‘छांग्या रुक्ख'
बलबीर माधोपुरी
अनुवाद – सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21–ए, दरियागंज,
नयी दिल्ली –110 002
पृष्ठ 232, मूल्य – 300 रुपये।
छांग्या रुक्ख – दलित जीवन का वास्तविक दस्तावेज
-रूपसिंह चन्देल
भारतीय दलित-साहित्य में पहली दलित आत्मकथा किस भाषा में लिखी गई यह बता पाना मेरे लिए कठिन है लेकिन पंजाबी भाषा की पहली दलित आत्मकथा लिखने का गौरव पंजाबी के कवि-पत्रकार बलबीर मधोपुरी को अवश्य प्राप्त है। हाल ही में उनकी आत्मकथा “छांग्या रुक्ख” का अनुवाद (अनुवादक–सुभाष नीरव) हिन्दी में प्रकाशित हुआ और आश्चर्यजनक रूप से अत्यल्प समय में चर्चा के चरम शीर्ष पर जा पहुँचा। पंजाबी में इसके पांच संस्करणों का प्रकाशन और अन्य भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रजी में इसके अनुवाद इसकी प्रतिष्ठा को प्रमाणित करते हैं।
आखिर ऐसा क्या है इस दो सौ बत्तीस पृष्ठीय पुस्तक में जिसे एक बार प्रारंभ करने के पश्चात् छोड़ना कठिन है। कठिन इसलिए कि इसमें जीवन-जगत को बेहद ईमानदारी के साथ काव्यात्मक गद्य में प्रस्तुत किया गया है। अब तक की समस्त भारतीय भाषाओं की दलित आत्मकथाओं में अप्राप्य लोकजीवन का सार्थक प्रयोग भी ‘छांग्या रुक्ख‘ की बहुचर्चा का कारण है, जिसमें हिन्दी दलित आत्मकथाओं की भांति छद्म त्रासदियों को चित्रित नहीं किया गया है। वे उसी रूप में वहां उपस्थित हैं जैसी रही होगीं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बलबीर के पास तराशी हुई निमज्जित भाषा और समृद्ध शिल्प है, जो गहन अध्ययन, चिन्तन और मनन के बाद ही अर्जित की जा सकती है। साहित्य ‘दलित‘ और ‘सवर्ण‘ खांचे में बांटा जा सकता है अर्थात् रचनाकारों के अनुसार उसका वर्गीकरण किया जा सकता है, जो कि है ही, लेकिन भाषा-शिल्प का वर्गीकरण इस आधार पर नहीं किया जा सकता। अच्छी भाषा और आकर्षक शिल्प परम्परा और विश्व-साहित्य के अध्ययन से ही अर्जित किया जा सकता है। ‘छांग्या रुक्ख’ का लेखक अपने जीवन विकास पर प्रकाश डालते हुए यह स्पष्ट करता है कि वह कब और किन आन्दोलनों से जुड़ा और भारतीय भाषाओं सहित विश्व के किन महान रचनाकारों को उसने पढ़ा।
‘छांग्या रुक्ख’ को यदि एक काव्यात्मक उपन्यास कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। इसे पढ़ते समय मुझे अनेक बार स्व0 भीष्म साहनी का उपन्यास ‘मैय्यादास की माड़ी’ याद आया। यदि उसे पंजाबी जीवन और संस्कृति का जीवंत दस्तावेज कहा जाता है तो ‘छांग्या रुक्ख‘ अपनी बुनावट और विवरणों के कारण उसके समकक्ष ही स्थापित होता है बावजूद इसके कि वह एक उपन्यास है और यह एक लेखक के जीवन की त्रासद वास्तविकता। विवेच्य पुस्तक के विशय में स्व0 कमलेश्वर के उद्गारों का उल्लेख करने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। कमलेश्वर के अनुसार - ‘‘ यह आत्मकथा – आत्मश्लाघा और बड़बोलेपन की सरहदों से बहुत दूर खड़ी दिखाई देती है। लेखक ने अपनी स्थितियों और परिस्थितियों के भौतिक और मानसिक यथार्थ को सादगी से व्यक्त किया है। आत्मकथा का पूरा कलेवर (भाषा, शिल्प, रचना-दृष्टि और काल) अपने समकालीन साहित्य की चुनौतियों को पूरी ईमानदारी के साथ रखता है। … सामाजिक समाधान में इसकी भूमिका उस गवाह की तरह है, जो जांति-पांति और छुआ-छूत व सामाजिक असमानता के ठेकेदारों को कटघरे में खड़ा करके अपना हलफिया बयान दर्ज कराता है। इतना ही नहीं, लेखक ने ‘छांग्या रुक्ख’ में अपने शोषित और पीड़ित जीवन को पूरे साहित्यिक मानदंडों के साथ व्यक्त कर, सांस्कृतिक धरातल पर उस भाव-बोध का भी अहसास कराया है, जिसे कबीर और नानक ने अपनी साखियों और पदों के जरिये सबसे दुखी इंसान की आत्मा के रूप में दर्शन किये थे। ‘‘ (भूमिका – ‘यातना का दस्तावेज’) बलबीर स्थितियों पर सटीक टिप्पणी करते हैं रुदन नहीं। ‘‘ मुझे लगा कि वीरान- बंजर ज़मीनों जैसी जिन्दगियों में हरियाली के लिए सबको मिलकर निरंतर और अधिक प्रयास करना है। इसलिए कि हमारी व्यथा-दर- व्यथा युगों पुरानी है जिसे न किसी ने कभी सुना है और न ही महसूस किया है।" (पृष्ठ 124) . लेखक दलित जातियों की आपसी फूट पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहता हैं – ‘‘इस घटना के बाद मैनें महसूस किया कि समूची ‘कमीन’ बिरादरियों की मानसिकता के पीछे सदियों का अमानवीय दृष्टिकोण है। जिन अनुसूचित जातियों और पिछड़ा जातियों को हम परस्पर एक साथ देखना चाहते हैं, मानसिक स्तर पर उनकी फूट उन्हें एक दूसरे के नजदीक नहीं आने देती।" बलबीर माधोपुरी की उक्त टिप्पणी आज हिन्दी दलित लेखन पर भी उतनी ही सटीक है।
बलबीर एक जाट परिवार की आत्मीयता को जिस भाषा में स्मरण करते हैं वह स्पृहणीय है – ‘‘अब जब मेरे रोमों में रचे इस जट्ट परिवार के मोह-प्यार का खयाल आता है तो मुझे लगता है कि जैसे वह हमारी ज़िन्दगी के रेगिस्तान में बहा दरिया हो, जिसके कारण थोड़ी-थोड़ी हरियाली दिखाई देने लगी हो।"
लेखक की चमत्कारिक भाषा के सैकड़ों उदाहरण पुस्तक में उपस्थित हैं, जिसमें सजी लोकगीतों की लड़ियाँ उसे और आकर्षक बनाती हैं। इस पुस्तक पर इतना कुछ कहा जा सकता है कि वह इतनी ही बड़ी पुस्तक का रूप ले ले, क्योंकि यह पंजाबी की जहां पहली दलित आत्मकथा है, वहीं यह भारतीय भाषाओं में अब तक प्रकाशित दलित आत्मकथाओं में श्रेष्ठतम है , जिसका हिन्दी में खूबसूरत अनुवाद हिन्दी के कवि-कथाकार सुभाष नीरव ने किया है।
कहना अत्युक्ति न होगा कि ‘छांग्या रुक्ख’ देश की सीमाएं लांघ विश्व आत्मकथा–साहित्य में अपना स्थान सुरक्षित करने में सक्षम है।
-रूपसिंह चन्देल
भारतीय दलित-साहित्य में पहली दलित आत्मकथा किस भाषा में लिखी गई यह बता पाना मेरे लिए कठिन है लेकिन पंजाबी भाषा की पहली दलित आत्मकथा लिखने का गौरव पंजाबी के कवि-पत्रकार बलबीर मधोपुरी को अवश्य प्राप्त है। हाल ही में उनकी आत्मकथा “छांग्या रुक्ख” का अनुवाद (अनुवादक–सुभाष नीरव) हिन्दी में प्रकाशित हुआ और आश्चर्यजनक रूप से अत्यल्प समय में चर्चा के चरम शीर्ष पर जा पहुँचा। पंजाबी में इसके पांच संस्करणों का प्रकाशन और अन्य भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रजी में इसके अनुवाद इसकी प्रतिष्ठा को प्रमाणित करते हैं।
आखिर ऐसा क्या है इस दो सौ बत्तीस पृष्ठीय पुस्तक में जिसे एक बार प्रारंभ करने के पश्चात् छोड़ना कठिन है। कठिन इसलिए कि इसमें जीवन-जगत को बेहद ईमानदारी के साथ काव्यात्मक गद्य में प्रस्तुत किया गया है। अब तक की समस्त भारतीय भाषाओं की दलित आत्मकथाओं में अप्राप्य लोकजीवन का सार्थक प्रयोग भी ‘छांग्या रुक्ख‘ की बहुचर्चा का कारण है, जिसमें हिन्दी दलित आत्मकथाओं की भांति छद्म त्रासदियों को चित्रित नहीं किया गया है। वे उसी रूप में वहां उपस्थित हैं जैसी रही होगीं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बलबीर के पास तराशी हुई निमज्जित भाषा और समृद्ध शिल्प है, जो गहन अध्ययन, चिन्तन और मनन के बाद ही अर्जित की जा सकती है। साहित्य ‘दलित‘ और ‘सवर्ण‘ खांचे में बांटा जा सकता है अर्थात् रचनाकारों के अनुसार उसका वर्गीकरण किया जा सकता है, जो कि है ही, लेकिन भाषा-शिल्प का वर्गीकरण इस आधार पर नहीं किया जा सकता। अच्छी भाषा और आकर्षक शिल्प परम्परा और विश्व-साहित्य के अध्ययन से ही अर्जित किया जा सकता है। ‘छांग्या रुक्ख’ का लेखक अपने जीवन विकास पर प्रकाश डालते हुए यह स्पष्ट करता है कि वह कब और किन आन्दोलनों से जुड़ा और भारतीय भाषाओं सहित विश्व के किन महान रचनाकारों को उसने पढ़ा।
‘छांग्या रुक्ख’ को यदि एक काव्यात्मक उपन्यास कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। इसे पढ़ते समय मुझे अनेक बार स्व0 भीष्म साहनी का उपन्यास ‘मैय्यादास की माड़ी’ याद आया। यदि उसे पंजाबी जीवन और संस्कृति का जीवंत दस्तावेज कहा जाता है तो ‘छांग्या रुक्ख‘ अपनी बुनावट और विवरणों के कारण उसके समकक्ष ही स्थापित होता है बावजूद इसके कि वह एक उपन्यास है और यह एक लेखक के जीवन की त्रासद वास्तविकता। विवेच्य पुस्तक के विशय में स्व0 कमलेश्वर के उद्गारों का उल्लेख करने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। कमलेश्वर के अनुसार - ‘‘ यह आत्मकथा – आत्मश्लाघा और बड़बोलेपन की सरहदों से बहुत दूर खड़ी दिखाई देती है। लेखक ने अपनी स्थितियों और परिस्थितियों के भौतिक और मानसिक यथार्थ को सादगी से व्यक्त किया है। आत्मकथा का पूरा कलेवर (भाषा, शिल्प, रचना-दृष्टि और काल) अपने समकालीन साहित्य की चुनौतियों को पूरी ईमानदारी के साथ रखता है। … सामाजिक समाधान में इसकी भूमिका उस गवाह की तरह है, जो जांति-पांति और छुआ-छूत व सामाजिक असमानता के ठेकेदारों को कटघरे में खड़ा करके अपना हलफिया बयान दर्ज कराता है। इतना ही नहीं, लेखक ने ‘छांग्या रुक्ख’ में अपने शोषित और पीड़ित जीवन को पूरे साहित्यिक मानदंडों के साथ व्यक्त कर, सांस्कृतिक धरातल पर उस भाव-बोध का भी अहसास कराया है, जिसे कबीर और नानक ने अपनी साखियों और पदों के जरिये सबसे दुखी इंसान की आत्मा के रूप में दर्शन किये थे। ‘‘ (भूमिका – ‘यातना का दस्तावेज’) बलबीर स्थितियों पर सटीक टिप्पणी करते हैं रुदन नहीं। ‘‘ मुझे लगा कि वीरान- बंजर ज़मीनों जैसी जिन्दगियों में हरियाली के लिए सबको मिलकर निरंतर और अधिक प्रयास करना है। इसलिए कि हमारी व्यथा-दर- व्यथा युगों पुरानी है जिसे न किसी ने कभी सुना है और न ही महसूस किया है।" (पृष्ठ 124) . लेखक दलित जातियों की आपसी फूट पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहता हैं – ‘‘इस घटना के बाद मैनें महसूस किया कि समूची ‘कमीन’ बिरादरियों की मानसिकता के पीछे सदियों का अमानवीय दृष्टिकोण है। जिन अनुसूचित जातियों और पिछड़ा जातियों को हम परस्पर एक साथ देखना चाहते हैं, मानसिक स्तर पर उनकी फूट उन्हें एक दूसरे के नजदीक नहीं आने देती।" बलबीर माधोपुरी की उक्त टिप्पणी आज हिन्दी दलित लेखन पर भी उतनी ही सटीक है।
बलबीर एक जाट परिवार की आत्मीयता को जिस भाषा में स्मरण करते हैं वह स्पृहणीय है – ‘‘अब जब मेरे रोमों में रचे इस जट्ट परिवार के मोह-प्यार का खयाल आता है तो मुझे लगता है कि जैसे वह हमारी ज़िन्दगी के रेगिस्तान में बहा दरिया हो, जिसके कारण थोड़ी-थोड़ी हरियाली दिखाई देने लगी हो।"
लेखक की चमत्कारिक भाषा के सैकड़ों उदाहरण पुस्तक में उपस्थित हैं, जिसमें सजी लोकगीतों की लड़ियाँ उसे और आकर्षक बनाती हैं। इस पुस्तक पर इतना कुछ कहा जा सकता है कि वह इतनी ही बड़ी पुस्तक का रूप ले ले, क्योंकि यह पंजाबी की जहां पहली दलित आत्मकथा है, वहीं यह भारतीय भाषाओं में अब तक प्रकाशित दलित आत्मकथाओं में श्रेष्ठतम है , जिसका हिन्दी में खूबसूरत अनुवाद हिन्दी के कवि-कथाकार सुभाष नीरव ने किया है।
कहना अत्युक्ति न होगा कि ‘छांग्या रुक्ख’ देश की सीमाएं लांघ विश्व आत्मकथा–साहित्य में अपना स्थान सुरक्षित करने में सक्षम है।
1 टिप्पणी:
भाई, समीक्षा हो तो ऐसी !
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