बुधवार, 28 मई 2008

पुस्तक चर्चा

बहुआयामी रचनाकार वीरेन्द्र कुमार गुप्त


२९ अगस्त १९२८ को सहारनपुर (उ०प्र०) में जन्मे वीरेन्द्र कुमार गुप्त उन वरिष्ठ रचनाकारों में हैं जो साहित्य की उठा-पटक से दूर १९५० से निरन्तर लेख रहे हैं. वीरेन्द्र जी की पहली रचना ’सुभद्रा-परिणय’(नाटक) १९५२ में प्रकाशित हुई थी. अब तक सात उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें तीन ऎतिहासिक उपन्यास हैं. दो प्रबंध काव्य-- ’प्राण-द्वंद्व’ और ’राधा कुरुक्षेत्र में’ के अतिरिक्त कुछ स्फुट कविताएं. अनेक चिन्तनपरक लेख.
१९६४ में वीरेन्द्र जी ने बहुत परिश्रम पूर्वक विश्व के महान व्यक्तियों के कुछ प्रेम पत्रों को संकलित किया जो ’प्रसिद्ध व्यक्तियों के प्रेम-पत्र’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुए थे . हाल में यह पुस्तक ’किताबघर प्रकाशन’, २४, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली -११०००२ से पुनः प्रकाशित हुई है. इसी प्रकाशन संस्थान से वीरेन्द्र जी महत्वपूर्ण ऎतिहासिक उपन्यास - ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ कुछ दिन पूर्व प्रकाशित हुआ, जिसकी चर्चा आगे की जायेगी.
ीरेन्द्र जी ने अंग्रेजी में भी प्रभूत मात्रा में लेखन कार्य किया है. अंग्रेजी में उनकी विवादित पुस्तक है : ’Ahimsa in India's Destiny' और दूसरी पुस्तक है -’The Inner self'.
वीरेन्द्र कुमार गुप्त का एक स्वरूप अनुवादक का भी है. उन्होंने लगभग १२ पुस्तकों के अनुवाद किये थे और ये सभी अनुवाद सठवें दशक में किए गए थे. जैक लडंन के नोबल पुरस्कार प्राप्त उपन्यास Call of the Wild' का अनुवाद ’जंगल की पुकार’ नाम से उन्होंने किया. यह एक अद्भुत अनुवाद है . अब तक हिन्दी में इस पुस्तक का यही अनुवाद उपलब्ध था, लेकिन जैसा कि इन दिनों हिन्दी के कुछ अवसरवादी प्रकाशक कर रहे हैं, एक सूचना के अनुसार वीरेन्द्र जी के इस अनुवाद को एक प्रकाशक ने किसी छद्म नाम से प्रकाशित कर दिया है.
वीरेन्द्र जी का एक और अभूतपूर्व कार्य है, जिसके विषय में नई पीढ़ी की क्या कहा जाये, मेरी या मुझसे पहली पीढ़ी के लेखकों तक को नहीं मालूम -- पाठकों की बात ही क्या !

विश्व का सबसे बड़ा साक्षात्कार

जैनेन्द्र जी के नाम से प्रकाशित पुस्तक -’समय और हम’ का श्रेय वीरेन्द्र कुमार गुप्त को है. दरअसल यह एक ही साक्षात्कार की वृहदाकार (लगभग ७०० पृष्ठों की) पुस्तक है, जिसमें वीरेन्द्र कुमार गुप्त के प्रश्नों के उत्तर जैनेन्द्र जी ने दिए हैं. मुझसे एक बार बातचीत के दौरान मेरे एक प्रश्न के उत्तर में वीरेन्द्र जी ने बताया था कि इस कार्य १९६३-६४ के दौरान प्रश्नावली लेकर प्रतिदिन साइकिल से वह जैनेन्द्र जी के निवास दरियागंज जाते थे . उनके प्रश्नों के उत्तर जैनेन्द्र जी उन्हें डिक्टेट करवाते थे. वहां से वह अपने विद्यालय चले जाते थे (वह दिल्ली सरकार में अध्यापक थे और प्रधानाचार्य के रूप में सेवा निवृत हुए थे). रात उत्तरों को लिखकर अगले दिन के प्रश्न तैयार करते थे. इसप्रकार निरन्तर एक वर्ष के अथक परिश्रम का परिणाम था ’समय और हम" जिसे जैनेन्द्र जी ने अपने नाम से प्रकाशित करवाया था. जबकि वीरेन्द्र जी के नाम से ही प्रकाशित होनी चाहिए थी. इस पर जैनेन्द्र जी और वीरेन्द्र जी के मध्य मामूली विवाद भी हुआ था, लेकिन संकोची और सरल स्वभाव वीरेन्द्र कुमार गुप्त ने उस विवाद को आगे बढ़ाने के बजाय चुप रहना अधिक बेहतर समझा था. संभव है जैनेन्द्र जी के प्रति उनके आदर भाव ने उन्हें रोका हो. बात जो भी हो, इस सचाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि वीरेन्द्र कुमार गुप्त के अथक श्रम के कारण विश्व का सबसे लंबा साक्षात्कार तैयार हुआ, जिसकी विशेषता यह है कि यह जीवन दर्शन पर आधारित आद्यन्त एक व्यक्ति का एक व्यक्ति द्वारा किया एक साक्षात्कार है, जिसे ’लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड’ में अभी तक शामिल न किया जाना अपने में आश्चर्यान्वित करता है.
संपर्क : द्वारा - डॉ० प्रवीण कुमार गुप्त
३१/१, नीति नगर,
रुणकी विश्वविद्यालय, रुणकी (उत्तर प्रदेश)
फोन : ०१३३२-२७५५२८ / २८५५१९
मोबाइल: ०९४१०१६४६२५
प्रस्तुत है वीरेन्द्र जी के महत्वपूर्ण ऎतिहासिक उपन्यास ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ की समीक्षा:

चाणक्य की प्रासंगिकता

* रूपसिंह चन्देल

विष्णुगुप्त चाणक्य - वीरेन्द्र कुमार गुप्त
किताबघर प्रकाशन, २४ अंसारी रोड,
दरियागंज, नई दिल्ली-११० ००२
पृष्ठ - ३६४, मूल्य - ३५०/-


कवि, कथाकार और चिंतक वीरेन्द्र कुमार गुप्त का छठवां उपन्यास है ’विष्णुगुप्त चाणक्य’. यह आश्चर्यजनक है कि लगभग पचास वर्षों से सृजनरत वीरेन्द्र जी को अपेक्षित चर्चा नहीं मिली. इसे हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा. संपादक लोग अपने चाटुकारों की पुस्तकों की तीन-तीन समीक्षाएं अपनी पत्रिका के एक ही अंक देकर चर्चा करवाने के सद्प्रयास करते हैं , जहां कम और कमतर लिखने वाले रचनाकार ’गुट’ और ’वादों’ से जुड़कर चर्चा हासिल कर लेते हैं, लेकिन केवल रचनाकर्म को ईमानदारी से स्वीकार करने वाला एकाकी कर्मरत रचनाकार आंधकार में खोया रहता है . आवश्यकता है कि नयी पीढ़ी ऎसे रचनाकारों का मूल्यांकन -पुनर्मूल्याकंन करे. अन्यथा सदैव अच्छी कृतियां अचर्चा के गर्भ में खोयी रहेंगीं और पाठक उस उच्छिष्ठ को ही श्रेष्ठ मानता रहेगा, जो उन्हें कुछ साहित्यिक मठाधीशों द्वारा श्रेष्ठ बताया जाता रहेगा. भ्रष्ट राजनीति की भांति साहित्य में व्याप्त अव्यवस्था, भाई-भतीजावाद, मित्रता-प्रेमिकावाद को बेनकाब करने का दायित्व आज की पीढ़ी पर है, अन्यथा भविष्य में भी कितने ही युवा वीरेन्द्र कुमार गुप्त की भांति अच्छा लिखकर भी चर्चा से बाहर रहेगें और कितनी ही ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ जैसी कृतियां सरकारी खरीद का अंग बनकर गोदामों में सड़्ती रहेंगी.

समीक्ष्य कृति के माध्यम से उपर्युक्त कथन मेरा दुस्साहस माना जा सकता है, किन्तु यह आवश्यक इसलिए लगा क्योंकि जिस लेखकीय दृष्टि का परिचय ’चाणक्य’ में हमें प्राप्त होता है वह अब तक चाणक्य संबंधी उपलब्ध कथा-साहित्य से अधिक मौलिक और तथ्यात्मक है. वर्तमान संक्रातिक परिस्थितियों को समझने और अतीत से प्रेरणा लेने की नवीन दृष्टि का समावेश कृति को महत्वपूर्ण बनाता है और ऎसी रचना पाठकों की दृष्टि से ओझल न हो, इसलिए उपर्युक्त कथन आवश्यक लगा.
’विष्णुगुप्त चाणक्य’ में लेखक की कुछ मौलिक स्थापनाएं हैं, जिनके लिए उसके पास शोधात्मक तर्क हैं. उसने चाणक्य को पाटलिपुत्र निवासी नहीं स्वीकार किया, प्रत्युत उसे तक्षशिला वासी माना है. चाणक्य अपने एक शिष्य कमंद को अपना परिचय देते हुए बताता है कि वह तक्षशिला के गोल्ल जनपद के छोटे-से ग्राम चण का निवासी है और उसके पिता का नाम शिवगुप्त था, जो तक्षशिला में अध्यापक थे और चाणक्य कहलाते थे.
इस बात के प्रमाण में लेखक भूमिका में बौद्धग्रंथों -महाबंशों और वशंत्थप्पाकासिनी में आए उल्लेखों की चर्चा करता है. लेखक का यह तर्क विवादास्पद हो सकता है कि चाणक्य तक्षशिला का ही था क्योंकि बौद्धग्रंथ भी गोल्ल जनपद की वास्स्तविक अवस्थिति के विषय में मौन हैं (भूमिका) . लेखक का यह अनुमान ही है कि गोल्ल जनपद देश के पश्चिमोत्तर अर्थात तक्षशिला में ही अवस्थित था.
चाणक्य चाहे पाटलिपुत्र का निवासी रहा हो या तक्षशिला का लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि वह एक दुर्द्धर्ष कूटनीतिज्ञ , राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री था. उसने एक स्वप्न देखा था संपूर्ण भारत में एक शासक के एक- छत्र राज्य का, जिससे यवन भारत भूमि को आक्रांत न कर सकें और वह जीवन पर्यन्त अपने उस स्वप्न को साकार करने में व्यस्त रहा. लेखक ने जिस सहजता से कथा का ताना-बाना बुना है, जिस प्रकार मूल कथा के साथ उप-कथाऎं अनुस्यूत हैं----- वे कथा को न केवल गति प्रदान करती हैं, प्रत्युत विश्वसनीय प्रतीत होती हैं. पाटलिपुत्र नरेश नंद के साम्राज्य की दुर्व्यवस्था-विलासिता (सामंतो की) कर्मचारियों-सैनिकों की निरंकुशता, धन-भोग लिप्सा, अराजकता , शोषित जनता की व्यथा को लेखक ने जिस यथार्थता के साथ चित्रित किया है, वह आज घटित प्रतीत होता है ------सब कुछ आंखों के समक्ष घटित होता हुआ.
मल्लिका जैसी युवतियों का अपहरण कर उन्हें राजविलास की वस्तु बना देना, रजविलास से मुक्ति के बाद महामात्य राक्षस द्वारा अपनी काम-लिप्सा की तृप्ति के साधन-स्वरूप बंदी बनाए रखना और अंत में नगरवधू के रूप में प्रतिष्ठित कर देना लेखक की कल्पना होते हुए भी वास्तविकता का एहसास करवाती है. मल्लिका अंत तक ’चाणक्य’ उपन्यास में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करती दिखती है और चाणक्य द्वारा पुत्री रूप में स्वीकार किया जाना वर्तमान समाज के लिए ऎसा संदेश है कि विवशतः ऎसी स्थिति में पहुंची युवतियों को समाज के महापुरुषों द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए और उन्हें नवीन जीवन के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए.
आज तक यह प्रश्न भारतीय मानस को मथता रहा है कि चन्द्रगुप्त कौन था? लेखक ने प्रथमतः भूमिका में और बाद में कथा के माध्यम से स्पष्ट किया है कि चन्द्रगुप्त की मां का नाम मुरा था जिससे वह मौर्य कहलवाया . बौद्धग्रंथ महावंशों के अनुसार मोरिय खत्तियों (मौर्य क्षत्रियों) का एक गण पिपालिवन प्रदॆश में अवस्थित था और चन्द्रगुप्त इस गण के राजा का पुत्र था. लेखक के अनुसार यह स्थान पटना से ५८ मील पूर्व में था, जहां आज भी ’मोर’ नाम का स्टेशन है. लेखक का तर्क है कि नंद ने इस मोरिय नगर को ध्वस्त किया होगा और युद्ध में चन्द्रगुप्त के पिता की या तो मृत्यु हुई होगी या वह बंदी बनाया गया होगा.
चन्द्रगुप्त के पिता की मृत्यु हुई या वह बंदी बना हो, महत्वपूर्ण यह नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि यदि चन्द्रगुप्त चाणक्य को न मिला होता तो क्या अलेक्ष्येन्द्र या उसके परवर्ती सेल्यूकस से संपूर्ण भारत को पद दलित होने से रोका जा सकता था और यही महत्वपूर्ण इस उपन्यास के कथानक के मूल में है. ऎसा नहीं है कि हिन्दी पाठकों के लिए चाणक्य या चन्द्रगुप्त के जीवन पर आधारित कथा ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ के माध्यम से पहली बार पढ़ने को मिल रही है लेकिन कुछ अकाट्य तथ्य पहली बार लेखक ने इसमें अवश्य प्रस्तुत किए हैं. यथा अलेक्षेन्द्र के समक्ष पुरु ने संधि प्रस्ताव नहीं भेजा था बल्कि अलेक्ष्येन्द्र ने पुरु के पास अपना दूत भेजा था क्योंकि उसे लगने लगा था कि यदि पुरु के साथ वह संधि नहीं करेगा तो उसका भारत-विजय का स्वप्न अधूरा रहेगा और संभवतः उसको पर्याप्त सैनिक शक्ति और सामान की क्षति भी उठानी पड़ेगी. दूसरा चाणक्य मात्र मूक निर्देशक ही न रहा था और न वह दूरस्थ युद्ध संचालक , बल्कि वह स्वयं लगभग सभी प्रारंभिक युद्धों में चन्द्रगुप्त के साथ था जिससे निकट से शत्रु की स्थिति पर दृष्टि रख सके और चन्द्रगुप्त को उचित निर्देश दे सके. तीसरी महत्वपूर्ण और विचारणीय बात यह कि पुरु के साथ अलेक्ष्येन्द्र के युद्ध के समय चन्द्रगुप्त स्वयं एक छोटी सेना का नेतृत्व संभालता हुआ पुरु की ओर से अलेक्ष्येन्द्र पर आकस्मिक आक्रमण करता है. चाणक्य पुरु के अनुरोध पर इस युद्ध के लिए चन्द्रगुप्त को सन्नद्ध नहीं करता, बल्कि स्वेच्छया उसमें सम्मिलित होता है. क्योंकि देश पर आसन्न संकट को केवल चाणक्य ही समझता है, दूसरे राज्य चाहे वह केकय हों, तक्षशिला, वाहीक, मालव या शक्तिशाली मगध, ---- नहीं समझते. वे अपने अहम के वशीभूत होते हैं और अपने पड़ोसी का पराभव देखना चाहते हैं. वे यह नहीं समझते कि निकटस्थ राज्य की पराजय उनके लिए जय कभी नहीं बन सकती, किन्तु आपसी वैमनस्य के चलते ही मूर्ख आम्भीक अलेक्ष्येन्द्र के साथ मिल जाता है और पुरु के विरुद्ध उसकी सहायता करता है.
चाणक्य के सभी प्रयास व्यर्थ जाते हैं और इन प्रयासों को ऎतिहासिक तथ्यों के आधार पर ही लेखक ने चित्रित किया है. निसंदेह उसने कल्पना को पर्याप्त स्थान दिय है और अनेक ऎसे पात्रों को स्थान दिया है जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए इस प्रकार कथा का अंग बन जाते हैं जिनके विषय में पाठक शंकालु नहीं हो पाता .इसे लेखकीय सफलता का अद्भुत कौशल कहा जाएगा और इस कौशल का चमत्कार उपन्यास को जीवंत बनाता है. कंकु, मल्लिका, सिंह, हेमा , रुचिशील, उसकी पत्नी आदि कितने ही ऎसे पात्र हैं जिनका ऎतिहासिक अस्तित्व कभी नहीं था, किन्तु वे इस उपन्यास के माध्यम से वास्तविक हो उठे हैं.
चाणक्य को आज तक पाठकों के समक्ष शुष्क, रुक्ष और कठोर रूप में ही सदैव प्रस्तुत किया जाता रहा है जिसके समक्ष अनुशासन ही सर्वस्व था और जो अपने प्रति भी निर्मम रहा था. किन्तु वीरेन्द्र कुमार गुप्त ने चाणक्य को एक ऎसे रूप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है जो कठोर तो है लेकिन साथ ही सह्रदय भी है और प्रणयाकांक्षी भी. वह मल्लिका जैसी शोषिता को पुत्री स्वीकार करता है तो हेमा जैसी यवन सुन्दरी के प्रति युवावस्था में आकर्षित हो सुधबुध खो बैठता है. हेमा द्वारा एक सामंत के साथ विवाह करने और बाद में शशिगुप्त की प्रेमिका और उसके ठुकराए जाने पर पुनः चाणक्य के पास आने पर वह उसे उसी भांति स्वीकार करता जैसा उसने उसे युवावस्था में किया था. वह हेमा को अलेक्ष्येन्द्र के विरुद्ध गुप्तचर के रूप में सहयोगिणी बनाता है और तक्षशिला में हेमा चाणक्य के राजनैतिक उद्देश्यों कि पूर्ति के लिए वारवनिता तक बनना स्वीकार करती है. अंततः यह जानते हुए भी कि हेमा अनेक पुरुषों की अंकशायिनी बनी है चाणक्य उसके साथ गंधर्व विवाह करता है. अंत में वह उसे वृहद्दहट्ट भेज देता है जहां वह चाणक्य के पुत्र को जन्म देती है.
यद्यपि हेमा एक काल्पनिक पात्र है और उसका प्रादुर्भाव एक विवाद का विषय हो सकता है, किन्तु लेखक इस बात की पुष्टि करता हि कि एक जैन ग्रंथ में इस बात का उल्लेख मिलता है कि चन्द्रगुप्त के पुत्र बिंदुसार का महामात्य चाणक्य का पुत्र राधागुप्त था और उसी से प्रेरित होकर लेखक हेमा की कल्पना करता है. लेखक के अनुसार भले ही हेमा चाणक्य के जिवन में न रही हो ,किन्तु कोई स्त्री तो रही ही होगी, जिससे रधागुप्त का जन्म हुआ होगा.
उपन्यास में संवादों में एक विमुग्धकारी विशिष्टता है. सारगर्भित अकाट्य और तर्कपूर्ण कथोपकथन कथा को गतिशीलता प्रदान करते हैं. ’भाभी’ ’हेमाजी’, ’धंधा’ जैसे कुछ खटकने वाले शब्दों के अतिरिक्त भाषा प्राजंल - बोधगम्य और शैली आकर्षक है. पाठक को आद्यन्त बांध रकहने की क्षमता उपन्यास की सबसे बड़ी सफलता है. आज के परिप्रेक्ष्य में समीक्ष्य उपन्यास महत्वपूर्ण संदेश है. तब यदि एक यवन आक्रमण का खतरा ब्न्हारत के समक्ष था तो आज अनेक प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्श आक्रमणों का खतरा इस देश पर मंडरा रहा है. एक ओर पड़ोसी देश द्वारा प्रश्रित आतंकवादी गतिविधियां हैं तो दूसरी ओर अन्य बाहरी खतरे. आंतरिक स्थितियों की तुलना भी तत्कालीन स्थितियों से भिन्न नहीं है. आज भी आम्भीक पुरु, नंद दूसरे रूप में हैं और उनके अधिकारियों-सामंतों की भांति देश के नयमन और संचालन के जिम्मेदार लोग आज वैसे ही इसकी जड़ों को कमजोर कर अपना हित साधन कर रहे हैं जैसे तब हो रहा था. समय की मांग है कि आज के संदर्भ में चाणक्य की भूमिका को समझा जाए तभी यह देश और इसकी संस्कृति अक्षुण्ण रह सकती है. अन्यथा आक्रांता यवन हों या कोई और देश को नष्ट करना ही उनका परम उद्देश्य है और उसी की रक्षा का संदेश है ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ जिसके लिए लेखक, और प्रकाशक साधुवाद के पात्र हैं.
*****

5 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई चन्देल, वीरेन्द्र कुमार गुप्त जी के बारे में लिखकर और उनके उपन्यास "विष्णुगुप्त चाणक्य" की अपने ब्लाग में चर्चा करके अपने ब्लाग की सार्थकता सिद्ध कर दी। नि:संदेह गुप्त जी जितने के लिए 'डिजर्व' करते हैं, उतना उन्हें नहीं मिला। तुम ऐसे कर्मठी और रेखांकित किए जाने वाले लेखकों की चिंता करते हो, यह अच्छी बात है। ब्लाग पत्रिका को लेकर तुम्हारा उद्देश्य साफ है और तुम्हारे ब्लाग्स इन्हीं कारणों से ब्लाग जगत में एक अलग पहचान बनाते दीखते हैं। मेरी शुभकामनाएं!

Unknown ने कहा…

Dear Chandel Saheb,

Hamaare varishth lekhak Shri Vijay Gupt Ji ki pustak 'Vishnugupt Chankaya' par aapki Sameeksha dekhi. Vastav he mein lajawab hai. Aur us se bhi lajawab hai Vijay Gupt ji par aapka alekh jo hamare tathakathit pujya lekhkon ki asliyat aur unke ghinone karyon ka pardafash karta hai. Yeh baat hamaare dusre sahityakaron ko bhi samajhni chahiye.

Aapne vakai ek adbhut karya kiya hai ki ek aitihasik mahtva ki pustak ko sameeksha ke liye chuna. Aapko toh badhaai deni hi chahiye, Vijay Gupt Ji ko bhi sadhuvaad kahna chahiye.

Aur Bhaiya Ji, apne yeh kaya tippani kar dee hai sampadkon ke baare mein ki veh ek pustak ki teen-teen sameekshayen ek hi ank mein karvate hein. Apne sir par helmet daliye ,saheb! kahin patthsr na padne lagein.

RAMESH KAPUR, Editor- KATHA SHIKHAR, 9891252314

बेनामी ने कहा…

Respected Vijay Gupt Ji,

Abhi hi aapki pustak ' Vishnugupt Chanakya' par Roop Singh Chandel Ji ki lajawab sameeksha dekhi. Aur Aapka- Janender Ji ke vishva mein sabe bade interview ka parsanh bhi padaa jo ki Janender ji ka ek bahut hi nindniye karya tha. Iski toh saare sahityik jagat ko ninda karni chahiye aur aap ke is adbhut karya ka aapko poora shreya dena chahiye.

Agar sambhav hua toh mein avashya hi is pustak ko padna chahunga.

Is mahetvapooran pustak ke liye hamari badhaai sweekar karen.

Dhanyavaad,

Aapka hi,

Ramesh Kapur

J.L. Gupta 'Chaitanya' ने कहा…

Respected Dr Sahib
I am overwhelmed with joy to see your sincere & bold attempt to get on focus Virendra Gupta's outstanding works. Such a versatile genius thinker & writer is rare today. It's unfortunate that Hindi literature has done full justice with such a scholar.
J.L.GUPTA, Delhi, 9891003296

बेनामी ने कहा…

durgesh kumar mishra
shree chandel jee, achanak mere man men swatntrate sangram ke beer saputon karmbhoomi bithur ka khayal aaya aur mane googal sarch kiya to samne aapka yatra sansmarn paya. padhkar unkee beer gathaon se man romanchit ho utha. sath hee sarkari upechhaon se man khinna bhi hua, malai kat rahe rajnetaon par.

aaj samaj, hindi dainik& ambal
09541522501