रविवार, 25 सितंबर 2011

धारावाहिक उपन्यास

गलियारे

(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल


भाग-तीन
चैप्टर - २१,२२ और २३


(21)

प्रीति और सुधांशु का विवाह दिल्ली में हुआ। विवाह बंगाली रीति-रिवाज से सम्पन्न हुआ जिसमें सुधांशु के घर से केवल उसके मां-पिता शामिल हुए थे। उसके पिता ने रिश्तेदारों और गांव के कुछ लोगों को निमंत्रित किया था, लेकिन कोई भी दिल्ली जाने के लिए तैयार नहीं हुआ।
''बेटा जो कर रहा है उसमें दखल देने का हमें कोई हक नहीं है। दखल तब दिया जाए जब वह कुछ अनुचित कर रहा हो। मुझे नहीं लगता कि सुधांशु कभी गलत कर सकता है....गांववाले और रिश्तेदारों को भले ही लगे, लेकिन मुझे नहीं लगता।'' एक दिन सुबोध दास ने पत्नी सुगन्धि से कहा।
''लेकिन बबुआ को विवाह यहीं से करना चाहिए था। उछाव-बधाव की कसक रह गयी।'' सुगन्धि ने लंबी सांस खींची।
''बेटा को अफसर भी बनाना चाहती थी और अब जब वह अफसर बन गया तब तुम चाहती हो कि वह गांव आकर शादी करे...।''
''मुझे तो डर लग रहा है।''
''डर किस बात का?''
''वो बड़े बाप की बेटी...सुना है उसके बाप बड़े अफसर थे.....और कहां गरीबी में पला-पोसा हमारा सुधांशु।''
''तुम सारी जिन्दगी डरती ही रहोगी। अरे ओहका बाप अब रिटायर हो गया है। अब ना है वो अफसर....अब अपना सुधांशु अफसर है...डरना छोड़ बुढ़िया...।''
''आज के बाद बुढ़िया मत कहना....अभी साठ की होने में कई साल हैं।''
हंसने लगे सुबोध, ''बुढ़ापे में अब कितने दिन रह गये हैं।'' लंबी सांस खींच बोले, ''लेकिन मुझे दूसरी ही बात की चिन्ता सता रही है।''
''वह क्या?''
''गांव वालों ने पहले ही इंकार कर दिया कि वे दिल्ली नहीं जा पायेंगे। लेकिन रिश्तेदारों ने कुछ नहीं बताया....बता देते तो उनके रेल आरक्षण भी करवा देता।''
''उन्हें भी कसक है।''
''लेकिन मैं कैसे कहूं सुधांशु से.....वह भी मजबूर है। मजूमदार साहब जल्दी ही कलकत्ता जाना चाहते हैं.....इसलिए सब कुछ आनन-फानन में हो रहा है।''
''रिश्तेदारों से एक बार मिलकर पूछ लो...।'' सुगन्धि ने बात बीच में ही रोक ली।
और गांव के दस मील के दायरे में रहने वाले अपने सभी रिश्तदारों के पास गये सुबोध, लेकिन सभी ने दिल्ली जाने से इंकार कर दिया।
दिल्ली में सुबोध और सुगन्धि के लिए नृपेन मजूदार ने इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर में ठहरने की व्यवस्था करवा दी थी और सुधांशु के लिए होटल ताज में।
इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर के कमरे में सुबोध और सुगन्धि का दम घुटता। गांव के उन्मुक्त वातावरण में बिचरने वाले उन दोनों का मन उससे सटे लोदी गार्डन में अधिक रमता। उन्होंने स्टेशन पर उन्हें लेने आए व्यक्ति से सुधांशु के बारे में पूछा जिसने अपनी अनभिज्ञता व्यक्त की थी।
''अजीब बात है। मुझे पता नहीं है कि मेरा बेटा कहां है और हम यहां यों पड़े हैं मानो किसी और की शादी में आए हैं।'' सुबोध मन की पीड़ा छुपा नहीं पाए।
''मुझे सब गड़बड़ लग रहा है सुधांशु के पापा।''
''गलत मत सोचो....सही सोचो....गलत हो तब भी। लेकिन मुझे उलझन हो रही है....मेरा भी तो कुछ फर्ज बनता है। कुछ देना....लेना...कहीं हमें उल्लू तो नहीं बनाया जा रहा। शादी गुड्डे-गुड़ियों की हो रही हो जैसे....।''
सुगन्धि ने दीर्घ निश्वास छोड़ी और चुप रही।
शाम चार बजे के लगभग सुधांशु मिलने आया। पता चला कि वह एक घण्टा पहले ही पटना से दिल्ली पहुंचा था, सीधे होने वाली सुसरबाड़ी। पता चलते ही मां-पिता से मिलने दौड़ा आया था।
''हमारा दिल नहीं लग रहा बेटा।'' सुबोध बोले।
हंस दिया सुधांशु, ''कुछ समय की ही बात है।''
''लेकिन यह कैसी शादी है बेटा....ना बारात...ना उछाव...।''
''मां, कहते हैं न कि जैसा देश वैसा भेष....।''
''हम दोनों की कोई भूमिका ही नहीं दिख रही...लग ही नहीं रहा कि मेरे बेटे का विवाह है।''
''महानगरों में चीजें बदल रही हैं पिता जी। आपको कुछ करना ही नहीं....रात आपके लिए गाड़ी आ जायेगी....।''
''और तुम?'' सुबोध से रहा नहीं गया।
''मेरे लिए इन लोगों ने होटल ताज में कमरा बुक करवाया है।''
''सब कुछ मजूमदार साहब ने किया है?'' सुगन्धि बोली।
सुधांशु मां की बात का उत्तर देने ही जा रहा था कि पिता की आवाज सुनाई दी, ''मजूमदार साहब हमारे समधी होने जा रहे है।....सुबह से हम यहां पड़े हुए हैं....एक बार भी मिलने नहीं आए.....ये कैसी रिश्तेदारी हैं बेटा...?''
सुधांशु चुप रहा। कुछ देर तक कमरे में चुप्पी पसरी रही। कुछ देर बाद सुधांशु बोला, ''मुझे होटल जाना है। रात आपके लिए वे लोग गाड़ी भेज देंगे पिता जी....मैं वहीं मिलूंगा।'' सुधांशु मां-पिता के चरणों में झुक गया तो आशीर्वाद देते हुए दोनों की ही आंखें गीली हो गयीं।
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शादी के अगले दिन सुधांशु और प्रीति शिमला चले गये। सुबोध और सुगन्धि तीन दिन दिल्ली में रहे और ये तीनों ही दिन इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर में, लेकिन तीनों ही दिन लंच और डिनर के लिए नृपेन मजूमदार ने उन्हें घर बुलाया। पहली बार वह स्वयं गाड़ी ड्राइव कर उन्हें लेने आए जबकि बाद में ड्राइवर आया। उन्होंने सुबोध और सुगन्धि को यह एहसास नहीं होने दिया कि वह एक उच्चाधिकारी थे। नृपेन ने सुबोध को अपने भाई जैसा सम्मान दिया जिससे दोनों पति-पत्नी प्रसन्न थे और निरंतर यह चर्चा करते रहे कि सुधांशु ने प्रीति के साथ शादी करके गलती नहीं की, कि वे प्रीति को बेटी की भांति मानेंगे, कि प्रीति भी उनका मां-पिता की भांति सम्मान किया करेगी, जिसके मां-पिता इतने नेक हैं उसकी संतान भी भली ही होगी। वे उस क्षण को याद करते जब प्रीति ने विवाह मंडप से उठते ही उन दोनों के चरण स्पर्श किये थे। सुगन्धि ने प्रीति को गले लगाकर आशीर्वाद की झड़ी लगा दी थी।
नृपेन मजूमदार दूसरे दिन डिनर के बाद बोले, ''भाई साहब, कल ड्राइवर आपको दिल्ली घुमा देगा...लाल किला, जामा मस्जिद, कुतुब मीनार....राजघाट....।''
नृपेन की बात सुनकर सुबोध पत्नी की ओर देखने लगे थे। सुगन्धि के मन की बात थी, लेकिन केवल कहने के लिए कहा, ''आप क्यों परेशान होंगे भाई साहब।''
''इसमें परेशानी कैसी!''
दूसरे दिन दिल्ली-दर्शन कर अपने नसीब को सराहते रहे सुबोध। चौथे दिन उन्हें स्टेशन छोड़ने के लिए नृपेन और कमलिका गए। सुबोध और सुगन्धि के मना करने के बावजूद तीन बड़े पैकेट, मिठाई के डिब्बे, दो बड़ी अटैचियों में कपड़े आदि बांध दिया था मजूमदार दम्पति ने। ट्रेन छूटने के समय नृपेन ने सुबोध को गले लगा लिया। कमलिका भी सुगन्धि से गले मिली।
ट्रेन छूटने के बाद कमलिका ने पति से कहा, ''सीधे-सरल हैं दोनों।''
''हमारी प्रीति समझदार है।'' प्लेटफार्म से बाहरे आते हुए मजूमदार बोले।
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शिमला से लौटकर सुधांशु और प्रीति एक दिन के लिए दिल्ली रुके और अगले दिन शाम की फ्लाइट से पटना चले गये। कुछ दिनों बाद नृपेन और कमलिका कलकत्ता जाते हुए दो दिनों के लिए पटना रुके। उन दोनों को प्रसन्न देख नृपेन मजूमदार ने पुन: कमलिका से कहा, ''कमल, अपनी प्रीति बहुत समझदार है।''
कमलिका केवल मुस्करायीं, जिसका अर्थ था कि वह बिल्कुल ठीक कह रहे थे।
''आखिर बेटी किसकी है!''
पति की इस टिप्पणी पर कमलिका फिर मुस्कराई।
कलकत्ता के अपने घर को सुव्यवस्थित करने और कुछ आवश्यक कार्य करवाने में मजूमदार को एक महीना से अधिक समय लगा। लेकिन उन्हें दिल्ली के सरकारी बंगले की चिन्ता भी परेशान कर रही थी, क्योंकि बंगले में शोभित अकेला था।
'दिल्ली में अपराधों में तेजी से वृद्धि हो रही है....और अब तो ये अपराध घरेलू नौकर ही करने-करवाने लगे हैं।' नृपेन मजूमदार कभी-कभी सोचते, 'लेकिन शोभित ऐसा नहीं है। वह दूसरे नौकरों से अलग है। क्यों न मैं कमल को भेज दूं। यहां का काम मैं स्वयं करवा लूंगा। लेकिन कमल को अकेले भेजना ठीक नहीं। लेबर बढ़ा लेता हूं, काम जल्दी समाप्त हो जाएगा। साथ जाकर जल्दी ही वहां सामान पैक कर इधर आना होगा।'
कमलिका प्रतिदिन सुबह-शाम शोभित से फोन पर हाल-समाचार लेती। शोभित के अपने सर्वेण्ट क्वार्टर के अतिरिक्त उन्होंने वह कमरा ही खुला छोड़ा था जिसमें टेनीफोन था।
''सब ठीक है मेम साब।'' शोभित उनके पूछने पर कहता।
''आज क्या पकाया था शोभित?''
''मैडम कद्दू की सब्जी और चपाती।''
''कद्दू ....मछली नहीं लाया?''
''मैडम वो तो नहीं लाया?''
''क्यों?''
''मैडम ....बस्स....।''
''पैसे हैं ना...मैं देकर आयी थी।''
शोभित चुप रहता। कह नहीं पाता कि मैडम आपने जितने पैसे दिए थे वे संभालकर खर्च नहीं करूंगा तो आपके आने से पहले ही खर्च हो जायेंगे।
''शोभित, पौधों को समय से पानी देते रहना और किसी भी अनजान व्यक्ति को बंगले के अंदर मत आने देना। कोई परिचित भी आए तो यह मत बताना कि हम लोग दिल्ली से बाहर हैं।''
''जी मैम।'' लेकिन तभी शोभित को लगता कि वह यह पूछना ही भूल गया कि साहब कैसे हैं और तुरंत पूछता, ''मेम साहब, साहब कैसे हैं?''
''बिल्कुल ठीक हैं। तुम्हे बहुत याद करते हैं।'' शोभित जानता था कि यह बात मैडम ने अपनी ओर से कही है। तभी श्रीमती कमलिका मजूमदार की आवाज सुनाई देती, ''हम लोग जल्दी ही आयेंगे.....तुम बंगले में ही रहना....दोस्तों के साथ खेलने-घूमने मत जाना।''
''मैडम, यहां मेरा कोई दोस्त नहीं है।''
''यह तो ठीक है।'' और कमलिका मजूमदार फोन काट देतीं। प्रतिदिन वह यही बातें करतीं और प्रतिदिन शोभित यही उत्तर देता।
दूसरी बार भी नृपेन मजूमदार बेटी-दामाद से मिलने पटना पहुंचे। उन्होंने दिल्ली का सरकारी बंगला खाली कर दिया था। सामान के लिए कंटेनर बुक करवाया था। शोभित को कालका मेल से कलकत्ता रवाना करके पति-पत्नी सुबह की फ्लाइट से पटना पहुचे, एक दिन रुके और दूसरे दिन सुबह की फ्लाइट से कलकत्ता चले गये। वे शोभित के पहुंचने से पहले वहां पहुंचना चाहते थे।
चार महीनों में दो बार प्रीति कलकत्ता हो आयी थी। लेकिन यह सिलसिला आगे चलता इससे पहले ही एक दिन सुधांशु ने उससे कहा, ''प्रीति, तुम सिविल सेवा परीक्षा का एक अटेम्प्ट दे चुकी हो.....अभी तुम्हारे पास समय है...दो अटैम्प्ट और दे सकती हो....समय नष्ट क्यों कर रही हो....तैयारी करो...।''
''मैं भी यही सोच रही थी। तुम दफ्तर में होते हो तो बहुत उचाट लगता है।'' सुधांशु को किस करती हुई प्रीति बोली, ''लेकिन जब मैं भी व्यस्त हो जाऊंगी तब घर...।''
''उसके लिए एक मेड रख लेते हैं।''
''हां, ऐसा कर सकते हैं।''
''अड़ोस-पड़ोस में आने वाली मेड्स से बात करो....मैं भी अपने दफ्तर में चर्चा करूंगा।''
''यार, तुम बड़े अफसर होते......डिप्टी डायरेक्टर ही हो चुके होते तब तो दफ्तर के किसी चपरासी की बीबी आ जाती.....।''
''नहीं प्रीति....मेरे सिद्धांत के विरुद्ध है यह। मैं जानता हूं कि चतुर्थ श्रेणी ही नहीं कुछ तृतीय श्रेणी कर्मचारियों का शोषण कर्यालयों के बड़े अफसर करते हैं, लेकिन तृतीय श्रेणी के कर्मचारी अपना हित साध लेते हैं, जबकि निरीह चतुर्थ श्रेणी केवल शोषित होता है। वह यदि कुछ लाभ उठा पाता है तो केवल इतना ही कि अपने किसी परिचित को कैजुअल नियुक्त करवा लेता है, लेकिन कितने दिनों के लिए दो...चार महीनों के लिए....।''
प्रीति ने कोई उत्तर नहीं दिया।
''तुम किसी से बात करो। कोई नहीं मिलेगा तब मैं मां को आने के लिए कहूंगा।''
''हूं... अ ....कुछ करना ही होगा। पढ़ाई और घर.....शायद मैं न संभाल पाऊंगी। कभी किया भी नहीं।''
''तुम अपनी तैयारी की सोचो...एक बार मेड्स से बात करके देखो....फिर मुझे बताओ।''
प्रीति ने किसी भी मेड से बात नहीं की, जबकि आमने-सामने के मकानों में तीन मेड्स काम करने आती थीं। पूछने पर उसने कहा, ''बात की थी, लेकिन उन्हें समय नहीं।''
''वे किसी और को बता देतीं या भेजने के लिए कहतीं।''
''उन्होंने मेरी बात पर कान ही नहीं दिया।''
''ओ. के.....।'' देर तक चुप रहने के बाद सुधांशु बोला, ''मां को लिखता हूं। आ ही जाना चाहिए....पिता जी को परेशानी अवश्य होगी, लेकिन वे मैनेज कर लेंगे।''
''यही ठीक रहेगा।''
''मैं यहां पर मां-पिता के संघर्षों के कारण पहुंचा....अब उन दोनों को यहां बुला लेना चाहिए। यदि उन्हें सुख नहीं दे पाया तब इस अफसरी का क्या लाभ?'' सुधांशु ने कुछ सोचते हुए कहा।
''दोनों लोगों के आने के बाद वहां की व्यवस्था गड़बड़ा नहीं हो जायेगी....।'' चिन्तामग्न भाव से प्रीति बोली, ''तुम बता रहे थे कि तुम्हारे पास ठीक-ठाक खेत हैं।''
''प्रीति, पिता जी मंझोले किसान हैं। खेत बटाई पर दे देंगे। साल में दो बार जाकर देख आया करेंगे।''
''मेरा सुझाव है कि माता जी को पहले बुला लो, उनकी तत्काल आवश्यकता है। मैं पढ़ाई को लेकर गंभीर हूं। अंकल घर-खेतों की व्यवस्था करके बाद में आ जायेंगे।''
''हुंह।'' सुधांशु ने मंद स्वर में कहा, ''शायद तुम ठीक कह रही हो।''
''शायद ....?'' सुधांशु के गाल पर चिकोटी काटती हुई प्रीति बोली और उसके और निकट खिसक गयी।
सुधांशु अपने को रोक नहीं पाया। उसने प्रीति को अपनी ओर खींच लिया....।
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(22)

सुगन्धि के आने से पहले ही प्रीति ने आई.ए.एस. के लिए कोचिंग ज्वाइन कर ली थी। अपरान्ह चार बजे से रात आठ बजे तक वह कोचिंग के लिए जाती। पढ़ाई के कारण घर अव्यवस्थित रहने लगा। यद्यपि पहले भी सुधांशु छोटे-छोटे काम कर दिया करता था, लेकिन अब प्राय: सुबह की चाय और नाश्ता वही तैयार करता। प्रीति सुबह आठ बजे पढ़ने बैठ जाती और दोपहर एक बजे तक पढ़ती रहती। सुधांशु कार्यालय की कैण्टीन का लंच लेने लगा, जबकि प्रीति अपना काम ब्रेड-चिउड़ा या कार्नफ्लेक्स से चलाती। कभी-कभी बाहर से आर्डर कर लंच मंगवा लेती। रात प्रीति के लौटने के बाद सुधांशु उसके लिए चाय बना देता और रात के भोजन में दलिया-खिचड़ी या दाल-चावल बनने लगा था।
पत्र पहुंचने और सुगन्धि के आने में तीन सप्ताह से अधिक समय बीत गया। एक बार दबी जुबान सुधांशु ने प्रस्ताव किया, ''प्रीति, क्यों न हम दोनों गांव चलकर मां को साथ ले आंए। तुम मेरे गांव गई भी नहीं। दो दिन में जाकर लौट आयेंगे।''
''सुघांशु तुमसे अधिक कौन समझ सकता है इस पढ़ाई के बारे में।''
''वह मैं समझता हूं, लेकिन परीक्षा के लिए कई महीने हैं और दो दिन ....।''
''तुम चाहो तो चले जाओ....जहां तक मेरा प्रश्न है...मैं नहीं जाऊंगी। गांव देखने में मेरी कोई रुचि नहीं है। टी.वी. में वहां की गंदगी देखती रही हूं....।'' क्षण भर के लिए प्रीति रुकी। सुधांशु की ओर टकटकी लगाकर देखती रही, ''वैसे तुम मुझे छोड़कर कहां जाओगे! मां जी आ ही जायेंगी। तब तक कुछ परेशानी ही सही....।''
प्रीति की बात सुधांशु को आहत कर गयी, लेकिन उसने प्रकट नहीं होने दिया। उसने प्रसंग ही बदल दिया और उसकी तैयारी के विषय में बात करने लगा।
प्रतिदिन रात में एक घण्टा सुधांशु प्रीति के अध्ययन में सहायता करता था। दुरूह प्रश्नों का सहज विश्लेषण करता। उसने उस दिन यह निर्णय किया कि वह कभी भी प्रीति से अपने गांव जाने के विषय में प्रस्ताव नहीं करेगा। 'दिल्ली जैसे महानगर में पली-बढ़ी लड़की से गांव जाने की अपेक्षा करना ही मूर्खता है।' उसने सोचा, 'दिल्ली पढ़ने जाने के बाद मैं ही कितनी बार गया गांव!'
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सुगन्धि ने आते ही व्यवस्था संभाल ली। लेकिन उनके काम का ढंग प्रीति को पसंद नहीं आता था। सफाई के बावजूद उसे घर गंदा ही नजर आता। एक दिन उसने सुधांशु से कह ही दिया, ''मां जी गांव के संस्कार साथ लेकर आयीं हैं।''
''मतलब?''
''मतलब यह कि उनके हर काम में गांव का फूहड़पन दिखाई देता है।''
प्रीति की इस टिप्पणी ने अंदर तक सुधांशु को छील दिया। देर तक वह उस बात को जज्ब करने का प्रयत्न करता रहा, लेकिन अपनी बेचैनी पर जब वह काबू नहीं पा सका बोला, ''एक काम करता हूं।''
प्रीति सुधांशु के चेहरे की ओर देखने लगी।
''मां को वापस भेज देता हूं। तुम किसी मेड का प्रबंध नहीं कर सकी, मैं प्रयत्न कर देखता हूं।''
''मेरी बात का बुरा मान गए?''
''बिल्कुल नहीं...सच बात का बुरा क्या मानना। मां की सारी जिन्दगी गांव में बीती है.......घर, खेत, खलिहान, जानवरों के बीच....पहले ही कहा था कि मेरे मां-पिता किसान हैं......निरक्षर किसान...। वह कुशल गृहणी हैं, लेकिन कुशलकर्मी नहीं....काम करना उन्हें आता है, लेकिन नफ़ासत वह नहीं जानतीं। इस शब्द से शायद ही वह परिचित हों। लेकिन उनके काम में ईमानदारी का अभाव नहीं है......यह मेरी कल्पना से भी बाहर है।'' सुधांशु को लगा कि इतना कहते हुए वह हांफ गया है।
''आय मए सॉरी सुधांशु। तुम निश्चित ही बुरा मान गए हो।''
सुधाशु ने प्रतिक्रिया नहीं दी।
''मां जी को कहीं नहीं भेजोगे। मेड से काम नहीं चलेगा। इनके रहने से घर की निश्चितंता रहती है।''
सुधांशु इस बार भी प्रतिक्रिया न व्यक्त कर स्टडी में चला गया। कुछ देर बाद प्रीति भी आ गयी। दरअसल स्टडी पर उन दिनों प्रीति का कब्जा था, जहां रात सुधांशु एक घण्टा उसे गाइड करता था। इससे पहले वह वहां साहित्य अध्ययन करता और कभी-कभी कविता या कोई आलेख लिखता। उसकी कविताएं और आलेख पत्र-पत्रिकाओं से वापस लौट आते या आते ही नहीं थे।
सुगन्धि ने प्रीति को दूसरे कामों से ही मुक्त नहीं किया बल्कि वह उसके कपड़े भी धो देती थीं, ''बहू तुम केवल पड़ाई करो....कठिन पढ़ाई है...मैंने कभी पढ़ाई नहीं की तो क्या....लेकिन जानती हूं और देख भी रही हूं कि बहुत मेहनत करनी पड़ती है। तुम रोज फल, दूध, बादाम का सेवन किया करो। पढ़ाई में भेजा कमजोर न हो जाए...।''
प्रीति सास की बात सुनकर मन ही मन मुस्कराती, और केवल इतना ही कहती, ''जी...मां जी।''
सुगन्धि ने प्रीति से कहा ही नहीं, उसके लिए अलग से एक लीटर दूध लेने लगीं। स्वयं बाजार जाकर देशी घी, बादाम ले आयीं। फल सुधांशु ले ही आता था। दिन में चार बार बिना प्रीति के कहे वह उसके लिए चाय बना देतीं। स्वयं सुबह की चाय ही लेतीं।
डायनिंग टेबल पर जब प्रीति भोजन कर रही होती, सुगन्धि उसका चेहरा ताकती बैठी रहतीं, जबकि प्रीति उनकी ओर देखती भी नहीं थी। कुछ सोचते हुए यदि वह क्षणभर के लिए भोजन रोक देती, सुगन्धि अपने को रोक नहीं पातीं, ''बेटा कुछ और लायी?''
''अंय...।''
''कुछ और लायी?''
''नो...थैंक्स।''
बेटे के पास रहते हुए सुगन्धि अंग्रेजी के कुछ शब्द समझने लगी थीं।
''कोई बात नहीं....तुम इत्मीनान से खाना खाओ। सारा दिन पढ़ते हुए दिमाग खराब हो जाता होगा।'' सुगन्धि बुदबुदातीं।
लेकिन प्रीति उनकी बात का उत्तर नहीं देती। भोजन समाप्त कर तेजी से उठती और वॉशबेसिन की ओर लपक लेती।
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आई.ए.एस. की परीक्षा समाप्त होने के दूसरे दिन प्रीति कलकत्ता चली गई। सुगन्धि गांव जाना चाहती थीं, लेकिन प्रीति के लौटने तक उन्हें रुकना पड़ा। प्रीति एक माह कलकत्ता रही, लेकिन जिस दिन उसे पटना लौटना था उससे एक सप्ताह पहले सुधांशु मां को लेकर गांव गया। दो दिन गांव में रहा। उसे यह देख आश्चर्य हो रहा था कि उससे मिलने के लिए पूरा गांव उसके दरवाजे एकत्रित हुआ था। लोग आते उसे आशीषते, सुबोध और सुगन्धि के भाग्य को सराहते और वापस लौट जाते। युवा और किशोरों के लिए सुधांशु प्रेरणा श्रोत बन गया था। लेकिन कल तक जो युवक उससे घुलमिलकर सलाहें लेते थे उससे नमस्कार या चरणस्पर्श कर संकुचित भाव से एक ओर खड़े हो गये तो सुधांशु सोचने के लिए विवश हुआ, 'जब ये अपने लोग गांव के व्यक्ति के अफसर बनते ही एक दूरी अनुभव करने लगे हैं तब इस देश में 'अफसरशाही' और 'लालफीताशाही' की स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। कहने के लिए हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा हैं, लेकिन इस देश का लोकतंत्र कुछ लोगों के हाथों बंधक है...नेता, अफसर और पूंजीपतियों के हाथों....।'
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1 टिप्पणी:

ashok andrey ने कहा…

priya bhai chandel ab lag rahaa hai ki tumhaara yeh upanyaas is ansh se ek naye mod ki sugbughahat kee dastak dene laga hai jo shubh santek hai ummeed hai ki ab logon ko apni aur kheenchne lagega,badhai.