रविवार, 28 अगस्त 2011

धारावाहिक उपन्यास

चित्र : आदित्य अग्रवाल

गलियारे

(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल

(चैप्टर 15 और 16)

(15)
प्रशिक्षण के दौरान जब सुधांशु मसूरी में था, दो बार दिल्ली गया। होटल में ठहरा और दोनों ही बार प्रीति से मिला। उसी दौरान लंबे समय से रविकुमार राय से टूटा उसका संपर्क पुन: जुड़ा। दोनों दिन दो घण्टे वह प्रीति के साथ घूमा और शाम के समय रवि होटल में उससे मिलने आया। प्रीति के बहुत आग्रह के बाद भी वह उसके घर नहीं गया।
पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद प्रीति ने भी अपने को सिविल सेवा की तैयारी में व्यस्त कर लिया था। पहला अटैम्प्ट अच्छी तैयारी न होने के कारण उसने छोड़ दिया और दूसरी के लिए कनॉट प्लेस में राव कोचिंग सेण्टर ज्वाइन कर लिया था।
''पोस्टिंग के बाद तुमने क्या योजना बनाई है?''
''योजना...कैसी योजना?'' सुधांशु चोंका।
''बुद्धू कहीं के।'' उसकी आंखों में झांकते हुए प्रीति बोली।
''रियली, मैं समझा नहीं।''
''यार, बनने की कोशिश मत करो।''
''सच में नहीं समझ आ रहा, तुम किस बारे में बात कर रही हो?''
उस समय दोनों कनॉट प्लेस के सरवन रेस्टॉरेण्ट में बैठे हुए थे।
प्रीति देर तक चुप रही। कभी सुधांशु की ओर देखती और कभी व्यस्त बेयरों की ओर। सुधांशु टकटकी लगाए उसके चेहरे की ओर देख रहा था।
''ममी कुछ अधिक ही परेशान हैं...पापा का एक वर्ष बचा है।''
''रिटायरमेण्ट ...।''
''हां...।''
''वह तो एक दिन होना ही है। मेरा भी होगा...।''
''अरे यार, मूर्खों जैसी बातें करने लगे।''
सुधांशु मुस्कराया, ''क्या यह सच नहीं है?''
''है, लेकिन ममी की परेशानी कुछ और ही है।''
''सेटल होने की?''
''वह तो होनी ही है।''
''तुमने एक बार बताया था कि तुम्हारे पापा ने कलकत्ता में कोठी बनवा ली है साल्ट ले में....सुना है पॉश इलाका है?''
''सुधांशु बात यह नहीं है...उन्हें यह सब बातें नहीं परेशान करतीं। बाबा इतने ग्रेट हैं कि वह कोठी क्या झुग्गी में भी रहने को तैयार हैं।''
''तुम पहेली बुझा रही हो...मैं सच ही अनाड़ी हूं...नहीं समझ पाऊंगा जो तुम कहना चाहती हो। खुलकर कहो...।''
''हुंह।'' कुछ देर चुप रहकर प्रीति बोली, ''पिछले सण्डे एक मिस्टर घोष आए थे अपनी ममी के साथ। वह वायुभवन में हैं। लंबा, हट्टा-कट्टा...गहरा सांवला रंग, बड़ी लाल आंखें और चेचक के दाग...। उनके जाते ही मैं बिफर उठी मां से ...उन्होंने मुझे समझा क्या है...किसी को भी बुला लेने में उन्हें संकोच नहीं, फिर कहती हैं, ''प्रीति बेटा एक बार मिल लो आगन्तुक से...भाड़ में जाएं उनके आगन्तुक...।'' प्रीति की पलकें गीली हो गयीं।
''अरे...रे...।'' अपना रूमाल प्रीति की ओर बढ़ाते हुए सुधांशु बोला, ''इसमें आंसू टपकाने जैसी क्या बात....घोष भी किसी का बेटा है...अपनी ममी-पापा का दुलारा...।''
''उसके पापा नहीं हैं। मां के साथ यहीं लोदी एस्टेट में रहता है।''
''अरे वाह, कितना सुखद संयोग... दामाद बिल्कुल पड़ोस में रहता हो...फिर परेशानी क्या?''
''तुम्हें मजाक सूझ रहा है।'' कुर्सी खिसका उठने का उपक्रम करती हुई प्रीति बोली।
''बैठो-बैठो... कुछ गंभीर हो लेते हैं।'' क्षणिक विराम के बाद सुधांशु बोला, ''तुम क्या चाहती हो?''
''यह बताना होगा?''
सन्नाटा। बेयरा दूसरी बार आया, ''सर कुछ और...।''
''दो कोल्ड कॉफी....।'' सुधांशु ने आर्डर किया, ''क्यों प्रीति..?''
''हुंह।''
''ओ.के.। दो कोल्ड कॉफी।'' सुधांशु ने पुन: बेयरे से कहा।
''बात यह है प्रीति कि मैं बहुत ही सामान्य परिवार से...।''
सुधांशु की बात बीच में काटती हुई प्रीति बोली, ''कितनी बार यह सब बोलोगे...सामान्य...सामान्य..अब क्या हो...वह नहीं देखते। यह सब कहकर बचना चाहते हो। तब स्पष्ट कह दो...मैं उनमें नहीं कि तुम्हारे गले लटक जाऊंगी।'' उसका स्वर उत्तेजित था। उसने क्षणांश के लिए अपने को रोका फिर बोली, ''सुधांशु, मैंने ममी-पापा को अपनी पसंद बता दी हैं। यदि तुम्हें ऐतराज है....परेशानी है...पुराने खांचे को...मतलब सामाजिक खांचे से है...तुम बाहर नहीं निकलना चाहते हो तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं, लेकिन मैं स्पष्ट सुनना चाहती हूं। माना कि शादी एक सामाजिक दायित्व है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि उसे न करने वाला असामाजिक हो जाता है। बाबा की कई कलीग हैं जिन्होंने शादी नहीं की ...वे आई.ए.एस. हैं.....सुन्दर हैं...समझा जा सकता है कि उन्हें अपनी पसंद नहीं मिली। मान्यताएं ध्वस्त हो रहीं हैं...कम से कम उच्चवर्ग और उच्च शिक्षित परिवारों में...सभी में न सही लेकिन एक अच्छा प्रतिशत है ऐसे लोगों का।''
बेयरा कोल्ड कॉफी ले आया। प्रीति ने गिलास का पूरा पानी हलक के नीचे उतारा, आंखें भींची, फिर खोलकर कॉफी पर दृष्टि गड़ा बोली, ''अपने घर वालों से डिस्कस कर लो...स्वयं गंभीरता से विचार कर लो और मुझे फोन पर अपना निर्णय बता देना। अपना निर्णय मैंने अपने पेरेण्ट्स को बता दिया है...तुम्हें भी, लेकिन तुम्हारे निर्णय की प्रतीक्षा रहेगी।''
''प्रीति, घर वालों से मेरे पूछने का प्रश्न नहीं...क्योंकि मैं जिस पृष्ठभूमि से आया हूं वहां लड़कों का विवाह बीस तक और लड़कियों का अठारह तक हो ही जाता है। उनकी सोच का दायरा सीमित है। इसमें उनका दोष नहीं, क्योंकि हम जितनी दुनिया देखते हैं हमारी सोच का विस्तार उतना ही होता है। स्पष्ट है कि यदि मैं पिता के निर्णय को मानूं तब मुझे जतिन दास जैसे धूर्त जमींदार की बेटी से विवाह कर लेना होगा, जो गाड़ी सहित मोटी रकम दहेज मे देगा। आजकल एक आई.ए.एस. की कीमत पचीस से पचास लाख रुपये है।''
''ये जतिन दास कौन हैं?'' कॉफी पीते हुए प्रीति के होठ यो विकृत हुए मानो होठ से गर्म कॉफी छू गयी थी।
''मेरे दूर के रिश्तेदार। उनकी बेटी बी.एच.यू. से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही है। गरीबों का रक्त चूस उसने विपुल सम्पत्ति अर्जित की है।''
''हुंह।''
''पिता जी की चले तो जतिन के यहां रिश्ता तय कर दें, लेकिन वह समझ चुके हैं कि मुझे वह स्वीकार नहीं।''
''फिर?''
''मेरी परमानेण्ट पोस्टिंग होने दो....ट्रेनिंग समाप्त होने के बाद मुझे विभागीय कार्यालयों में अलग-अलग शहरों के भिन्न कार्य क्षेत्रों से संबद्ध कार्यालयों में एक माह से तीन माह का प्रशिक्षण भी लेना होगा। लगभग एक वर्ष बाद मुझे किसी स्टेशन पर स्थायी पोस्टिंग मिलेगी...उसके बाद...।''
''उसके बाद से तुम्हारा आभिप्राय?''
''अब भी तुम्हें आभिप्राय समझाना होगा?''
सुधांशु का स्वर कुछ ऊंचा था।
''हां, स्पष्ट तुमने कुछ भी नहीं कहा।''
''प्रीति।'' स्वर में कोमलता लाकर सुधांशु बोला, ''उसके बाद...हम शादी कर लेंगे।''
''तुम्हारे ममी-पापा..?''
''उन्हें ऐतराज नहीं होगा। वे सीधे-सादे गांव के लोग हैं।''
''गांव के लोग सीधे-सादे होते हैं?''
''तुम्हें गलत फहमी है।''
''अब गांव के लोग शहर वालों के कान काट रहे हैं।''
''यह संख्या अभी पांच प्रतिशत भी नहीं होगी। हां, कुछ लोंगो में शहरी राजनीति प्रवेश कर गयी है और वे गांव को नर्क बनाने में जुटे हुए हैं... मात्र अपने स्वार्थ के लिए।''
''शायद तुम मुझसे सहमत होगे कि राजनीतिज्ञों का बड़ा वर्ग गांव से आया है। क्षेत्रीय पार्टियां बनाने वाले वही लोग हैं और एक दिन ये लोग राजनीति को यदि नियंत्रित करने लगें तो आश्चर्य नहीं ...फिर गांव वाले सीधे-सरल कहां रहे?''
''मैंने कहा न कि गिनती के लोग हैं ये...लेकिन ये लोग गांव की हवा को प्रदूषित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इनका बढ़ता वर्चस्व न समाज हित में है न देश हित में। ये भूखे लोग हैं...कल्पना की जा सकती है कि कितना खायेंगे। भरा पेट कुछ कम खायेगा, जबकि खाली पेट बदहजमी हो जाने तक खाता जायेगा...और बदहजमी के लिए हाजमोला लेता जायेगा...डायजिन भी चबायेगा। तमिलनाडु अच्छा उदाहरण है। बिहार और उत्तर प्रदेश भी हैं। इन पार्टियों और उनके नेता जिसप्रकार जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं वह देश-समाज के लिए घातक है। कल तक कण्डीडेट होता था... उसके काम होते थे। जनता कम जागरूक थी, फिर भी वह इतना जानती थी, कौन-कैसा है। लेकिन अब ब्राम्हण, राजपूत, भूमिहार, यादव आदि जातियों में लोगों को इन लोगों ने बाट दिया है।''
''ओह, तुमने तो लंबा भाषण ही दे डाला...लेकिन मैं समझ सकती हूं कि तुम्हारे ममी-पापा ऐसे नहीं हैं।''
''बिल्कुल सीधे-सरल...।''
''लेकिन क्या उन्हें मुझ जैसी महानगरीय परिवेश में पली-बढ़ी लड़की पसंद आएगी?''
''यह तो तुम्हें सोचना है कि तुम उन्हें पसंद कर पाओगी?''
''मुझे कोई परेशानी नहीं।''
''तुम्हारे ममी-पापा...?''
''उन्हें भी नहीं होगी।''
''यह तम्हारा सोचना है। क्या कभी इस पक्ष पर अपने पेरेण्ट्स से चर्चा की है?''
''की नहीं, लेकिन तुम्हारी चर्चा करने पर मां-बाबा दोनों के ही चेहरे खिल उठे थे।''
''यह चर्चा मेरे आई.ए.एस. में आने के बाद ही की होगी?''
''ऑफकोर्स...।''
''यदि मैं क्लर्क बनता तब?''
प्रीति ने ऐसे प्रश्न की आशा नहीं की थी। वह अचकचा गई। क्षणभर लगा उसे अपने को प्रकृतिस्थ करने में, ''तुम मेरी परीक्षा ले रहे हो?''
''यूं ही...।''
''युनिवर्सिटी समय से ही तुम मेरी पसंद बन गये थे। यह तुम्हें भी पता है। हां, यदि क्लर्क बनते तब बाबा को कुछ तकलीफ अवश्य होती, लेकिन अपनी बेटी की खुशी में वह अपनी भावना पर काबू पा लेते।''
''लेकिन तब क्या तुम खुश हो पाती?''
''फिर वही परीक्षा?'
''बिल्कुल नहीं। एक यथार्थ प्रश्न।''
''जिन्दगी में सभी को सब कुछ नहीं मिलता सुधांशु।''
''तुम्हें मिल रहा है?''
''अब तुम चुप रहोगो?''
प्रीति झटके से उठ खड़ी हुई। सुधांशु उसे क्षणभर तक खड़ा देखता रहा, फिर वह भी उठ खड़ा हुआ।
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(जन्तर-मन्तर में भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शन)


चित्र : बलराम अग्रवाल


(16)
भिन्न शहरों में अवस्थित प्ररवि विभाग के कार्यालयों में एक वर्ष तक प्रशिक्षण लेने के बाद सुधांशु की पहली पोस्टिंग पटना हुई। एक वर्ष के दौरान प्रीति से फोन पर ही उसकी बातें होती रहीं और जिस माह उसने पटना ज्वाइन किया, उसी माह नृपेन मजूमदार ने अवकाश ग्रहण किया। प्रीति के आग्रह पर माह के अंतिम दिन वह सुबह की फ्लाइट से दिल्ली आया। एयरपोर्ट से वह सीधे अपने हेडक्वार्टर ऑफिस गया। यह आवश्यक था। आवश्यक इसलिए था क्योंकि यह उसका पहला ऑफिशियल टूर था, जो केवल प्रीति के आग्रह पर उसे बनाना पड़ा था। यद्यपि बिना काम ऐसे कार्यक्रम बना लेना उसके सिद्धांत के विरुद्ध था, लेकिन जब उसने अपने उच्चाधिकारी से एक दिन के अवकाश के लिए कहा, कारण जानने के बाद वह बोले, ''मिस्टर सुधांशु, इस कार्यालय में ज्वाइन किए आपको नौ दिन हुए हैं...निजी कार्य से अवकाश लेना आपके हित में नहीं है।''
''सर, जाना आवश्यक है।''
''निश्चय ही होगा, लेकिन निदेशक साहब के पास जब आपका प्रार्थना पत्र जाएगा, वह आपको बुलाकर दस प्रश्न करेंगे...ऐसे टेढ़े प्रश्न कि उत्तर देना कठिन होगा।''
''सर...।'' सुधांशु के चेहरे पर मायूसी छा गयी।
''आप उनके सभी प्रश्नों के उत्तर दे देगें तब भी वह संतुष्ट नहीं होंगे...क्योंकि वह जन्मत: असंतुष्ट व्यक्ति हैं।''
सुधांशु को हंसी आ गयी, लेकिन उसने उसे रोक लिया। बॉस की बातों से उसके चेहरे पर से मायूसी की परत हट गयी।
''सुधांशु'' सुधांशु, जो मेज पर सामने रखे एक नोट को पढ़ने लगा था, चौंका, ''सर।''
''आपका प्रशिक्षण पूरा हो चुका है?''
''जी सर।''
''लेकिन कुछ बातें सीखने में आप चूक गये हैं।''
''सर।'' सुधांशु का चेहरा गंभीर हो उठा।
''किसी भी अफसर की मेज पर रखे किसी कागज या फाइल को तब तक नहीं पढ़ना चाहिए जब तक उसे पढ़ने के लिए वह अफसर कहे नहीं।''
''सॉरी सर।''
''दूसरी बात...आप क्लास वन अफसर हैं....न कि बाबू....या क्लास दो अफसर।''
सुधांशु बॉस के चेहरे की ओर देखने लगा।
''आपके कंधों पर इस देश का भार है। देश को चलाने वाले हम ही हैं। हमारे बल पर ही सरकारें टिकी हैं...। ऐसे जिम्मदार लोगों को कुछ अलिखित...अकथित अधिकार प्राप्त होते हैं।''
''सर।''
''अपने काम कभी रुकने नहीं चाहिए और सरकारी काम में बाधा भी नहीं होनी चाहिए। आप अवकाश लेंगे...एक दिन का सरकारी काम रुकेगा। बाहर जाएंगे...दिल्ली...पैसा खर्च होगा। क्यों खर्च करो पैसा। क्यों लो अवकाश। दिल्ली में हमारा हेडक्वार्टर ऑफिस है। कुछ न कुछ काम लगा ही रहता है प्रशासन का....।'' क्षणभर के लिए रुके बॉस, ''प्रशासन क्यों...वह मैं ही लिख कर दे सकता हूं,'' लेकिन कुछ याद कर बॉस फिर रुक गये, ''नहीं, लिखकर प्रशासन को ही देना पड़गा कि अमुक केस डिस्कस करने के लिए सुधांशु दास को दिल्ली भेजना आवश्यक है...प्रशासन से सेंक्शन लेनी होगी। निदेशक की अनुमति के बिना क्लास वन अफसर कहीं टूर पर नहीं जा सकता।''
''सर।'' सुधांशु ने कहना चाहा कि बिना काम के सरकारी टूर बनाना नैतिक रूप से अनुचित है, 'लेकिन अपने से दो पद बड़े उस अधिकारी से यह कहना दुस्साहस माना जाएगा' सोचकर वह चुप रहा। उसे याद था कि वह तब भी प्रोबेशन में था। अपने से वरिष्ठ अफसर की सुनना और उसके हां में हां मिलाते रहना और यदि वह गलत कह रहा है तब संशोधन देते समय इतना विनम्र दिखना कि वरिष्ठ का अहम आहत न हो, उसने प्रशिक्षण काल में सीख लिया था। लेकिन अकारण ही सरकारी धन का दुरुपयोग उसे समझ नहीं आ रहा था।
''वैसे काम कुछ खास नहीं है...लेकिन उसे खास बना देने का वेतन ही तो हम पाते हैं। छ: महीना पहले हेडक्वार्टर को एक प्रस्ताव भेजा था अपने कार्यालय और उप-कार्यालयों के क्लास फोर्थ कर्मचारियों के जाड़े के कपड़ों के लिए...आज भी हेडक्वार्टर वही राशि देता है जो वह दस साल पहले देता था। तब उन्हें जो कपड़े दिए जाते थे उनमें ट्वीड का कोट और उसी का पैण्ट होता था। अब उस राशि में जर्सी भी नहीं आती...पैण्ट की बात ही क्या। गर्म जुराबों की जगह साधारण जुराबें और बाटा की जगह लोकल बने जूते....।''
''सर।'' बॉस, जिनका नाम दलभंजन सिंह था, के बोलने पर विराम लगा। वह सुधांशु की ओर देखने लगे, ''कुछ कहना चाहते हो?'' सिर पर पीछे बचे बालों पर हाथ फेरते हुए उन्होंने पूछा।
''जी सर।''
''हां।''
''सर, मैंने सुना है कि बाबू लोग आधी राशि का बंदर बाट कर लेते हैं...फिर आधी में वही कपड़े आएंगे, जिनकी आप बात कर रहे हैं।''
''तुमने सही सुना है।'' तीखी नजरों से सुधांशु की ओर देखते हुए दलभंजन सिंह बोले, ''सुधांशु, अभी तुम नये हो...विद्यार्थी जीवन से सीधे प्रवेश किया है।'' नौ दिनों तक उसे आप कहने के बाद अचानक बहुत आत्मीय हो उठे दलभंजन सिंह, ''विद्यार्थी जीवन के आदर्श नौकरी में नहीं चलते। कुछ समय तक ही रहता है वह बुखार।'' उन्होंने फिर तीक्ष्ण दृष्टि डाली सुधांशु पर।
''मैं भ्रष्टाचार का दुश्मन हूं...रिश्वतखोरों को फांसी का पक्षधर, लेकिन जब देखता हूं कि सभी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं...तब बाबू बेचारे ने कौन-सा गुनाह किया है। उसे वेतन ही कितना मिलता है! दूसरे विभागों में इतना मिलता है कि उनका परिवार आराम की जिन्दगी बसर कर सकता है, बच्चों को वे अच्छे स्कूलों में पढा सकते हैं लेकिन सरकारी बाबू ...बाबू ही क्यों दूसरे दर्जे का अफसर भी...बेहतर जीवन के लिए तरसते हैं। ऐसी स्थिति में जो उनके हाथ लगता है उसमें अपना हिस्सा निकाल लेते हैं।''
''क्लास फोर्थ के साथ घोर अन्याय होता है सर...उन्हें चार साल में कपड़े दिए जाते हैं...उसमें भी कटौती...।''
''लेकिन तुम देखोगे कि वे सीज़न में एक बार भी उन कपड़ों को नहीं पहनते। उन्हें वे बेच देते हैं...।'' कुछ देर चुप रहे दलभंजन सिंह, ''मैं सब जानता हूं, लेकिन आंखें बंद किए रहता हूं। क्लास फोर्थ जूते लेना पसंद नहीं करता, क्योंकि जो जूते दफ्तर खरीदता है वे उन्हें पसंद नहीं आते...उसकी जगह वे नकद की मांग करते हैं। हमें हेडक्वार्टर के आदेश हैं कि उन्हें खरीदकर जूते ही दें और वे नकद मांगते हैं। हमें बीच का रास्ता निकालना पड़ता है। हम उन्हें नकद देते हैं और प्राप्ति में जूते पाने पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं। तुम सुनकर चौंकोगे, इनमें कई पैसे मिलते ही ठेके पहुंचते हैं...और दफ्तर आते हैं हवाई चप्पलों में...पूरे जाड़े। किस-किस को सुधारोगे सुधांशु।''
''जी सर।'' सुधांशु ने कुछ भी न कहना उचित समझा।
''यही वह प्रस्ताव है। छ: महीनों से हेडक्वार्टर में लटका पड़ा है। जाड़ा आने वाला है। चार साल बाद मिलने वाले कपड़ों की क्लासफोर्थ को प्रतीक्षा रहती है, बावजूद इसके कि वे उसे कभी नहीं पहनते। मेरा सेक्शन अफसर दो बार इसके लिए मुझे याद करवा चुका है। दो डेमी ऑफिशियल पत्र लिख चुका हूं, लेकिन हेडक्वार्टर कानों में तेल डाले बैठा है। आपने अच्छे समय दिल्ली जाने की बात की...जब हमारे पास सरकारी खर्च पर भेजने का उपाय है तब आप अपना अवकाश और पैसा क्यों खर्च करते हैं। हेडक्वार्टर में आप सहायक महानिदेशक सदाशिवम से मिल लेना। उन्हें पत्र देकर केवल इतना ही कहना है कि कार्य को शीघ्र सम्पन्न करवायें। बस्स....।'' दलभंजन सिंह के चेहरे पर मुस्कान फैल गयी, ''एक लाभ और है सरकारी टूर पर जाने का।''
सुधांशु दलभंजन सिंह के चेहरे की ओर देखने लगा।
''गाड़ी भी मिलती है और गेस्ट हाउस भी।''
''मैं बहुत जूनियर हूं सर...गाड़ी उप-निदेशक से ऊपर ही मिलती होगी...।''
''हां, लेकिन विशेष मामलों में जूनियर के लिए भी वह सुविधा है। मैं फोन कर दूंगा वहां प्रशासन में...तम्हें एयरपोर्ट लेने आएंगे वे...गेस्ट हाउस की व्यवस्था करेंगे और छोड़ने भी जाएंगे। पटना आने से पहले मैं हेडक्वार्टर में ही था।''
''थैंक्यू सर।'' उठ खड़ा हुआ था सुधांशु।
''मैं आपके टूर के लिए निदेशक को नोट भेजता हूं। आप जूनियर हो इसलिए हवाई यात्रा के लिए उनकी विशेष अनुमति चाहिए होगी।''
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एयर पोर्ट से सुधांशु दिल्ली कैण्ट स्थित गेस्ट हाउस गया। गेस्ट हाउस में हेडक्वार्टर ऑफिस के बाबुओं की डयूटी शिफ्ट में लगती थी। उनके साथ एक चपरासी भी रहता था। एक बाबू सुबह छ: बजे से दो बजे तक, दूसरा दो बजे से रात दस बजे और तीसरा रात दस बजे से सुबह छ: बजे तक गेस्ट हाउस के रिसेप्शन पर तैनात रहता था। चपरासी केवल दो होते थे। एक दिन के लिए और एक रात के लिए और उन्हें बारह घण्टे हाजिरी देनी होती थी। गेस्ट हाउस सैन्य परिसर में था, इसलिए सुरक्षा की समस्या न थी। दो जवान परिसर के गेट पर हर समय गन के साथ तैनात रहते थे। उस परिसर में सैन्य अधिकारियों का गेस्ट हाउस भी था और दिन-रात गाड़ियों का आवागमन लगा रहता था, जिसकी व्यवस्था देखने के लिए मेन गेट के बाद एक ऑफिस था, जहां तीन सैन्य कर्मचारी तैनात रहते थे। मेन गेट पर एक बैरियर लगा था, जो निरंतर ऊपर उठता-गिरता रहता था।
गेस्ट हाउस में आने वाले अधिकारियों का रिकार्ड सेना के बाबू के पास भेज दिया जाता था। आने वाले अतिथि को, मेन गेट पर कुछ क्षण के लिए रुकना पड़ता। मेन गेट पर तैनात एक सैनिक कुछ दूर पर रिकार्ड देखने वाले बाबू से फोन पर आगन्तुक के विषय में तहकीकात कर लेता तभी उसे अंदर जाने देता। सैन्य अधिकारियों का वह गेस्ट हाउस केवल कर्नल रैंक तक के अफसरों के लिए था। उससे ऊपर रैंक के अधिकारियों के लिए दो अलग गेस्ट हाउस थे।
लेकिन प्ररवि विभाग के अधिकारियों के लिए वही एक मात्र अतिथिगृह था, जहां सहायक निदेशक से लेकर महानिदेशक तक को ठहरना होता। हालांकि महानिदेशक विभाग का मुखिया था और वह दिल्ली में ही तैनात था, इसलिए उसके ठहरने का प्रश्न तभी उत्पन्न होता जब किसी दूसरे शहर में तैनात किसी वरिष्ठतम निदेशक को पदोन्नति देकर महानिदेशक बनाया जाता और अपना पद भार ग्रहण करने आने पर उसे तब तक उस गेस्ट हाउस में ठहरना होता जब तक महानिदेशक अपने पदानुरूप सरकारी मकान नहीं पा लेता। महानिदेशक का पद मंत्रालय के एक वरिष्ठ अवर सचिव के समकक्ष था और उसे पैंतीस हजार कर्मचारियों का शीर्ष अधिकारी होने का सुख प्राप्त था। सरकारी भाषा में उसे उनका नियोक्ता माना जाता था। वह क्लास वन अधिकारियों का नियोक्ता नहीं था।
दलभंजन सिंह ने सदाशिवम को फोन करके सुधांशु के लिए गेस्ट हाउस में कमरा बुक करवा दिया। वह सुबह नौ बजे एयर पोर्ट पहुंचा। सुधांशु दास की तख्ती के साथ एक ड्राइवर एयरपोर्ट के बाहर खड़ा था। सदाशिवम ने दलभंजन सिंह को यह बताया था और एक वर्ष प्रशिक्षण के दौरान शहर-दर शहर घूमते हुए सुधांशु भी यह जान चुका था। तब वह अकेला नहीं होता था उसका पूरा बैच होता था। उस वर्ष के बैच में नौ युवक और चार युवतियां थीं। तेरह का बैच एक साथ एक स्थान से दूसरे स्थान जाता और उसके लिए व्यवस्था की गई गाड़ियों के ड्राइवर तख्ती में विभाग का या निदेशक कार्यालय का नाम लिख कर खड़े होत थे। प्रत्येक गाड़ी में ड्राइवर की सहायता के लिए संबद्ध कार्यालय का एक बाबू भी होता था। उन बाबुओं को दफ्तर की ओर से ऐसे ही कामों में नियुक्त किया जाता था। सुधांशु ने अनुभव किया था कि एक-दो को छोड़कर लगभग सभी अपनी स्थितियों से परम संतुष्ट दिखते थे। उनकी संतुष्टि का सबसे बड़ा कारण होता उन युवा अधिकारियों के संपर्क में आना, उनकी सेवा के अवसर प्राप्त करना, जो भविष्य में उनके सह निदेशक से लेकर महानिदेशक तक बनने वाले थे। ऐसे अफसरों के लिए प्राय: निजी ट्रेवेल एजेंसी की गाड़ियां बुक करवाई जातीं, जो निश्चित अवधि के बाद किलोमीटर दर से सड़कों पर दौड़तीं। वे चार या आठ घण्टों के लिए बुक होतीं और उस अवधि के पश्चात समय और किलोमीटर के हिसाब से दफ्तर एजेंसी को भुगतान करता। इसमें एक और पेंच था। ये गाड़ियां निश्चित शुल्क पर चार घण्टे के लिए चालीस और आठ के लिए अस्सी किलोमीटर के हिसाब से बुक होती थीं। उस समय सीमा के दौरान यदि वे चालीस और अस्सी से कम चलतीं, जैसा कि प्राय: होंता ही था, तब भी उनका भुगतान दूरी की निर्धारित सीमा के बाद प्रतिकिलोमीटर की दर से बढ़ाकर एजेंसी को किया जाता था।
अफसरों की सेवा में तैनात बाबू ड्राइवर से अधिकतम किलोमीटर की रसीद लिखवाता था और अतिरिक्त राशि का हिसाब स्वयं रखता, अपने अनुभाग अधिकारी को बताता और एजेन्सी के मालिक को नोट करवाता। कार्यालय से एजेंट को भुगतान का चेक पहुंचने के बाद गाड़ियों के दिखाए गए अतिरिक्त किलोमीटर का हिसाब वह एजेंसी में जाकर कर आता। कभी-कभी एजेण्ट स्वयं किसी बाबू को किसी रेस्टॉरेण्ट में बुलाकर उनका भुगतान कर देता, जिसमें अनुभाग अधिकारी के साथ उन सभी बाबुओं का हिस्सा होता, जिन्हें अफसरों के साथ उनकी गाड़ियों में दौड़ना पड़ता था। ऐसा केवल प्ररवि विभाग में होता था, ऐसा नहीं, देश का कोई भी विभाग, यहां तक कि केन्द्र और राज्य सरकारों के मंत्रालय और कार्यालय भी इस बीमारी से अपने को बचा नहीं पाए थे। आजादी के बाद देश को जिस बीमारी ने सर्वाधिक अपना शिकार बनाया वह रिश्वतखोरी है। कोर्ट, पुलिस महकमें को सर्वाधिक भ्रष्ट बताता है जबकि कोर्ट में भी वह व्याप्त नहीं है यह अब चर्चा का विषय है। सच यह है कि यह सोचना कठिन है कि कौन इससे मुक्त है। क्या छोटा...क्या बड़ा....क्या चपरासी...क्या अफसर-और मंत्री...।
'भोपाल की यूनियन कार्बाइड ने हजारों लोगों की जानें लीं और लाखों को तबाह किया। इस त्रासदी का मुख्य अभियुक्त यूनियन कार्बाइड का बॉस ऑरेन एंडरसन कैद से सादर छोड़ दिया गया था। कहते हैं उसे दिल्ली जाने के लिए राज्य सरकार ने विशेष विमान की व्यवस्था की थी। किसके निर्देश पर? अंतत: एक दिन यह उदघाटित होगा। सभी जानते हैं कि उन दिनों मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव कौन था! एंडरर्सन ने किसको कितना लाभ पहुंचाया...शायद ही यह कभी उद्घाटित हो, लेकिन जिनके निर्देशों और सुविधा देने से वह देश से भागने में सफल रहा उन्हें यदि देश की जनता देशद्रोही माने तो अनुचित न होगा। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि आज ये ही देशद्रोही और अपराधियों के संरक्षक सत्ता के शीर्ष पर उपस्थित हो देश के कर्णधार बने हुए हैं।'
एयर पोर्ट पर ड्राइवर के हाथ में अपने नाम की तख्ती देख सुधांशु यह सब सोचने लगा था। इतने दिनों में उसे विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की कुछ बातों का ज्ञान हो चुका था। यह पहला अवसर था जब ड्राइवर के साथ कोई बाबू नहीं था।
'शायद मैं अकेला हूं इसलिए...। नहीं, मैं कनिष्ठ अधिकारी हूं...इसलिए....शायद दोनों कारणों से। सही ढंग से नौकरी अभी प्रारंभ ही हुई है...उच्चाधिकारियों जैसी सुविधा कैसे मिल सकती है।'
गाड़ी में बैठते ही उसके ग्रामीण संस्कार उभर आए। उसने ड्राइवर से पूछा, ''आप हेडक्वार्टर में हैं?''
''नहीं सर...अमन ट्रेवल एजेंसी से हूं सर।'' हरियाणवीं खड़ी बोली में ड्राइवर बोला।
ड्राइवर ने उसकी ओर देखा और कैण्ट की खाली सड़क पर अपनी सफेद एम्बेसडर दौड़ा दी।
गेस्ट हाउस के सामने गाड़ी रुकते ही चपरासी और बाबू, जो रिसेप्शन के पास खड़े थे, गाड़ी की ओर लपके। दोनों आगंतुक को पहचान नहीं पाए।
''कोई प्रोबेशनर है।'' बाबू चपरासी की ओर मुंह करके धीमे स्वर में बुदबुदाया।
''हां, नया बछेड़ा लग रहा है, तभी कुलांचे भर रहा है। आपने देखा रमेश बाबू, कैसे उछलकर सीट से नीचे उतरा। ड्राइवर को उतरकर अटैची लेने का मौका तक नहीं दिया।''
''बेवकूफ...वह अपना ड्राइवर नहीं है। एजेन्सी वाले अफसरों की अटैची उतारने का वेतन नहीं पाते।'' फुसफुसाते हुए रमेश बोला, ''चुप रह और साहब की अटैची थाम ले आगे बढ़कर।''
गाड़ी गेस्ट हाउस के बाहर लाल बजरी पर खड़ी थी और सुधांशु ड्राइवर द्वारा बनाई गई रसीद पर हस्ताक्षर करने के लिए रुका हुआ था, जबकि ड्राइवर मीटर में रीडिंग देखने का नाटक कर रहा था। वास्तव में ड्राइवर सुधांशु से हस्ताक्षर नहीं करवाना चाहता था। उसे ऐसे ही निर्देश थे...हेड क्वार्टर के अनुभाग अधिकारी के साथ ही एजेंसी के मालिक के। सुधांशु इस तथ्य से परिचित हो चुका था और खडा था, जबकि दूसरे अफसर गाड़ी में सामान छोड़कर चले जाते थे। बाबू उन्हें उनके लिए सुरक्षित कमरे में छोड़ गाड़ी के पास जब तक वापस आता तब तक ड्राइवर और मीटर में रीडिंग देखकर रसीदबुक निकाल चुका होता था। चपरासी अफसर की अटैची उसके कमरे में पहुचाता और बाबू रसीद पर मनमानी रीडिंग दर्ज करता।
लेकिन रमेश जैसे बाबुओं की गतिविधियों से सुधांशु परिचित हो चुका था और सिद्धांतत: उसने तय कर लिया था कि अपनी जानकारी में वह किसी को भी रिश्वत लेने की अनुमति नहीं देगा।
''आप अभी तक रीडिंग नहीं देख पाये?'' सुधांशु ने ड्राइवर से पूछा जो सीट पर बैठा मीटर पर झुका हुआ था।
चपरासी ने झुककर सुधांशु को नमस्कार करते हुए हाथ आगे बढ़ा दिया, 'सर अटैची...।''
सुधांशु ने अटैची चपरासी को पकड़ा दिया। चपरासी गेस्ट हाउस की ओर मुड़ा, लेकिन सुधांशु को खड़ा देख रुक गया। रमेश साथ था।
''सर, आप चलिए मैं रसीद में साइन कर दूंगा।'' रमेश ने कहा।
''नो प्राब्लम।'' सुधांशु के उत्तर से रमेश बुझ गया। ड्राइवर भी समझ गया कि जवान खून अड़ियल है। हस्ताक्षर करके ही टलेगा। रसीद पर सही रीडिंग दर्जकर ड्राइवर ने रसीद सुधांशु की ओर बढ़ाते हुए कहा, ''सर आप भी एक बार रीडिंग चेक कर लें।''
''ओ.के.।'' सुधांशु ने स्वयं रीडिंग चेक की, रसीद में लिखी रीडिंग से मिलान किया और हस्ताक्षर कर रसीद ड्राइवर को लौटाते हुए ''धन्यवाद'' कह तेजी से गेस्ट हाउस की ओर बढ़ गया। रमेश दौड़कर उसके पीछे चलने लगा और चपरासी अटैची उठाये कोई फिल्मी गाना गुनगुनाता हुआ उनसे पर्याप्त फासला बनाकर चला। उनके चलने पर बजरी पर किर्र-किर्र की आवाज हो रही थी।
उस समय गेस्ट हाउस के लॉन में लगे चम्पा के पेड़ पर एक चिड़िया फुदक रही थी।
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रविवार, 21 अगस्त 2011

अण्णा की अगस्त क्रान्ति

(चित्र : बलराम अग्रवाल)


रचना समय में इस बार प्रस्तुत है - ’अण्णा की अगस्त क्रान्ति’ और मेरे उपन्यास ’गलियारे’ के चैप्टर १३ और १४.


अण्णा की अगस्त क्रान्ति
(समर्थन में उमड़ा जन सैलाब)
रूपसिंह चन्देल

’जन लोकपाल बिल’ के लिए अण्णा हजारे का अनशन तिहाड़ जेल से निकलकर अब दिल्ली के ऎतिहासिक रामलीला मैदान में जारी है. अण्णा के समर्थन में उमड़ता जन सैलाब गान्धी के आन्दोलनों की याद दिलाता है. १६ अगस्त को सुबह सात बजकर सोलह मिनट पर मयूर विहार के सुप्रीम एन्क्लेव से अण्णा की गिरफ्तारी और पुलिस मेस अलीपुर होते हुए सात दिन की न्यायिक हिरासत में उनके तिहाड़ जेल पहुंचने की गाथा भारत की उस सरकार के इरादों को बेनकाब करती है, जो भ्रष्टाचार और अनेकानेक घोटालों से घिरी हुई है. लूट का ऎसा जनमारक स्वरूप शायद ही विश्व इतिहास में---किसी देश में खोजने से मिले. देश को इस लूट से ’जन लोकपाल बिल’ द्वारा ही मुक्ति मिल सकती है. लेकिन सरकार ने उस बिल को खारिज कर आनन-फानन में अपना ’लोक पाल बिल’ न केवल संसद में प्रस्तुत किया बल्कि उसे स्टैंण्डिंग कमिटी को भी भेज दिया. अब अण्णा के समर्थन में देश के शहरों से लेकर कस्बों-गांवों तक उमड़ते जन सैलाब से अण्णा टीम के विरुद्ध भड़काऊ और अपमानजनक वक्तव्य देने वाले मंत्रियों और कांग्रेस के प्रवक्ताओं की टांगे कांपती नजर आ रही हैं. ऊंचे स्वर में बोलने वालों के स्वर अब धीमे---किसी हद तक फुसफुसाते हुए सुनाई देने लगे हैं. कुछ ने चुप्पी साघ ली है. कुछ आज भी टीम अण्णा को चुनाव लड़कर संसद में आने की चुनौती दे रहे हैं, लेकिन उनके स्वर में भी थकावट स्पष्ट नजर आ रही है. दरअसल सत्ता का मद व्यक्ति की आंखों में पट्टी बांध देता है और वह हकीकत जानते हुए भी उसे झुठलाने का प्रयत्न करता है. भ्रष्टाचार के विरुद्ध अण्णा हजारे के इस महाअभियान के समर्थन में उमड़े जन सैलाब को आज भी नकारने की कोशिश की जा रही है.

कोशिश जनता में भ्रम पैदा करने की भी की जा रही है. इसलिए कुछ नेता यह कहते घूम रहे हैं कि एक अरब पचीस करोड़ जनता में कुछ हजार लोगों का समर्थन यह सिद्ध नहीं करता कि संपूर्ण जनता अण्णा के साथ है. एयर कंडीशण्ड बंगलों में रहने वाले और एयर कंडीशण्ड गाड़ियों में घूमने वाले नेता आम जनता से इस कदर कट चुके हैं कि वे जन भावना का अनुमान नहीं लगा पा रहे. आज घर-घर में अण्णा की चर्चा है---जन-जन अपने को उनसे जुड़ा अनुभव कर रहा है---वह ’जन लोकपाल बिल’ और ’लोक पाल बिल’ के बारे में भले ही न जानता हो, लेकिन वह इतना जानता है कि अण्णा भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं और उसे उनका साथ देना है.

नेताओं की भांति समाज के कुछ ऎसे लोग भी हैं जो अण्णा की इस मुहिम के विरुद्ध बयान दे रहे हैं. मुझे निरंतर ऎसे मेल मिल रहे हैं जिनमें यह कहा जा रहा है कि यह आन्दोलन दलितों के विरुद्ध है. ऎसा कहने वालों में दलित विचारक और स्तंभकार श्री चन्द्रभान प्रसाद भी हैं. चन्द्रभान प्रसाद जी क्या यह बराएंगे कि वह कितने प्रतिशत दलितों का प्रतिनिधित्व करते हैं! क्या वह वास्तव में संपूर्ण दलित समाज का स्वर हैं? उनके अनुसार यह सवर्णॊं का आन्दोलन है, लेकिन भ्रष्टाचार से क्या सवर्ण ही परेशान हैं? सच यह है कि सर्वाधिक दलित समाज ही परेशान है. वे इस सचाई से मुंह क्यों मोड़ रहे हैं कि यह आन्दोलन विशुद्ध रूप से भ्रष्टाचार के विरुद्ध है और जाति- धर्म से ऊपर उठकर है. इस आन्दोलन में सभी वर्ग और जाति-धर्म के लोग हिस्सा ले रहे हैं. उसका विरोध वे लोग कर रहे हैं जो भ्रष्ट सरकार से लाभ ले रहे हैं.

किसी व्यवस्था के विरुद्ध चलने वाले आंदोलन को ध्वस्त करने के लिए व्यवस्था कुछ लोगों और संस्थाओं को खरीद लेती है और उस आन्दोलन के विरुद्ध कुप्रचार के लिए उनका इस्तेमाल करती है. ऎसा पहली बार नहीं हो रहा--- यह अंग्रेजों से विरासत में प्राप्त नीति है. लेकिन सरकार के हाथों बिके कुछ चंद लोग क्या किसी महा अभियान की धार कुंद कर सकते हैं?

किस प्रकार सभी वर्ग और जाति-धर्म के लोग अण्णा के आन्दोलन से जुड़े हुए हैं, इसके दो उदाहरण, जिनका अनुभव मुझे २० अगस्त को रामलीला मैदान में हुआ, प्रस्तुत हैं.

सुबह साढ़े आठ बजे जब मैं रामलीला मैदान पहुंचा, लगभग ढाई-तीन हजार लोग वहां पहले से ही उपस्थित थे. लोगों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी. अण्णा ठीक दस बजे मंच पर आए, पांच मिनट का संक्षिप्त भाषण दिया और घोषणा की कि ३० अगस्त तक सरकार ने यदि ’जन लोकपाल बिल’ संसद में पारित नहीं किया तो देशव्यापी जेल भरो आन्दोलन पुनः प्रारंभ हो जाएगा. श्री अरविन्द केजरीवाल ने बताया कि सरकार द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले ’जूडिशियल एकाउण्टिबिलिटी’ बिल की खामियां क्या हैं और उसे भी पुनः ड्राफ्ट किया जाना चाहिए और उसमें भी सिविल सोसाइटी के लोगों की भागीदारी हो. पूर्व विधि मंत्री श्री शांतिभूषण जी ने इंदिरा गांधी द्वारा १९७५ में प्रस्तुत एक बिल के दोनों सदनों में एक ही दिन में पारित करवाने का उदाहरण दिया और कहा कि यदि सरकार में इच्छा शक्ति हो तो वह इस बिल को ३० अगस्त तक पारित करवा सकती है.

शांतिभूषण जी के बाद ’परिवर्तन’ से संबद्ध एक दलित लड़की ने मंच पर आकर श्री चन्द्रभान प्रसाद जैसे लोगों की बात का खण्डन करते हुए कहा कि ’वह एक दलित गरीब परिवार की लड़की है और अण्णा के आन्दोलन से जुड़ी हुई है. उसने बताया कि दलित अण्णा के साथ हैं---अण्णा के आन्दोलन के विरुद्ध भ्रामक प्रचार करने वालों को यह समझ लेना चाहिए.

दोपहर बारह बजे तक भीड़ बीस हजार से ऊपर हो चुकी थी. पौने बारह बजे स्वामी अग्निवेश ने बताया कि गुड़गांव के पास के एक गांव की महिलाओं ने सुबह चार बजे उठकर लगभग डेढ़ हजार लोगों के लिए भोजन तैयार किया और उसे ट्रक में लेकर वे रामलीला मैदान पहुंची. ये दो उदाहरण यह सिद्ध करते हैं कि अण्णा को सभी वर्गों का समर्थन मिल रहा है.

आन्दोलन में किसानों की सक्रिय भागीदारी उल्लेखनीय है. आन्दोलन का दूसरा उल्लेखनीय पक्ष यह है कि अनेक स्वयं सेवी संस्थाएं और निजी तौर पर कुछ लोग उसमें हिस्सा लेने पहुंचे लोगों के लिए फल, बिस्कुट, पानी और भोजन आदि निरंतर बांट रहे थे. हजारों लोगों के लिए यह व्यवस्था करने वालों की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है.

दोपहर दो बजे तक जन सैलाब मेरे अनुमान से पैंतीस हजार का आंकड़ा पार गया था. मैदान के मुख्य द्वार पर खड़े होकर मैंने देखा तो पाया कि उधर आने वाली हर सड़क पर दस-पन्द्रह-बीस-पचीस के जत्थे – ’अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’, ’वंदे मातरम’, ’भारत माता की जय’ के नारे लगाते रामलीला मैदान की ओर बढ़ते जा रहे थे.
(रचना समय में इसे पोस्ट करने (२१ अगस्त) के समय का समाचार यह है कि अन्ना के समर्थन में आज इंडिया गेट से रामलीला मैदान तक लगभग दो लाख लोगों का सैलाब उमड़ा हुआ था. दो बजे दोपहर मैं रामलीला मैदान के सामने था और देखकर हैरान था कि चारों ओर से पैदल लोगों के झुण्ड, ट्रकों, गाड़ियों, मोटरसाइकिलों पर नारे लगाते लोग जा रहे थे. पुलिस ने कनॉट प्लेस से रामलीला मैदान की ओर जाने वाली सड़क बंद कर दी थी. और शाम होते-होते इंडिया गेट से रामलीला मैदान तक लोग ही लोग थे और आज वे सब अण्णा हजारे थे. बच्चे भी और बूढ़े भी.

केजरीवाल के कल के आह्वान पर आज अनेक मंत्रियों और सांसदों के घरों को लोगों ने घेर रखा था. सरकार के हाथ-पैर फूले हुए हैं और अण्णा का रुख और सख्त हो गया है. आज उन्होंने हुंकार भरते हुए कहा कि ३० अगस्त तक यदि ’जन लोकपाल बिल’ पारित नहीं हुआ तो इस सरकार को जाना होगा.

अब देखना है कि “जोर कितना बाजुए कातिल में है”.

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मेरे मन में वरिष्ठ कवि और गज़लकार हरेराम समीप की वह गज़ल, जिसे कल मंच से कुमार विश्वास ने सुनाया था,

“अराजक समय में उसूलों की बातें,
गज़ब कर रहे हो तुम अन्ना हजारे.”

गूंजने लगी है.

कल घर लौटते हुए मैं जब शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन से बाहर निकला, ऑटो और फीडर बस सेवा वालों का शोर था , लेकिन देर तक मुझे उस शोर में ’अण्णा तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’ ही सुनाई देता रहा. रात सपने में अण्णा और उनके समर्थन में उमड़ी भीड़ और उसके नारे ही दिखाई और सुनाई देते रहे.
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धारावाहिक उपन्यास


’गलियारे’
(उपन्यास)
रूपसिंह चन्देल
चैप्टर 13 औरे 14

(13)
प्रीति कभी-कभी सुधांशु से मिलती। उनकी मुलाकातें प्राय: लाइब्रेरी के बाहर किसी चायवाले की दुकान में होतीं।
''तुम्हारा क्या इरादा है?'' एक दिन सुधांशु ने चाय पीते हुए पूछा।
''न एम.फिल....न पी-एच.डी....।''
''वह मैं पहले ही सुन चुका हूं।''
''बाबा भी यही चाहते हैं।''
''हुं...अ..।'' सुधांशु चुप रहा।
''तुम्हारे सर, शांतिकुमार तुम्हें कहीं एडहॉक लगवाने वाले थे?'' विषय बदलते हुए प्रीति ने पूछा।
''कहीं वेकेंसी होगी...और उनकी चलेगी तभी न...।''
विज्ञापन निकलते रहे, सुधांशु सभी जगह आवेदन करता रहा, शांति कुमार प्रयत्न करते रहे लेकिन सफलता नहीं मिली। मन मारकर सुधांशु ने पी-एच.डी. के लिए रजिस्टर्ड करवा लिया लेकिन शांति कुमार उसके निर्देशक नहीं रहे। उसे प्रो. अनिल कृष्णन के अधीन पी-एच.डी. करना था। प्रो. अनिल कृष्णन के निर्देशन में पी-एच.डी. करना चुनौतीपूर्ण कार्य था। उनके अधीन बहुत धैर्यशाली ही कार्य कर पाते थे...वे जिन्हें समय की चिन्ता नहीं होती थी और न धन की। प्रोफेसर कृष्णन अपने पी-एच.डी के छात्रों को निजी कार्यो में इतना संलिप्त रखते कि वे अपने शोध के लिए समय नहीं निकाल पाते। प्रो. कृष्णन ने यू.जी.सी. से प्राचीन भारतीय इतिहास पर एक प्रोजेक्ट ले रखा था और उनके छात्र उनके उस प्रोजेक्ट के लिए कार्य करते थे। स्वयं प्रो. कृष्णन देश-विदेश की यात्राएं करते रहते या छात्रों द्वारा किए कार्य को व्यवस्थित करते। क्लास में छात्रों को पढ़ाने या अपने निर्देशन में पी-एच.डी. करने वाले छात्रों को अपने कार्य करने देने की सुविधा वह प्रदान नहीं करते थे।
प्रो. अनिल कृष्णन विश्वविद्यालय में वरिष्ठ प्रोफेसर थे, इसलिए कोई छात्र उनके विरुद्ध शिकायत करने से बचता था। छात्र उनके साथ तालमेल बैठाने का प्रयत्न करते लेकिन छात्राएं धैर्य खो बैठतीं। यदि कोई धैर्य का परिचय भी देती तब उसे प्रोफेसर की उन शर्तों को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना होता जिन्हें स्वीकार करने के लिए कोई ही छात्रा तैयार होती और जो होती कृष्णन न केवल उसकी थीसिस पूरी करवाते, बल्कि उसे स्थायी-अस्थाई प्राध्यापकी हासिल करने में अपनी पूरी ताकत झोक देते।
''बुरे फंसे सुधांशु।'' एक दिन शोकमुद्रा में बैठे सुधांशु को टोकते हुए शांति कुमार ने कहा, ''वह मेरे सीनियर हैं...कुछ कहना नहीं चाहता...लेकिन पी-एच.डी. तुम्हारे लिए कहीं मृग-मरीचिका ही न बन जाए!''
''सर, दो साल तक हॉस्टल रहेगा न मेरे पास ...वही चाहिए। प्राध्यापकी मिली नहीं...मिलेगी, मुझे संदेह है। केवल सिर छुपाने की जगह बनी रहे...सिविल सेवा परीक्षा ही मेरे लिए अब विकल्प है। कुछ नहीं हुआ तो किसी लाला की क्लर्की मिलेगी ही।''
''हताश नहीं होते...तुम वही करो और पूर्ण आस्था के साथ करो।''
और सिविल सेवा परीक्षा तक सुधांशु ने रात-दिन नहीं देखा। प्रीति ने भी आई.ए.एस. की तैयारी प्रारंभ कर दी थी। एक दिन उसने सुधांशु से कंबाइण्ड स्टडी की बात की।
''नहीं, प्रीति...मुझे बिल्कुल एकांत चाहिए...रवि की तरह।''
''ओ.के...।'' प्रीति ने दोबारा नहीं कहा।
सुधांशु तीन वर्ष से गांव नहीं गया था। उसने पिता को स्पष्ट लिख दिया था कि वह कुछ समय और गांव नहीं आ पाएगा।
अगले अटेम्प्ट में न केवल वह सिविल सेवा परीक्षा में सफल हुआ, बल्कि साक्षात्कार की सीढ़ी भी चढ़ गया था।
उसकी सफलता पर प्रीति ने उसे ट्रीट दिया और उसके पिता नृपेन मजूमदार ने उसे मिलने के लिए बुलाया। मिलने पर वह उससे ऐसे मिले जैसे एक सीनियर आई.ए.एस. अफसर अपने जूनियर अफसर से मिलता है। इस बार मजूमदार के बदले स्वरूप से वह चकित था। उसने सोचा, ''उगते सूरज को सभी नमस्कार करते है।''
उसे अपने हाथ से संदेश खिलाती प्रीति ने कहा, ''यू आर ग्रेट सुधांशु। आई लव यू।''
संदेश मुंह में रख सुधांशु प्रीति को देर तक देखता रहा। मुंह चलाना ही भूल गया।
'तो क्या इसे इसीदिन की प्रतीक्षा थी। यदि मैं सिविल सेवा के लिए न चुना जाता तो यह चुप रहती।' लेकिन शायद ऐसा नहीं होता। परोक्षतया वह कितनी ही बार अपने भाव प्रकट कर चुकी थी। मैंने ही रिस्पांस नहीं किया। निश्चित ही प्रीति अपने अंतरात्मा से मुझे प्यार करती है।'
''डू यू...।'' प्रीति ने अपनी बात पूरी नहीं की। उस क्षण वह अपने निजी कमरे में थी। मां-पिता अपने कमरे में। उस बड़े बंगले में प्रीति का कमरा बिल्कुल एकांत में पीछे की ओर था, जिसके बाहर छोटा-सा किचन गार्डन था।
सुधांशु लगातार उसे घूरता रहा, लेकिन जब प्रीति ने कुछ और कहना चाहा, उसने उसके मुंह पर हाथ रख दिया। ''कोई प्रश्न नहीं।'' और उसने प्रीति को आलिगंन में ले अपने होठ उसके होठों पर रख दिए, ''आई टू लव यू डियर...लव यू...लव यू...।'' वह देर तक उसे आलिगंनबद्ध किये रहता यदि उधर से नौकरानी के आने की आहट न मिली होती।
सुधांशु से अलग हुई प्रीति की सांस धौंकनी की भांति चल रही थी। उसकी आंखों में आल्हाद की चमक थी।
''बेबी...आप लोगों के लिए चाय लाई या कॉफी?'' नौकरानी दरवाजे के पार खड़ी पूछ रही थी। अनुभवी नौकरानी ने उन दोनों की आंखों में तैरते सपने देख लिए थे। उसके चेहरे पर हल्की स्मिति फैल गयी थी जिसे उसने तत्काल गंभीरता के आवरण से ढंका था और अपना प्रश्न दोहरा दिया था।
''सुधांशु ...चाय या कॉफी?'' प्रीति ने पूछा।
''कॉफी।''
''थैंक्यू...।'' नौकरानी मुड़ी तो सुधांशु बोला, ''समझदार है...पढ़ी-लिखी लगती है।'' उसे तत्काल अपनी मां की याद हो आयी जो निरक्षर थीं।
''क्यों नहीं...एक एडीशनल सेक्रेटरी के घर की नौकरानी जो है...इतना तो उसे आना ही चाहिए।''
''हां...कहते हैं बड़े अफसरों के घर के तोते भी अंग्रेजी बोलते हैं और कुत्ते भौंकते नहीं बार्क करते हैं।''
''जनाब ...अब आप भी उसी वर्ग का हिस्सा बनने जा रहे हैं।''
सुधांशु के चेहरे पर गंभीरता छा गई, 'क्या मैं भी अपनी जड़ों से कट जाऊंगा।' उसने सोचा, शायद नहीं...शायद...बहुत कुछ बदल जाएगा।'
''क्या सोचने लगे?''
''उंह...कुछ नहीं।'' अन्यमनस्क से उसने उत्तर दिया।
तभी ट्रे में कॉफी लिए नौकरानी कमरे में प्रविष्ट हुई, ''बेबी कॉफी....गर्म है....।''
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(14)
सुधांशु का चयन अलाइड सेवा में प्रतिरक्षा वित्त विभाग, जिसे प्ररवि विभाग कहा जाता था, के लिए हुआ। प्रशिक्षण के लिए जाने से पूर्व वह गांव गया। पिता सुबोध कुमार दास और मां सुगन्धि के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। बेटे ने इलाके में ही नहीं जिले में उनका नाम रौशन कर दिया था। सुधांशु एक सप्ताह गांव में रहा और एक दिन भी ऐसा नहीं बीता जब गांव और दूर गांवों के लोग उससे मिलने न आए हों। मिलने आने वाले उसके पिता के परिचित ही थे, लेकिन 'वे केवल उससे मिलने आते हैं' सोचकर उसे कष्ट होता। एक दिन चौपाल में बैठा वह मिलने आए किसी व्यक्ति से बातें कर रहा था। पिता सामने चारपाई पर मेहमान के साथ बैठे थे कि घर से कुछ दूर सड़क पर एक कार आकर रुकी। कार रुकने की आवाज सुन पिता ने चौपाल से झांककर देखा। दो युवक और एक युवती पड़ोसी से कुछ पूछ रहे थे और पड़ोसी उसके घर की ओर इशारे कर कुछ कह रहा था।
कुछ देर बाद वे तीनों सुधांशु के सामने थे।
''सुधांशु जी आप ही हैं?'' एक ने पूछा।
''जी।''
''आपसे बातचीत करनी है...हम दैनिक 'आज' बनारस से हैं।''
''ओ.के.।''
उन लोगों ने लगभग एक घण्टा सुधांशु से उन्हीं विषयों पर बातचीत की जिन पर दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स के पत्रकार उससे कर चुके थे। आपने कोचिंग की थी, आपको प्रेरणा किससे मिली, कितने घण्टे पढ़ते थे, भविष्य में क्या करना चाहेंगे....दूसरों युवाओं के लिए कोई संदेश आदि...आदि...।''
दैनिक 'आज' की टीम के जाने के बाद आगन्तुक सज्जन, जो सुधांशु के दूर के रिश्तेदार थे और पन्द्रह किलोमीटर दूर एक गांव के समृद्धतम व्यक्तियों में से थे, सुधांशु की पीठ थपथपाते हुए बोले, ''बेटा, तुमने घर का ही नहीं हम सबका ...इलाके का नाम रोशन किया है...।''
यह बात...बिल्कुल यही बात सुधांशु ने हर आने वाले के मुख से सुनी थी। वह चुप रहा।
''बेटा अनुभव में बाल सफेद किए हैं...एक सलाह देना चाहता हूं।''
''जी...।'' सुधांशु इतना ही कह सका। सुबोध कुमार दास कभी अतिथि, जिनका नाम जतिन दास था, तो कभी सुधांशु की ओर देख रहे थे। जब से बेटे के आई.ए.एस. होने का समाचार उन्हें मिला खुशी के साथ बेटे के प्रति एक संकोच उनके मन में बैठ गया था। संकोच था कि कल तक वह जिस बेटे को डांट-फटकार लेते थे, सलाह दे देते थे...अब वह एक बड़े ओहदे का मालिक होगा जिसके मातहत सैकड़ों-हजारों लोग काम करेंगे। 'इतने काबिल बेटे को सलाह देने की काबिलियत कहां है मुझमें!' सुबोध कुमार दास सोचते। जतिन कुमार दास की बात से उन्हें लगा कि कहीं सुधांशु उनकी सलाह सुन बुरा न मान जाये...कुछ कह न दे।
''बेटा, अब तुम्हें नौकरी की चिन्ता नहीं...भगवान की कृपा है...ट्रेनिंग के बाद तुम शादी कर लेना। मां-बाप भी निश्चिंत होंगे और तुम्हारा जीवन भी सुखी रहेगा।''
''जीं....'' जतिन दास को टालने के उद्देश्य से सुधांशु ने उत्तर दिया।
जतिन दास का हौसला बढ़ा। मुड़कर उसने सुबोध की ओर देखा, ''सुबोध, सुधांशु ने मेरी सलाह मान ली है...अब मैं तुम्हें कुछ कहना चाहता हूं।''
सुबोध जतिन दास के चेहरे की ओर देखने लगे।
''पुत्रबधू के लिए तुम्हें भटकने की आवश्यकता नहीं सुबोध। मेरी बेटी सरोजनी इस वर्ष एम.ए. के अंतिम वर्ष में है। बी.एच.यू. में पढ़ रही है। भगवान ने चाहा तो लेक्चरर भी बन जाएगी...।'' क्षणभर तक सुबोध दास के चेहरे की ओर देखते रहे जतिन दास फिर बोले, ''अधिक मत सोचना। बिटिया थोड़ा सांवली है...लेकिन नाक-नक्श सुन्दर ...हजारों में एक है।''
''भइया, सुधांशु की ट्रेनिंग खत्म हो लेने दें।''
''अरे, वह तो होनी ही है...अब सुधांशु को कौन रोक सकता है। तुम आज ही रिश्ता पक्का कर लो...।''
सुधांशु ने पिता की ओर देखा।
''भइया...इतनी जल्दी क्या है?''
''तुम टालना चाहते हो?''
सुधांशु बिना आहट चारपाई से उतरा और पड़ोसी के घर जा बैठा। उसके जाते समय पिता ने उसे देखा और उसने भी पिता की आंखों में देखा था, जिसका अर्थ सुबोध समझ गए थे।
''टालने की बात नहीं भइया। लेकिन जवान बेटे की इच्छा जाननी ही होगी।''
''जान लो और चाहो तो मेरे साथ बेटे को लेकर मेरे घर चलो। बिटिया आजकल गांव में ही है। तुम दोंनो उसे देख लो...तभी बात पक्की करना।''
''भइया, सुधांशु को कल ही जाना है। आप उसकी ट्रेनिंग खत्म होने तक सब्र करें।''
''मैं कर लूंगा...पांच साल सब्र। लेकिन जुबान मिल जाए तब।'' कुछ देर तक सुबोध की ओर देखते रहने के बाद जतिन आगे बोले, ''सुबोध, इतना रुपया दूंगा...इतना सब सामान ...कार....घर भर दूंगा। कोई भी इतना नहीं देगा। तुम सोचकर बताना।'' और चारपाई से उठ खड़े हुए थे जतिन दास।
''जरूर बताइब भइया।'' जतिन के साथ ही सुबोध भी उठ खड़े हुए, ''शाम को चले जाते भइया....धूप तेज हैं।''
''मुझे धूप की परवाह नहीं...सड़क पर उतरते हुए जतिन दास ने कहा, ''मुझे एक हफ्ते में जवाब दे देना। बिटिया सयानी है...बात बनती है तब जितना कहोगे इंतजार कर लूंगा...।''
''जी भइया।''
जतिन दास के जाने के बाद चौपाल पर चारपाई पर लेट हाथ का पंखा झलते हुए देर तक सोचते रहे सुबोध, 'रिश्ता बुरा नहीं है।'
'बेटा दुनिया-जहान में घूमेगा, कब ऊंच-नीच हो जाए, इसलिए जल्दी ही उसे खूंटे से बांध देना चाहिए। बंध जाने के बाद रस्सी कितनी भी लंबी कर ले...कहीं भी घूमे-जाए, लेकिन खूंटा उसे नियंत्रित रखेगा।' सुबोध दास सोच रहे थे।
रात सुबोध ने सुधांशु से जतिन दास की चर्चा छेड़ी। सुधांशु चुप पिता की बात सुनता रहा।
''बेटा, उनकी बिटिया मैंने देखी है। बहुत होशियार है पढ़ने में और सुशील भी है। जतिन कह रहे थे कि आजकल वह गांव में ही है...तुम कल के बजाए परसों चले जाना...कल चलिके उनकी बिटिया को देख लो।''
''किसलिए?'' सुधांशु के स्वर ने चौंकाया सुबोध को, 'यह आवाज उनके सुधांशु की नहीं...।'
''जतिन चाह रहे हैं कि...।'' अटक गये सुबोध।
''मुझे पता है जतिन काका क्या चाह रहे हैं? कल भी तो ये आपके रिश्तेदार ही थे न पिता जी?''
''हां...आं...।''
''मेरी पढ़ाई के लिए सबसे पहले आप इन्हीं के यहां रुपये उधार मांगने गए थे...इन्हें ही खेत रेहन रखना चाहा था।''
चुप रहे सुबोध।
''तब टका-सा जवाब दिया था इन्होंने। आपका बुझा हुआ चेहरा आज भी मुझे याद है। याद है न आपको...क्या कहा था?''
पिता टुकुर-टुकुर ताकते रहे थे बेटे के चेहरे की ओर।
''रुपए पेड़ों पर नहीं फलते...लंबी-चौड़ी काश्तकारी...बड़े खर्च...कुछ नहीं बचता....फिर पन्द्रह किलोमीटर दूर खेत रेहन रखने का मतलब भी क्या! उसका कुछ कर भी नहीं सकते।''
''नहीं रहे होंगे रुपये तब जतिन के पास। होता है कभी-कभी...आदमी कितना भी धनवान हो...खाली हाथ भी होता है वह कभी। जतिन ने नहीं दिया तो क्या तुम्हारी पढ़ाई रुक गयी? भगवान की दया से आज तुम इस काबिल हो गए हो...।''
''नहीं रुकी, लेकिन आपको खेत रेहन रखने पड़े थे।''
''तुम भी सुधांशु....गड़े मुर्दे उखाड़ने लगे।''
''तुम चप रहो सुधांशु के पापा...लड़का ठीक कह रहा है।'' सुगन्धि, जो बर्तन मांजते हुए पिता-पुत्र की बातें सुन रही थी, बर्तन धोकर नहा पर रखे झाबे में रख धोती से हाथ पोछती हुई निकट आकर बोली, ''तुम किस दुष्ट के घर बेटे को ब्याहने की बात सोच रहे हो सुधांशु के पापा?''
'बेटे के आई.ए.एस बनते ही बुढ़िया भी अंग्रेज हो गयी...मैं बापू से पापा बन गया।' मन ही मन मुस्काए सुबोध।
''कसाई है जतिन ...ऐसे नहीं करोड़पति बना...गरीबों का खून चूस-चूसकर बना है रईस ...तुम्हें भी पता है सुधांशु के पापा। जब मेरा विवाह हुआ था तब उसके घर केवल एक जोड़ी बैलों की काश्त थी, लेकिन रुपये उधार देने...खेत रेहन रखने के काम से आज उसके पास सैकड़ों बीघा जमीन है। घर के सभी लोंगो के नाम करवा रखी है उसने जमीन। सुना है मजदूरों पर ऐसा कोड़े बरसाता है कि क्या जल्लाद करेगा।''
'ऐसा?'' सुधांशु चोंका।
''अरे बेटा, दौलत देखकर तुम्हारे पापा की आंखें बंद हो रही हैं...बाकी जानते यह भी हैं सब। जिनके खेत रेहन रखता रहा, कल को वे ही उसके यहां मजदूरी के लिए मजबूर हुए। खेत गए...शरीर भी गया उनका। हाड़ तोड़ मेहनत करवाता है और पैसे मांगने पर आधी-अधूरी मजूरी...कभी वह भी नहीं...अधिक कहने पर कोड़े।''
''पुलिस-प्रशासन तक बात पहुंची?'' सुधांशु का खून खौल उठा। 'काश! वह अलाइड में न आकर प्रापर आई.ए.एस. बनता...लेकिन अभी भी क्या ...प्रापर पोस्टिंग के बाद इस व्यक्ति के खिलाफ केस किया-करवाया जा सकता है।' सोचने लगा था सुधांशु।
''बेटा, तुम्हारी मां कुछ अधिक ही बढ़ा-चढाकर बता रही हैं। वैसे जतिन ही क्यों.... देश के कुछ ही जमींदार भले मिलेंगे...बाकी सभी गरीबों का खून चूसकर ही मोटे होते हैं...और रही बात पुलिस-प्रशासन की...उनकी सेवा होती रहती है...काम चलता रहता है। गरीब मरता रहता है।''
''ऐसे आदमी के यहां संबन्ध जोड़ने की बात आपने सोची कैसे?''
''बेटा, पुरानी रिश्तेदारी...जाति-बिरादरी...।''
''पिता जी...ये बातें बहुत पुरानी हो चुकी हैं...कम से कम मैं इन्हें नहीं मानता।''
''क्या कह रहे हो सुधांशु?'' मां-पिता के मुंह से एक स्वर में निकला।
'जरूर कुछ गड़बड़ है सुबोध। बेटा गया अब हाथ से।' तत्काल सुबोध कुमार दास के मस्तिष्क में विचार कौंधा।
''ठीक कह रहा हूं मां...जात-पांत कोढ़ है हमारे समाज के लिए। जब तक यह बरकरार है जतिन दास जैसे पिस्सू जिन्दा रहेंगे।''
''बेटा, जिस दिन जात-पांत मिट गयी उस दिन इस देश की पहचान क्या रहेगी! देश की सबसे बड़ी पहचान यही है न!''
पिता की बात से चौंका सुधांशु।
''पिता ने व्यंग्य किया या सहज-स्वाभावित भाव से यह बात कही।' सुधांशु सोचता रहा।
''पिता जी, अभी मुझे बहुत से पापड़ बेलेने हैं। ट्रेनिंग के बाद दो साल का प्रोबेशन होता है....सब कुछ जब तक सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं हो जाता...आप इस बारे में नहीं सोचेगे। मुझे बेफिक्र होकर नयी जिन्दगी शुरू करने दें।''
''बेटा हर कदम पर तुम हम दोंनो को अपने साथ पाओगे। मन को दुखी न करो...।'' गमछे से आंखों की कोरें पोछते हुए सुबोध बोले, ''जतिन को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं। पसंद नहीं वह मुझे भी। बस जाति-बिरादरी ...पुरानी रिश्तेदारी का मोह...मैं उसकी बातों में भटक गया था। लेकिन तुम बेफिक्र होकर कल अपनी नयी जिन्दगी शुरू करने जाओ। हम दोनो का आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहेगा। तुमने हमें जो सुख दिया भगवान सभी मां-बापों को वह सुख दे।'' एक बार फिर भावावेश में छलक आई आंखों को गमछे से पोछते हए सुबोध बोले।
''सुख अभी कहां दिया पिता जी...।''
''तुमने दुनिया में मां-बाप का नाम रौशन किया...किसी के लिए इससे बड़ा सुख और क्या होगा।''
''चलो खाना तैयार है।'' सुगन्धि ने पति को पुन: भावुक होते देख विषय बदला। वह जानती थी कि भावुक क्षणों में पति रोने लगते हैं।
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शनिवार, 13 अगस्त 2011

धारावाहिक उपन्यास


’गलियारे’

(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल


चैप्टर - ११ और 12


(11)
एम.ए. के दूसरे वर्ष सुधांशु ने अधिक परिश्रम किया। उसे प्रो. शांतिकुमार के शब्द याद आ रहे थे, ''सिविल सेवा परीक्षा आसान नहीं है सुधांशु। मैंने उसके फेर में युवकों को जीवन बर्बाद करते देखा है। अंतत:...।''
'सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण करने का स्वप्न नहीं त्यागना, लेकिन केवल उसे ही लेकर बैठे रहना मुझ जैसे अर्थाभाव में जीने वाले के लिए उचित नहीं होगा।' उसने सोचा, 'एम.फिल. में भी अपने को रजिस्टर्ड करवा लूंगा और सिविल सेवा परीक्षा के लिए भी...।'
एम.ए. में उसे प्रथम श्रेणी मिली। प्रीति ने हॉस्टल फोन कर परिणाम जाना और यह जानकर कि उसे चौसठ प्रतिशत अंक मिले वह चीखी थी, ''वेल डन सुधांशु...तुमने बाजी मार ली।''
''खाक...बाजी मारी...।'' सुधांशु बहुत प्रसन्न नहीं था। उसे आशा थी कि गोल्ड मेडल उसे ही मिलेगा। लेकिन गोल्ड मेडल मिला था विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के एक प्रोफेसर के पुत्र को। वह उसे जानता था और यह भी जानता था कि वह इतना प्रतिभाशाली नहीं था कि गोल्ड मेडल उसे मिलता।
'क्या परीक्षा परिणामों में भी धांधली होती है।' उसने सोचा, 'होती ही होगी...इस देश में कुछ भी संभव है। यह विश्वविद्यालय अपवाद कैसे रह सकता है। बॉटनी डिपार्टमेण्ट के विभागाध्यक्ष को अपने पुत्र के अंकों में हेरा-फेरी करने के कारण ही पद से हाथ धोना पड़ा था।'
'लेकिन कितने लोगों की चोरी पकड़ में आती है। कुछ खुल्लमखुल्ला यह सब करते रहते हैं...डंके की चोट पर और उनका बाल भी बांका नहीं होता। वर्षों तक यहां के एक हिन्दी विभागाध्यक्ष ने प्रतिवर्ष यही किया...उनसे लाभान्वित होने वालों में छात्राएं ही थीं विशेष रूप से। लेकिन वही, जिन्हें उनकी शर्तें स्वीकार थीं। उनके द्वारा नियुक्त की गई छात्राओं की खासी संख्या है यहां के कॉलेजों में और आज भी एक-दो कृतज्ञ छात्राएं उनके बुढ़ापे की लाठी बनी हुई हैं। उनके बूते ही वह व्यक्ति हिन्दी के कार्यक्रमों में शिरकत करता है। उनके कंधे पर हाथ रख वह बहुमंजिले भवनों की मंजिल-दर मंजिल सीढ़ियां चढ़ता कार्यक्रमों की अध्यक्षता करता है। विश्वविद्यालय प्रशासन...वी.सी...उसके बारे में जानते थे, लेकिन वह ऊंची पहुंच वाला व्यक्ति था। उसका एक निकट संबन्धी मंत्री था और नेहरू जी के निकट था।' उसका दम घुटने लगा था सोचते हुए। उस दिन वह हॉस्टल से बाहर लॉन में निकल आया ओर एक पेड़ की छाया में खड़ा हो गया। गर्मी थी।
'उस छात्र का पिता भी तेज तर्रार है। प्राय: क्लास नहीं लेता...हफ्ते में कभी एक दिन दिखता है...लेकिन प्रशासन उसकी मूंछ का बाल भी टेढ़ा नहीं कर सकता, क्योंकि उसका मामा केन्द्रीय मंत्री है...। वह दिन भर अपने जुगाड़ों में व्यतीत करता है या मीटिगों, सेमीनारों, वायवा आदि के बहाने शहर से बाहर होता है।' उसने लंबी सांस ली, 'उसने अपने पुत्र की नौकरी पक्की कर ली...कौन रोक सकता है उसे। वह उसे मनचाहे कॉलेज में पहले एडहॉक, फिर रेगुलर रखवा लेगा...और मैं...।' उसका दिमाग चकराने लगा। उसने आंखे बंद कर लीं। वह देर तक सोचता रहा। कितना समय बीत गया, उसे पता नहीं चला। उसके सोचने पर विराम लगा जब हॉस्टल के पोर्च में गाड़ी रुकने और तेजी से दरवाजा खुलने-बंद होने की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ। उसने आंखें खोली। उसे विश्वास नहीं हुआ। गाड़ी से प्रीति उतर रही थी।
''हाय...।'' प्रीति ने उसे देख लिया था और दौड़ती हुई उसके पास आई और उससे चिपट गयी।
''अरे...अरे...प्रीति...।...यह क्या?' प्रीति को अपने से अलग करता हुआ वह बोला।
''मैं बहुत खुश हूं...तुमने कमाल कर दिया।''
''मुझे छोड़ो तो...तुम्हारा ड्राइवर ...हॉस्टल...।''
प्रीति के अप्रत्याशित आलिंगन से वह इतना घबड़ा गया कि शब्द गले में ही फंस गए।
''कोई ड्राइवर नहीं...खुद ही ड्राइव करके आयी हूं और भाड़ में जायें हॉस्टल के लड़के...।''
''अच्छा मुझे छोड़ो...दम घुट रहा है।''
प्रीति ने उसके गाल को हल्के से छुआ और बोली, ''मैं इतनी दूर इसलिए नहीं आई कि तुम बोर करोगे...तुम्हारे परीक्षा परिणाम को सेलीब्रेट करने आई हूं।'' उसका हाथ पकड़ हॉस्टेल की ओर खींचती हुई वह बोली, ''तैयार हो लो...फिल्म देखने चलेंगे...।''
''मेरा मूड नहीं है।'' कमरे की ओर घिसटता हुआ वह बोला।
''मेरा मूड है और तुम्हे मेरे मूड का खयाल रखना है। मेरे पास दो खुशियां हैं...एक-डैड ने चार दिन पहले गाड़ी खरीदी और आज पहली बार मैं इसे सफलता पूर्वक ड्राइव कर यहां तक ले आई और दूसरी खुशी तुम्हारा परीक्षा परिणाम। हिस्ट्री में फर्स्ट डिवीजन कितनों को मिलता है?''
''क्यों? प्रोफेसर अनिल कृष्णन के पुत्र को छिहत्तर प्रतिशत मिले हैं...।''
''ओ.के.।'' प्रीति कुछ देर चुप उसके साथ चलती रही। सीढ़ियां चढ़ती हुई वह बोली, ''यार वह प्रोफेसर का बेटा जो है...लेकिन तुमने जो पाया वह अधिक महत्वपूर्ण है।''
वह चुप रहा।
''अब ना नुकर नहीं। तुम तुरंत तैयार हो लो। मैं यहीं कॉरीडार में खड़ी हूं...।'' उसने तुरंत संशोधित किया, ''नहीं, मैं नीचे कार में हूं...तुम दस मिनट में नीचे आ जाओ। सीधे कनॉट प्लेस चलेंगे।” और वह तेजी से सीढ़ियां उतरने लगी।
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चित्र : आदित्य अग्रवाल
(12)
यह संयोग था कि सुधांशु दास का प्रो. शांति कुमार के अधीन एम.फिल. के लिए रजिस्ट्रेशन हो गया था।
''इससे तुम्हें दो लाभ होंगे।'' प्रो. कुमार ने हॉस्टल छोड़ने के उसके निर्णय पर उसे समझाते हुए कहा था, ''हॉस्टल ही तुम्हारे लिए सुविधाजनक है...बाहर छोटे एकमोडेशन का मंहगा किराया तुम्हारे लिए कठिन होगा।''
''सर, यहां डिस्टरर्बेंस बहुत है।''
''हां,...वह मैं जानता हूं, लेकिन उसका उपाय यही है कि सुबह आठ से रात आठ तक तुम पुस्तकालय और विभाग में बिता सकते हो। हिस्ट्री डिपार्टमेण्ट की लाइब्रेरी बिल्कुल एकांत में और शांत है।'' उसकी ओर देखते हुए क्षणभर के लिए रुके प्रोफेसर कुमार, ''एम.फिल. के साथ सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी...कोचिंग...किस्मत ने साथ दिया तो ठीक वर्ना...पी-एच.डी. में रजिस्ट्रेशन करवाकर अपने लक्ष्य प्राप्ति में लग जाना। शिक्षा कभी बेकार नहीं जाती।''
''जी सर।''
वर्ष भर उसका बहुत अनुशासित कार्यक्रम रहा। पढ़ना और पढ़ाना। ट्यूशन के अतिरिक्त हडसन लाइन के एक कोचिंग सेण्टर में वह अंग्रेजी पढ़ाने लगा था...रात आठ बजे से दस बजे तक।
रात साढ़े दस बजे मेस में भोजनकर जब वह बिस्तर पर जाता इतना थक चुका होता कि सुबह पांच बजे ही उसकी नींद खुलती। सुबह आध घण्टा के लिए वह कमला नेहरू पार्क में टहलने जाता, कुछ देर वहीं हाथ पैर हिलाता, फिर हॉस्टेल लौटकर लाईब्रेरी जाने के लिए तैयार होने लगता। साढ़ आठ-नौ बजे तक वह पुस्तकालय पहुंचता...और ट्यूशन पढ़ाने जाने तक वहीं रहता।
एम.फिल. उसका हो गया, लेकिन सिविल सेवा परीक्षा में उसे सफलता नहीं मिली।
''अभी तुम्हारे पास पर्याप्त समय है।'' प्रो. शांति कुमार ने एक दिन कहा, ''कई कॉलेजों में वेकेन्सी आने वाली हैं...आवेदन करना...मैं हेड साहब से तुम्हारी सिफारिश करूंगा। एडहॉक मिल जानी चाहिए...मिल गई तब तुम्हारे संघर्ष कम हो जायेंगे।'' क्षणभर तक चुप रहकर कुमार ने आगे कहा, ''पी-एच.डी. में एनरोल करवा लो। कभी-कभी व्यक्ति को वह करना पड़ता है, जो वह नहीं चाहता।''
''मतलब सर?''
''तुम्हारी रुचि अध्यापन में नहीं है...लेकिन उसके लिए भी तैयार रहना चाहिए। अध्यापन के सुख अलग ही होते हैं।''
''जी सर।'' सुधांशु उचित शब्द तलाशता रहा अपनी बात कहने के लिए, फिर बोला, ''अध्यापकी की राह ही कौन-सा आसान है सर!''
''हां, आसान नहीं ही है।''
''सर...।''
''हां...आ।'' शांतिकुमार ने अचकचाते हुए सुधांशु की ओर देखा।
''बुरा नहीं मानेंगे?''
''अभी बुरा मानने की उम्र नहीं हुई... यानी मैं अभी खुर्राट बूढ़ा अध्यापक नहीं बना...तुम बेहिचक पूछो।'' शांतिकुमार पैंतालीस के थे।
''सर, आपका चयन कैसे हुआ था?''
''ओह।'' ठठाकर हंसे कुमार, ''बहुत अच्छा प्रश्न है।'' कुछ गंभीर हुए, ''सुधांशु, मेरी स्थितियां तुमसे भिन्न न थीं। तुम्हारे पिता के पास कुछ खेत हैं...घर को उन्होंने संभाल रखा है, लेकिन मेरे पिता मजदूर थे...एक ठेकेदार के लिए काम करते थे। इसे तुम भाग्य की बात ही समझो कि मैं पढ़ गया। पढ़ इसलिए गया कि पिता ने पांचवीं के बाद मुझे अपनी बहन यानी मेरी बुआ के घर भेज दिया था...यहीं दिल्ली। पुरानी सब्जीमंडी के पास कुम्हार बस्ती में बुआ का घर था। बुआ मुझे प्यार करती थीं, लेकिन फूफा के लिए मैं अकस्मात आया एक बोझ था। वह भुनभुनाते, लेकिन अधिक कुछ कह नहीं पाते थे। उनका एक बेटा था...इन दिनों वह दिल्ली पुलिस में है..... तो मैं उससे दो साल जूनियर था। फूफा ने सरकारी स्कूल में मुझे भर्ती करवा दिया। इंटर तक सरकारी स्कूल। स्कूल से लौटकर मैं सब्जीमंडी थाने के पास सड़क किनारे कुछ न कुछ सामान बेचता। जाड़ों में भुनी शकरकंद, सिंघाड़े और उबली आलू। गर्मी में लीची-केले। फूफा थे कर्मठ व्यक्ति। न वह मुझे खाली रहने देते और न अपने बेटे को। हम दोनों ही कुछ कमा लाते। जब ये दुकानें न होतीं तब कहीं ईंट-गारा ढो लेते या घरों में पेण्ट करने का काम कर आते। हमारी और फूफा की कमाई से घर खर्च चल जाता।''
''पढ़ने में कुछ अधिक ही कुशाग्र था। हायर सेकण्डरी में इतने अच्छे अंक मिले कि मुझे करोड़ी मल कॉलेज में प्रवेश मिल गया। मेरी दुनिया का विस्तार हुआ और आगे का जीवन मेरे लिए वैसा ही रहा जैसा अब तुम्हारा है...मैं बुआ-फूफा पर बोझ नहीं रहा। ट्यूशन की और अच्छा पैसा कमाने लगा। आगे...।'' शांति कुमार चुप हो गए।
''लेकिन मेरा प्रश्न तो अनुत्तरित ही है सर।'' सुधांशु उनके चुप होते ही बोला।
''हां, मैं उसी का उत्तर देने जा रहा था। देखो सुधांशु...यह एक ऐसा सच है, जो कोई कहना नहीं चाहता...जानते सभी हैं...जानते इसलिए हैं कि वे सब उसी प्रक्रिया का हिस्सा रहे हैं। शायद ही कोई ऐसा प्राध्यापक इस विश्वविद्यालय या कॉलेजों में होगा, जिसके पीछे सिफारिश न रही हो। कोई कितना ही प्रतिभाशाली क्यों न हो...गोल्डमेडलिस्ट हो...फिर भी यदि उसका कोई गॉड फॉदर यहां नहीं है तो उसे सरकारी-गैर सरकारी बाबूगिरी के लिए ही तैयार रहना चाहिए। मुझे भी मेरे एक प्रोफेसर पसंद करते थे। संयोग से मैं उनके अण्डर ही पी-एच.डी. कर रहा था...प्रोफेसर सलमान हैदर। डॉ. हैदर बेहद भले व्यक्ति थे।''
''अब कहां हैं सर डॉ. हैदर?'' सुधांशु पूछ गया लेकिन तुरंत ''सॉरी सर।'' कहा।
''ओ.के.। हां, प्रो. हैदर उस्मानिया विश्वविद्यालय के वी.सी बनकर चले गये थे। हैदराबाद में बस गए...बल्कि वह रहनेवाले थे ही वहां के। लेकिन क्या व्यक्ति थे...लंबे-गोरे....खूबसूरत। हिन्दी, अंग्रेजी, तेलुगू, तमिल, कन्न्ड़ ओर रशियन भाषाओं पर उनका अधिकार था...इतने विद्वान कि राजनीति से लेकर इतिहास, साहित्य से लेकर समाज...व्यापक ज्ञान और बहुत ही मानवीय। प्रतिभाओं को पहचानना और उन्हें उचित मार्गदर्शन ही नहीं उनके विकास के लिए ठोस कार्य करना...उनके स्वभाव का हिस्सा था।'' कुछ देर ठहरकर शांति कुमार बोले,'' मैं उनके चहेतों में था और मेरे लिए वह अपने हेड से अड़ गए थे। मेरा भी फर्स्ट डिवीजन था और पी-एच.डी कर रहा था। राजधानी कॉलेज में जगह थी। वहां के एक प्राध्यापक तीन वर्ष के लिए स्पेन जा रहे थे...तीन वर्ष के लिए मुझे एडहॉक नियुक्ति मिल गयी थी। इसी दौरान मेरी पी-एच.डीण् सम्पन्न हुई और मुझे उसी कॉलेज में स्थायी नियुक्ति मिली। लेकिन यह सब डॉ. सलमान हैदर के कारण ही हुआ था।''
''डॉ. हैदर जब विभागाध्यक्ष बने उन्होंने मुझे विभाग में बुला लिया। मेरे यहां आने के एक वर्ष बाद हैदर साहब वाइस चांसलर बनकर उस्मानिया विश्वविद्यालय चले गए थे।''
''सर, भाग्य से ही भले लोगों से संपर्क हो पाता है।'' सुधांशु कह गया, लेकिन तत्काल सोचा कि इस बात को डॉ. कुमार ने पता नहीं किस रूप में लिया होगा।
''आगे आने वाला समय कठिन से कठिनतर होने वाला है। जनसंख्या बढ़ रही है। सरकारें उदासीन हैं। राजनीतिज्ञ अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर कार्य कर रहे हैं। बांग्लादेश से यहां आ बसे लोग उनके लिए वरदान हैं...देश भले ही डूबे। ऐसी स्थिति में आगे की पीढ़ियों के लिए चुनौतियां बढ़नी हैं। इसलिए केवल एक कार्य के भरोसे रहना शायद ठीक नहीं होगा। तुम सिविल सेवा परीक्षा पर जोर रखो...लेकिन साथ में पी-एच.डी का कार्य भी करते रहो। कुछ न कुछ मिलेगा हीं''
''जी सर।''
''फिर पी-एच.डी. के लिए आवेदन कर दो....।'' उठते हुए प्रो. कुमार बोले।
''जी सर।''
''मैं हूं ही...परेशानी न होगी।''
'' जी सर।''
प्रोफेसर शांति कुमार से मिलने के बाद सुधांशु के मस्तिष्क में अंधड़ चलने लगा था।
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शनिवार, 6 अगस्त 2011

धारावाहिक उपन्यास

चित्र :आदित्य अग्रवाल
’गलियारे’
(उपन्यास)
रूपसिंह चन्देल

भाग-एक : चैप्टर 9 और 10


(9)

दुर्गापूजा के दौरान लोदी एस्टेट स्थित भद्र बंगाली समाज की ओर से मेला आयोजित किया गया। वहां चपरासी से लेकर एडीशनल सेक्रेटरी पद तक के सरकारी कर्मचारी रहते थे। मेले की विशेषता यह थी कि उसमें अधिकांश कर्मचारी अपनी दुकानें सजाते और शाम के समय बंगाली समाज मेले में घूमकर कुछ वस्तुएं अवश्य खरीदता था। घर के एक-दो सदस्य दुकान में बैठते और जब घर के दूसरे सदस्य मेला घूम आते दुकान की जिम्मेदारी वे संभालते और दूसरे घूमने चले जाते।
उस वर्ष प्रीति ने सुधांशु को उस अवसर पर आने के लिए तैयार कर लिया। यद्यपि पहले वह इंकार करता रहा, लेकिन जब प्रीति ने कहा, ''सुधांशु पिछले दो वर्षों से तुम मना करते आ रहे हो। इस बार तुम्हे चलना ही होगा....क्योंकि ....!''
''क्योंकि क्या---?''
''क्योंकि इस वर्ष मैंने ब्रेड रोल की दुकान सजाने का निर्णय किया है और उसमें तुम्हारी सहायता चाहिए होगी।''
''मैं क्या सहायता करूंगा?'' चौंकते हुए सुधांशु बोला, ''मुझे पाक कला का अधिक ज्ञान नहीं है और वह भी ब्रेड रोल जैसी चीज...।''
''तुम्हें बनाना थोड़े ही होगा...''
''फिर?''
''वह काम मैं और शोभित मिलकर करेंगें।'' वह क्षणभर के लिए रुकी, ''शोभित हमारा घरेलू नौकर है। तेरह-चौदह साल का है, लेकिन बहुत होशियार है। चौबीस परगना का है। मछली क्या पकाता है....!''
''तुम शोभित के विषय में इतना विस्तार से क्यों बता रही हो?''
''यूं ही...क्योंकि वह बहुत अच्छा लड़का है।''
''जब तुम दोनों हो तब मेरी क्या आवश्यकता?''
''है यार। तुम ग्राहकों को संभालोगे।''
''ओह! लेकिन मुझे तौलना नहीं आता।''
''यार, तौलने के लिए कौन कह रहा है? ब्रेड रोल पीस के हिसाब से बेचने होते हैं।''
''हुंह...सोचकर बताऊंगा।''
''इसमें सोचने की क्या बात?''
''अभी दुर्गापूजा के दस दिन हैं।''
''हां...आं...लेकिन...।''
''प्रीति, प्लीज...।'' वी.सी. ऑफिस के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठे हुए उसने अपना सिर पकड़ लिया।
''यार, तुम तो ऐसे सिर पकड़ रहे हो जैसे कोई बहुत बड़ी आफत आने वाली हो।''
सुधांशु बोला नहीं। वह अंदर ही अंदर परेशान था। 'उच्च वर्गीय लोगों का सामना करना होगा। छोटी जगह से निकलकर दिल्ली आ गया, लेकिन यहां आने-जाने...मिलने-जुलने की सीमाएं हैं। प्राध्यापकों और छात्रों के अतिरिक्त कोई दूसरी दुनिया जानी नहीं। अफसरों...वह भी उच्चाधिकारियों की दुनिया ही अलग होती है।' तभी उसके अंदर से एक आवाज आयी, 'इतना हीन दृष्टिकोण रखकर तुम सिविल सेवा परीक्षा में बैठ भी गए, पास भी कर गए और चयन भी हो गया तो भी तुम सफल अधिकारी नहीं बन पाओगे। यह हीनता मृत्युपर्यंत तुम्हारा पीछा करती रहेगी। परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेने वाला ही सफल व्यक्ति बन पाता है। स्थितियों से जूझना और उनको अपने अनुकूल बना लेना और न बना पाने पर निरंतर उनसे जूझते रहने वाले को सफलता यदि नहीं भी मिलती तो भी उसे अफसोस नहीं होता। तुम्हें प्रीति के कार्यक्रम में जाना चाहिए और नये अनुभव प्राप्त करने चाहिए।
प्रीति उसकी ओर देख रही थी और सुधांशु आंखें बंद किए सोच रहा था। काफी देर बाद उसने आंखें खोलीं और बोला, ''सॉरी प्रीति, मैं कुछ सोच रहा था।''
''वह तो मैं देख ही रही थी।''
''मैं आउंगा।''
''डू यू नो?'' प्रीति ने उसकी ओर देखा,'' मेरे पापा ने मेरा संकट दूर करते हुए कहा था, ''तुम अपने फ्रेंड को क्यों नहीं बुलाती?'' फ्रेंड से उनका मतलब तुमसे था सुधांशु। कितनी ही बार मैंने पापा से तुम्हारे बारे में चर्चा की थी।''
सुधांशु चुप रहा।
''मैं तुम्हें बता दूंगी...कब और कितने बजे पहुंचना होगा।''
''ओ.के.।''
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सुधांशु अपरान्ह तीन बजे प्रीति के घर जाने के बजाए सीधे मेला स्थल पर पहुंचा। बाबुओं की कॉलोनी की एक सड़क को दोनों ओर से घेर दिया गया था और सड़क के दोनो ओर दुकानें सजायी गयी थीं। किसी ने फोल्डिंग चारपाइयों पर चादर बिछा दी थी, किसी ने तख्त पर सामान सजाया हुआ था तो कोई जमीन पर ही अपनी दुकान लगा रहा था। दुकान में अधिकांश युवा थे। कुछ दुकानों पर गृहस्थी की आवश्यकता की वस्तुए थीं। कुछ में खाने-पीने का सामान था। कुछ युवा स्टोव, गैस सिलेण्डर और चूल्हा सहित उपस्थित थे और चाट-पकौड़ी से लेकर सैण्डविच आदि बनाने का सामान था उनके पास।
सुधांशु सड़क के एक छोर से दूसरे छोर तक चक्कर लगा आया, लेकिन उसे प्रीति के दर्शन नहीं हुए।
'मुझे परेशान करने के लिए उसने ऐसा किया?' उसने सोचा, 'लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकती। जानती है कि मैं सदैव के लिए उससे मित्रता तोड़ लूंगा।' तभी विचार कौंधा, 'वह इतनी जल्दी क्यों आने लगी। अभी तीन ही बजा है। मैं मूर्ख हूं। इतनी जल्दी नहीं आना चाहिए था। शाम पांच से पहले कौन आएगा? केवल वही लड़के-लड़कियां यहां होंगे, जिन्हें अपनी दुकानें सजानी हैं। लेकिन उसीने मुझे तीन बजे का समय दिया था।' वह टहलता हुआ सोचता रहा।
'उसने अपने नौकर की चर्चा की थी- शोभित। शोभित दुकान सजा रहा होगा। पूछना चाहिए किसी से...लेकिन शोभित को कौन जानता होगा! प्रीति के बारे में पूछूं...शायद किसी को उसकी दुकान की जानकारी हो!' आगे बढ़कर उसने एक हमउम्र नौजवान से पूछा, ''यहां प्रीति मजूमदार की दुकान कहां होगी?''
''कौन प्रीति मजूमदार?'' युवक ने उलट प्रश्न कर दिया।
''नृपेन मजूमदार, जो शिक्षा मंत्रालय में एडीशनल सेक्रेटरी हैं, की बेटी...प्रीति हिन्दू कॉलेज में पढ़ती है।''
''सॉरी'' रूखा-सा उत्तर दिया युवक ने। वह मुड़ने को हुआ तो युवक की आवाज सुनाई दी, ''यहां कितने ही एडीशनल-ज्वायंट सेक्रेटरी रहते हैं...कितने ही मजूमदार...।''
''थैंक्यू।'' सुधांशु किंकर्तव्यविमूढ़ कुछ दूर चलकर खड़ा हो गया और सोचने लगा, 'दुर्गापूजा पंडाल देखना चाहिए। वहां दिनभर रौनक रहती है।' वह एक दूसरे यूवक से 'पंडाल' के विषय में पूछने के लिए आगे बढ़ा ही था कि पीछे से आवाज आयी, ''सुधांशु'।“ उसने मुड़कर देखा। प्रीति दूर से हाथ हिलाती तेजी से उसकी ओर बढ़ रही थी।
''सॉरी सुधांशु, लेट हो गयी। तुम घर क्यों नहीं आए? मैं वहां तुम्हारा इंतजार कर रही थी।''
सुधांशु चुप रहा।
''आओ, मेरी दुकान उधर है।'' दुकान की ओर हाथ का इशारा करती हुई प्रीति बोली, ''शोभित है वहां। किसीसे भी पूछ लेते...।'' उसने विषय बदला, ''देर हो गयी आए हुए?''
''पन्द्रह मिनट।''
''मैंने तुम्हे सीधे घर आने के लिए कहा था, लेकिन तुम...।''
''लेकिन मैंने यहीं पहुंचने के लिए कहा था...।'' प्रीति की बात बीच में ही काटकर सुधांशु बोला।
''नाराज हो गए?''
''ऐसा लग रहा है?''
''लग तो ऐसा ही रहा है।''
''कल्पना करके प्रसन्न होने का सुख ही कुछ अलग होता है।''
''अच्छा छोड़ो, मेरी दुकान देखो। कोई कमी दिखे तो बताना। यह न हो कि ब्रेड रोल बनाते समय पता चले कि नमक तो है ही नहीं।'' प्रीति हंसी, ''कैसा रहे यदि बिना नमक लोगों को ब्रेड रोल खाने पडें।''
''दुकान ठप हो जाएगी।''
''किसे परवाह है...यह तो आपस में मिलने का एक बहाना है। इसी बहाने बिरादरी के सभी लोग एक दूसरे की दुकानों पर जाते हैं।'' वह रुकी, फिर बोली, ''बाबा और मां छ: बजे तक आएगें.... बाबा के दफ्तर से लौटने के बाद।''
''ओ.के.।''
''दरअसल यहां रौनक होती ही शाम छ: बजे के बाद है। सड़क पर दोनों ओर जब रंग-बिरंगे बल्ब अपनी रौशनी फेंक रहे होते हैं...तब हमारा समाज अपने घरौंदों से बाहर निकलता है। देर तक सभी घूमते...खाते-पीते-गपियाते हैं...पूजा में शामिल होते हैं।''
''शायद ही किसी घर में चूल्हा जलता होगा। सब यहीं पेट-पूजा कर लेते होंगे।''
प्रीति ने उत्तर नहीं दिया केवल मुस्करा दी। क्षणभर बाद वह बोली, ''हम आ गए अपनी दुकान पर।''
एक किशोर आलू उबाल रहा था।
'शोभित कुमार होगा' सुधांशु ने सोचा।
''शोभित कैसी चल रही है तैयारी?''
''ठीक... दीदी।'' लड़का तनकर खड़ा हो गया और हाथ जोड़ उसने सुधांशु को नमस्ते की।
''क्या-क्या करना होगा?''
''आलू उबालकर मसाला तैयार करूंगा। ब्रेड में उसे भरकर ब्रेडरोल बनाकर रख लूंगा। जब लोग आने लगेंगे... उन्हें तल लूंगा।'' बांग्ला में शोभित बोला।
''वेरी गुड ।'' प्रीति ने कहा, ''तुम यह सब करके रखो ...मैं पंडाल तक होकर आती हूं।''
''जी दीदी।'' लड़का स्टोव में पंप मारने लगा।
''जब तक यह तैयारी कर रहा है...हम घूमकर आते हैं।'' प्रीति मुड़कर सुधांशु से बोली।
''ओ.के.।''
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शाम सात बजे मेले में भीड़ उमड़ी। लोधी एस्टेट निवासी बंगाली समाज ही नहीं गैर बंगाली लोग भी आए। सड़क के दोनों ओर रंग बिरंगे बल्ब अपनी रोशनी बिखेर रहे थे और बीच-बीच में हजार वॉट के बल्ब और टयूब लाइट्स की रोशनी से मेला नहाया हुआ था।
शोभित पहले से तैयार करके रखे ब्रेडरोल तल रहा था और प्रीति सुधांशु के सहयोग से आने वालों को कागज के दोनों में सॉस के साथ ब्रेड रोल दे और पैसे ले रही थी। लगभग साढ़े सात बजे प्रीति के पिता नृपेन मजूमदार और मां कमलिका आए। प्रीति ने सुधांशु का परिचय करवाया। सुधांशु ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया, जिसके उत्तर में मजूमदार मोशाय ने सिर हिला दिया। सुघांशु को प्रिय नहीं लगा। 'प्रीति ने कितनी प्रशंसा की थी पिता की...लेकिन लगता है यहां भी दफ्तर उनके साथ मौजूद है।' सुधांशु ने सोचा और क्षणभर पहले उत्पन्न हुए मन के भाव को झिटक दिया। लेकिन तभी उसे सुनाई दिया, ''कैसे हो यंग मैंन?...सुना है आप सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे हो।'' मजूमदार सुधांशु से पूछ रहे थे।
''जी सर।'' सुधांशु उनकी ओर बढ़ गया।
''गुड लक।'' कह नृपेन मजूमदार पत्नी के साथ आगे बढ़ गए।
दुकान में एक परिवार आ खड़ा हुआ। पति-पत्नी और चार बच्चे। दो लड़के और दो लड़कियां। प्रीति बांग्ला में हंस-हंसकर उनसे बातें करने लगी। कुछ देर बाद उसने सुधांशु से उनका परिचय करवाया, ''मेरे अंकल-ऑण्टी। पिता जी के मौसेरे भाई।'' फिर उसने शोभित से ताजे ब्रेडरोल अंकल-ऑण्टी और उनके बच्चों को सर्व करने के लिए कहा।
रात दस बजे भी मेला में उतनी ही रौनक और भीड़ थी जितनी सात बजे शाम थी।
'यदि बस न मिली तब रात कहां बिताउंगा...मुझे अब इजाजत ले लेना चाहिए।' सुधांशु ने सोचा और बोला, ''प्रीति मैं चलता हूं...।''
''यार, ऐसी भी क्या जल्दी है। अभी तो मेला शरू ही हुआ है...।''
''तुम और शोभित ही इस काम के लिए पर्याप्त हो। मुझे बस की चिन्ता भी करनी है।''
''तुमने अभी तक कुछ लिया नहीं...केवल लोगों को ही खिलाते रहे।''
''लोगों को खाता देखकर तृप्त होता रहा।''
''ऐसे नहीं...।'' प्रीति शोभित की ओर मुड़ी, ''तुरंत चार ब्रेडरोल प्लेट में लगाओ सुधांशु के लिए।''
चार ब्रेडरोल सुधांशु को पेट के एक कोने में दुबक गए जान पड़े। उसे तेज भूख लगी हुई थी। लेकिन प्रीति के और आग्रह को टाल वह मेले से बाहर आ गया।
जब वह हॉस्टल पहुंचा साढ़े बारह बज रहे थे।
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(10)

नृपेन मजूमदार के साथ हुए संक्षिप्त संवाद के विषय में रात देर तक सुधांशु सोचता रहा। 'प्रीति ने पिता की प्रशंसा के पुल बांधे थे। जब मैंने अपनी पृष्ठभूमि बतायी तब उसने यही कहा था ''डैड भी सेल्फमेड हैं...मुझ जैसी ही स्थितियों से निकले हुए और मुझ जैसे लोगों को पसंद करने वाले।''
’लेकिन मजूमदार साहब के संक्षिप्त संवाद से ऐसा प्रतीत नहीं हुआ। संभव है दुर्गापूजा मेला के अवसर पर व्यस्तता के कारण...।' उसने लेटे ही लेटे सिर झिटका, 'मैं क्यों ऐसा सोच रहा हूँ। उनसे कितना परिचय था। संक्षिप्त परिचय-संक्षिप्त संवाद। अधिक की अपेक्षा क्यों? मैं व्यर्थ ये बात क्यों सोच रहा हूं। इसलिए कि प्रीति से मित्रता है...।' तत्काल मस्तिष्क में दूसरा विचार उभरा, 'कहीं तुम कुछ और तो नहीं सोचने लगे। बातचीत में प्रीति कुछ अधिक ही निकटता और अधिकार प्रदर्शित करने लगी है। कहीं तुम भी...।'
'मेरे पास इस सबके लिए समय कहां? फिर कहां प्रीति ...और...नहीं यह सब व्यर्थ की बातें हैं। मुझे कल से पढ़ाई पर अपने को केन्द्रित करना है...प्रीति से मिलना भी कम...।''
मौसम में हल्की ठंडक थी। उसने खादी का कुर्ता पहना, पैरों पर चादर डाली और सोने का उपक्रम करने लगा।
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उसने सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने का निर्णय तो किया लेकिन वह एम.ए. भी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करना चाहता था। वह यह जानता था कि उसके प्राध्यापक उसे पसंद करते थे और प्रो0 शांति कुमार ने एक दिन उससे कहा भी था कि फाइनल में यदि वह अच्छी प्रकार तैयारी करे तो उसे प्रथम श्रेणी मिलना असंभव नहीं। एम.फिल. और पी-एच.डी अपने अधीन करवाने का प्रस्ताव भी शांति सर ने दिया था।
''तुममे प्रतिभा है सुधांशु...तुम कर सकते हो।'' शांति कुमार बोले थे।
''सर, इससे नौकरी की गारण्टी हो जाएगी?'' उसने शांति कुमार से स्पष्ट पूछ लिया था।
''गारण्टी कोई नहीं दे सकता सुधांशु...खासकर आज के समय में, लेकिन एक बात मैं जानता हूं कि अध्यवसायी और प्रतिभावान अभ्यर्थी की तलाश हर विश्वविद्यालय-कॉलेज को होती है।''
''सर, मैं आपकी बात का सम्मान करता हूं, लेकिन मैंने सुना है कि जान-पहचान...।''
''तुम ठीक कह रहे हो...कुछ चाहिए ही होगी। लेकिन उस सबके लिए हम हैं न! कम से कम मैं तुम्हारे केस के लिए कहूंगा।''
''जी सर।'' उसके स्वर में बहुत उत्साह नहीं था। उसने तब तक जो सुन-देख लिया था वह उसे हतोत्साहित करता था। पिछले दिनों राजनीति विभाग के विभागाध्यक्ष की कहानी एक अंग्रेजी दैनिक ने लगातार प्रकाशित कर अंदर खाते चलने वाले खेलों को तार-तार कर दिया था।
राजनीति के विभागाध्यक्ष अपने यहां की एक प्राध्यापिका की स्थायी नियुक्ति में बाधक बने हुए थे। पिछले तीन वर्षों से वह वहां एडहॉक पढ़ा रही थी। विभागाध्यक्ष बनर्जी पहले उससे संकेतों में कहते रहे, लेकिन वह उनके संकेतों की उपेक्षा करती रही। फिर भी वह हताश नहीं हुए। आशान्वित होने के कारण ही उन्होंने उसकी एडहॉक की फाइल रोकी नहीं थी या उसके स्थान पर किसी और की नियुक्ति की सिफारिश नहीं की थी। लेकिन जब प्राध्यापिका मिस सोनल शर्मा ने उनके संकेतों की ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया तब एक दिन अपने चैम्बर में उसे बुलाकर बनर्जी महोदय ने अपना प्रस्ताव न केवल स्पष्टरूप से कहा, बल्कि यह भी कहा कि वह वायवा लेने हैदराबाद जाएंगे और वह चाहते हैं कि सोनल भी उनके साथ चले। उसके आने-जाने और ठहरने आदि का खर्च वह वहन करेंगे।
हेड का प्रस्ताव सुन प्राध्यापिका तमतमाती हुई उनके चैम्बर से बाहर निकली थी और उसने उच्च अधिकारियों, विश्वविद्यालय की अनेक समितियों, और यूनियन को उसी दिन लिखित शिकायत दे दी थी।
'लेकिन हुआ क्या! बनर्जी अपनी जगह उपस्थित हैं और उल्टा उसने प्राध्यापिका से स्पष्टीकरण मांग लिया। बनर्जी वी.सी. का मित्र है...इसलिए उसके विरुद्ध कुछ होने की संभावना नहीं है।'
''इस विषय पर सोचो'' प्रो0 शांति कुमार ने कहा था, ''सिविल सेवा परीक्षा आसान नहीं है सुधांशु। मैंने उसके फेर में युवकों को जीवन बर्बाद करते देखा हैं। अंतत: वे न घर के रहते हैं न घाट के। और फिर कहां एकेडेमिक फील्ड और कहां बाबूगिरी...।''
हंसे थे प्रो0 कुमार।
''जी सर।'' उसने धीमे स्वर में कहा था।
प्रो0 कुमार के कहने का उस पर प्रभाव इतना ही हुआ था कि वह प्रतिदिन दो घण्टे फाइनल की तैयारी के लिए भी देने लगा था।
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