भावहीन चेहरा
रूपसिंह चन्देल
लगभग पन्द्रह वर्ष पुरानी बात है.
मेरे एक रिश्तेदार के पांच दामाद थे. कुछ दिन पूर्व सबसे बड़े दामाद की मृत्यु हो गयी और उससे दो वर्ष पूर्व मेरे रिश्तेदार की. लेकिन जिस घटना का मैं उल्लेख करने जा रहा हूं वह उनके दूसरे नम्बर के दामाद से सम्बन्धित है. उनके दूसरे दामाद उत्तर प्रदेश के एक शहर में उन दिनों इंटर कॉलेज में पढ़ाते थे. उनसे मेरी कभी मुलाकात न हुई थी और मैं मिलना चाहता भी नहीं था. उनके विषय में जो सुना था वह हतोत्साहित करने के लिए पर्याप्त था. सुना था कि जहां आम आदमी की सुबह एक लोटा जल या एक कप चाय से होती है वहीं उनकी सुबह कम से कम तीन पेग शराब से. यही नहीं यह भी बताया गया कि वह महिलाओं के पीछे भागनेवाले व्यक्ति भी थे. यही कारण था कि उनके शहर जाने पर भी उनसे मिलने की चाह उत्पन्न नहीं हुई.
लेकिन मैं कब तक उनसे बचता. आखिर वह मेरे एक खास रिश्तेदार के दामाद थे और उसी अधिकार से वह एक दिन अतिथि-सत्कार का सौभाग्य प्रदान करने के लिए मेरे घर आ पहुंचे थे. कारण था अपने ’बचुआ’ के लिए कहीं नौकरी का जुगाड़ फिट करना. ’बचुआ’ भी साथ थे. दिल्ली जैसे क्रूर शहर में रहते हुए अभी तक जिन कुछ प्रतिशत लोगों के भारतीय संस्कार बचे हुए हैं उनमें मैं भी अपने को गिनता हूं. संस्कार बताते हैं कि अतिथि कैसा भी हो उसका सत्कार होना ही चाहिए. लेकिन जैसे सत्कार की वह अपेक्षा कर रहे थे उसके लिए मैं बिल्कुल ही तैयार नहीं था, हालांकि मन में आशंका थी कि यह प्रश्न उठेगा अवश्य.
रात्रि भोजन के समय रिश्तेदार के दामाद साहब ने, जिन्हे मास्टर साहब कहना अधिक सहज है, बोतल की मांग रख दी. शराब से दूर रहने वाले मुझ जैसे व्यक्ति के लिए यह संकट की बात थी. मैं यह भी नहीं जानता था कि ठेके कहां-कहां थे. बस से आते-जाते मालरोड के पास एक ठेके की दुकान अवश्य देखा करता था. उन दिनों अपने कुछ पत्रकार मित्रों के विषय में सुनता था कि वे ’मजनूं का टीला’ जाते थे. लेकिन यह कहां है ,मैं तब नहीं जानता था . मालरोड के पास के उस ठेके को ही ’मजनूं का टीला’ का ठेका मान बैठा था. उन दिनों ठेके भी शायद साढे़ सात बजे बंद हो जाते थे. आज की सरकार की भांति ठेकों से धन बटोरने की चाह या सोच शायद तब की सरकार में न उपजी थी वर्ना कभी की दिल्ली की बड़ी आबादी शराब में डूब चुकी होती.
मास्टर साहब बिना पिये भोजन को तैयार न थे. मेरा अतिथि सत्कार बाधित था. आठ बज चुके थे. मैंने स्कूटर निकाला, उन्हे लादा और अपनी जानकारी के एक मात्र ठेके में जा पहुंचा. ठेके का आधा शटर गिरा हुआ था. मास्टर साहब स्कूटर से कूदकर ठेके की ओर लपके. उनके कूदने से मैं गिरते बचा. स्कूटर खडा़कर मैं भी पास जा पहुंचा.
"भाई साहब एक अद्धा चाहिए" मास्टर बोले.
"ठेका बंद हो चुका है" अंदर से कोई बोला.
"भैया आप पौवा ही दे दें"
"ठेका बंद हो गया है. दिखता नहीं?" अंदर से एक कड़क आवाज और उसीके साथ शटर और नीचे गिर गया इतना कि जमीन से केवल एक फुट ऊपर तक ही उठा रहा.
मास्टर साहब जमीन पर लेट गये और शटर के अंदर मुंह डालकर गिड़गिडा़ए, "भैया मेहरबानी, केवल पौवा ही दे दें".
शटर के अंदर से किसी ने पैर से मास्टर साहब के सिर को धिकायाया और शटर पूरी तरह बंद कर दिया.
मास्टर साहब खड़े हुए, धूल झाड़ी और मुझसे किसी दूसरे ठेके चलने का आग्रह किया. उनके चेहरे पर अफसोस का कोई निशान नहीं था. चेहरा पूरी तरह भावहीन था, जबकि मैं ........मैंने स्पष्ट इंकार कर दिया. यह घटना शायद वह भी न भूले होंगे, क्योंकि उनके जीवन में बिना पिये रात्रि भोजन करने के जो चंद अवसर आए होंगे (यदि कभी आए होंगे) उनमें एक मेरे यहां का था.
7 टिप्पणियां:
भाई चन्देल, बढ़िया सस्मरण है।
it is a good piece of writting. there are so many people who can not serwive without drinks. i rember, there was a surprise for me like this when i met an old man in dehradun. he was the father of a newly married son. he presented a boottle of rum because i was two days late there. the daughter of old man told me that her father is very happy with me, so he presented the bottle. she asked me not to return the bottle.
Mahesh Darpan
Priya Mahodaya,
Rachna Samay ko dekha to laga ki itnee achee patrika kaise achhootee rah gayee thee mujhse abhee tak...!
Durgesh
भाई रूपसिंह जी
आपके संस्मरण ने बहुत से दोस्तों की याद ताज़ा करवा दी। ऐसे बहुत से साहित्यकार, पत्रकार दोस्तों को देखा है अद्धे और पव्वे के लिये तड़पते, बिलखते और बिकते। लन्दन आने के बाद से ऐसी घटनाएं नहीं देखने को मिली हैं। आप अपनी यादों के ख़ज़ाने का हमें भी भागीदार बनाते रहें और पिलाने से ठीक ऐसे ही इन्कार करते रहें।
तेजेन्द्र शर्मा, लन्दन
Dear Dr Shib
This is what happening these days with those people who are gone mad with drinking and other related maladies of restlesness in society today. YOu have really done a wonderful job by presenting such a memoir.
J.L.GUPTA
My dear Chandel,
Gone through your article. It is a nice one. You have very beautifully exhibited the condition of a SHARABI dying for a POUA. Keep it up.
I. BURMAN
एक टिप्पणी भेजें