शनिवार, 6 अगस्त 2011

धारावाहिक उपन्यास

चित्र :आदित्य अग्रवाल
’गलियारे’
(उपन्यास)
रूपसिंह चन्देल

भाग-एक : चैप्टर 9 और 10


(9)

दुर्गापूजा के दौरान लोदी एस्टेट स्थित भद्र बंगाली समाज की ओर से मेला आयोजित किया गया। वहां चपरासी से लेकर एडीशनल सेक्रेटरी पद तक के सरकारी कर्मचारी रहते थे। मेले की विशेषता यह थी कि उसमें अधिकांश कर्मचारी अपनी दुकानें सजाते और शाम के समय बंगाली समाज मेले में घूमकर कुछ वस्तुएं अवश्य खरीदता था। घर के एक-दो सदस्य दुकान में बैठते और जब घर के दूसरे सदस्य मेला घूम आते दुकान की जिम्मेदारी वे संभालते और दूसरे घूमने चले जाते।
उस वर्ष प्रीति ने सुधांशु को उस अवसर पर आने के लिए तैयार कर लिया। यद्यपि पहले वह इंकार करता रहा, लेकिन जब प्रीति ने कहा, ''सुधांशु पिछले दो वर्षों से तुम मना करते आ रहे हो। इस बार तुम्हे चलना ही होगा....क्योंकि ....!''
''क्योंकि क्या---?''
''क्योंकि इस वर्ष मैंने ब्रेड रोल की दुकान सजाने का निर्णय किया है और उसमें तुम्हारी सहायता चाहिए होगी।''
''मैं क्या सहायता करूंगा?'' चौंकते हुए सुधांशु बोला, ''मुझे पाक कला का अधिक ज्ञान नहीं है और वह भी ब्रेड रोल जैसी चीज...।''
''तुम्हें बनाना थोड़े ही होगा...''
''फिर?''
''वह काम मैं और शोभित मिलकर करेंगें।'' वह क्षणभर के लिए रुकी, ''शोभित हमारा घरेलू नौकर है। तेरह-चौदह साल का है, लेकिन बहुत होशियार है। चौबीस परगना का है। मछली क्या पकाता है....!''
''तुम शोभित के विषय में इतना विस्तार से क्यों बता रही हो?''
''यूं ही...क्योंकि वह बहुत अच्छा लड़का है।''
''जब तुम दोनों हो तब मेरी क्या आवश्यकता?''
''है यार। तुम ग्राहकों को संभालोगे।''
''ओह! लेकिन मुझे तौलना नहीं आता।''
''यार, तौलने के लिए कौन कह रहा है? ब्रेड रोल पीस के हिसाब से बेचने होते हैं।''
''हुंह...सोचकर बताऊंगा।''
''इसमें सोचने की क्या बात?''
''अभी दुर्गापूजा के दस दिन हैं।''
''हां...आं...लेकिन...।''
''प्रीति, प्लीज...।'' वी.सी. ऑफिस के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठे हुए उसने अपना सिर पकड़ लिया।
''यार, तुम तो ऐसे सिर पकड़ रहे हो जैसे कोई बहुत बड़ी आफत आने वाली हो।''
सुधांशु बोला नहीं। वह अंदर ही अंदर परेशान था। 'उच्च वर्गीय लोगों का सामना करना होगा। छोटी जगह से निकलकर दिल्ली आ गया, लेकिन यहां आने-जाने...मिलने-जुलने की सीमाएं हैं। प्राध्यापकों और छात्रों के अतिरिक्त कोई दूसरी दुनिया जानी नहीं। अफसरों...वह भी उच्चाधिकारियों की दुनिया ही अलग होती है।' तभी उसके अंदर से एक आवाज आयी, 'इतना हीन दृष्टिकोण रखकर तुम सिविल सेवा परीक्षा में बैठ भी गए, पास भी कर गए और चयन भी हो गया तो भी तुम सफल अधिकारी नहीं बन पाओगे। यह हीनता मृत्युपर्यंत तुम्हारा पीछा करती रहेगी। परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेने वाला ही सफल व्यक्ति बन पाता है। स्थितियों से जूझना और उनको अपने अनुकूल बना लेना और न बना पाने पर निरंतर उनसे जूझते रहने वाले को सफलता यदि नहीं भी मिलती तो भी उसे अफसोस नहीं होता। तुम्हें प्रीति के कार्यक्रम में जाना चाहिए और नये अनुभव प्राप्त करने चाहिए।
प्रीति उसकी ओर देख रही थी और सुधांशु आंखें बंद किए सोच रहा था। काफी देर बाद उसने आंखें खोलीं और बोला, ''सॉरी प्रीति, मैं कुछ सोच रहा था।''
''वह तो मैं देख ही रही थी।''
''मैं आउंगा।''
''डू यू नो?'' प्रीति ने उसकी ओर देखा,'' मेरे पापा ने मेरा संकट दूर करते हुए कहा था, ''तुम अपने फ्रेंड को क्यों नहीं बुलाती?'' फ्रेंड से उनका मतलब तुमसे था सुधांशु। कितनी ही बार मैंने पापा से तुम्हारे बारे में चर्चा की थी।''
सुधांशु चुप रहा।
''मैं तुम्हें बता दूंगी...कब और कितने बजे पहुंचना होगा।''
''ओ.के.।''
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सुधांशु अपरान्ह तीन बजे प्रीति के घर जाने के बजाए सीधे मेला स्थल पर पहुंचा। बाबुओं की कॉलोनी की एक सड़क को दोनों ओर से घेर दिया गया था और सड़क के दोनो ओर दुकानें सजायी गयी थीं। किसी ने फोल्डिंग चारपाइयों पर चादर बिछा दी थी, किसी ने तख्त पर सामान सजाया हुआ था तो कोई जमीन पर ही अपनी दुकान लगा रहा था। दुकान में अधिकांश युवा थे। कुछ दुकानों पर गृहस्थी की आवश्यकता की वस्तुए थीं। कुछ में खाने-पीने का सामान था। कुछ युवा स्टोव, गैस सिलेण्डर और चूल्हा सहित उपस्थित थे और चाट-पकौड़ी से लेकर सैण्डविच आदि बनाने का सामान था उनके पास।
सुधांशु सड़क के एक छोर से दूसरे छोर तक चक्कर लगा आया, लेकिन उसे प्रीति के दर्शन नहीं हुए।
'मुझे परेशान करने के लिए उसने ऐसा किया?' उसने सोचा, 'लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकती। जानती है कि मैं सदैव के लिए उससे मित्रता तोड़ लूंगा।' तभी विचार कौंधा, 'वह इतनी जल्दी क्यों आने लगी। अभी तीन ही बजा है। मैं मूर्ख हूं। इतनी जल्दी नहीं आना चाहिए था। शाम पांच से पहले कौन आएगा? केवल वही लड़के-लड़कियां यहां होंगे, जिन्हें अपनी दुकानें सजानी हैं। लेकिन उसीने मुझे तीन बजे का समय दिया था।' वह टहलता हुआ सोचता रहा।
'उसने अपने नौकर की चर्चा की थी- शोभित। शोभित दुकान सजा रहा होगा। पूछना चाहिए किसी से...लेकिन शोभित को कौन जानता होगा! प्रीति के बारे में पूछूं...शायद किसी को उसकी दुकान की जानकारी हो!' आगे बढ़कर उसने एक हमउम्र नौजवान से पूछा, ''यहां प्रीति मजूमदार की दुकान कहां होगी?''
''कौन प्रीति मजूमदार?'' युवक ने उलट प्रश्न कर दिया।
''नृपेन मजूमदार, जो शिक्षा मंत्रालय में एडीशनल सेक्रेटरी हैं, की बेटी...प्रीति हिन्दू कॉलेज में पढ़ती है।''
''सॉरी'' रूखा-सा उत्तर दिया युवक ने। वह मुड़ने को हुआ तो युवक की आवाज सुनाई दी, ''यहां कितने ही एडीशनल-ज्वायंट सेक्रेटरी रहते हैं...कितने ही मजूमदार...।''
''थैंक्यू।'' सुधांशु किंकर्तव्यविमूढ़ कुछ दूर चलकर खड़ा हो गया और सोचने लगा, 'दुर्गापूजा पंडाल देखना चाहिए। वहां दिनभर रौनक रहती है।' वह एक दूसरे यूवक से 'पंडाल' के विषय में पूछने के लिए आगे बढ़ा ही था कि पीछे से आवाज आयी, ''सुधांशु'।“ उसने मुड़कर देखा। प्रीति दूर से हाथ हिलाती तेजी से उसकी ओर बढ़ रही थी।
''सॉरी सुधांशु, लेट हो गयी। तुम घर क्यों नहीं आए? मैं वहां तुम्हारा इंतजार कर रही थी।''
सुधांशु चुप रहा।
''आओ, मेरी दुकान उधर है।'' दुकान की ओर हाथ का इशारा करती हुई प्रीति बोली, ''शोभित है वहां। किसीसे भी पूछ लेते...।'' उसने विषय बदला, ''देर हो गयी आए हुए?''
''पन्द्रह मिनट।''
''मैंने तुम्हे सीधे घर आने के लिए कहा था, लेकिन तुम...।''
''लेकिन मैंने यहीं पहुंचने के लिए कहा था...।'' प्रीति की बात बीच में ही काटकर सुधांशु बोला।
''नाराज हो गए?''
''ऐसा लग रहा है?''
''लग तो ऐसा ही रहा है।''
''कल्पना करके प्रसन्न होने का सुख ही कुछ अलग होता है।''
''अच्छा छोड़ो, मेरी दुकान देखो। कोई कमी दिखे तो बताना। यह न हो कि ब्रेड रोल बनाते समय पता चले कि नमक तो है ही नहीं।'' प्रीति हंसी, ''कैसा रहे यदि बिना नमक लोगों को ब्रेड रोल खाने पडें।''
''दुकान ठप हो जाएगी।''
''किसे परवाह है...यह तो आपस में मिलने का एक बहाना है। इसी बहाने बिरादरी के सभी लोग एक दूसरे की दुकानों पर जाते हैं।'' वह रुकी, फिर बोली, ''बाबा और मां छ: बजे तक आएगें.... बाबा के दफ्तर से लौटने के बाद।''
''ओ.के.।''
''दरअसल यहां रौनक होती ही शाम छ: बजे के बाद है। सड़क पर दोनों ओर जब रंग-बिरंगे बल्ब अपनी रौशनी फेंक रहे होते हैं...तब हमारा समाज अपने घरौंदों से बाहर निकलता है। देर तक सभी घूमते...खाते-पीते-गपियाते हैं...पूजा में शामिल होते हैं।''
''शायद ही किसी घर में चूल्हा जलता होगा। सब यहीं पेट-पूजा कर लेते होंगे।''
प्रीति ने उत्तर नहीं दिया केवल मुस्करा दी। क्षणभर बाद वह बोली, ''हम आ गए अपनी दुकान पर।''
एक किशोर आलू उबाल रहा था।
'शोभित कुमार होगा' सुधांशु ने सोचा।
''शोभित कैसी चल रही है तैयारी?''
''ठीक... दीदी।'' लड़का तनकर खड़ा हो गया और हाथ जोड़ उसने सुधांशु को नमस्ते की।
''क्या-क्या करना होगा?''
''आलू उबालकर मसाला तैयार करूंगा। ब्रेड में उसे भरकर ब्रेडरोल बनाकर रख लूंगा। जब लोग आने लगेंगे... उन्हें तल लूंगा।'' बांग्ला में शोभित बोला।
''वेरी गुड ।'' प्रीति ने कहा, ''तुम यह सब करके रखो ...मैं पंडाल तक होकर आती हूं।''
''जी दीदी।'' लड़का स्टोव में पंप मारने लगा।
''जब तक यह तैयारी कर रहा है...हम घूमकर आते हैं।'' प्रीति मुड़कर सुधांशु से बोली।
''ओ.के.।''
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शाम सात बजे मेले में भीड़ उमड़ी। लोधी एस्टेट निवासी बंगाली समाज ही नहीं गैर बंगाली लोग भी आए। सड़क के दोनों ओर रंग बिरंगे बल्ब अपनी रोशनी बिखेर रहे थे और बीच-बीच में हजार वॉट के बल्ब और टयूब लाइट्स की रोशनी से मेला नहाया हुआ था।
शोभित पहले से तैयार करके रखे ब्रेडरोल तल रहा था और प्रीति सुधांशु के सहयोग से आने वालों को कागज के दोनों में सॉस के साथ ब्रेड रोल दे और पैसे ले रही थी। लगभग साढ़े सात बजे प्रीति के पिता नृपेन मजूमदार और मां कमलिका आए। प्रीति ने सुधांशु का परिचय करवाया। सुधांशु ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया, जिसके उत्तर में मजूमदार मोशाय ने सिर हिला दिया। सुघांशु को प्रिय नहीं लगा। 'प्रीति ने कितनी प्रशंसा की थी पिता की...लेकिन लगता है यहां भी दफ्तर उनके साथ मौजूद है।' सुधांशु ने सोचा और क्षणभर पहले उत्पन्न हुए मन के भाव को झिटक दिया। लेकिन तभी उसे सुनाई दिया, ''कैसे हो यंग मैंन?...सुना है आप सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे हो।'' मजूमदार सुधांशु से पूछ रहे थे।
''जी सर।'' सुधांशु उनकी ओर बढ़ गया।
''गुड लक।'' कह नृपेन मजूमदार पत्नी के साथ आगे बढ़ गए।
दुकान में एक परिवार आ खड़ा हुआ। पति-पत्नी और चार बच्चे। दो लड़के और दो लड़कियां। प्रीति बांग्ला में हंस-हंसकर उनसे बातें करने लगी। कुछ देर बाद उसने सुधांशु से उनका परिचय करवाया, ''मेरे अंकल-ऑण्टी। पिता जी के मौसेरे भाई।'' फिर उसने शोभित से ताजे ब्रेडरोल अंकल-ऑण्टी और उनके बच्चों को सर्व करने के लिए कहा।
रात दस बजे भी मेला में उतनी ही रौनक और भीड़ थी जितनी सात बजे शाम थी।
'यदि बस न मिली तब रात कहां बिताउंगा...मुझे अब इजाजत ले लेना चाहिए।' सुधांशु ने सोचा और बोला, ''प्रीति मैं चलता हूं...।''
''यार, ऐसी भी क्या जल्दी है। अभी तो मेला शरू ही हुआ है...।''
''तुम और शोभित ही इस काम के लिए पर्याप्त हो। मुझे बस की चिन्ता भी करनी है।''
''तुमने अभी तक कुछ लिया नहीं...केवल लोगों को ही खिलाते रहे।''
''लोगों को खाता देखकर तृप्त होता रहा।''
''ऐसे नहीं...।'' प्रीति शोभित की ओर मुड़ी, ''तुरंत चार ब्रेडरोल प्लेट में लगाओ सुधांशु के लिए।''
चार ब्रेडरोल सुधांशु को पेट के एक कोने में दुबक गए जान पड़े। उसे तेज भूख लगी हुई थी। लेकिन प्रीति के और आग्रह को टाल वह मेले से बाहर आ गया।
जब वह हॉस्टल पहुंचा साढ़े बारह बज रहे थे।
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(10)

नृपेन मजूमदार के साथ हुए संक्षिप्त संवाद के विषय में रात देर तक सुधांशु सोचता रहा। 'प्रीति ने पिता की प्रशंसा के पुल बांधे थे। जब मैंने अपनी पृष्ठभूमि बतायी तब उसने यही कहा था ''डैड भी सेल्फमेड हैं...मुझ जैसी ही स्थितियों से निकले हुए और मुझ जैसे लोगों को पसंद करने वाले।''
’लेकिन मजूमदार साहब के संक्षिप्त संवाद से ऐसा प्रतीत नहीं हुआ। संभव है दुर्गापूजा मेला के अवसर पर व्यस्तता के कारण...।' उसने लेटे ही लेटे सिर झिटका, 'मैं क्यों ऐसा सोच रहा हूँ। उनसे कितना परिचय था। संक्षिप्त परिचय-संक्षिप्त संवाद। अधिक की अपेक्षा क्यों? मैं व्यर्थ ये बात क्यों सोच रहा हूं। इसलिए कि प्रीति से मित्रता है...।' तत्काल मस्तिष्क में दूसरा विचार उभरा, 'कहीं तुम कुछ और तो नहीं सोचने लगे। बातचीत में प्रीति कुछ अधिक ही निकटता और अधिकार प्रदर्शित करने लगी है। कहीं तुम भी...।'
'मेरे पास इस सबके लिए समय कहां? फिर कहां प्रीति ...और...नहीं यह सब व्यर्थ की बातें हैं। मुझे कल से पढ़ाई पर अपने को केन्द्रित करना है...प्रीति से मिलना भी कम...।''
मौसम में हल्की ठंडक थी। उसने खादी का कुर्ता पहना, पैरों पर चादर डाली और सोने का उपक्रम करने लगा।
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उसने सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने का निर्णय तो किया लेकिन वह एम.ए. भी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करना चाहता था। वह यह जानता था कि उसके प्राध्यापक उसे पसंद करते थे और प्रो0 शांति कुमार ने एक दिन उससे कहा भी था कि फाइनल में यदि वह अच्छी प्रकार तैयारी करे तो उसे प्रथम श्रेणी मिलना असंभव नहीं। एम.फिल. और पी-एच.डी अपने अधीन करवाने का प्रस्ताव भी शांति सर ने दिया था।
''तुममे प्रतिभा है सुधांशु...तुम कर सकते हो।'' शांति कुमार बोले थे।
''सर, इससे नौकरी की गारण्टी हो जाएगी?'' उसने शांति कुमार से स्पष्ट पूछ लिया था।
''गारण्टी कोई नहीं दे सकता सुधांशु...खासकर आज के समय में, लेकिन एक बात मैं जानता हूं कि अध्यवसायी और प्रतिभावान अभ्यर्थी की तलाश हर विश्वविद्यालय-कॉलेज को होती है।''
''सर, मैं आपकी बात का सम्मान करता हूं, लेकिन मैंने सुना है कि जान-पहचान...।''
''तुम ठीक कह रहे हो...कुछ चाहिए ही होगी। लेकिन उस सबके लिए हम हैं न! कम से कम मैं तुम्हारे केस के लिए कहूंगा।''
''जी सर।'' उसके स्वर में बहुत उत्साह नहीं था। उसने तब तक जो सुन-देख लिया था वह उसे हतोत्साहित करता था। पिछले दिनों राजनीति विभाग के विभागाध्यक्ष की कहानी एक अंग्रेजी दैनिक ने लगातार प्रकाशित कर अंदर खाते चलने वाले खेलों को तार-तार कर दिया था।
राजनीति के विभागाध्यक्ष अपने यहां की एक प्राध्यापिका की स्थायी नियुक्ति में बाधक बने हुए थे। पिछले तीन वर्षों से वह वहां एडहॉक पढ़ा रही थी। विभागाध्यक्ष बनर्जी पहले उससे संकेतों में कहते रहे, लेकिन वह उनके संकेतों की उपेक्षा करती रही। फिर भी वह हताश नहीं हुए। आशान्वित होने के कारण ही उन्होंने उसकी एडहॉक की फाइल रोकी नहीं थी या उसके स्थान पर किसी और की नियुक्ति की सिफारिश नहीं की थी। लेकिन जब प्राध्यापिका मिस सोनल शर्मा ने उनके संकेतों की ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया तब एक दिन अपने चैम्बर में उसे बुलाकर बनर्जी महोदय ने अपना प्रस्ताव न केवल स्पष्टरूप से कहा, बल्कि यह भी कहा कि वह वायवा लेने हैदराबाद जाएंगे और वह चाहते हैं कि सोनल भी उनके साथ चले। उसके आने-जाने और ठहरने आदि का खर्च वह वहन करेंगे।
हेड का प्रस्ताव सुन प्राध्यापिका तमतमाती हुई उनके चैम्बर से बाहर निकली थी और उसने उच्च अधिकारियों, विश्वविद्यालय की अनेक समितियों, और यूनियन को उसी दिन लिखित शिकायत दे दी थी।
'लेकिन हुआ क्या! बनर्जी अपनी जगह उपस्थित हैं और उल्टा उसने प्राध्यापिका से स्पष्टीकरण मांग लिया। बनर्जी वी.सी. का मित्र है...इसलिए उसके विरुद्ध कुछ होने की संभावना नहीं है।'
''इस विषय पर सोचो'' प्रो0 शांति कुमार ने कहा था, ''सिविल सेवा परीक्षा आसान नहीं है सुधांशु। मैंने उसके फेर में युवकों को जीवन बर्बाद करते देखा हैं। अंतत: वे न घर के रहते हैं न घाट के। और फिर कहां एकेडेमिक फील्ड और कहां बाबूगिरी...।''
हंसे थे प्रो0 कुमार।
''जी सर।'' उसने धीमे स्वर में कहा था।
प्रो0 कुमार के कहने का उस पर प्रभाव इतना ही हुआ था कि वह प्रतिदिन दो घण्टे फाइनल की तैयारी के लिए भी देने लगा था।
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1 टिप्पणी:

ashok andrey ने कहा…

priya chandel tumhaara upanyaas kaphi kuchh sanket un isthition ki aur kar rahaa hai jiske liye ek pathak intjaar karta haiki iska ant kaya hoga.yeh alag baat hai ki poora upanyaas padne ke baad hee sapasht ho payega koi keh sakne ki isthition ke baare men. veise tumhaara yeh upanyaas badiya chal rahaa hai,shubhkamnaen is achchhe kathanak ke liye.