वरिष्ठ कवि-गज़लकार रामकुमार कृषक की कविताएं और गज़लें
पांच कविताएं
किस तरियों पेट-घट भरे
कंठ की
सुराही को
बूंद का अभाव
किस तरिर्यों पेट-घट भरे.
जिव्हा को
होठों तक खींच
नलकों पर जुट आई प्यास
कुओं की
पेंदियां उलीच,
अधुनातन घोर तप करे!
आंखों को
केंचुल से ढांप
लीप रहे मिट्टी का स्वेद
लूओं की
लपटों के सांप,
पग-पग पर आग-सी जरे!
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जल रहा आकाश
बादलों में
जल नहीं है
जल रहा आकाश
और नीचे उतरती
मरुथल सरीखी प्यास!
घुमडते हैं
गरजते भी हैं
क्रुद्ध बिजली भी गिरा जाते
पर कभी क्यों गंध सोंधी
बन नहीं पाते?
मौसमी ही क्यों
युगों का संग यह परिहास!
जानती
पहचानती भी है
स्वाति का सौहार्द यह धरती
पर फसल से मोतियों की
भूख कब मरती?
भूख ही क्यों
काव्य भू का/भूख ही इतिहास!
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सूरज ने हाथों से खींचा
सूरज ने
हाथों से खींचा
जिगद गया दूबिया गलीचा!
गरमाया आसमान
कांपने लगा
धरती की स्वेद-गंध
भांपने लगा
ऊंचा भी और हुआ नीचा!
घुंधुआती आंख/आंख
टोहती रही
आस बंधी प्यास/बाट
जोहती रही
उग आया रेत का बगीचा!
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तपी है जेठ-भर दुपहर
जली है रोज
तिल-तिल कर
तपी है जेठ
भर चुपहर
निरंतर
चक्रवातों में
बगूलों में झुलसते
घूमते पल-पल
एक प्रिक्रिया
धरित्री की
समन्दर की
समय के ठीक अंतर की
जरूरी है---
कि कल
हलचल
दिखाई दे
दिशाओं में
घुले सागर
हवाओं में!
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उफ, उमस ऎसी
उफ, उमस ऎसी
और गर्दन तक नहीं हिलती
दरख्तों की!
किस हवा में है
जो बेचैनी नहीं है
आंख तो मौसम की
अनपैनी नहीं है
साफ अब सारी जड़ावट
ताज-तख्तों की
और गर्दन तक नहीं हिलती
दरख्तों की!
सिर उठाए हैं
तो सिर कब तक चढ़ेंगे
हो चुकी हर हद्द
किस हद तक बढ़ेंगे
छांव बदतर ताप से
इन सरपरस्तों की
और गर्दन तक नहीं हिलती
दरख्तों की!
खुद पसीना पी
इन्हें पानी दिया है
संस्कारित जुर्म क्या कुछ
कम किया है
दृष्टि पर बदली हुई है
आज भक्तो की
और गर्दन तक नहीं हिलती
दरख्तों की!
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चार गज़लें
(1)
कैसा है मौसम ये फली घमस है
दिल्ली के हिस्से उमस ही उमस है
गया
साढ़ सारा मिले चंद
छींटे
न बरसा है सावन
ये कैसा बरस है
धुआं-धूल चारों तरफ है घुटन-सी
घुटी जा रही हर कदम हर नफस है
बढ़ा प्यास पहले
लिया लूट पानी
पिलाना है वाटर
दिखाना तरस है
अभी और सोना है तो जाग जाओ
अभी रात बाकी है गहरा तमस है.
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(2)
लू नहीं धूल नहीं कुछ बदल रहा मौसम
जेठ-भर ऎसे तपा गल-पिघल रहा मौसम
देह से आठ पहर
जो ढला पसीने-सा
प्यास के वास्ते बूंदों में ढल रहा मौसम
बिजलियों और घटाओं की आशनाई में
मत्त मौसम के लिए खुद मचल रहा मौसम
गांव-गलियार सड़कबाज शहर हो चाहे
नग्न बच्चों की तरह खुल-उछल रहा मौसम
साथ पुरवाई पवन हाथ में छड़ी-छाता
देखकर इंद्रधनुष चुप टहल रहा मौसम
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(3)
बरसात हो रही है बरसात हो
रही है
धरती से आस्मां की यूं बात हो रही है
छज्जों से दरीचों तक झालर है मोतियों की
आंगन में बुदबुदों
की बारात हो
रही है
रिमझिम का खुले खेतों फसलों से प्यार करना
धानों की बालियों में नग़मात हो
रही है
बिजली का बादलों से यह खेल-खिलखिलाना
हर सू शबे-चराग़ां
शब्बेरात हो रही है
तारों से जुगनुओं से रिश्ता है एक पुराना
डरने की बात क्या है गर रात हो रही है.
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(4)
धूप निकली और मौसम खुल गया
आसमां का चेहरा
भी धुल गया
खिड़कियां खुलकर मिलीं कहने लगीं
रंग रिश्तों का फिज़ां में
घुल गया
टूटना संबंध का कुछ यों
लगा
ज्यों सफर के बीच कोई पुल गया
दर्द कुछ गहरा गया तड़पा गया
पास से गाकर कोई बुलबुल गया
हम उसे गाते रहे
सुनते रहे
उनका बाजूबंद जो खुल-खुल गया.
वरिष्ठ कवि और ग़ज़लकार रामकुमार कृषक का जन्म 1 अक्टूबर 1943 को मुरादाबाद के गुलड़िया (पो. अमरोहा) उत्तर प्रदेश में हुआ था. आप हिन्दी में एम.ए. और साहित्यत्न हैं. कृषक जी की अब तक प्रकाशित कृतियां हैं: बापू(1969), ज्योति (1972), सुर्खियों के स्याह चेहरे (1977), नीम की पत्तियां(1984), फिर वही आकाश (1991), आदमी के नाम पर मज़हब नहीं(1991), मैं हूं हिंदुस्तान (1998) और, लौट आएंगी आंखें (2002) कविता पुस्तकें . एक कहानी संग्रह – नमक की डलियाँ (1980) और बच्चों तथा नवसाक्षरों के लिए सात अन्य पुस्तकें 'कर्मवाची शील" नामक संपादित कृति. 'अपजस अपने नाम' (शीघ्र प्रकाश्य गज़ल संग्रह). इसके अतिरिक्त विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों में सक्रिय हिस्सेदारी. जन संस्कृति मंच की दिल्ली इकाई के संस्थापक सदस्य. अनेक महत्वपूर्ण काव्य संग्रहों और पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. हिन्दी अकादमी, दिल्ली सहित कुछ अन्य संस्थाओं से पुरस्कृत - सम्मानित. 'अलाव' और 'नई पौध' पत्रिकाओं का सम्पादन और प्रकाशन.
सम्पर्क : सी-3/59, सादतपुर विस्तार, दिल्ली – 110094
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