शनिवार, 5 नवंबर 2011

धारावाहिक उपन्यास

गलियारे
(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल

भाग - ३

(चैप्टर - ३१, ३२,३३ और ३४)

भाग तीन

(31)

''गेस्ट हाउस में कोई असुविधा तो नहीं प्रीति?'' एक दिन डी.पी. मीणा ने प्रीति को अपने पास बुलाकर पूछा।

''सर, असुविधा नहीं है, लेकिन पटना से आया सामान गेस्ट हाउस के एक कमरे में बंधा पड़ा है।''

''सो व्वाट?''

''सुधांशु का कुछ आवश्यक सामान है उसमें...।'' वह क्षणभर के लिए रुकी।

''चाय लोगी?'' मीणा ने प्रीति की बात काटकर घण्टी बजायी।

चपरासी दरवाजा खोलकर झांका।

''दो चाय.....फटाफट।''

''जी सर।''

''सॉरी, कुछ कह रही थी तुम।''

प्रीति ने मीणा के 'तुम' पर जोर दिए जाने पर गौर किया।

''सर, सुधांशु का मानना है कि बहुत लंबे समय तक वहां नहीं रहा जा सकता...लाजपत नगर में किसी ने ...सुधांशु के कार्यालय में किसी ने दो कमरों का फ्लैट बताया है, आज वह देखने जाएगा।''

''ओ.के.।'' मीणा गंभीर हुआ। उसने घण्टी बजायी। कोई चपरासी नहीं आया। दस सेकेण्ड बाद उसने फिर घण्टी बजायी, तब भी कोई चपरासी प्रकट नहीं हुआ। मीणा अंदर से उबलने लगा। उसने घण्टी पर उंगली रखी और उसे दबाए रहा। घण्टी की घनघनाहट दूर कैण्टीन में चाय लेने गए उसके चपरासी ने सुनी और चाय बनाने वाले लड़के से बोला, ''साले तूने मरवा दिया।'' और बिना चाय लिए दौड़ गया।

''सर।'' चपरासी हांफ रहा था।

''किधर गायब था?'' उफनते हुए मीणा बोला।

''सर चाय...।'' अपराधी-सा कार्पेट पर नजरें झुकाए चपरासी बोला।

''एडमिन पांच के एस.ओ. को बुलाकर लाओ।''

''चपरासी बाहर जाने के लिए दरवाजा खोल ही रहा था कि मीणा भारी आवाज में बोला, ''चाय का आर्डर देकर इधर नहीं होना चाहिए था?''

''सॉरी सर।'' चपरासी के चेहरे पर घबड़ाहट थी।

''ठीक से नौकरी करो मिस्टर वर्ना अण्डमान निकोबार भेज दूंगा।''

''सर...गलती हो गयी।''

प्रीति मीणा की ओर देखती रही और मन ही मन सोचती रही कि अधीनस्थों के साथ नम्रता उन्हें निकम्मा बना देती है।

''हां, मैं एक लेटर भेज देता हूं एस्टेट ऑफिस को...वहां के डायरेक्टर को फोन भी कर दूंगा। संभव है कि एक सप्ताह के अंदर प्रगतिविहार हॉस्टल मेें जगह मिल जाए। किसी के मकान में किराये पर रहने से दो कमरों के सरकारी हॉस्टल में रहना अधिक सुविधाजनक होगा। किसी का हस्तक्षेप तो नहीं होगा वहां।''

''वह तो है सर, लेकिन हम दोनों का हाउस रेण्ट कटेगा और मिलेंगे दो छोटे कमरे। उतने रेंट में प्राइवेट में अधिक एकमोडेशन मिल जायेगा...कम से कम तीन-चार कमरों का फ्लैट।''

''तुम सही कह रही हो, लेकिन मैं आजादी पसंद व्यक्ति हूं। आजादी किसी भी कीमत पर। प्राइवेट में मकान मालिक के नखरे...सोच लो तुम दोनाें।''

पन्द्रह मिनट में मीणा तीन बार प्रीति को 'तुम' संबोधन कर चुका था और पहली बार इस शब्द पर जितना जोर उसने दिया था वह क्रमश: कम होता गया था। पहली बार सुनकर प्रीति ने जो अचकचाहट अनुभव की थी वह दूसरी...तीसरी बार में कम होती गयी थी या कहें कि अनुभव ही नहीं किया था।

प्रीति कुछ कहने ही जा रही थी कि कैण्टीन के बेयरे ने दरवाजा नॉक किया।

''यस।'' मीणा ऊंची आवाज में बोला।

बेयरे ने बांये हाथ से दरवाजा खोला। दाहिने हाथ में उसने ट्रे थाम रखी थी। ''सर, चाय।''

मीणा कुछ नहीं बोला। बेयरे ने दोनों के सामने चाय रखी और दबे पांव पलट गया। उसने दरवाजा खोला ही था कि एडमिन पांच का सेक्शन आफसर अमन अरोड़ा 'मे आई कम इन सर' कहता हुआ मीणा के कुछ कहने से पहले ही चेम्बर में प्रविष्ट हुआ।

अरोड़ा ने झुककर मीणा को गुडमार्निंग किया, जिसका उत्तर मीणा ने नहीं दिया, फिर उसने सीधे खड़े हो प्रीति को 'गुडमार्निंग मैम' कहा। प्रीति ने भी उत्तर नहीं दिया।

अरोड़ा कार्यालय के उन चंद लोगों में से था जो मीणा के चाटुकार थे। वे मीणा के आदेशों का त्वरितता से पालन करते थे। उसके घर-बाहर के सभी कार्य अरोड़ा और उसके मातहत बाबू करते थे, जिसके प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ भी वे लेते थे। एडमिन पांच में अरोड़ा के अतिरिक्त पांच बाबू थे, जो कार्यालय की फाइलों पर कम अधिकारियों के निजी कार्यों में अधिक तैनात रहते थे। उन्होंने कार्यालय के अधिकारियों को श्रेणीबध्द कर रखा था। उसी क्रम से वे उन अधिकारियों को महत्व देते थे। उनकी दृष्टि में प्रीति बहुत जूनियर अधिकारी थी, इसलिए जो विनम्रता वे मीणा के समक्ष प्रकट करते वह प्रीति के समक्ष नहीं। प्रीति भी जानती थी और वह यह भी जानती थी कि कुछ वर्षों बाद जब वह मीणा के पद पर पदोन्नत हो चुकी होगी और कभी उस सीट पर बैठी होगी तब ये लोग उसके समक्ष भी झुककर सलाम किया करेंगे।

''सर, आपने याद किया...।''

''अरोड़ा, मैडम प्रीति के लिए एकमोडेशन का फार्म भरवाकर एस्टेट ऑफिस भेजवाया?''

''सर, सर....।'' अरोड़ा ने इस प्रश्न की कल्पना नहीं की थी।

''व्वाट सर?'' मीणा भड़क उठा।

''सर, मैंने सोचा था कि सुधांशु सर ने अपने दफ्तर से कर दिया होगा।''

''इसका क्या मतलब? प्रीति सुधांशु के साथ न रहना चाहे तब....?'' मीणा ने मुस्कराकर प्रीति की ओर देखा, ''क्यों प्रीति?''

प्रीति के चेहरे पर फीकी मुस्कान तैर गयी।

मीणा पुन: अरोड़ा की ओर उन्मुख हुआ, ''ओ.के. अरोड़ा ...अभी फटाफट मैडम से फार्म भरवाओ...मेरी ओर से एस्टेट ऑफिस के निदेशक मनोज रंजन के नाम डी.ओ. लिख लाओ...और दोनों ही चीजें एक साथ मनोज रंजन को भेजवा दो।''

''जी सर।''

अरोड़ा के जाने के बाद मीणा बोला, ''जीवन कैसा चल रहा है प्रीति?''

''सर, जीवन...?'' प्रीति समझ नहीं पायी।

''एक बात के लिए टोक सकता हूं?''

''सर...।''

''प्रीति, मुझे अब 'सर' मत संबाेिधत करना... मुझे डी.पी. कह सकती हो...मुझे यही पसंद है।''

''सर...आफिस डिकॉरम...।''

''प्रीति, यह सब दूसरों के लिए है...।''

''सर, मैं आपसे बहुत जूनियर हूं....और ऑफिस....।''

''बहुत सीनियर भी नहीं हूं....और भाड़ में जाए ऑफिस....मुझे क्या पसंद है...क्या नहीं, यह ऑफिस तय करेगा?''

''मै कोशिश करूंगी।''

''जिन्हे मैं अपने निकट मानता हूं...उनसे यही संबोधन सुनना मुझे पसंद है।''

''जी...।'' प्रीति ने मुंह से स्लिप होने को उद्यत 'सर' को बलात रोक लिया। डी.पी. उसके मुंह से निकल नहीं पा रहा था और बातचीत जारी रहने पर मीणा को संबोधित करना ही होगा सोच वह बोली, ''बहुत फाइलें पेंडिगं हैं...मैं चलना चाहूंगी।'' वह उठ खड़ी हुई। मीणा ने दृष्टि उसके चेहरे पर गड़ा दी और अपने चेहरे पर गंभीरता ओढ़े हुए बोला, ''चाय पीने के लिए धन्यवाद...।''

प्रीति जाने के लिए खड़ी तो हो गयी, लेकिन वह कुछ कहना चाहती थी, इसलिए चेहरे पर असमंजस लिए खड़ी रही।

''कुछ कहना चाहती हो?''

''जी।''

''बोलो।''

''मुझे लगता है कि मेरी जुबान आपके लिए 'सर' के अलावा कुछ और नहीं कह पायेगी। आप इस धृष्टता के लिए अन्यथा नहीं लेंंगे।''

''तुम्हारी मर्जी। मैंने अपनी इच्छा बता दी। मैं अपने निकटस्थ लोगों से डी.पी. सुनने का आदी हूं। तुम भी अब उस दायरे में शामिल हो, लेकिन दबाव नहीं डालूंगा। हां चाहूंगा अवश्य कि डी.पी. कहो, बाकी तुम पर...जब जो जी चाहे कह सकती हो।''

''थैंक्यू सर।''

प्रीति ने झटके से दरवाजा खोला और चली गई। वह देर तक कोई काम नहीं कर सकी और सोचती रही मीणा के विषय में। उसे अपने बैच-मेट्स के साथ में मीणा से हुई पहली मुलाकात याद आ रही थी। उसके बाद दो बार मीणा ने उसे ही अकेले बुलाया था और देर तक बातें करते रहना भी याद आया। उसके और सुधांशु के ट्रांसफर के लिए मीणा ने स्वत: प्रयत्न किया, जबकि केवल एक बार ही उसने मीणा को इस विषय में कहा था।

'आखिर क्या कारण हो सकता है?' वह सोचती रही, 'कहीं मीणा मेरे प्रति...लेकिन मैं सुंधाुशु के अतिरिक्त किसी के विषय में सोच ही नहीं सकती। इतना अच्छा, नेक इंसान है वह ...मैं ही उस पर हावी रहती हूं...वह मेरी हर बात मान लेता है। वह पति से अधिक आज भी मेरा एक अच्छा मित्र है। यह मात्र संयोग है कि हम दोनों एक ही विभाग का हिस्सा हैं।' उसने सिर को झिटका, 'शायद कुछ लोगों की यह कमजोरी होती है कि वह अपने नाम के लिए विशेष उच्चारण ही सुनना पसंद करते हैं।' प्रीति कितनी ही देर तक सोचती रहती, तभी उसके फोन की घण्टी बजी। रविकुमार राय था।

''वॉव।'' प्रीति खिल उठी। ''हाउ आर यू?''

''मैं ठीक हूं। और तुम दोनों।''

''हम भी बिल्कुल ठीक हैं।''

''बहुत दुखद बात है।''

''व्वाट हैपेण्ड?''

''प्रीति, तुम दोनों पन्द्रह दिनों से अधिक समय से यहां...दिल्ली में हो...दो वीकेण्ड बीत गए....मेरे यहां आने की फुर्सत नहीं निकाल पाए।''

''सॉरी भाई साहब। हम इतना उलझे हुए हैं...।''

''कोई माफी नहीं....आज तुम दोनों मेरे यहां डिनर पर आमंत्रित हो। सुधांशु को बता दोगी या मैं बोलूं...।''

''भाई साहब, आप ही कह दें....आज उन्हें कहीं जाना है।'' उसे याद आ गया था कि सुधांशु को लाजपतनगर मकान देखने जाना है।

''उसे भी कह दूंगा।'' एक क्षण बाद रवि पुन: बोला, ''आठ बजे मेरी स्टॉफ कार तुम लोगों को लेने गेस्ट हाउस पहुंच जाएगी...ओ.के. ...फिर हम मिलते हैं।''

''जी भाई साहब।''

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(32)

''मे आई कम इन मैम?'' अमन अरोड़ा की आवाज सुनकर प्रीति का चिन्तन भंग हुआ।

''कम।''

''मैम, यह फार्म...मैनें भर दिया है...आप यहां हस्ताक्षर कर दें।'' अटेंशन की मुद्रा में खड़ा अरोड़ा बोला।

अरोड़ा के बताए स्थान पर हस्ताक्षर कर प्रीति ने फार्म उसे लौटा दिया, ''एनीथिंग मोर?''

''नथिंग मैम।''

लेकिन अरोड़ा गया नहीं। कुछ सोचता खड़ा रहा।

''कुछ कहना है?'' प्रीति के पूछते ही अरोड़ा के चेहरे पर दयनीयता पसर गयी, ''जी मैम।''

''हुंह।'' प्रीति मंद स्वर में बोली।

''मैम, मेरी वाइफ जुही अरोड़ा इसी दफ्तर में यूडीसी है और सेक्शन आफीसर की परीक्षा दे रही है। उसका सेण्टर 'के' ब्लॉक में है मैम।''

''मुझे आप यह क्यों बता रहे हैं?'' प्रीति का स्वर सख्त था।

''मैम, साहब वहां हैं....मेरा मतलब सुधांशु सर से है...मैम, आप उन्हें कह देंगी तो थोड़ा खयाल रखेंगे।''

''किस बात का खयाल?'' समझते हुए भी प्रीति ने अनजान बनते हुए पूछा।

''मैम, इनविजिलेशन में जो लोग होंगे....।''

''वह परीक्षा दे ही क्यों रही है?''

अरोड़ा निरुत्तरित फर्श की ओर देखता रहा।

''मिस्टर अरोड़ा, सुधांशु दूसरों से अलग है, पहली बात और दूसरी बात कि जब जूही में इतनी योग्यता नही तब वह परीक्षा उत्तीर्ण करके भी एक अयोग्य सेक्शन अफसर बनेगी, इससे अच्छा है कि वह यूडीसी ही रहे।''

''सॉरी मैम।''

''आप जा सकते हैं।'' प्रीति का स्वर पहले से अधिक रूखा था।

अरोड़ा 'प्राण बचे लाखों पाये' वाले भाव से जल्दी से बाहर आ गया। लेकिन वह हार मानने वाला व्यक्ति नहीं था। स्वयं भी इसी प्रकार सेक्शन अफसर बना था। उसका पिता विभाग में लेखाधिकारी था। वह भी उच्च अधिकारियों की चाटुकारिता में व्यस्त रहता था, जिसका लाभ उसे मिला था। उसके दो बेटे थे और दोनों को ही उसने विभाग में नौकरी दिला ली थी। अमन अरोड़ा ने बी.ए. किया ही था कि मंत्रालय की ओर से विभाग को पचास एल.डी.सी. और एक सौ पचास यू.डी.सी. भर्ती करने की अनुमति मिली थी। उसके लिए प्रवेश परीक्षा और साक्षात्कार का अधिकार विभाग ने 'के' ब्लॉक के निदेशक को दिया था। उन दिनों 'के' ब्लॉक में निदेशक स्तर का अधिकारी इंचार्ज होता था। अमन के पिता ने कभी उसके साथ काम किया था। अमन की भांति वह भी सेवा अनुभाग का अधिकारी था और सभी अधिकारी उसकी सेवा से प्रसन्न रहते थे। प्राय: वह अफसरों के घर सब्जी-फल अपनी जेब से खरीदकर पहुंचा देता, लेकिन अपनी हल्की हुई जेब की भरपाई दोगुने-चौगुने और कभी-कभी बीस-पचीस गुना रूप में कार्यालय से ही कर लेता था। सेवा अनुभाग कार्यालय के लिए सामान खरीदने तथा रद्दी हुई वस्तुएं बेचने का दायित्व निर्वाह भी वह करता था। लाखों रुपयों की खरीद और हजारों की बेच में अरोड़ा के पिता का दस से बीस प्रतिशत कमीशन निर्धारित होता था।

अमन को यूडीसी और छोटे बेटे, जो उन दिनों थर्ड इयर में पढ़ रहा था, को एल.डी.सी. के रूप नियुक्त करवाने में सफल रहा था उसका पिता। अफसरों की सेवा विरासत में पाकर दोनों भाइयों ने कम समय में ही सेक्शन अफसर की परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली थीं। यही नहीं यह उनकी सेवा का ही परिणाम था कि नियुक्ति से लेकर तब तक वे दिल्ली में ही पदासीन थे, जबकि उस विभाग के नियमों में कोई कर्मचारी अधिक से अधिक दस वर्ष दिल्ली में रह सकता था और उच्चाधिकारी पांच वर्ष।

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अमन ने एक छोटा-सा डी.ओ. (डेमी ऑफिशियल पत्र) डी.पी. मीणा की ओर से एस्टेट ऑफिस, निर्माण भवन के निदेशक मनोज रंजन के नाम तैयार किया, प्रीति का आवेदन पत्र उसके साथ नत्थी किया और एक फाइल में लेकर मीणा के पास गया।

मीणा खाली था और सिगरेट के कश लेकर धुंआ के छल्ले छत की ओर उड़ा रहा था और कुछ सोच रहा था। अरोड़ा ने हल्के से दरवाजा नॉक किया।

''कम इन।'' मीणा बोला।

अमन अंदर दाखिल हुआ और सलाम कर फाइल मीणा के आगे बढ़ा दी। सिगरेट का घुंआ अरोड़ा की ओर उछालते हुए मीणा ने डीओ पर दृष्टि डाली, पेन लेकर वाक्यों में परिवर्तन किया और प्रीति के आवेदन फार्म पर नजर डालते हुए बोला, ''प्रीति ने इसे चेक कर लिया है?''

''जी सर।'' अरोड़ा झूठ बोल गया, क्योंकि उसने प्रीति से फार्म चेक नहीं करवाया था, केवल हस्ताक्षर लिए थे।

फार्म पर सरसरी नजर डालते हुए मीणा बोला, ''क्या चेक किया है प्रीति ने...यह देखो, यहां उनकी बेसिक पे नहीं लिखी गयी और यह....कौन-से एकमोडेशन की अधिकारिणी हैं यह भी तो भरना होगा।'' मीणा ने अरोड़ा पर दृष्टि गड़ा दी, ''इसे किसने भरा था?''

''सर, मंगतराम ने।''

''मंगतराम ....वह एल.डी.सी...यार अरोड़ा कितनी बार कहा कि इन लोगों से ये काम मत करवाया करो....स्वयं क्यों नहीं भरा...ये गलतियां मिसेज दास का फार्म रिजेक्ट करवाने के लिए पर्याप्त हैं।''

''सर...।'' अफसर ने जब कोई त्रुटि पकड़ी हो तब उससे अधिक बोलना अफसर को नाराज करना होता है। अरोड़ा मीणा द्वारा अपने लिए 'यार' संबोधन से उत्पन्न गुदगुदी और खुशी का आनंद ले रहा था, 'साहब का मूड ठीक है...वर्ना फाइल फेंक देते फर्श पर...। यही अवसर है अपनी बात कहने का...। खुदा करे कोई और इस समय प्रकट न हो और मैं अपनी बात कह सकूं।' अरोड़ा सोचता रहा।

फाइल वापस अरोड़ा को देते हुए मीणा बोला, ''इसे फटाफट टाइप करवाकर किसी से बाई हैण्ड भेजवा दो...लेकिन मंगतराम जैसों को मत भेजना, जो मनोज रंजन को देने के बजाए रिशेप्शन में देकर लौट आएगा।''

''जी सर।''

''कोई और उपयुक्त व्यक्ति न हो तो स्वयं चले जाना।''

''जी सर।''

मीणा ने सिर हिलाया, जिसका अर्थ था कि वह वापस जाए। लेकिन अरोड़ा तब भी खड़ा रहा।

''कुछ खास बात?'' अरोड़ा को खड़ा देखकर उसके चेहरे के भाव पढ़ मीणा ने पूछा।

''सर, जूही की परसों सेक्शन आफीसर की परीक्षा है।''

''जूही कौन?''

''मेरी वाइफ सर...ऊपर ऑडिट सेक्शन चार में है।''

''ओह...यस...।'' मीणा की आंखों में चमक उभरी, जिसे अरोड़ा नहीं पकड़ पाया।'' तुम मुझे यह किसलिए बता रहे हो?'' मीणा जानता था कि अरोड़ा ने वह प्रसंग क्यों छेड़ा था, लेकिन वह उसीसे सुनना चाहता था।

''सर, आपकी मेहरबानी ....सर...।''

''कहां है सेण्टर?''

''सर, 'के' ब्लॉक में।''

''ओ.के. जूही से बोलो कि पी.ए. के माध्यम से वह मुझसे मिल ले।''

''थैंक्यू सर।'' अरोड़ा का चेहरा खिल उठा और वह तेजी से चेम्बर से निकल मीणा के पी.ए. के पास गया डी.ओ. टाइप करवाने।

पी.ए. ने टाइप राइटर पर डी.ओ. फार्म चढ़ाया ही था कि डी.पी. का बज़र सुनाई दिया।

''नमस्ते सर।''

''आना।''

''यस सर।''

टाइप राइटर यथावत छोड़कर पी.ए. शार्टहैण्ड नोटबुक और पेंसिल ले मीणा के चेम्बर में दाखिल हुआ।

''अमन अरोड़ा की पत्नी जुही आएगी तो उसे सीधे भेजने से पहले मुझसे पूछ लेना।''

''जी सर।'' पी.ए. फिर भी खड़ा रहा।

''जाओ ...यही कहना था।''

'यह बजर पर भी कह सकते थे।' पी.ए. ने राहत की सांस ली, क्योकि वह सोच रहा था कि मीणा ने उसे डिक्टेशन देने के लिए बुलाया था। डिक्टेशन उसे घटिया काम लगता था। घटिया इसलिए कि मीणा किसी भी केस में अस्पष्ट रहता था। वह उतना ही अस्पष्ट डिक्टेशन देता था और कम से कम पांच बार उसे ठीक करता और टाइप करवाता था।

''धन्यवाद सर।'' पी.ए. लौटकर डीओ टाइप करने लगा। अरोड़ा उसके पास ही खड़ा रहा, लेकिन दो मिनट बाद यह सोचकर कि जब तक पीए टाइप कर रहा था वह जाकर जूही को सूचित कर दे कि जितनी जल्दी संभव हो वह मीणा सर से मिल ले।

''आप टाइप करो ...मैं पांच मिनट में आया।''

''यह क्या लिखा है?'' पीए ने टाइप करने से पहले डा्रॅफ्ट पढ़ लिया था और मीणा की काट-छांट में दो स्थानों में उसे पढ़ने में असुविधा हुई थी।

अरोड़ा ने उसकी आशंका दूर की जिसे उसने एक ओर पेंसिल से लिख लिया।

''आप पांच मिनट बाद आ आइए।'' पीए के कहते ही अरोड़ा पत्नी से मिलने चला गया। सुनकर जूही का चेहरा खिल उठा, ''अब कोई रोक नहीं सकता मुझे सेक्शन अफसर बनने से।'' फुसफुसाते स्वर में वह बोली।

''कुछ देर में जाकर साहब से मिल लेना।''

''अभी चली जाऊं?''

''अभी मुझे एक डीओ साइन करवाना है।'' और अरोड़ा सीढ़ियो की ओर बढ़ गया।

मीणा से डीओ पर हसक्षर करवाकर जब अरोड़ा अपनी सीट पर लौटा, जूही को अपनी सीट के पास उपस्थित पाया।

''जाकर पी.ए. से मिल लो...।'' अरोड़ा ने फुसफुसाते स्वर में जूही से कहा।

मीणा के पीए ने जूही को देखते ही मुस्कराकर पूछा, ''साहब से मिलना है मैडम अरोड़ा?''

''जी।''

पी.ए. ने बज़र देकर पूछा, ''सर, मैडम जूही अरोड़ा मिलना चाहती हैं।''

''भेज दो।''

''जाइये मैडम...साहब खाली हैं।''

मीणा के चेम्बर का दरवाजा खोल जब जूही ने अंदर दाखिल होने की इजाजत मांगी, मीणा ने प्रसन्न स्वर में कहा, ''यस, कम इन।''

''जूही के अंदर दाखिल होते ही मीणा ने अपनी मेज पर लगे स्विच से चेम्बर के बाहर की हरी बत्ती के स्थान पर लाल बत्ती जला दी, जिसका अर्थ था कि किसी को भी अंदर दाखिल होने की इजाजत नहीं थी।

''बोलें।'' मीणा ने मुस्कराते हुए कुर्सी की ओर इशारा कर जूही को बैठने के लिए कहा।

जूही के लिए यह एक बड़े सम्मान की बात थी।

''बैठ जाइए मिसेज अरोड़ा।'' मीणा रोबीले स्वर में बोला।

जूही अपने को समेट कुर्सी पर बैठ गयी।

''किसलिए मिलना चाहती थीं आप?'' एक दृष्टि जूही पर डाल मीणा एक फाइल पर कुछ लिखता रहा।

''सर, परसों मेरा पेपर है।''

''हुंह...कहां है?''

''सर, 'के' ब्लॉक में।''

''क्या चाहती हो?''

ज्ूही की जुबान तलवे से चिपक गयी।

''ओ.के.।'' लापरवाही प्रकट करता हुआ मीणा बोला और फाइल फर्श पर फेंककर जूही के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं, ''चिन्ता की बात नहीं। मैं बोल दूंगा वहां के ज्वाइण्ट डायरेक्टर को.....।''

''धन्यवाद सर।'' जूही उठने को हुई कि मीणा ने उसे बैठने का इशारा किया।

जूही के लिए यह एक और सम्मान की बात थी। वह गदगद थी।

मीणा जूही के चेहरे पर नजरें गड़ाए रहा। गोरी, हल्का लंबाई लिए गोल चेहरा, गुलाबी होठ, सुंदर नाक, हिरणी जैसी आंखें, माथे पर चन्द्राकार झूलती लट, भौंरे जैसे काले बाल और सुडौल देहयष्टि। जूही इतनी सुन्दर है, यह उसने कभी ध्यान नहीं दिया था।

''आपके बच्चे...?''

''सर, एक बेटा है...चार वर्ष का...।''

''कौन देखभाल करता है?''

''सासू मां सर।''

''ओ.के....एक तकलीफ कर सकती हो?'

''सर...।''

''मेरी बेगम साहबा दो दिनों के लिए जयपुर गयी हैं...उनकी मां बीमार हैं। परसों आएंगी। आप मेरे लिए आज और कल रात का डिनर तैयार कर देंगी।''

''सर, क्यों नहीं। इसमें मुझे खुशी मिलेगी।'' जूही का चेहरा खिल उठा। उतना बड़ा अफसर उसे सेवा का अवसर दे रहा था।

''सर, आप समय बता दें...अरोड़ा साहब आपके यहां डिनर पहुंचा देंगे।''

''ना...ना...आपको यह तकलीफ मेरे यहां ही करनी होगी। अपने हजबैण्ड को बोलना कि वह आफिस के बाद आपको मेरे यहां छोड़ देंगे...चाबी मुझसे ले लेंगे घर की...यू नो मुझे अपने किचन का बना खाना ही पसंद आता है। मैं आपको आपके घर ड्रॉप करवा दूंगा।''

''जी....स.....र...।'' जुही का स्वर बुझा हुआ था।

मीणा ने एक भरपूर दृष्टि जुही पर डाली जो मेज पर नजरें गड़ाए रात के बारे में सोच रही थी और सोच रही थी एक सेक्शन अफसर के रुतबे...भविष्य में होने वाली पदोन्नतियों के बारे में...।

''सर, मैं जाऊं?'' काफी देर बाद जूही बोली।

''हां...तो रात का डिनर आपके हाथों का बना मिलेगा...?''

''सर...।''

''गुड लक।'' मीणा धीमे स्वर में बोला।

लेकिन जुही सोच में इतना डूबी हुई थी कि मीणा को कुछ कहे बिना उसके चेम्बर से बाहर निकल आयी।

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मीणा ने रात दस बजे अमन अरोड़ा को फोन कर कहा कि जुही रात उसके यहां ही रहेगी और सुबह पांच बजे वह उसे उसके घर छोड़ जाएगा। अरोड़ा ने मीणा की बात केवल सुनी, प्रतिक्रिया देने का साहस उसमें नहीं था। रातभर वह जागता रहा और सोचता रहा कि जुही को सेक्शन अफसर बनवाने के लिए उसे इतनी बड़ी कीमत चुकानी पडेग़ी यह उसने कभी नहीं सोचा था और अब जब फंदा उस पर कसा जा चुका है तब वह उसे काटने का साहस नहीं कर सकता। उसकी आत्मा ने उसे बार-बार धिक्कारा...नपुसंक, कापुरुष, और भी न जाने क्या-क्या कहा, लेकिन घूम फिरकर मन आश्वस्त करता रहा, 'भूल जाओ अमन...जीवन में कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता हेै। और मान लो जुही मेरे अनजाने किसी के साथ संबन्ध बना लेती....। व्यक्ति को उदार होना चाहिए....यदि जुही को आपत्ति होती तब वह मुझसे कहती...माना कि इंकार का परिणाम भयावह होता, हमारे स्थानंतरण...डिमोशन, यहां तक कि डिस्चार्ज...कुछ भी हो सकता था। कार्यालय की खरीद में लाखों के घपलों की जानकारी मीणा को है....उसका बड़ा भाग उसीकी जेब में जाता है और जाता मेरे ही माध्यम से है। वह किसी से भी मेरे विरुद्व रिश्वत मांगने की अर्जी दिलवा सकता है और तब....उस नर्क से दो दिन का यह नर्क बुरा नहीं, जो बेहतर भविष्य की गारण्टी होगा।'

अरोड़ा को नींद आयी ही थी, कि आंखों में नींद की खुमारी भरे जुही ने घण्टी बजा दी थी। मीणा स्वयं ड्राइव करके उसे उसके घर के पास छोड़ गया था और छोड़ते समय उस रात पुन: आने की हिदायत भी दे गया था।

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(33)

''यह ड्रॉफ्ट है?'' प्रीति के स्वर में खीज थी, ''अंग्रेजी नहीं आती तो परचून की दुकान कर लो...किसने बनाया आपको एकाउण्ट्स अफसर?''

''सॉरी मैम।'' अपराधी-सा एकाउण्ट्स अफसर झुककर फाइल में अपनी त्रुटि देखने का प्रयत्न कर रहा था। टांगे उसकी कांप रही थीं और वह यह नहीं समझ पा रहा था कि उस युवती के समक्ष बावन वर्षीय उसकी टांगों में कंपन किसी बीमारी के कारण हो रहा था, वृध्दावस्था की ओर उन्मुख उसकी काया के कारण या सामने बैठी उस युवा अधिकारी के कारण। वह यह भी समझ नहीं पा रहा था कि जिस ड्रॉफ्ट को उसने और उस मामले से संबध्द यूडीसी, जिसे उस विभाग में ऑडीटर कहा जाता था, ने बहुत परिश्रम के साथ तैयार किया था वह खराब कैसे था।

''आपने संबध्द चीजें पढ़ीं.....गहराई तक गए? आपने जिन नियमों का उल्लेख किया है उनके कुछ महत्वपूर्ण क्लॉज इसमें नदारत हैं। आपके उत्तर को प्र.र. विभाग ढाल बना लेगा...हम वैसे भी उनकी मनमानी नहीं रोक पा रहे। वे आइटम्स पहले खरीद लेते हैं और प्रपोजल बाद में भेजते हैं....केवल इसलिए कि हम यह मानकर उन्हें स्वीकार कर लेंगे क्योंकि मामला राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। क्या यह जानना आवश्यक नहीं कि इस आइटम की पिछली खरीद प्रति आइटम किस दर से की गई थी और प्र.र. विभाग ने क्या दर प्रस्तुत की है।'' प्रीति के स्वर में खीज अब कम थी।

''जी मैम।''

''आप जानते हैं कि कितना भ्रष्टाचार है वहां। चार-पांच गुना कीमतों में चीजें खरीदी जाती हैं और जमकर कमीशन खाया जाता है।''

एकाउण्ट्स अफसर चुप रहा। उसने अब तक की नौकरी में सीखा था कि जब एक अधिकारी दूसरे के खिलाफ बोल रहा हो तब उसे चुप रहना चाहिए। वह यह भी जानता था कि अफसर जब किसी विभाग के खिलाफ बोल रहा हो तब भी अपनी प्रतिक्रिया नहीं देना चाहिए, क्योंकि उस समय अफसर अपने को सर्वज्ञ समझ रहा होता है और अपनी बात उसे सही लग रही होती है, लेकिन अधीनस्थ की बात उसे कभी स्वीकार नहीं होती भले ही अधीनस्थ कितना ही सही बोल रहा हो। वह यह भी सोच रहा था कि मिसेज दास क्या यह नहीं जानतीं कि प्र.र.विभाग के साथ उनका विभाग भी कमीशन खाने में कम नहीं है। लेकिन वह चुप प्रीति की बात सुनता रहा। बिना प्रतिक्रिया दिए अफसर की बात सुनने से अफसर का अहम तुष्ट होता है।

''आप इस नोट को ले जायें।'' दोबारा लिखें।

''जी मैम।''

एकाउण्ट्स अफसर फाइल उठा ही रहा था कि फोन की घण्टी बजी। प्रीति ने फोन उठाया।

''हां, बोलो।''

फोन सुधांशु का था और प्रीति के इस प्रकार बोलने से वह क्षणभर के लिए सोच में पड़ गया कि बात करे या नहीं।

''तुम चुप क्यों हो?''

''तुम व्यस्त हो?''

''नहीं....कुछ खास नही...।''

प्रीति ने फाइल मेज पर ठीक अपने सामने रखी हुई थी और सुधांशु से बात करती हुई उसने अपना बांया हाथ उस पर रख लिया था। एकाउण्ट्स अफसर के बढ़े हुए हाथ ठहर गये थे और फाइल उठाने के लिए मेज पर झुकने के बाद वह पुन: सीधा खड़ा हो गया था।

''तुमने किसलिए फोन किया?''

''मैं आज कुछ देर से आऊंगा।''

''क्यों?''

''पटना का एक साहित्यकार-पत्रकार मित्र दिल्ली में है...उसने कहीं से मेरा फोन नंबर हासिल कर लिया है ....कुछ देर पहले उसका फोन आया था...कुछ साहित्यिक लोग उसके यहां एकत्र हो रहे हैं....।''

''यार, तुम कहां फंस रहे हो इन साहित्य के कबाड़ियों के चक्कर में।''

''बात क्या है प्रीति....तुम्हें विभाग भी कबाड़खाना लग रहा है और साहित्यकार भी...किसी से उलझ गयी हो?''

''ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन अब मुझे अपने पर और तुम पर तरस आ रहा है...।'' इतना कहने के साथ ही प्रीति ने अनुभव किया कि सामने खड़ा एकाउण्ट्स अफसर उन दोनों की बातें सुन रहा है।

''एक मिनट सुधांशु।'' उसने रिसीवर एक ओर किया और एकाउण्ट्स अफसर की ओर देखकर बोली, ''आप खड़े क्यों हैं? फाइल ले क्यों नहीं लेते।'' उसने फाइल पर से अपना हाथ हटाया और मेज पर एकाउण्ट्स अफसर की ओर फाइल खिसकाकर बोली, ''इसे जल्दी से तैयार करके ले आओ।''

''जी मैम।'' फाइल उठाता हुआ एकाउण्ट्स अफसर बोला और दरवाजा खोलकर तेजी से बाहर निकल गया।

''हां, तो तुम देर से आओगे...मैं डिनर कर लूंगी। मेस वाले को बोल दूं कि वह तुम्हारे लिए डिनर रख लेगा।''

''जरूरत नहीं होगी...मैं शायद खाकर आऊंगा।''

''ओ.के. डियर, लेकिन पीकर मत आना।''

''आज तक पी?'' सुघांशु, जिसके स्वर में सदैव शालीनता रहती थी, कुछ उत्तेजित स्वर में बोला।

''यार, उखड़ गये...मैं जानती हूं कि तुम मेरे होंठो का पान करके ही संतुष्ट हो लेते हो....तुम कभी कुछ और नहीं पिओगे।'' वह क्षणभर के लिए रुकी, फिर पूछा, ''लेकिन पटना के यह साहित्यकार महोदय हैं कौन?''

''कोमलकांत विराट नाम है उसका। वह पेशे से पत्रकार है और उसने यहां जनसत्ता ज्वायन किया है, लेकिन वह कहानियां और कविताएं भी लिखता है।''

''ओ.के. डियर।''

सुंधाशु से बात समाप्त कर प्रीति कुर्सी पर पसर गयी और आंखें बंद कर लीं....कुछ क्षण विश्राम करने के उद्देश्य से।

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प्रीति से बात करके सुधांशु ने जैसे ही फोन रखा, ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन का एकाउण्ट्स अफसर यानी लेखाधिकारी दरवाजा नॉक करके अंदर प्रविष्ट हुआ। यह वही सेक्शन था, जहां कांट्रैक्टर्स के बिल चेक किए जाते और पास होने के बाद उनके चेक बनते थे। सुधांशु के उस प्रधान निदेशक कार्यालय को ज्वायन करने के पश्चात उस सेक्शन में अटके हुए अपने बिलों के चेक पाने के लिए कुछ कांट्रैक्टर्स ने सुधांशु को फोन करने प्रारंभ किये थे। प्रारंभ में उनके दबाव में आकर सुधांशु ने उनके ऑडिट में कम ध्यान देते हुए उनके बिल पास कर चेक बनवा दिए थे, लेकिन जैसे ही एकत्रित बिल खत्म हुए उसने एक-एक बिल पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना प्रारंभ किया और जिनमें किचिंत भी अनियमितता पाता उन्हें वापस लौटा देता और पुन: प्रस्तुत करने का आदेश देता। इससे न केवल ठेकेदार परेशान थे, बल्कि उस सेक्शन का लेखाधिकारी, अनुभाग अधिकारी और बाबू...यहां तक कि चपरासी तक परेशान थे, लेकिन अफसर के निर्णय का विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। प्र.र. विभाग के पश्चिमी भाग के अधिकारियों और जवानों के लिए खाद्य सामग्री सप्लाई करने वाले ठेकेदार का बिल वापस भेज दिया गया था जिसमें नौ करोड़ बीस लाख चार हजार पैंतीस रुपये और पैंसठ पैसों की अनियमितता पायी थी सुधांशु ने। वास्तव में उस राशि का सामान सप्लाई ही नहीं किया गया था, लेकिन बिल में वह प्रदर्शित था। अरबों के सौदागर के लिए यह चुनौती थी। ऐसा पहली बार हुआ था, जबकि वह साल में कम से कम दो ऐसे बिल बनाकर उनका भुगतान लंबी अवधि से प्राप्त करता आ रहा था। उसे एक ऐसे अफसर ने चुनौती दी थी, जिसकी नौकरी बमुश्किल तीन वर्ष पुरानी थी। उसने प्रघान निदेशक से मिलकर सुधांशु की शिकायत की थी।

''सुधांशु नया है...युवा है...आदर्शवादी है...विभाग के चरित्र को समझने में उसे कुछ वक्त लगेगा।'' प्रधान निदेशक ने कांट्रैक्टर को समझाते हुए कहा था, ''सुधांशु द्वारा निकाली गयी कमिओं को आप दुरस्त करके बिल पुन: प्रस्तुत कर दें...चेक बन जायेंगे।''

''सर...इस प्रकार हमारे लिए इस बिजनेस में बने रहना कठिन हो जाएगा...यह सब घाटे का मामला होगा।''

''ऐसा नहीं होगा...सुधांशु स्वयं स्थितियों को समझ लेगा। कहा न कि नया है...चीजें बदलने में वक्त लगता है।''

''इनसे पहले भी तो अफसर थे...वे भी नये ही थे...लेकिन....।''

कांट्रैक्टर की बात बीच में काटी चमनलाल पाल ने, ''सभी की कार्यशैली अलग होती है। आप इस बिल को पुन: प्रस्तुत करें...आगे के लिए मैं स्वयं सुधांशु से बात करूंगा।''

काण्ट्रैक्टर को मन मारकर बिल पुन: प्रस्तुत करने पड़े थे। कांण्ट्रैक्टर्स के बिल सुधांशु सहजता से क्लियर नहीं कर रहा यह बात उनसे पहले लेखाधिकारी ने प्रधान निदेशक को बतायी थी लेकिन उस समय इस ओर अधिक ध्यान नहीं दिया था चमनलाल पाल ने। उसने हंसकर बात टाल दी थी। बात आयी गयी हो गई थी और सुधांशु अपने ढंग से कार्य करता रहा था। उसे यह पता नहीं था कि उसकी कार्यशैली से न केवल ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन के लोग परेशान थे, बल्कि प्रधान निदेशक भी परेशान थे।

और उस दिन जब लेखाधिकारी प्रधान निदेशक के पास कमीशन की राशि पहुंचाने गया तब पाल ने पूछ लिया, ''सुधांशु का खयाल रखा?''

''सर, हमारा साहस नहीं उन तक जाने का।''

''पहले उन्हें देकर आओ।''

''सर....।'' चमनलाल पाल की आज्ञा का पालन करने के लिए लेखाधिकारी उल्टे पैर वापस लौट लिया था।

जिस समय वह सुधांशु के कमरे में दाखिल हुआ सुधांशु जाने की तैयारी कर रहा था। मेज पर एक फाइल शेष थी, जिसके नोट को वह पढ़ चुका था और उस पर अपनी टिप्पणी दर्ज कर रहा था। वह फाइल टेण्डर कमिटी मीटिंग से संबंन्धित थी। बीस करोड़ के एयर कण्डीशनर सप्लाई करने के टेण्डर से संबन्धित फाइल थी, जिसमें प्रधान निदेशक कार्यालय के एक अफसर को शामिल होना था। मीटिंग प्र.र. मुख्यालय में होनी थी। सेक्शन अफसर ने लेखाधिकारी के नाम की संस्तुति की थी, जिसे काटकर सुधांशु ने एक अन्य सहायक निदेशक का नाम लिखा था। वह नोट पर हस्ताक्षर कर ही रहा था कि लेखाधिकारी प्रकट हुआ था।

''कहें भट्ट जी।'' हस्ताक्षर करता हुआ सुधांशु बोला।

''सर, एक काम है।''

''निजी?''

''नहीं सर...दफ्तर का।''

''उसके लिए इस प्रकार क्यों खड़े हैं? बैठिये। क्या काम है?''

भट्ट, जिसका पूरा नाम अरुण कुमार भट्ट था, सुधांशु के सामने कुर्सी पर बैठ गया।

''बताएं।'' अपने ब्रीफकेस में विक्टर ह्यूगो का उपन्यास 'ले-मिजेराबल', जिसे वह लंच के समय पढ़ता था, रखते हुए सुधांशु ने पूछा।

''सर, यह आपके लिए है।'' एक लिफाफा सुधांशु की ओर बढ़ाते हुए भट्ट बोला।

''इसमें क्या है?''

''सर, आपका शेयर।'' कुछ देर पहले तक भट्ट के चेहरे पर विद्यमान संकोच गायब हो चुका था।

''शेयर? कैसा शेयर?''

''सर, काण्ट्रैक्टर्स की ओर से .... उनके बिलों के चेक....।'' प्रधान निदेशक भट्ट के साथ था इसलिए वह बेखौफ बोल रहा था।

''शेयर ....यानी कमीशन...? कितना कमीशन देते हैं काण्ट्रैक्टर्स?'' लिफाफे को हाथ लगाए बिना ही सुधांशु ने अत्यंत शांत स्वर में पूछा।

''सर, दो प्रतिशत।''

''ओ.के.।'' कुछ देर तक सुधांशु भट्ट ओैर मेज पर रखे लिफाफे की ओर देखता रहा, फिर बोला, ''किस-किसको जाता है?''

''सर, ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन से जुड़े सभी लोगों को...।'' इस बार उत्तर देते समय भट्ट के चेहरे पर कुछ परेशानी झलक आयी थी। परेशानी इसलिए कि जब से वह उस सेक्शन को देख रहा था, सुधांशु उस सीट पर तीसरा अफसर था। उससे पहले किसी ने भी ऐसे प्रश्न नहीं किए थे। 'कहीं सुधांशु सी.बी.आई को सूचित न कर दें।' यह प्रश्न भट्ट के दिमाग में कौंधा, वह उस विषय में सोचता तभी दूसरा प्रश्न उपजा, 'कहीं सुधांशु स.बी.आई का ही आदमी न हो।' उसने सुना था कि सी.बी.आई कुछ विभागों में अपने आदमी तैनात करवा देती है जिससे वहां की सूचनाएं उसे मिलती रहें।

''ए.एफ.पी.ओ. से कौन-कौन जुड़ा हुआ है?''

''सर, एक चपरासी, दो बाबू, सेक्शन अफसर...।''

''आप और मैं...।'' सुधांशु ने धड़ी देखते हुए कहा, '' जी सर।''

''आप घबड़ाएं नहीं भट्ट जी...मैं नया आदमी हूं इसलिए पूछ रहा हूं।''

''जी सर...घबड़ाने की कोई बात नहीं।''

''इसके अतिरिक्त...?''

''सर, बड़े साहब भी....।''

''अच्छा।''

''सर, हम न भी लेना चाहें तो भी काण्ट्रैक्टर्स देंगे ही...।''

''क्यों?'' भट्ट की बात बीच में काटकर सुघांशु ने पूछा।

''सर उन्हें जल्दी से जल्दी चेक चाहिए होता है।''

''वह तो अपने समय पर उनके पास पहुंचते ही होंगे।''

''सर, मेरी नौकरी बरकरार रहे....।'' भट्ट ने अभयदान चाहा।

''उसे कोई खतरा नहीं है। आप खुलकर कहें।''

''सर, काण्ट्रैक्टर्स के प्रतिनिधि मस्जिद के पास चाय की दुकान में आ जाते हैं। चपरासी उसे चेक दे आता है और कमीशन की राशि ले आता है। अगले दिन केवल वाउचर रजिस्टर्ड डाक से काण्ट्रैक्टर्स को भेज दिया जाता है। इसप्रकार वे कुछ दिन पहले भुगतान पा लेते है।...उन्हें बहुत लाभ होता है।''

''महीने में कितनी बार कमीशन की राशि मिलती है?''

''सर, दो बार।''

''मेरा कितना हिस्सा है इस लिफाफे में?''

''सर, बीस हजार दो सौ पचास रुपए।''

''इस लिफाफे को संभालें भट्ट जी और सभी में इस राशि को बांट दें। मुझे इससे मुक्त रखें। मुझे कोई शिकायत नहीं और न ही कहीं शिकायत जायेगी।'' क्षणभर रुका सुधांशु, ''मुझे अफसोस है....लेकिन यह मेरे सिध्दांत के विरुध्द है....।'' सीट से उठ खड़ा हुआ वह और ब्रीफकेस उठाते हुए बोला, ''मुझे जल्दी है।''

भट्ट दरवाजा खोलने के लिए लपका, लेकिन सुधांशु उसके दरवाजा खोलने से पहले ही दरवाजा खोल चुका था।

''सर, मेरी नौकरी...।'' भट्ट गिडगिड़ाया।

''निश्चिंत रहो...।''

''शुक्रिया सर।''

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(34)

कोमलकांत विराट के दिल्ली आ जाने से सुघांशु पुन: साहित्य से जुड़ गया। विराट लक्ष्मीनगर में दो कमरे का फ्लैट किराये पर लेकर रहता था। अकेला था, इसलिए प्रत्येक रविवार दोपहर बाद दिल्ली के दो-तीन कवि-कहानीकार उसके यहां आ उपस्थित होते थे। वे सब अपनी कहानी-कविताएं सुनाते-सुनते और दूसरों की प्रकाशित रचनाओं पर चर्चा करते। महीने में एक बार सुधांशु भी वहां जाता। विराट से पहली मुलाकात के दो सप्ताह के अंदर प्रीति को प्रगतिविहार हॉस्टल में एकमोडेशन मिल गया था। मीणा द्वारा मनोज रंजन को लिखे पत्र और उससे फोन पर की गई बात का ही प्रभाव था कि इतने कम समय में उन्हें हॉस्टल मिल गया था।

विराट और उसके परिचित साहित्यकारों के संपर्क में आने का प्रभाव था कि सुधांशु कार्यालय के बाद का समय पढ़ने और लिखने में देने लगा था। दो कमरो के उस फ्लैट में प्रीति के सो जाने के बाद वह दूसरे कमरे में जाकर रात एक-दो बजे तक लिखता-पढ़ता। पुस्तकें खरीदने के साथ ही वह केन्द्रीय सचिवालय पुस्तकालय और दिल्ली पब्लिक पुस्तकालय का सदस्य बन गया था और लंच के समय शास्त्रीभवन जाकर केन्द्रीय सचिवालय पुस्तकालय से पुस्तकें ले आता था। यह पुस्तकालय उसके कार्यालय से मात्र पन्द्रह मिनट पैदल और पांच मिनट बस यात्रा की दूरी पर अवस्थित था। उसके साथ के दूसरे अधिकारी जहां बस से चलने में अपनी तौहीन समझते थे, वहीं सुधांशु अपने को वैसे ही मानता जैसे वह दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था।

सुधांशु की कविताएं हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। समसामयिक विषयों पर उसके अंग्रेजी में लिखे आलेख पुन: अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित होने लगे थे, जिनका सिलसिला उसके दिल्ली आने के बाद बंद हो चुका था। उसकी पहली कहानी कादंबनी में प्रकाशित हुई जिसके साथ उसका छोटा-सा परिचय और चित्र भी प्रकाशित हुआ। कादम्बनी से उसके विभाग में अधिकारियों और स्टॉफ के लागों को जानकारी मिली कि सुघांशु दास के नाम से जनसत्ता में प्रकाशित होने वाला रचनाकार वही था। कादम्बनी की वह प्रति चमनलाल पाल के पास भी पहुंची। चमनलाल पाल उस दिन से, जिस दिन भट्ट द्वारा दिया जाने वाला कमीशन का लिफाफा सुधांशु ने लौटा दिया था, और भट्ट ने चमनलाल पाल को तुरंत उस बात से अवगत करा दिया था, सुधांशु से खफा था। वह लंबे समय से इंतजार कर रहा था कि शायद सुधांशु उस गतिविधि में शामिल हो लेगा, जिसमें ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन के लोग शामिल थे, लेकिन सुधांशु ने अपनी कार्यशैली में कोई परिवर्तन नहीं किया। वह भलीभांति कांट्रैक्टर्स के बिलों का ऑडिट करता, मामूली-सी त्रुटि पर भी उन्हें लौटा देता और पुन: प्रस्तुत करने के लिए स्वयं पत्र लिखता। उसकी छवि ईमानदार-मूर्ख और अड़ियल अधिकारी की बन चुकी थी। इस बात से कांट्रैक्टर्स, प्र.र.विभाग के अधिकारी तथा चमनलाल पाल परेशान थे। प्र.र. विभाग के अधिकारी कहीं अधिक परेशान थे, क्योंकि ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन को कांट्रैक्टर्स जहां दो प्रतिशत कमीशन देते, वहीं वह प्र.र. विभाग के अधिकारियों को पांच प्रतिशत देते थे।

चमनलाल पाल के पास प्र.र. विभाग का बड़ा अधिकारी एक दिन आकर सुधांशु की शिकायत कर गया था और चमन लाल पाल सुधांशु के विरुध्द क्या कार्यवाई करे यह सोच रहा था। उसे उस सीट से हटा देना चमनलाल पाल के अधिकार क्षेत्र में था, लेकिन वह तुरंत ऐसा करना नहीं चाहता था। वह चाहता था कि उस बिगड़े बैल को बातों से लीक पर ले आयेगा। औगी की आवश्यकता नहीं पडेगी, लेकिन यदि बातों से वह नहीं माना तब दूसरे विकल्प उसके पास सुरक्षित थे।

कादम्बनी में सुधांशु का चित्र, परिचय और कहानी भट्ट ने देखा और उसे लेकर पाल के पास गया। पाल से अधिक भट्ट सुधांशु से चिढ़ा हुआ था, लेकिन सुधांशु के विरुध्द कुछ भी करने की हैसियत उसकी नहीं थी। सुधांशु के कारण दो वर्ष में दस लाख कमा लेने के अपने स्वप्न पर पानी पड़ता उसे दिखाई दे रहा था। ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन की पोस्टिंग दो वर्ष के लिए होती थी और उन्हीं व्यक्तियों को उस सेक्शन में भेजा जाता था, जो पाल की जेब गरमाते थे। दो वर्ष की उस पोस्टिंग के लिए लेखाधिकारी एक लाख, सेक्शन अफसर पचास हजार, बाबू पचीस हजार देते थे। लेकिन सहायक निदेशक की नियुक्ति पाल बिना कुछ लिए करता था और इसके लिए वह प्राय: ऐसे युवक अधिकारी का चयन करता जो नया होता था। नये अधिकारी पर वह अपनी वरिष्ठता का दबाव बनाकर ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन की पूर्व प्रक्रिया जारी रहने देता। नया सहायक निदेशक वही करता जैसा होता आ रहा था। वहां जो भी नियुक्त होता उस पंक का हिस्सा बनकर प्रसन्नता अनुभव करता। दो वर्ष में लाखों की मोटी कमाई कोई नहीं छोड़ना चाहता, वह भी तब जब वह रकम उस तक पहुंचाई जाती थी, वह लेने नहीं जाता था। लेकिन सुधांशु ने वैसा न करके सांप के बिल में हाथ डाल दिया था।

अरुण कुमार भट्ट ने कादमबनी का वह पृष्ठ खोलकर पाल के सामने रखा।

''ओह, सुधांशु....बहुत खूब!'' पाल ने पत्रिका के पन्ने पलटे, ''यह पत्रिका अभी भी निकल रही ह?ै...... हिन्दी की दूसरी पत्रिकाएं तो शायद बंद हो चुकी हैं।''

''जी सर।''

''तो हमारे सुधांशु लेखक भी हैं।''

''जी...सर।''

''पत्रिका छोड़ जाओ।'' पाल ने घण्टी बजायी। चपरासी अंदर आया।

''मिस्टर दास।'' पाल जैसे उच्चाधिकारी किसी को बुलाने के लिए चपरासी से केवल उसका नाम लेते हैं, शेष अर्थ चपरासी समझ लेता है। चपरासी अपने अफसर के संकेतों के अर्थ उसी प्रकार समझ लेता है जैसे कोई पालतू कुत्ता अपने मालिक के संकेत।

सुधांशु को बुलाने के लिए जैसे ही चपरासी दरवाजा खोल बाहर निकला, पाल ने भट्ट की उपस्थिति नजरंदाज करते हुए एक फाइल उठा ली और उसे देखने लगा। भट्ट के लिए यह वहां से जाने का संकेत था। भट्ट भी जानता था कि उसके अतिरिक्त उस कार्यालय के सभी लेखाधिकारियों को पाल उपेक्षा की दृष्टि से देखता था और मामूली-सी बात पर उनका अपमान करता रहता था। उसे वह इसलिए बर्दाश्त करता था क्योंकि एक लाख की रकम पाल की जेब में डालकर वह ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन का लेखाधिकारी बना था।

अरुण कुमार भट्ट के पाल के चेम्बर से निकलते ही सुधांशु ने दरवाजा खोला। क्षणभर वह दरवाजा खोलकर खड़ा रहा, लेकिन पाल, जो कनखियों से उसे देख चुका था और सुधांशु ने भी देखा था कि पाल ने उसे देख लिया था, लेकिन पाल फाइल पर झुका रहा। अंतत: सुघांशु को अंदर जाने के लिए पूछना पड़ा। 'कम' कहकर पाल ने पुन: सिर फाइल पर झुका लिया। सुधांशु पाल के सामने कुर्सी पर बैठ गया और पाल के कुछ कहने की प्रतीक्षा करता रहा। पन्द्रह मिनट बीत गए। चेम्बर में दीवार घड़ी की टिक-टिक के अतिरिक्त सन्नाटा था।

पन्द्रह मिनट बाद पाल ने फाइल बंद की। सुधांशु की ओर उन्मुख हुआ और पूछा, ''दफ्तर रास आ रहा है सुधांशु?''

''कोई समस्या नहीं सर।'' मुस्कराकर सुधांशु बोला और पाल के चेहरे पर दृष्टि डाली। उसका चेहरा भाव-शून्य था, जैसा कि प्राय: होता था।

पाल कुछ देर तक चुप छत पर धीमी गति से रेंगते पंखे को देखता रहा, फिर बोला, ''काम अधिक है?''

''ऐसा नहीं सर...और यदि है भी तो उसे करने के लिए ही नौकरी कर रहा हूं।''

''दैट्स राइट...दैट्स राइट...बहुत ऊंचे खयालात हैं। सभी को ...अफसर हो या कर्मचारी....ऐसे खयालात रखने चाहिए। राष्ट्र की प्रगति आप जैसे युवा अधिकारियों की कर्तव्यनिष्ठा पर ही निर्भर है। आप एक अच्छे लेखक ही नहीं अच्छे अधिकारी भी हैं।''

'अच्छे लेखक' से चौंका सुधांशु। वह नहीं चाहता था कि विभाग के लोगों को यह जानकारी मिले, लेकिन पाल तक को यह सूचना पहुंच चुकी थी, सोचकर वह हैरान हुआ। पाल को ''धन्यवाद'' कहा।

''आपकी एक कहानी देखी...भई पढ़ नहीं पाया। वह कौन-सी हिन्दी पत्रिका है....हां कादम्बनी। कादम्बनी में है कहानी...देखी। मेरी हिन्दी अच्छी नहीं है...इसलिए देखने की बात की....अंग्रेजी में होती तब पढ़ता भी, लेकिन आप शायद अंग्रेजी में भी लिखते हैं?''

''सर, कभी-कभी...।'' सुधांशु ने समझ लिया कि साहित्य छुपाकर नहीं लिखा जा सकता। प्रकाश में आते ही वह सार्वजनिक हो जाता है.....बुरा क्या है...यदि पाल जान गया...अच्छा ही हुआ।

''आपने विभाग से लिखित अनुमति ले ली होगी अपने लेखन के लिए।''

''अनुमति...सर, वह तो नहीं ली अभी तक।''

''यह सरकारी नियम है।''

''सर, आज ही आवेदन कर दूंगा।''

''आपको एक डिक्लेरेशन देना होगा कि आप विभाग, या सरकार के विरुध्द कुछ नहीं लिखेगें और न ही कोई राजनैतिक आलेख आदि।''

''जी सर।''

''आपको यह भी लिखकर देना होगा कि सरकारी समय ओर सरकारी वस्तुओं का उपयोग नहीं करेंगे।''

''जी सर।''

''वैसे तो आप सरकारी समय में यह काम नहीं ही करते होंगे, लेकिन यदि खाली हों तब क्या करना पसंद करेंगे?''

''सर, ऐसा अवसर कभी नहीं आया, लेकिन यदि आया भी तब भी मैं लिखने-पढ़ने का काम कभी नहीं करूंगा।''

''लेकिन लंच के समय आपके हाथ में कोई न कोई पुस्तक देखी गई है।''

''जी सर, अवश्य देखी गई होगी। लंच के अतिरिक्त मै कभी ऐसा नहीं करता।''

''यह अच्छी बात है, लेकिन इतने सबके बावजूद आपके विरुध्द शिकायतें बहुत हैं।''

''सर, शिकायतें ?'' पुन: चौंका सुधांशु। उसे यह बिल्कुल जानकारी नहीं थी कि कुछ कांट्रैक्टर्स और प्र.र. विभाग के उच्च अधिकारी उसके विरुध्द पाल से मिल चुके थे।

''हां, शिकायतें।'' पाल के स्वर में रुक्षता उभर आयी थी, ''कुछ कांट्रैक्टर्स और प्र.र. विभाग के उच्च अधिकारियों ने शिकायत की कि आप कांट्रैक्टर्स के बिल रोक लेते हैं...लौटा देते है।...उन्हें समय पर भुगतान नहीं होता....वे सप्लाई रोक देने की धमकी देने लगे हैं और यदि वैसा हुआ तब जवानों का क्या हाल होगा...आपने सोचा है। आप क्या दो दिन भूखे रह सकते हैं?'' पाल ने सुधांशु के चेहरे पर दृष्टि डाली।

''सर, जिन बिलों में अनियमितता देखी उन्हें ही ....।''

''मामूली त्रुटियो के लिए भारी-भरकम बिल रोकने से कांट्रैक्टर्स को लाखों का नुकसान होता है। आप उन्हें यहां बुलाकर कमियां दूर कर लिया करें, लेकिन बिल रोकें नहीं।''

''मैं नियमानुसार ही काम करता हूं सर। कुछ भी गलत नहीं......।''

''कांट्रैक्टर्स के आरोप हैं कि आप उनसे अधिक कमीशन की अपेक्षा के कारण ऐसा करते हैं।'' पाल के स्वर में रूखापन बरकरार था।

''सर कमीशन....झूठा आरोप है यह।''

''देखो सुधांशु कांट्रैक्टर्स जितना कमीशन देता है उससे अधिक वह दे नहीं सकता। उसे प्र.र. विभाग के अफसरों से लेकर मंत्री तक को देना होता है। इस स्थिति में वह अधिक कैसे दे सकता है।''

''सर, कमीशन का आरोप झूठा है। न मैंने लिया और न ही लूंगा, लेकिन यह भी सच है कि उनके गलत बिल भी क्लियर नहीं करूंगा।''

''सुधांशु, व्यवस्था ऐसे नहीं चलती...अड़ियल नहीं होना चाहिए। जो मिलता है, लेते रहो और बिल क्लियर करते रहो। वे कुछ हेरा-फेरी करते हैं, लेकिन उस ओर से आंखें मूंदने में ही भलाई है हम ब्यूरोक्रेट्स की, क्योंकि सभी कांट्रैक्टर्स की मंत्री तक सीधी पहुंच होती है। और वे भी कौन-सा जेब से कमीशन देते हैं। पांच रुपए की वस्तु सरकार को पन्द्रह-बीस में सप्लाई करते है।''

''सर, रिश्वत से मुझे घृणा है।''

''बहुत उच्च विचार हैं आपके, लेकिन इसे रिश्वत मत कहो। इन मोटी खाल वालों से यह सब लेना अनुचित नहीं माना जाता। उम्मीद है कि आप समझदारी से काम लेंगे...कहीं ऐसा न हो कि बात मंत्री जी तक जा पहुंचे...तब न यह आपके हित में होगा और न ही मेरे।'' पाल ने सुधांशु के चेहरे पर दृष्टि डाली, जो अंदर से उठते उबाल के कारण लाल था।

''अब आप जा सकते है।'' पाल के कहते ही सुधांशु उठ गया, लेकिन उसे लग रहा था कि वह चक्कर खाकर वहीं गिर जाएगा।

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1 टिप्पणी:

ashok andrey ने कहा…

priya chandel iss upanyaas ansh se sarkaari karyalyon ke kamkaaj par gehri pakad banae hue ho jo ki mahatpoorn bhee hai, jiska vishesh dhyaan rakhaa hai tumne. kyonki yeh jaroori hai isse upanyaas ki vishvasniytaa bani rehti hai.tumne bhrasht sthitiyon ki aur bade tarike se ingit karte hue bahut kuchh spasht kiya hai, iske liye mai tumhe vishesh roop se badhai deta hoon.