रविवार, 6 जून 2010

पुस्तक चर्चा


डॉ० सुधा ओम ढींगरा की सद्यः प्रकाशित काव्य पुस्तक

धूप से रूठी चॉंदनी से पांच कविताएं

हाल में कवि-कथाकार और पत्रकार डॉ० सुधा ओम ढींगरा की कविता पुस्तक ’धूप से रूठी चांदनी’ शिवना प्रकाशन, सीहोर (मध्य प्रदेश) से प्रकाशित हुई है. रचनाएं ही नहीं पुस्तक भी अपने रूपाकार में आकर्षक है. प्रस्तुत हैं पुस्तक से पांच कविताएं :

१)आँगन

भीतर का आँगन
जब गन्दला गया,
तो एक झाड़ू बनाया
जिसके तीलें हैं सोच के
बंधा है विवेक के धागों से.

बुहार दी उससे ....
अतृप्त इच्छायों की धूल,
कुंठाओं की मिट्टी,
वेदनाओं का कूड़ा,
जलन की कर्कट.

झाड़ दीं उससे...
विद्रूपताओं और
वर्जनाओं से सनी
मन की खिड़कियाँ,
निखर आया है अब
मेरा आँगन.

खिड़कियों से
झाँकती धूप और
सरकती चाँदनी
का अलौकिक सुख,
कभी भीतर कदम रखना.

२)नींद चली आती है.....

बाँट में,
अपने हिस्से का सब छोड़,
कोने में पड़ी
सूत से बुनी वह
मंजी अपने साथ ले आई,
जो पुरानी, फालतू समझ
फैंकने के इरादे से
वहाँ रखी थी.

बेरंग चारपाई को उठाते
बेवकूफ लगी थी मैं,
आँगन में पड़ी
बचपन और जवानी का
पालना थी वह.

नेत्रहीन मौसी ने
कितने प्यार से
सूत काता, अटेरा औ'
चौखटे को बुना था,
टोह- टोह कर रंगदार सूत
नमूनों में डाला था.

चौखटे को कस कर जब
चारपाई बनी
तो हम बच्चे सब से
पहले उस पर कूदे थे.

उसी चारपाई पर मौसी संग
सट कर सोते थे,
सोने से पहले कहानियाँ सुनते
और तारों भरे आकाश में,
मौसी के इशारे पर
सप्त ऋषि और आकाश गंगा ढूँढते थे.

और फिर अन्दर धंसी
मौसी की बंद आँखों में देखते--
मौसी को दिखता है----
तभी तो तारों की पहचान है.

हमारी मासूमियत पर वे हँस देतीं
और करवट बदल कर सो जातीं,
चन्दन की खुश्बू वाले उसके बदन
पर टाँगें रखते ही
हम नींद की आगोश में लुढ़क जाते.

चारपाई के फीके पड़े रंग
समय के धोबी पट्कों से
मौसी के चेहरे पर आईं
झुरियाँ सी लगते हैं.

जीवन की आपाधापी से
भाग जब भी उस
चारपाई पर लेटती हूँ,
तो मौसी का
बदन बन वह
मनुहार और दुलार देती है .

हाँ चन्दन के साथ अब
बारिश, धूप में पड़े रहने
और त्यागने के दर्द की गंध
भी आती है,
पर उस बदन पर टांगे
फैलाते ही नींद चली आती है.....

३)अच्छा लगता है ......

बचपन में,
गर्मियों की रातों में,
खुली छत पर
सफेद चादरों से
ढकी चारपाइयों पर
लेटकर किस्से- कहानियाँ सुनना
और तारों भरे आकाश में
सप्तऋषि, आकाशगंगा और
ध्रुव तारा ढूँढना
अच्छा लगता था......

चंद्रमा में छिपी आकृति
आकार लेती नज़र आती,
कभी उसकी माँ
सूत कातती लगती
तो कभी हमारी दादी दिखती.

मरणोपरांत लोग तारे हो जाते हैं,
बड़े- बूढ़ों की बात को सच मान,
तारों में अपने बजुर्गों को ढूँढना,
दादा, दादी और वो रही नानी,
ऐसा कह कर
उनको देखते रहना...
अच्छा लगता था......

विज्ञान,
बौद्धिक विकास
और भौतिक संवाद ने
बचपन की छोटी-छोटी
खुशियाँ छीन लीं,
शैशव का विश्वास
परिपक्वता का अविश्वास बन...
अच्छा नहीं लगता है....

हर इन्सान में
एक बच्चा बसता है,
अपनी होंद का एहसास दिला
कभी -कभी वह
बचपन में लौट जाने,
बचपन दोहराने को
मजबूर है करता ,
वो मासूमियत,
वो भोलापन,
ओढ़ लेने को जी चाहता है,
तारों भरे आकाश में
बिछुड़ गए अपनों को फिर से
ढूँढना अच्छा लगता है.....

मेरे शहर में तारे
कभी -कभी झलक दिखलाते हैं,
खुले आकाश में फैले तारों को
हम तरस -तरस जाते हैं,
जब कभी निकलते हैं तो
फीकी सी मुस्कान दे इठलाते हैं,
पराये-पराये से लगते हैं
फिर भी उनमें अपनों को
खोजना अच्छा लगता है.......

४) आवाज़ देता है कोई उस पार......

सुन सोहणी उसे,
उठा माटी का घड़ा,
तैर जाती है
चनाव के पानियों में,
मिलने अपने महिवाल को
खड़ा है जो नदी के उस पार.....

सस्सी भटकती है थलों में
सूनी काली रातों में,
छोड़ गया था पुन्नू
सोती हुई सस्सी को,
पुन्नू-पुन्नू है पुकारती
शायद सुन ले उसकी आवाज़
खड़ा है जो मरू के उस पार.....
फ़रहाद ने तोड़ा पहाड़
नदी दूध की निकालने,
शर्त प्यार की पूरी करने,
तड़प रहा है मिलने शीरीं से
पहुँच न पाया उस तक
खड़ी है जो पहाड़ों के उस पार......
साहिबा ने छोड़ा घर- बार
छोड़े भाई और परिवार,
भाग निकली मिर्ज़ा संग
गीत में हेक जब लगाई उसने
खड़ा है जो झाड़ियों के उस पार......
हीर पाजेब अपनी दबा
ओढ़नी से मुँह छुपा,
चुपके से मिलने निकल पड़ी
मधुर स्वर राँझे का जब उभरा
खड़ा है दूर जो घरों के उस पार.........

५)नियति

द्रौपदी सी वह
झूठ,
धोखा,
बेईमानी,
ईर्ष्या,
बेवफाई
से पाण्डवों द्वारा
प्रेम की बिसात पर
रोज़ दांव पर लगती है....

प्रणय में छली जाती है,
प्रीत रुपी दुर्योधन
वादों के दुष्शासन से
चीर हरण करवाता है ...

निवस्त्र पीड़िता को
कोई कृष्ण बचाने नहीं आता. ..

क्या औरत की नियति
हर युग में लुटना ही है....

*****



धूप से रूठी चॉंदनी
शिवना प्रकाशन
पी.सी.लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट
बस स्टैंड, सीहोर-४६६००१ (म.प्र.), भारत
मूल्य : रु.३००/- , पृ. ११२

9 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

SUDHA OM DHINGRA KEE PANCHON
KAVITAAON NE PRABHAVIT KIYAA
HAI.SUNDAR AUR SAHAJ BHAVANUBHUTI
KE LIYE UNHEN BADHAAEE.

सुरेश यादव ने कहा…

भाई चंदेल जी ,आप ने सुधाओं म धींगरा जी की ,जिन कविताओं का चुनाव किया है वे अपनी संवेदना ,भाव -शैली के करण ऐलान करती प्रतीत हो रही हैं कि यह काव्य कृति पठनीय होगी.धींगरा जी को बधाई और आप को धन्यवाद.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

नमस्ते चंदेल भाई साहब,
सुधा जी की ५ कवितायें भारत की माई व छवि को साकार करतीं हुईं एक विस्तृत फलक
पर रचे चित्रोँ की तरह नज़रों के सामने , कई बिम्ब उपस्थित कर गयीं ..पाठकों को इन से
बहुत अपनापन मिलेगा ये विश्वास है ...रचनाकार सुधा जी को मेरी असीम शुभकामनाएं
एवं आपको धन्यवाद जो ' साध्य प्रकाधित कृति से , ५ कविताओं को हम तक पहुंचाया
सादर, स - स्नेह,
- लावण्या

अमरेन्द्र: ने कहा…

सुन्दर शिल्प और उत्तम अभिव्यक्ति से सजी प्रभावी कवितायें..

ashok andrey ने कहा…

Sudha jee ki inn kavitaon ko pehle bhee pad chuka hoon,lekin inn kavitaon se dubaara gujarna achchha laga. inn behtareen kavitaon ke liye mai unhen bahut saari shubh kamnaon ke saath badhai deta hoon

Dr Subhash Rai ने कहा…

Sudhaji ke pas jitani saghan anubhutiyan hain, unhen vyakt karne ka utana hi taral shabd shilp bhi. unhen kavitaon ke liye aur roop ko unki prastuti ke liye badhaaiyan.

बेनामी ने कहा…

sunder kavitayein !
ila

उमेश महादोषी ने कहा…

संवेदनात्मक अभिव्यक्ति.....बहुत सुन्दर कवितायेँ हैं....

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

सभी की आभारी हूँ जिन्होंने मेरी कविताएँ पढ़ीं, अपने विचार दिए और रूप जी की जिन्होंने अपने ब्लॉग पर मेरी रचनाओं को स्थान दिया.
बहुत -बहुत धन्यवाद.