं पूर्वज
ख़त्म हो रही हैं स्मृतियाँ
अदृश्य सम्वाद !
किसी की नहीं याद -
हम ग़ुलाम अच्छे थे
या आज़ाद ? बहुत ऊँचाई से गिरो
और लगातार गिरते रहो
तो उड़ने जैसा लगता है
एक अजीब सा
समन्वय है
डायनमिक इक्वीलिब्रियम ! अपने उत्त्थान की चमक में
ऊब रहे
या अपने अपने अंधकार को
इकट्ठी रोशनी बतलाकर
डूब रहे हैं हम ? हमने खो दिये
वो शब्द
जिनमें अर्थ थे
ध्वनि, रस, गंध, रूप थे
शायद व्यर्थ थे ।
शब्द जिन्हें
कलम लिख न पाए
शब्द जो
सपने बुनते थे
हमने खोए चंद शब्द
और भरे अगिनत ग्रंथ
वो ग्रंथ
शायद सपनों से
डरते थे । थोड़े हम ऊंचे हुए
थोड़े पहाड़ उतर आए
पर पता नहीं
इस आरोहण में हम चल रहे
या फिसल ? हम दौड़ते रहे और कहीं नहीं गए बाँध टूटने और घर डूबने के बीच जैसे रुक सा गया हो जीवन । यहाँ इस क्षण
न चीख़
न शांति
जैसे ठोकर के बाद का
संतुलन ।
भारतवर्ष
वो किस राह का
भटका पथिक है ?
मेगस्थिनिस बन बैठा है
चन्द्रगुप्त के दरबार में
लिखता चुटकुले
दैनिक अखबार में |
सिन्कदर नहीं रहा
नहीं रहा विश्वविजयी बनने का ख़्वाब
चाणक्य का पैर
घांस में फंसता है
हंसता है महमूद गज़नी
घांस उखाड़कर घर उजाड़कर
घोड़ों को पछाड़कर
समुद्रगुप्त अश्वमेध में हिनहिनाता है
विक्रमादित्य फ़ा हाइन संग
बेताल पकड़ने जाता है |
वैदिक मंत्रो से गूँज उठा है आकाश
नींद नहीं आती है शूद्र को
नहीं जानता वो अग्नि को इंद्र को
उसे बारिश चाहिए
पेट की आग बुझाने को |
सच है-
कुछ भी तो नहीं बदला
पांच हज़ार वर्षों में !
वर्षा नहीं हुई इस साल
बिम्बिसार अस्सी हज़ार ग्रामिकों संग
सभा में बैठा है
मेगस्थिनिस बन बैठा है
चन्द्रगुप्त के दरबार में
लिखता चुटकुले
दैनिक अखबार में |
सिन्कदर नहीं रहा
नहीं रहा विश्वविजयी बनने का ख़्वाब
चाणक्य का पैर
घांस में फंसता है
हंसता है महमूद गज़नी
घांस उखाड़कर घर उजाड़कर
घोड़ों को पछाड़कर
समुद्रगुप्त अश्वमेध में हिनहिनाता है
विक्रमादित्य फ़ा हाइन संग
बेताल पकड़ने जाता है |
वैदिक मंत्रो से गूँज उठा है आकाश
नींद नहीं आती है शूद्र को
नहीं जानता वो अग्नि को इंद्र को
उसे बारिश चाहिए
पेट की आग बुझाने को |
सच है-
कुछ भी तो नहीं बदला
पांच हज़ार वर्षों में !
वर्षा नहीं हुई इस साल
बिम्बिसार अस्सी हज़ार ग्रामिकों संग
सभा में बैठा है
पास बैठा है अजातशत्रु
पटना के गोलघर पर
कोसल की ओर नज़र गड़ाए |
कासी में मारे गए
कलिंग में मारे गए
एक लाख लोग
उतने ही तक्षशिला में
केवल अशोक लौटा है युद्ध से
केवल अशोक लड़ रहा था
सौ चूहे मार कर
बिल्ली लौटी है हज से
मेरा कुसूर क्या है ?-
चोर पूछता है जज से |
नालंदा में रोशनी है
ग़ौरी देख रहा है
मुह्हमद बिन बख्तियार खिलजी को
लूटते हुए नालंदा
क्लास बंक करके
ह्वेन सांग रो रहा है
सो रहा है महायान
जाग रहा है कुबलाई ख़ान |
पल्लव और चालुक्य लड़ रहें हैं
जीत रहा है चोल
मदुरै की संगम सभा में कवि
आंसू बहाता है
राजराज चोल लंका तट पर
वानर सेना संग नहाता है |
पटना के गोलघर पर
कोसल की ओर नज़र गड़ाए |
कासी में मारे गए
कलिंग में मारे गए
एक लाख लोग
उतने ही तक्षशिला में
केवल अशोक लौटा है युद्ध से
केवल अशोक लड़ रहा था
सौ चूहे मार कर
बिल्ली लौटी है हज से
मेरा कुसूर क्या है ?-
चोर पूछता है जज से |
नालंदा में रोशनी है
ग़ौरी देख रहा है
मुह्हमद बिन बख्तियार खिलजी को
लूटते हुए नालंदा
क्लास बंक करके
ह्वेन सांग रो रहा है
सो रहा है महायान
जाग रहा है कुबलाई ख़ान |
पल्लव और चालुक्य लड़ रहें हैं
जीत रहा है चोल
मदुरै की संगम सभा में कवि
आंसू बहाता है
राजराज चोल लंका तट पर
वानर सेना संग नहाता है |
इब्न बतूता दौड़ा
चला आ रहा है
पश्चिम से
मार्को पोलो दक्षिण से
उत्तर से नहीं आता कोई उत्तर
आता है जहाँगीर कश्मीर से
गुरु अर्जुन देव को
मौत के घात उतारकर |
नहीं रही
नहीं रही सभ्यता
सिन्धु – सताद्रू घाटी में
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से
चीखता है भिंडरावाले
गूँज रहा है इन्द्रप्रस्थ
सौराष्ट्र
इल्तुतमिश भाला लेकर आता है
मल्ल देश के आखिरी पड़ाव तक
चंगेज़ ख़ान की प्रतीक्षा में |
कोई नहीं रोकने आता
तैमूर लंग को |
बहुत लम्बी रात है
सोमनाथ के बरामदे में
कटा हुआ हाथ है |
लड़ रहें हैं राजपूत वीर
आपस में
रानियाँ सती होने को
चूल्हा जलाती हैं |
चमक रहा है ताजमहल
धुल रहा है मजदूरों का ख़ून
पश्चिम से
मार्को पोलो दक्षिण से
उत्तर से नहीं आता कोई उत्तर
आता है जहाँगीर कश्मीर से
गुरु अर्जुन देव को
मौत के घात उतारकर |
नहीं रही
नहीं रही सभ्यता
सिन्धु – सताद्रू घाटी में
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से
चीखता है भिंडरावाले
गूँज रहा है इन्द्रप्रस्थ
सौराष्ट्र
इल्तुतमिश भाला लेकर आता है
मल्ल देश के आखिरी पड़ाव तक
चंगेज़ ख़ान की प्रतीक्षा में |
कोई नहीं रोकने आता
तैमूर लंग को |
बहुत लम्बी रात है
सोमनाथ के बरामदे में
कटा हुआ हाथ है |
लड़ रहें हैं राजपूत वीर
आपस में
रानियाँ सती होने को
चूल्हा जलाती हैं |
चमक रहा है ताजमहल
धुल रहा है मजदूरों का ख़ून
धुल रहा है
कन्नौज
मथुरा
कांगरा |
कृषि कर हटाकर
तुगलक रोता है-
“पानी की किल्लत है
झूठ है
झूठ है सब
केवल राम नाम सत् है”
वास्को डि गामा ढूंढ रहा है
कहाँ है ?
कहाँ है भारतवर्ष ?
कन्नौज
मथुरा
कांगरा |
कृषि कर हटाकर
तुगलक रोता है-
“पानी की किल्लत है
झूठ है
झूठ है सब
केवल राम नाम सत् है”
वास्को डि गामा ढूंढ रहा है
कहाँ है ?
कहाँ है भारतवर्ष ?
इंजीनियर्स मैनिफेस्टो
हमने तो खड़े किये हैं लाखों मीनार, बनाए हैं महल शीशों के, रोका है नदियों का विराट प्रवाह ! क्या नहीं रोक सकते छोटुआ के छत का टपकना ? ताकि वो अपने घर के अँधेरे में
...
परिचय -
सौरभ राय का जन्म झारखंड राज्य में 1989 को एक बंगाली परिवार में हुआ। बंगलौर
से अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद सौरभ आजकल आजीविका के लिए 'ब्रोकेड'
नामक कंपनी में कार्यरत हैं. अब तक इनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- 'अनभ्र
रात्रि की अनुपमा', 'उत्तिष्ठ भारत' और 'यायावर'। सौरभ की कवितायेँ हिंदी की कई
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं - जिनमें हंस, वागर्थ, कृति ऒर, सृजन
गाथा, पहली बार इत्यादि प्रमुख हैं। इसके अलावा हिन्दू, डीएनए सहित कई अंग्रेजी
के पत्र पत्रिकाओं में इनके लेखन के बारे में छप चुका है।