गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

कविता



पेटिगं - देव प्रकाश चौधरी



अपराजिता

वीरेन्द्र कुमार गुप्त

सम्पादकीय टिप्पणी : ’अपराजिता’ वरिष्ठ कवि-कथाकार वीरेन्द्र कुमार गुप्त का काव्योपन्यास है. वीरेन्द्र जी ने इसमें न केवल काव्यगत प्रयोग किये हैं, बल्कि काव्य-कथा के माध्यम से अपनी विचारधारा को भी प्रस्तुत किया है. इस देश की हजारों वर्षों की गुलामी के लिए वह बुद्ध की अहिंसा को दोष देते है. उनकी पुस्तक Ahimsa in India's Destiny' में इसपर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है. उनके उपन्यासों ’विष्णुगुप्त चाणक्य’, ’प्रियदर्शी’ और ’विजेता’ में भी उनकी यह दृष्टि परिलक्षित है. ’अपराजिता’ का प्रथम प्रकाशन उनके छोटे भाई कथाकार स्व. योगेश गुप्त ने छठवें दशक में किया था, लेकिन योगेश की प्रकाशकीय अनुभवहीनता के कारण इसे प्रचार नहीं मिल सका.

हाल में इसका पुनर्मुद्रण ’पेनमैन पब्लिशर्स’
सी-२६(बी), गली नं. ३,
सादतपुर विस्तार , करावलनगर रोड, दिल्ली-११००९४ ने किया है.
१९९ पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य १९०/- है.

कवि का वक्तव्य
ईसा-पूर्व के भारत में जहां मगध जैसा साम्राज्य और अनेक छोटे-बड़े राज्य थे, वहीं अनेक गण अर्थात नगर राज्य भी पूरे उत्तरी भारत में अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाए हुए थे. राजा और सम्राट इन नगर राज्यों को किसी भी उपाय से अपने राज्य में मिलाने को व्यग्र रहते थे. पर ये गणराज्य भी अपने उन्मुक्त अस्तित्व की रक्षा के लिए हर बलिदान देने को कटिबद्ध मिलते थे. बुद्ध के काल में वैशाली के गणतन्त्र को मगध सम्राट अजातशत्रु ने भारी नर-संहार के बाद अपने साम्त्राज्य का अंग बनाया था और अशोक द्वारा कलिंग पर किया गया आक्रमण तो इतिहास प्रसिद्ध है ही. राजनीतिक तल पर चलते इस द्वन्द्व के समानान्तर उस काल के वैयक्तिक-सामाजिक जीवन में एक और द्वन्द्व कहना चाहिए, अंतर्द्वन्द्व , भी सर्वव्याप्त था, जो बुद्ध द्वारा पारिवारिक-सांसारिक जीवन को त्याग कर निर्वाण की साधना को व्यक्ति का चरम लक्ष्य प्रचारित करने के बाद अत्यन्त गहन और व्यापक रूप ले गया था. यह था गृहस्थ और सन्यास के बीच का अन्तर्द्वन्द्व . बुद्ध ने गृहस्थ और समाज के नैसर्गिक दायित्वों से पलायन को ऎसी आध्यात्मिक प्रतिष्ठा प्रदान कर दी थी कि हर व्यक्ति, वह भिक्षु हो या गृहस्थ, संसार को असार, मोह-बन्ध और विपथ मान बैठा था; और यह धारणा उसके अवचेतन में समा गई थी. तब से आज तक हिन्दू मानसिकता इससे मुक्त नहीं हो पाई है, यह देखते हुए भी कि भिक्षु या सन्यासी बनकर एक काल्पनिक निर्वाण या मोक्ष की साधना करने वालों का भौतिक अस्तित्व बस कुत्सित संसार पर ही निर्भर रहा है. संसार के बोझ को और उसकी चुनौतियों को हम विवश भाव से और बेमन से ही झेलते आए हैं. विगत दो हज़ार वर्षों के बीच हमारी अगणित पराजयों के पक्ष में हमारी यही रुग्ण मानसिकता रही है. उपरोक्त राजनीतिक द्वन्द्व पर और इस आध्यात्मिक पलायनवाद पर चिन्तन ही इस काव्य का मूल विषय बना है. मेरी सोच है कि मोक्ष या निर्वाण की वायव्य कल्पना ने व्यक्ति और समाज की नैसर्गिक स्वस्थ परस्परता को विकृत और अस्वस्थ बनाया है, क्योंकि निर्वाण का लक्ष्य अपरिहार्य रूप से व्यक्तिवादी और समाज-निरपेक्ष है. यथार्थ यह है कि भौतिक संसार और अध्यात्म मानव-जीवन की सरल रेखा के दो अनिवार्य सिरे हैं; ये एक ही नदी के दो तट हैं. मनुष्य दो पैरों पर चलता है और दो हाथों से काम करता है. एक पैर या एक हाथ के अशक्त होने या न रहने पर विफलता और कुण्ठा ही उसकी झोली में पड़ती है. अध्यात्म का लक्ष्य जीवन-सापेक्ष अन्तर्दृष्टि का और अन्तरंग ऊर्जा का विकास ही हो सकता है, मोक्ष या निर्वाण नहीं.
’अपराजिता’ का कथानक जातकों में एक ’वेस्सन्तर’ जातक पर आधारित है, जिसमें दान के माहात्म्य को दर्शाया गया है. यह मूल कथा काव्य में पूरी तरह परिवर्तित हो गई है. केवल पात्रों के नाम - वेस्सन्तर, माद्री, संजय, जालि, कृष्णा - ही सुरक्षित रहे हैं. शेष पात्र- इला, सुमन, रत्न, रुद्र आदि काल्पनिक हैं. यह काव्य काव्यशास्त्र के नियमों से बंध कर नहीं, उन्मुक्त उपन्यास शैली में लिखा गया है. इसलिए इसे ’काव्योपन्यास’ कहना अधिक संगत होगा.
पुस्तक से :
कहानी के प्रति

आता, बह जाता सरिता-जल;
आते, बह जाते युग, दिन, पल!
तरी काल-लहरों पर खेता
मानव भी आता, चल देता .

पर भू पर खिच जाती रेखा-
किसने यह विधि-लेख न देखा ?
मिल जन-जन, युग-युग की वाणी
बनती एक अटूट कहानी.

मानव-जलधि-गर्भ के मोती
मानो माया मूक पिरोती
हंसती-हंसती, रोती-रोती,
पाती-पाती, खोती-खोती.

मानव का इतिहास इसी में;
उसका रुदन-विलास इसी में,
विकृति-कृति-, उन्नति-नति इसमें;
उर-मति, वैर-क्षोभ-रति इसमें.

शोषण-पोषण, जन्म-मृत्यु-क्षय;
हिंसा-स्वार्थ-घृणा-साहस-भय;
भूख-प्यास, विषयों की ज्वाला;
इसमें जय-विजयों की हाला .

कोई सौ-सौ रंगों से भर
चीत रहा सारा भू अम्बर--
मानव को न कहानी आती,
तो बहती गंगा रुक जाती !
*****
२९ अगस्त १९२८ को सहारनपुर (उ०प्र०) में जन्मे वीरेन्द्र कुमार गुप्त उन वरिष्ठ रचनाकारों में हैं जो साहित्य की उठा-पटक से दूर १९५० से निरन्तर लेख रहे हैं. वीरेन्द्र जी की पहली रचना ’सुभद्रा-परिणय’(नाटक) १९५२ में प्रकाशित हुई थी. अब तक सात उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें तीन ऎतिहासिक उपन्यास हैं. दो प्रबंध काव्य-- ’प्राण-द्वंद्व’ और ’राधा कुरुक्षेत्र में’ के अतिरिक्त कुछ स्फुट कविताएं. अनेक चिन्तनपरक लेख. १९६४ में वीरेन्द्र जी ने बहुत परिश्रम पूर्वक विश्व के महान व्यक्तियों के कुछ प्रेम पत्रों को संकलित किया जो ’प्रसिद्ध व्यक्तियों के प्रेम-पत्र’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुए थे . यह पुस्तक ’किताबघर प्रकाशन’, २४, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली -११०००२ से पुनः प्रकाशित हुई है. इसी प्रकाशन संस्थान से वीरेन्द्र जी महत्वपूर्ण ऎतिहासिक उपन्यास - ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ कुछ दिन पूर्व प्रकाशित हुआ. इससे पूर्व यह राजकमल प्रकाशन, दरियागंज से पेपर बैक संस्करण के रूप में १९९४ में प्रकाशित हुआ था.

वीरेन्द्र जी ने छठवें दशक में स्व. जैनेन्द्र जी से साहित्य और दर्शन पर लंबी बातचीत की थी, जो पुस्तकाकार रूप में ’समय और हम’ शीर्षक प्रकाशित हुई थी. यह लगभग ७०० पृष्ठों की पुस्तक है और अनुमानत: यह विश्व का सबसे बड़ा साक्षात्कार है.

वीरेन्द्र जी ने अंग्रेजी में भी प्रभूत मात्रा में लेखन कार्य किया है. अंग्रेजी में उनकी विवादित पुस्तक है : ’Ahimsa in India's Destiny' और दूसरी पुस्तक है -’The Inner self'. वीरेन्द्र जी का एक स्वरूप अनुवादक का भी है. उन्होंने लगभग १२ पुस्तकों के अनुवाद किये थे और ये सभी अनुवाद सठवें दशक में किए गए थे. जैक लडंन के नोबल पुरस्कार प्राप्त उपन्यास Call of the Wild' का अनुवाद ’जंगल की पुकार’ नाम से उन्होंने किया.

5 टिप्‍पणियां:

प्रदीप जिलवाने ने कहा…

वीरेन्‍द्र जी का परिचय जान, उन्‍हें अब तक न पढ़ पाने का दुःख हो रहा है.

बलराम अग्रवाल ने कहा…

आदरणीय वीरेन्द्र कुमार गुप्त का 'राधा कुरुक्षेत्र में' मैने पढ़ा भी है और पिछले दिनों विशाखापट्टनम में एक शोधकर्त्री को उपलब्ध भी कराया है। लेकिन सिवा इसके कि वे कथाकार योगेश गुप्त के बड़े भाई हैं और अच्छे साहित्यकार हैं, उनका इतना विस्तृत परिचय मुझे भी नहीं पता था। 'जमीं खा गई आसमां कैसे कैसे' वाली उक्ति देश और दिल्ली की साहित्यिक गुटबाजियों के संदर्भ में यहाँ एकदम से याद आ जाती है। आपको धन्यवाद और आदरणीय गुप्त जी को प्रणाम।

PRAN SHARMA ने कहा…

VIRENDRA JEE DWARA RACHIT
" APRAAJITA " KAA KAVYA-ANSH
BADE MANOYOG SE MAIN PADH GYAA
HOON.LAYA AESE HAI KI JAESE
SWACHCHH SARITA KAA PRAVAAH HO.

सुरेश यादव ने कहा…

भाई चंदेल जी,आप ने वरिष्ठ रचनाकार वीरेंद्र कुमार गुप्त जी के महत्वपूर्ण साहित्य को अपने ब्लॉग पर प्रकाशित कर प्रशंसनीय कार्य किया .virendra कुमार गुप्त एक सशक्त रचनाकार होते हुए भी कितने अपरिचित रह गए .यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है.गुप्त जी का यह कव्योपन्न्यास अलग महत्व का है इस लिए उन्हें बधाई और आप को धन्यवाद.

उमेश महादोषी ने कहा…

'तब से आज तक हिन्दू मानसिकता इससे मुक्त नहीं हो पाई है, यह देखते हुए भी कि भिक्षु या सन्यासी बनकर एक काल्पनिक निर्वाण या मोक्ष की साधना करने वालों का भौतिक अस्तित्व बस कुत्सित संसार पर ही निर्भर रहा है'...........'यथार्थ यह है कि भौतिक संसार और अध्यात्म मानव-जीवन की सरल रेखा के दो अनिवार्य सिरे हैं; ये एक ही नदी के दो तट हैं'............ 'अध्यात्म का लक्ष्य जीवन-सापेक्ष अन्तर्दृष्टि का और अन्तरंग ऊर्जा का विकास ही हो सकता है, मोक्ष या निर्वाण नहीं'..........
श्रद्धेय श्री वीरेन्द्र कुमार गुप्त जी के ये विचार व्यावहारिक धरातल पर अनुकरणीय हैं। आपने इनके विचारों को अपने मंच पर लाकर निश्चय ही प्रशंशनीय कार्य किया है।