प्रशिक्षण के दौरान जब सुधांशु मसूरी में था, दो बार दिल्ली गया। होटल में ठहरा और दोनों ही बार प्रीति से मिला। उसी दौरान लंबे समय से रविकुमार राय से टूटा उसका संपर्क पुन: जुड़ा। दोनों दिन दो घण्टे वह प्रीति के साथ घूमा और शाम के समय रवि होटल में उससे मिलने आया। प्रीति के बहुत आग्रह के बाद भी वह उसके घर नहीं गया।
पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद प्रीति ने भी अपने को सिविल सेवा की तैयारी में व्यस्त कर लिया था। पहला अटैम्प्ट अच्छी तैयारी न होने के कारण उसने छोड़ दिया और दूसरी के लिए कनॉट प्लेस में राव कोचिंग सेण्टर ज्वाइन कर लिया था।
''पोस्टिंग के बाद तुमने क्या योजना बनाई है?''
''योजना...कैसी योजना?'' सुधांशु चोंका।
''बुद्धू कहीं के।'' उसकी आंखों में झांकते हुए प्रीति बोली।
''रियली, मैं समझा नहीं।''
''यार, बनने की कोशिश मत करो।''
''सच में नहीं समझ आ रहा, तुम किस बारे में बात कर रही हो?''
उस समय दोनों कनॉट प्लेस के सरवन रेस्टॉरेण्ट में बैठे हुए थे।
प्रीति देर तक चुप रही। कभी सुधांशु की ओर देखती और कभी व्यस्त बेयरों की ओर। सुधांशु टकटकी लगाए उसके चेहरे की ओर देख रहा था।
''ममी कुछ अधिक ही परेशान हैं...पापा का एक वर्ष बचा है।''
''रिटायरमेण्ट ...।''
''हां...।''
''वह तो एक दिन होना ही है। मेरा भी होगा...।''
''अरे यार, मूर्खों जैसी बातें करने लगे।''
सुधांशु मुस्कराया, ''क्या यह सच नहीं है?''
''है, लेकिन ममी की परेशानी कुछ और ही है।''
''सेटल होने की?''
''वह तो होनी ही है।''
''तुमने एक बार बताया था कि तुम्हारे पापा ने कलकत्ता में कोठी बनवा ली है साल्ट ले में....सुना है पॉश इलाका है?''
''सुधांशु बात यह नहीं है...उन्हें यह सब बातें नहीं परेशान करतीं। बाबा इतने ग्रेट हैं कि वह कोठी क्या झुग्गी में भी रहने को तैयार हैं।''
''तुम पहेली बुझा रही हो...मैं सच ही अनाड़ी हूं...नहीं समझ पाऊंगा जो तुम कहना चाहती हो। खुलकर कहो...।''
''हुंह।'' कुछ देर चुप रहकर प्रीति बोली, ''पिछले सण्डे एक मिस्टर घोष आए थे अपनी ममी के साथ। वह वायुभवन में हैं। लंबा, हट्टा-कट्टा...गहरा सांवला रंग, बड़ी लाल आंखें और चेचक के दाग...। उनके जाते ही मैं बिफर उठी मां से ...उन्होंने मुझे समझा क्या है...किसी को भी बुला लेने में उन्हें संकोच नहीं, फिर कहती हैं, ''प्रीति बेटा एक बार मिल लो आगन्तुक से...भाड़ में जाएं उनके आगन्तुक...।'' प्रीति की पलकें गीली हो गयीं।
''अरे...रे...।'' अपना रूमाल प्रीति की ओर बढ़ाते हुए सुधांशु बोला, ''इसमें आंसू टपकाने जैसी क्या बात....घोष भी किसी का बेटा है...अपनी ममी-पापा का दुलारा...।''
''उसके पापा नहीं हैं। मां के साथ यहीं लोदी एस्टेट में रहता है।''
''अरे वाह, कितना सुखद संयोग... दामाद बिल्कुल पड़ोस में रहता हो...फिर परेशानी क्या?''
''तुम्हें मजाक सूझ रहा है।'' कुर्सी खिसका उठने का उपक्रम करती हुई प्रीति बोली।
''बैठो-बैठो... कुछ गंभीर हो लेते हैं।'' क्षणिक विराम के बाद सुधांशु बोला, ''तुम क्या चाहती हो?''
''यह बताना होगा?''
सन्नाटा। बेयरा दूसरी बार आया, ''सर कुछ और...।''
''दो कोल्ड कॉफी....।'' सुधांशु ने आर्डर किया, ''क्यों प्रीति..?''
''हुंह।''
''ओ.के.। दो कोल्ड कॉफी।'' सुधांशु ने पुन: बेयरे से कहा।
''बात यह है प्रीति कि मैं बहुत ही सामान्य परिवार से...।''
सुधांशु की बात बीच में काटती हुई प्रीति बोली, ''कितनी बार यह सब बोलोगे...सामान्य...सामान्य..अब क्या हो...वह नहीं देखते। यह सब कहकर बचना चाहते हो। तब स्पष्ट कह दो...मैं उनमें नहीं कि तुम्हारे गले लटक जाऊंगी।'' उसका स्वर उत्तेजित था। उसने क्षणांश के लिए अपने को रोका फिर बोली, ''सुधांशु, मैंने ममी-पापा को अपनी पसंद बता दी हैं। यदि तुम्हें ऐतराज है....परेशानी है...पुराने खांचे को...मतलब सामाजिक खांचे से है...तुम बाहर नहीं निकलना चाहते हो तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं, लेकिन मैं स्पष्ट सुनना चाहती हूं। माना कि शादी एक सामाजिक दायित्व है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि उसे न करने वाला असामाजिक हो जाता है। बाबा की कई कलीग हैं जिन्होंने शादी नहीं की ...वे आई.ए.एस. हैं.....सुन्दर हैं...समझा जा सकता है कि उन्हें अपनी पसंद नहीं मिली। मान्यताएं ध्वस्त हो रहीं हैं...कम से कम उच्चवर्ग और उच्च शिक्षित परिवारों में...सभी में न सही लेकिन एक अच्छा प्रतिशत है ऐसे लोगों का।''
बेयरा कोल्ड कॉफी ले आया। प्रीति ने गिलास का पूरा पानी हलक के नीचे उतारा, आंखें भींची, फिर खोलकर कॉफी पर दृष्टि गड़ा बोली, ''अपने घर वालों से डिस्कस कर लो...स्वयं गंभीरता से विचार कर लो और मुझे फोन पर अपना निर्णय बता देना। अपना निर्णय मैंने अपने पेरेण्ट्स को बता दिया है...तुम्हें भी, लेकिन तुम्हारे निर्णय की प्रतीक्षा रहेगी।''
''प्रीति, घर वालों से मेरे पूछने का प्रश्न नहीं...क्योंकि मैं जिस पृष्ठभूमि से आया हूं वहां लड़कों का विवाह बीस तक और लड़कियों का अठारह तक हो ही जाता है। उनकी सोच का दायरा सीमित है। इसमें उनका दोष नहीं, क्योंकि हम जितनी दुनिया देखते हैं हमारी सोच का विस्तार उतना ही होता है। स्पष्ट है कि यदि मैं पिता के निर्णय को मानूं तब मुझे जतिन दास जैसे धूर्त जमींदार की बेटी से विवाह कर लेना होगा, जो गाड़ी सहित मोटी रकम दहेज मे देगा। आजकल एक आई.ए.एस. की कीमत पचीस से पचास लाख रुपये है।''
''ये जतिन दास कौन हैं?'' कॉफी पीते हुए प्रीति के होठ यो विकृत हुए मानो होठ से गर्म कॉफी छू गयी थी।
''मेरे दूर के रिश्तेदार। उनकी बेटी बी.एच.यू. से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही है। गरीबों का रक्त चूस उसने विपुल सम्पत्ति अर्जित की है।''
''हुंह।''
''पिता जी की चले तो जतिन के यहां रिश्ता तय कर दें, लेकिन वह समझ चुके हैं कि मुझे वह स्वीकार नहीं।''
''फिर?''
''मेरी परमानेण्ट पोस्टिंग होने दो....ट्रेनिंग समाप्त होने के बाद मुझे विभागीय कार्यालयों में अलग-अलग शहरों के भिन्न कार्य क्षेत्रों से संबद्ध कार्यालयों में एक माह से तीन माह का प्रशिक्षण भी लेना होगा। लगभग एक वर्ष बाद मुझे किसी स्टेशन पर स्थायी पोस्टिंग मिलेगी...उसके बाद...।''
''उसके बाद से तुम्हारा आभिप्राय?''
''अब भी तुम्हें आभिप्राय समझाना होगा?''
सुधांशु का स्वर कुछ ऊंचा था।
''हां, स्पष्ट तुमने कुछ भी नहीं कहा।''
''प्रीति।'' स्वर में कोमलता लाकर सुधांशु बोला, ''उसके बाद...हम शादी कर लेंगे।''
''तुम्हारे ममी-पापा..?''
''उन्हें ऐतराज नहीं होगा। वे सीधे-सादे गांव के लोग हैं।''
''गांव के लोग सीधे-सादे होते हैं?''
''तुम्हें गलत फहमी है।''
''अब गांव के लोग शहर वालों के कान काट रहे हैं।''
''यह संख्या अभी पांच प्रतिशत भी नहीं होगी। हां, कुछ लोंगो में शहरी राजनीति प्रवेश कर गयी है और वे गांव को नर्क बनाने में जुटे हुए हैं... मात्र अपने स्वार्थ के लिए।''
''शायद तुम मुझसे सहमत होगे कि राजनीतिज्ञों का बड़ा वर्ग गांव से आया है। क्षेत्रीय पार्टियां बनाने वाले वही लोग हैं और एक दिन ये लोग राजनीति को यदि नियंत्रित करने लगें तो आश्चर्य नहीं ...फिर गांव वाले सीधे-सरल कहां रहे?''
''मैंने कहा न कि गिनती के लोग हैं ये...लेकिन ये लोग गांव की हवा को प्रदूषित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इनका बढ़ता वर्चस्व न समाज हित में है न देश हित में। ये भूखे लोग हैं...कल्पना की जा सकती है कि कितना खायेंगे। भरा पेट कुछ कम खायेगा, जबकि खाली पेट बदहजमी हो जाने तक खाता जायेगा...और बदहजमी के लिए हाजमोला लेता जायेगा...डायजिन भी चबायेगा। तमिलनाडु अच्छा उदाहरण है। बिहार और उत्तर प्रदेश भी हैं। इन पार्टियों और उनके नेता जिसप्रकार जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं वह देश-समाज के लिए घातक है। कल तक कण्डीडेट होता था... उसके काम होते थे। जनता कम जागरूक थी, फिर भी वह इतना जानती थी, कौन-कैसा है। लेकिन अब ब्राम्हण, राजपूत, भूमिहार, यादव आदि जातियों में लोगों को इन लोगों ने बाट दिया है।''
''ओह, तुमने तो लंबा भाषण ही दे डाला...लेकिन मैं समझ सकती हूं कि तुम्हारे ममी-पापा ऐसे नहीं हैं।''
''बिल्कुल सीधे-सरल...।''
''लेकिन क्या उन्हें मुझ जैसी महानगरीय परिवेश में पली-बढ़ी लड़की पसंद आएगी?''
''यह तो तुम्हें सोचना है कि तुम उन्हें पसंद कर पाओगी?''
''मुझे कोई परेशानी नहीं।''
''तुम्हारे ममी-पापा...?''
''उन्हें भी नहीं होगी।''
''यह तम्हारा सोचना है। क्या कभी इस पक्ष पर अपने पेरेण्ट्स से चर्चा की है?''
''की नहीं, लेकिन तुम्हारी चर्चा करने पर मां-बाबा दोनों के ही चेहरे खिल उठे थे।''
''यह चर्चा मेरे आई.ए.एस. में आने के बाद ही की होगी?''
''ऑफकोर्स...।''
''यदि मैं क्लर्क बनता तब?''
प्रीति ने ऐसे प्रश्न की आशा नहीं की थी। वह अचकचा गई। क्षणभर लगा उसे अपने को प्रकृतिस्थ करने में, ''तुम मेरी परीक्षा ले रहे हो?''
''यूं ही...।''
''युनिवर्सिटी समय से ही तुम मेरी पसंद बन गये थे। यह तुम्हें भी पता है। हां, यदि क्लर्क बनते तब बाबा को कुछ तकलीफ अवश्य होती, लेकिन अपनी बेटी की खुशी में वह अपनी भावना पर काबू पा लेते।''
''लेकिन तब क्या तुम खुश हो पाती?''
''फिर वही परीक्षा?'
''बिल्कुल नहीं। एक यथार्थ प्रश्न।''
''जिन्दगी में सभी को सब कुछ नहीं मिलता सुधांशु।''
''तुम्हें मिल रहा है?''
''अब तुम चुप रहोगो?''
प्रीति झटके से उठ खड़ी हुई। सुधांशु उसे क्षणभर तक खड़ा देखता रहा, फिर वह भी उठ खड़ा हुआ।
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भिन्न शहरों में अवस्थित प्ररवि विभाग के कार्यालयों में एक वर्ष तक प्रशिक्षण लेने के बाद सुधांशु की पहली पोस्टिंग पटना हुई। एक वर्ष के दौरान प्रीति से फोन पर ही उसकी बातें होती रहीं और जिस माह उसने पटना ज्वाइन किया, उसी माह नृपेन मजूमदार ने अवकाश ग्रहण किया। प्रीति के आग्रह पर माह के अंतिम दिन वह सुबह की फ्लाइट से दिल्ली आया। एयरपोर्ट से वह सीधे अपने हेडक्वार्टर ऑफिस गया। यह आवश्यक था। आवश्यक इसलिए था क्योंकि यह उसका पहला ऑफिशियल टूर था, जो केवल प्रीति के आग्रह पर उसे बनाना पड़ा था। यद्यपि बिना काम ऐसे कार्यक्रम बना लेना उसके सिद्धांत के विरुद्ध था, लेकिन जब उसने अपने उच्चाधिकारी से एक दिन के अवकाश के लिए कहा, कारण जानने के बाद वह बोले, ''मिस्टर सुधांशु, इस कार्यालय में ज्वाइन किए आपको नौ दिन हुए हैं...निजी कार्य से अवकाश लेना आपके हित में नहीं है।''
''सर, जाना आवश्यक है।''
''निश्चय ही होगा, लेकिन निदेशक साहब के पास जब आपका प्रार्थना पत्र जाएगा, वह आपको बुलाकर दस प्रश्न करेंगे...ऐसे टेढ़े प्रश्न कि उत्तर देना कठिन होगा।''
''सर...।'' सुधांशु के चेहरे पर मायूसी छा गयी।
''आप उनके सभी प्रश्नों के उत्तर दे देगें तब भी वह संतुष्ट नहीं होंगे...क्योंकि वह जन्मत: असंतुष्ट व्यक्ति हैं।''
सुधांशु को हंसी आ गयी, लेकिन उसने उसे रोक लिया। बॉस की बातों से उसके चेहरे पर से मायूसी की परत हट गयी।
''सुधांशु'' सुधांशु, जो मेज पर सामने रखे एक नोट को पढ़ने लगा था, चौंका, ''सर।''
''आपका प्रशिक्षण पूरा हो चुका है?''
''जी सर।''
''लेकिन कुछ बातें सीखने में आप चूक गये हैं।''
''सर।'' सुधांशु का चेहरा गंभीर हो उठा।
''किसी भी अफसर की मेज पर रखे किसी कागज या फाइल को तब तक नहीं पढ़ना चाहिए जब तक उसे पढ़ने के लिए वह अफसर कहे नहीं।''
''सॉरी सर।''
''दूसरी बात...आप क्लास वन अफसर हैं....न कि बाबू....या क्लास दो अफसर।''
सुधांशु बॉस के चेहरे की ओर देखने लगा।
''आपके कंधों पर इस देश का भार है। देश को चलाने वाले हम ही हैं। हमारे बल पर ही सरकारें टिकी हैं...। ऐसे जिम्मदार लोगों को कुछ अलिखित...अकथित अधिकार प्राप्त होते हैं।''
''सर।''
''अपने काम कभी रुकने नहीं चाहिए और सरकारी काम में बाधा भी नहीं होनी चाहिए। आप अवकाश लेंगे...एक दिन का सरकारी काम रुकेगा। बाहर जाएंगे...दिल्ली...पैसा खर्च होगा। क्यों खर्च करो पैसा। क्यों लो अवकाश। दिल्ली में हमारा हेडक्वार्टर ऑफिस है। कुछ न कुछ काम लगा ही रहता है प्रशासन का....।'' क्षणभर के लिए रुके बॉस, ''प्रशासन क्यों...वह मैं ही लिख कर दे सकता हूं,'' लेकिन कुछ याद कर बॉस फिर रुक गये, ''नहीं, लिखकर प्रशासन को ही देना पड़गा कि अमुक केस डिस्कस करने के लिए सुधांशु दास को दिल्ली भेजना आवश्यक है...प्रशासन से सेंक्शन लेनी होगी। निदेशक की अनुमति के बिना क्लास वन अफसर कहीं टूर पर नहीं जा सकता।''
''सर।'' सुधांशु ने कहना चाहा कि बिना काम के सरकारी टूर बनाना नैतिक रूप से अनुचित है, 'लेकिन अपने से दो पद बड़े उस अधिकारी से यह कहना दुस्साहस माना जाएगा' सोचकर वह चुप रहा। उसे याद था कि वह तब भी प्रोबेशन में था। अपने से वरिष्ठ अफसर की सुनना और उसके हां में हां मिलाते रहना और यदि वह गलत कह रहा है तब संशोधन देते समय इतना विनम्र दिखना कि वरिष्ठ का अहम आहत न हो, उसने प्रशिक्षण काल में सीख लिया था। लेकिन अकारण ही सरकारी धन का दुरुपयोग उसे समझ नहीं आ रहा था।
''वैसे काम कुछ खास नहीं है...लेकिन उसे खास बना देने का वेतन ही तो हम पाते हैं। छ: महीना पहले हेडक्वार्टर को एक प्रस्ताव भेजा था अपने कार्यालय और उप-कार्यालयों के क्लास फोर्थ कर्मचारियों के जाड़े के कपड़ों के लिए...आज भी हेडक्वार्टर वही राशि देता है जो वह दस साल पहले देता था। तब उन्हें जो कपड़े दिए जाते थे उनमें ट्वीड का कोट और उसी का पैण्ट होता था। अब उस राशि में जर्सी भी नहीं आती...पैण्ट की बात ही क्या। गर्म जुराबों की जगह साधारण जुराबें और बाटा की जगह लोकल बने जूते....।''
''सर।'' बॉस, जिनका नाम दलभंजन सिंह था, के बोलने पर विराम लगा। वह सुधांशु की ओर देखने लगे, ''कुछ कहना चाहते हो?'' सिर पर पीछे बचे बालों पर हाथ फेरते हुए उन्होंने पूछा।
''जी सर।''
''हां।''
''सर, मैंने सुना है कि बाबू लोग आधी राशि का बंदर बाट कर लेते हैं...फिर आधी में वही कपड़े आएंगे, जिनकी आप बात कर रहे हैं।''
''तुमने सही सुना है।'' तीखी नजरों से सुधांशु की ओर देखते हुए दलभंजन सिंह बोले, ''सुधांशु, अभी तुम नये हो...विद्यार्थी जीवन से सीधे प्रवेश किया है।'' नौ दिनों तक उसे आप कहने के बाद अचानक बहुत आत्मीय हो उठे दलभंजन सिंह, ''विद्यार्थी जीवन के आदर्श नौकरी में नहीं चलते। कुछ समय तक ही रहता है वह बुखार।'' उन्होंने फिर तीक्ष्ण दृष्टि डाली सुधांशु पर।
''मैं भ्रष्टाचार का दुश्मन हूं...रिश्वतखोरों को फांसी का पक्षधर, लेकिन जब देखता हूं कि सभी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं...तब बाबू बेचारे ने कौन-सा गुनाह किया है। उसे वेतन ही कितना मिलता है! दूसरे विभागों में इतना मिलता है कि उनका परिवार आराम की जिन्दगी बसर कर सकता है, बच्चों को वे अच्छे स्कूलों में पढा सकते हैं लेकिन सरकारी बाबू ...बाबू ही क्यों दूसरे दर्जे का अफसर भी...बेहतर जीवन के लिए तरसते हैं। ऐसी स्थिति में जो उनके हाथ लगता है उसमें अपना हिस्सा निकाल लेते हैं।''
''क्लास फोर्थ के साथ घोर अन्याय होता है सर...उन्हें चार साल में कपड़े दिए जाते हैं...उसमें भी कटौती...।''
''लेकिन तुम देखोगे कि वे सीज़न में एक बार भी उन कपड़ों को नहीं पहनते। उन्हें वे बेच देते हैं...।'' कुछ देर चुप रहे दलभंजन सिंह, ''मैं सब जानता हूं, लेकिन आंखें बंद किए रहता हूं। क्लास फोर्थ जूते लेना पसंद नहीं करता, क्योंकि जो जूते दफ्तर खरीदता है वे उन्हें पसंद नहीं आते...उसकी जगह वे नकद की मांग करते हैं। हमें हेडक्वार्टर के आदेश हैं कि उन्हें खरीदकर जूते ही दें और वे नकद मांगते हैं। हमें बीच का रास्ता निकालना पड़ता है। हम उन्हें नकद देते हैं और प्राप्ति में जूते पाने पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं। तुम सुनकर चौंकोगे, इनमें कई पैसे मिलते ही ठेके पहुंचते हैं...और दफ्तर आते हैं हवाई चप्पलों में...पूरे जाड़े। किस-किस को सुधारोगे सुधांशु।''
''जी सर।'' सुधांशु ने कुछ भी न कहना उचित समझा।
''यही वह प्रस्ताव है। छ: महीनों से हेडक्वार्टर में लटका पड़ा है। जाड़ा आने वाला है। चार साल बाद मिलने वाले कपड़ों की क्लासफोर्थ को प्रतीक्षा रहती है, बावजूद इसके कि वे उसे कभी नहीं पहनते। मेरा सेक्शन अफसर दो बार इसके लिए मुझे याद करवा चुका है। दो डेमी ऑफिशियल पत्र लिख चुका हूं, लेकिन हेडक्वार्टर कानों में तेल डाले बैठा है। आपने अच्छे समय दिल्ली जाने की बात की...जब हमारे पास सरकारी खर्च पर भेजने का उपाय है तब आप अपना अवकाश और पैसा क्यों खर्च करते हैं। हेडक्वार्टर में आप सहायक महानिदेशक सदाशिवम से मिल लेना। उन्हें पत्र देकर केवल इतना ही कहना है कि कार्य को शीघ्र सम्पन्न करवायें। बस्स....।'' दलभंजन सिंह के चेहरे पर मुस्कान फैल गयी, ''एक लाभ और है सरकारी टूर पर जाने का।''
सुधांशु दलभंजन सिंह के चेहरे की ओर देखने लगा।
''गाड़ी भी मिलती है और गेस्ट हाउस भी।''
''मैं बहुत जूनियर हूं सर...गाड़ी उप-निदेशक से ऊपर ही मिलती होगी...।''
''हां, लेकिन विशेष मामलों में जूनियर के लिए भी वह सुविधा है। मैं फोन कर दूंगा वहां प्रशासन में...तम्हें एयरपोर्ट लेने आएंगे वे...गेस्ट हाउस की व्यवस्था करेंगे और छोड़ने भी जाएंगे। पटना आने से पहले मैं हेडक्वार्टर में ही था।''
''थैंक्यू सर।'' उठ खड़ा हुआ था सुधांशु।
''मैं आपके टूर के लिए निदेशक को नोट भेजता हूं। आप जूनियर हो इसलिए हवाई यात्रा के लिए उनकी विशेष अनुमति चाहिए होगी।''
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एयर पोर्ट से सुधांशु दिल्ली कैण्ट स्थित गेस्ट हाउस गया। गेस्ट हाउस में हेडक्वार्टर ऑफिस के बाबुओं की डयूटी शिफ्ट में लगती थी। उनके साथ एक चपरासी भी रहता था। एक बाबू सुबह छ: बजे से दो बजे तक, दूसरा दो बजे से रात दस बजे और तीसरा रात दस बजे से सुबह छ: बजे तक गेस्ट हाउस के रिसेप्शन पर तैनात रहता था। चपरासी केवल दो होते थे। एक दिन के लिए और एक रात के लिए और उन्हें बारह घण्टे हाजिरी देनी होती थी। गेस्ट हाउस सैन्य परिसर में था, इसलिए सुरक्षा की समस्या न थी। दो जवान परिसर के गेट पर हर समय गन के साथ तैनात रहते थे। उस परिसर में सैन्य अधिकारियों का गेस्ट हाउस भी था और दिन-रात गाड़ियों का आवागमन लगा रहता था, जिसकी व्यवस्था देखने के लिए मेन गेट के बाद एक ऑफिस था, जहां तीन सैन्य कर्मचारी तैनात रहते थे। मेन गेट पर एक बैरियर लगा था, जो निरंतर ऊपर उठता-गिरता रहता था।
गेस्ट हाउस में आने वाले अधिकारियों का रिकार्ड सेना के बाबू के पास भेज दिया जाता था। आने वाले अतिथि को, मेन गेट पर कुछ क्षण के लिए रुकना पड़ता। मेन गेट पर तैनात एक सैनिक कुछ दूर पर रिकार्ड देखने वाले बाबू से फोन पर आगन्तुक के विषय में तहकीकात कर लेता तभी उसे अंदर जाने देता। सैन्य अधिकारियों का वह गेस्ट हाउस केवल कर्नल रैंक तक के अफसरों के लिए था। उससे ऊपर रैंक के अधिकारियों के लिए दो अलग गेस्ट हाउस थे।
लेकिन प्ररवि विभाग के अधिकारियों के लिए वही एक मात्र अतिथिगृह था, जहां सहायक निदेशक से लेकर महानिदेशक तक को ठहरना होता। हालांकि महानिदेशक विभाग का मुखिया था और वह दिल्ली में ही तैनात था, इसलिए उसके ठहरने का प्रश्न तभी उत्पन्न होता जब किसी दूसरे शहर में तैनात किसी वरिष्ठतम निदेशक को पदोन्नति देकर महानिदेशक बनाया जाता और अपना पद भार ग्रहण करने आने पर उसे तब तक उस गेस्ट हाउस में ठहरना होता जब तक महानिदेशक अपने पदानुरूप सरकारी मकान नहीं पा लेता। महानिदेशक का पद मंत्रालय के एक वरिष्ठ अवर सचिव के समकक्ष था और उसे पैंतीस हजार कर्मचारियों का शीर्ष अधिकारी होने का सुख प्राप्त था। सरकारी भाषा में उसे उनका नियोक्ता माना जाता था। वह क्लास वन अधिकारियों का नियोक्ता नहीं था।
दलभंजन सिंह ने सदाशिवम को फोन करके सुधांशु के लिए गेस्ट हाउस में कमरा बुक करवा दिया। वह सुबह नौ बजे एयर पोर्ट पहुंचा। सुधांशु दास की तख्ती के साथ एक ड्राइवर एयरपोर्ट के बाहर खड़ा था। सदाशिवम ने दलभंजन सिंह को यह बताया था और एक वर्ष प्रशिक्षण के दौरान शहर-दर शहर घूमते हुए सुधांशु भी यह जान चुका था। तब वह अकेला नहीं होता था उसका पूरा बैच होता था। उस वर्ष के बैच में नौ युवक और चार युवतियां थीं। तेरह का बैच एक साथ एक स्थान से दूसरे स्थान जाता और उसके लिए व्यवस्था की गई गाड़ियों के ड्राइवर तख्ती में विभाग का या निदेशक कार्यालय का नाम लिख कर खड़े होत थे। प्रत्येक गाड़ी में ड्राइवर की सहायता के लिए संबद्ध कार्यालय का एक बाबू भी होता था। उन बाबुओं को दफ्तर की ओर से ऐसे ही कामों में नियुक्त किया जाता था। सुधांशु ने अनुभव किया था कि एक-दो को छोड़कर लगभग सभी अपनी स्थितियों से परम संतुष्ट दिखते थे। उनकी संतुष्टि का सबसे बड़ा कारण होता उन युवा अधिकारियों के संपर्क में आना, उनकी सेवा के अवसर प्राप्त करना, जो भविष्य में उनके सह निदेशक से लेकर महानिदेशक तक बनने वाले थे। ऐसे अफसरों के लिए प्राय: निजी ट्रेवेल एजेंसी की गाड़ियां बुक करवाई जातीं, जो निश्चित अवधि के बाद किलोमीटर दर से सड़कों पर दौड़तीं। वे चार या आठ घण्टों के लिए बुक होतीं और उस अवधि के पश्चात समय और किलोमीटर के हिसाब से दफ्तर एजेंसी को भुगतान करता। इसमें एक और पेंच था। ये गाड़ियां निश्चित शुल्क पर चार घण्टे के लिए चालीस और आठ के लिए अस्सी किलोमीटर के हिसाब से बुक होती थीं। उस समय सीमा के दौरान यदि वे चालीस और अस्सी से कम चलतीं, जैसा कि प्राय: होंता ही था, तब भी उनका भुगतान दूरी की निर्धारित सीमा के बाद प्रतिकिलोमीटर की दर से बढ़ाकर एजेंसी को किया जाता था।
अफसरों की सेवा में तैनात बाबू ड्राइवर से अधिकतम किलोमीटर की रसीद लिखवाता था और अतिरिक्त राशि का हिसाब स्वयं रखता, अपने अनुभाग अधिकारी को बताता और एजेन्सी के मालिक को नोट करवाता। कार्यालय से एजेंट को भुगतान का चेक पहुंचने के बाद गाड़ियों के दिखाए गए अतिरिक्त किलोमीटर का हिसाब वह एजेंसी में जाकर कर आता। कभी-कभी एजेण्ट स्वयं किसी बाबू को किसी रेस्टॉरेण्ट में बुलाकर उनका भुगतान कर देता, जिसमें अनुभाग अधिकारी के साथ उन सभी बाबुओं का हिस्सा होता, जिन्हें अफसरों के साथ उनकी गाड़ियों में दौड़ना पड़ता था। ऐसा केवल प्ररवि विभाग में होता था, ऐसा नहीं, देश का कोई भी विभाग, यहां तक कि केन्द्र और राज्य सरकारों के मंत्रालय और कार्यालय भी इस बीमारी से अपने को बचा नहीं पाए थे। आजादी के बाद देश को जिस बीमारी ने सर्वाधिक अपना शिकार बनाया वह रिश्वतखोरी है। कोर्ट, पुलिस महकमें को सर्वाधिक भ्रष्ट बताता है जबकि कोर्ट में भी वह व्याप्त नहीं है यह अब चर्चा का विषय है। सच यह है कि यह सोचना कठिन है कि कौन इससे मुक्त है। क्या छोटा...क्या बड़ा....क्या चपरासी...क्या अफसर-और मंत्री...।
'भोपाल की यूनियन कार्बाइड ने हजारों लोगों की जानें लीं और लाखों को तबाह किया। इस त्रासदी का मुख्य अभियुक्त यूनियन कार्बाइड का बॉस ऑरेन एंडरसन कैद से सादर छोड़ दिया गया था। कहते हैं उसे दिल्ली जाने के लिए राज्य सरकार ने विशेष विमान की व्यवस्था की थी। किसके निर्देश पर? अंतत: एक दिन यह उदघाटित होगा। सभी जानते हैं कि उन दिनों मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव कौन था! एंडरर्सन ने किसको कितना लाभ पहुंचाया...शायद ही यह कभी उद्घाटित हो, लेकिन जिनके निर्देशों और सुविधा देने से वह देश से भागने में सफल रहा उन्हें यदि देश की जनता देशद्रोही माने तो अनुचित न होगा। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि आज ये ही देशद्रोही और अपराधियों के संरक्षक सत्ता के शीर्ष पर उपस्थित हो देश के कर्णधार बने हुए हैं।'
एयर पोर्ट पर ड्राइवर के हाथ में अपने नाम की तख्ती देख सुधांशु यह सब सोचने लगा था। इतने दिनों में उसे विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की कुछ बातों का ज्ञान हो चुका था। यह पहला अवसर था जब ड्राइवर के साथ कोई बाबू नहीं था।
'शायद मैं अकेला हूं इसलिए...। नहीं, मैं कनिष्ठ अधिकारी हूं...इसलिए....शायद दोनों कारणों से। सही ढंग से नौकरी अभी प्रारंभ ही हुई है...उच्चाधिकारियों जैसी सुविधा कैसे मिल सकती है।'
गाड़ी में बैठते ही उसके ग्रामीण संस्कार उभर आए। उसने ड्राइवर से पूछा, ''आप हेडक्वार्टर में हैं?''
''नहीं सर...अमन ट्रेवल एजेंसी से हूं सर।'' हरियाणवीं खड़ी बोली में ड्राइवर बोला।
ड्राइवर ने उसकी ओर देखा और कैण्ट की खाली सड़क पर अपनी सफेद एम्बेसडर दौड़ा दी।
गेस्ट हाउस के सामने गाड़ी रुकते ही चपरासी और बाबू, जो रिसेप्शन के पास खड़े थे, गाड़ी की ओर लपके। दोनों आगंतुक को पहचान नहीं पाए।
''कोई प्रोबेशनर है।'' बाबू चपरासी की ओर मुंह करके धीमे स्वर में बुदबुदाया।
''हां, नया बछेड़ा लग रहा है, तभी कुलांचे भर रहा है। आपने देखा रमेश बाबू, कैसे उछलकर सीट से नीचे उतरा। ड्राइवर को उतरकर अटैची लेने का मौका तक नहीं दिया।''
''बेवकूफ...वह अपना ड्राइवर नहीं है। एजेन्सी वाले अफसरों की अटैची उतारने का वेतन नहीं पाते।'' फुसफुसाते हुए रमेश बोला, ''चुप रह और साहब की अटैची थाम ले आगे बढ़कर।''
गाड़ी गेस्ट हाउस के बाहर लाल बजरी पर खड़ी थी और सुधांशु ड्राइवर द्वारा बनाई गई रसीद पर हस्ताक्षर करने के लिए रुका हुआ था, जबकि ड्राइवर मीटर में रीडिंग देखने का नाटक कर रहा था। वास्तव में ड्राइवर सुधांशु से हस्ताक्षर नहीं करवाना चाहता था। उसे ऐसे ही निर्देश थे...हेड क्वार्टर के अनुभाग अधिकारी के साथ ही एजेंसी के मालिक के। सुधांशु इस तथ्य से परिचित हो चुका था और खडा था, जबकि दूसरे अफसर गाड़ी में सामान छोड़कर चले जाते थे। बाबू उन्हें उनके लिए सुरक्षित कमरे में छोड़ गाड़ी के पास जब तक वापस आता तब तक ड्राइवर और मीटर में रीडिंग देखकर रसीदबुक निकाल चुका होता था। चपरासी अफसर की अटैची उसके कमरे में पहुचाता और बाबू रसीद पर मनमानी रीडिंग दर्ज करता।
लेकिन रमेश जैसे बाबुओं की गतिविधियों से सुधांशु परिचित हो चुका था और सिद्धांतत: उसने तय कर लिया था कि अपनी जानकारी में वह किसी को भी रिश्वत लेने की अनुमति नहीं देगा।
''आप अभी तक रीडिंग नहीं देख पाये?'' सुधांशु ने ड्राइवर से पूछा जो सीट पर बैठा मीटर पर झुका हुआ था।
चपरासी ने झुककर सुधांशु को नमस्कार करते हुए हाथ आगे बढ़ा दिया, 'सर अटैची...।''
सुधांशु ने अटैची चपरासी को पकड़ा दिया। चपरासी गेस्ट हाउस की ओर मुड़ा, लेकिन सुधांशु को खड़ा देख रुक गया। रमेश साथ था।
''सर, आप चलिए मैं रसीद में साइन कर दूंगा।'' रमेश ने कहा।
''नो प्राब्लम।'' सुधांशु के उत्तर से रमेश बुझ गया। ड्राइवर भी समझ गया कि जवान खून अड़ियल है। हस्ताक्षर करके ही टलेगा। रसीद पर सही रीडिंग दर्जकर ड्राइवर ने रसीद सुधांशु की ओर बढ़ाते हुए कहा, ''सर आप भी एक बार रीडिंग चेक कर लें।''
''ओ.के.।'' सुधांशु ने स्वयं रीडिंग चेक की, रसीद में लिखी रीडिंग से मिलान किया और हस्ताक्षर कर रसीद ड्राइवर को लौटाते हुए ''धन्यवाद'' कह तेजी से गेस्ट हाउस की ओर बढ़ गया। रमेश दौड़कर उसके पीछे चलने लगा और चपरासी अटैची उठाये कोई फिल्मी गाना गुनगुनाता हुआ उनसे पर्याप्त फासला बनाकर चला। उनके चलने पर बजरी पर किर्र-किर्र की आवाज हो रही थी।
उस समय गेस्ट हाउस के लॉन में लगे चम्पा के पेड़ पर एक चिड़िया फुदक रही थी।
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