शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

धारावाहिक उपन्यास



Potrait by Ivan Kramskoi

(1873)




हाजी मुराद


लियो तोतलस्तोय


अनुवाद : रूपसिंह चन्देल


चैप्टर - ग्यारह

तिफ्लिस में हाजी मुराद के ठहरने के पाँचवें दिन प्रधान सेनापति का परि-सहायक लोरिस-मेलीकोव, उसके अनुरोध पर उससे मिलने के लिए आया ।
''मेरा सिर और मेरे हाथ सरदार की सेवा में हाजिर हैं,'' परम्परागत कूटनीतिक भाव से सिर झुकाते और छाती को हाथों से स्पर्श करते हुए हाजी मुराद ने कहा, ''मैं क्या कर सकता हूं?'' लोरिस-मेलीकोव की आंखों में देखते हुए उसने गर्मजोशी से कहा ।
लोरिस मेलीकोव मेज के बगल में बांहदार कुर्सी पर बैठ गया । हाजी मुराद उसके सामने नीचे एक दीवान पर बैठा । उसने घुटनों पर अपने हाथ रखे , सिर झुकाया और ध्यानपूर्वक लोरिस-मेलीकोव के शब्दों को सुनने लगा । लोरिस-मेलीकोव ने, धाराप्रवाह तातारी में बोलते हुए कहा कि यद्यपि प्रिन्स हाजी मुराद के अतीत से परिचित थे तथापि वह व्यक्तिगत रूप से उससे उसकी सम्पूर्ण जीवन गाथा सुनना चाहते थे । ''आप मुझे बताइये, ''लोरिस-मेलीकोव ने कहा, ''और मैं उसे लिख लूंगा, फिर उसका रूसी में अनुवाद करूंगा, और प्रिन्स उसे सम्राट को भेज देंगे ।''
हाजी मुराद चुप रहा (वह बीच में हस्तक्षेप नहीं करता था, बल्कि वह सदैव यह जानने की प्रतीक्षा करता था कि उसके साथ वार्तालाप करने वाला व्यक्ति इसके अतिरिक्त और क्या कुछ कहना चाहता था ), फिर उसने सिर ऊपर उठाया, सिर के पीछे टोपी को हिलाया और बच्चों जैसी विलक्षण मुस्कान मुस्कराया जिसने मेरी वसीलीव्ना को मुग्ध कर दिया था ।
इस विचार से कि उसकी कहानी ज़ार के समक्ष पढ़ी जायेगी, स्पष्टरूप से संतुष्ट होते हुए वह बोला, ''वह मैं कर सकता हूं ''।
''बिल्कुल प्रारंभ से बिना जल्दबाजी किये आप मुझे सब कुछ बताएं ।'' अपनी जेब से नोटबुक निकालते हुए, लोरिस-मेलीकोव बोला ।
''बहुत कुछ है, बतलाने के लिए बहुत कुछ है । मैं आपको बता सकता हूं । बहुत कुछ घटित हुआ'' हाजी मुराद बोला ।
''यदि आप एक दिन में नहीं बता सकते, आप अगले दिन समाप्त कर सकते हैं,'' लोरिस-मेलीकोव बोला ।
''मुझे प्रारंभ से ही षुरू करना होगा?''
''हाँ, बिल्कुल प्रारंभ से -- आप कहाँ पैदा हुए थे, और कहाँ रहे ?''
हाजी मुराद ने सिर झुका लिया और लंबे समय तक बैठा रहा, फिर उसने सोफे के पास पड़ी एक छड़ी उठा ली, उस्तरे जैसी पैनी हाथी दांत की मूठवाली स्वर्ण-जटित स्टील की जेबी चाकू बाहर निकाली, और छड़ी को तराशते हुए अपनी कहानी कहने लगा ।

''लिखें -- मैं एक 'मिलर्स थंब' (एक प्रकार की मछली) जितने बड़े, जैसा कि पहाड़ों में हम कहते हैं, जेलमेस नामके, एक छोटे से गाँव में पैदा हुआ था ।'' उसने कहना प्रारंभ किया । ''हमसे बहुत दूर नहीं, कुछ मीलों की दूरी पर ही, हन्जख था, जहाँ खान लोग रहते थे । हमारे परिवार का उनसे गहरा संबन्ध था । वे तीन खान थे । अबू नुसल खाँ, मेरे भाई उस्मान का दूध-रिश्ते का भाई ; उम्मा खाँ, मेरा हमशीर, और सबसे छोटा बुलक खाँ, जिसे शमील ने खड़ी चट्टान से नीचे गिरा दिया था । लेकिन बाद में वह आ गया था । मैं प्रन्द्रह का था जब मुरीदों ने गाँव से होकर जाना प्रारंभ किया था । वे लकड़ी की तलवारों से पत्थरों पर वार करते और चीखते थे, ''मुसलमानों ज़ेहाद (रूसियों के विरुध्द पवित्र युद्ध) में शामिल हो जाओ !'' सभी चेचेन उनके पास गये और अवारों ने उनके साथ शामिल होना शुरू कर दिया था। उन दिनों मैं महल में रह रहा था । मैं खानों के भाई के समान था । मैंनें वह किया जो मैं चाहता था और धनवान हो गया था । मेरे पास घोड़े और हथियार थे, और धन था । मैं जैसा पसंद करता, रहता था और संसार में किसी की परवाह नहीं करता था ।
मैं इस प्रकार तब तक रहता रहा, जब तक कासी मुल्ला मारा नहीं गया । हमज़ा ने उसका स्थान ले लिया था । हमजा ने खान लोगों के पास यह कहने के लिए दूत भेजे कि यदि वे ज़ेहाद में शामिल नहीं होंगे तो वह हन्ज़ख को तबाह कर देगा । इस बात ने हमें सोचने के लिए विवश किया । खान बन्धु रूसियों से डरते थे । ज़ेहाद में शामिल होने से भी भयभीत थे । खान की माँ ने मुझे अपने दूसरे पुत्र, उम्मा खॉ के साथ, रूसी प्रधान सेनापति के पास हमज़ा के विरुद्ध सहायता मांगने के लिए तिफ्लिस भेजा । प्रधान सेनापति रोजेन, एक बैरन था । वह मुझसे या उम्मा खाँ से नहीं मिला । उसने यह कहलवाया कि वह हमारी सहायता करेगा, लेकिन किया कुछ नहीं। उसके बाद उसके अधिकारी हमसे मिलने आने लगे और उम्मा खाँ के साथ ताश खेलने लगे । वे उसे शराब देने लगे और उसे खराब अड्डों में ले जाने लगे । उम्मा खाँ ताश में वह सब हार गया जो उसके पास था । वह बैल की भांति ताकतवर और शेर की भाँति बहादुर था, लेकिन उसकी आत्मा पानी जैसी कमजोर थी । वह अपने अंतिम घोड़े और हथियार भी हार चुका होता, यदि मैं उसे वहाँ से हटा न ले जाता । तिफ्लिस पहुंचने के बाद मेरे विचारों में परिवर्तन हुआ, और मैंने नौजवान खान और उनकी माँ से ज़ेहाद में शामिल होने की गुजारिश की ।''
''आपके विचार क्यों बदले?'' लोरिस-मेलीकोव ने पूछा, ''क्या आप रूसियों को पसंद नहीं करते?''
हाज़ी मुराद चुप रहा ।
''नहीं, मैं उन्हें पसंद नहीं करता था,'' उसने सुस्पष्टरूप से कहा और आंखें बंद कर लीं, ''और भी कुछ ऐसा घटित हुआ जिसने मुझे ज़ेहाद में शामिल होने के लिए मुतासिर किया ।''
''वह क्या था ?''
'' एक बार जेलमस के निकट खान और मेरी भिडंत तीन मुरीदों के साथ हुई । दो भाग निकले थे और एक को मैंने अपनी पिस्टल से मार दिया था। जब मैं उसके हथियार लेने उसके पास आया, तब तक वह जीवित था । उसने मेरी ओर देखा । ' तुमने मुझे मार दिया ' वह बोला । 'यह अच्छा है । लेकिन तुम एक नौजवान और हृष्ट-पुष्ट मुसलमान हो । ज़ेहाद में शामिल हो जाओ । खुदा का यह हुक्म है ।''
''हूं, तुम शामिल हुए ?''
''नहीं, लेकिन मैंनें सोचना प्रारंभ कर दिया था'' हाज़ी मुराद ने कहा और अपनी कहानी जारी रखी ।
''जब हमज़ा हन्ज़ख के पास पहुंचा, हमने अपने बुजुर्गों को भेजा और उनसे गुजारिश की कि वे उससे कहें कि यदि वह हमें दानिशवर करने के लिए एक काबिल आदमी भेजता है तो हमें जे़हाद में शामिल होना मंजूर है । हमज़ा ने बुजुर्गों की मूंछें मुड़वा दीं, उनके नथुने छेदवा दिए, उनकी नाकों से आटे के केक लटका दिए और उन्हें वापस भेज दिया। बुजुर्गों ने कहा कि हमज़ा ज़ेहाद के विषय में हमें दानिशवर करने के लिए एक शेख को भेजने को तैयार था, लेकिन तभी जब खान्शा बंधक के रूप में उसके पास रहने के लिए अपने छोटे बेटे को भेजे । खांशा ने उस पर विश्वास किया और बुलक खाँ को हमज़ा के पास भेज दिया । हमज़ा ने बुलक खाँ का अच्छी प्रकार स्वागत किया और उसे बड़े भाइयों को भी लाने के लिए वापस भेज दिया । उसने यह कहने के लिए उससे गुजारिश की कि वह खान लोंगों की उसी प्रकार सेवा करना चाहता था जिस प्रकार उसके पिता ने उनके पिता की की थी ।''
''उनकी माँ कमजोर, मूर्ख और बे-फ़हमी (अविवेकी महिला थी, जैसा कि सभी महिलाएं होती हैं जब वे स्वयं घर की मालकिन होती हैं।) थी. वह दोनों बेटों को भेजने से भयभीत थी, और उसने केवल उम्मा खाँ को भेजा । मैं उसके साथ गया । हम मुरीदों से एक मील पहले मिले, जो हमारे चारों ओर गाते और गोलियॉ दागते पोइयाँ चाल से चल रहे थे । जब हम पहुंचे, हमज़ा तम्बू से बाहर आ गया। उसने उम्मा खां की रकाब पकड़ ली , और एक खान की भाँति उसका स्वागत किया । वह बोला - ''मैंने आपके घर को कोई नुकसान नहीं पहंचाया है और न ही ऐसा करूंगा । आप केवल मुझे मरवायें नहीं और न ही ज़ेहाद के लिए लोगों को भर्ती करने से मुझे रोकें। मैं अपनी पूरी सेना सहित आपकी वैसी ही सेवा करूंगा, जैसी मेरे पिता ने आपके पिता की की थी । मुझे अपने घर में रहने दें । मैं अपनी सलाहों से अपकी सहायता करूंगा, लेकिन आप जो चाहें करने के लिए आजाद होंगे ।''
उम्मा खाँ धीमे बोलता था । वह नहीं समझ पाया कि उसे क्या कहना है, और चुप रहा । तब मैंने कहा कि, यदि वास्तव में ऐसा है, तब हमज़ा हन्ज़ख चला जाये । खांशा और खाँ उसका आदर -सत्कार करेंगे । लेकिन उन्होंने मेरी बात बीच में काट दी, और यहीं पहली बार मैंने शमील का विरोध किया था। वह इमाम के पास खड़ा हुआ था ।
''हम आपसे नहीं, बल्कि खान से पूछ रहे हैं'' वह बोला था।
''मैं और अधिक नहीं बोला और हमज़ा उम्मा खाँ को तम्बू के अंदर ले गया । फिर हमज़ा ने मुझे बुलाया और मुझसे अपने पैगम्बरों के साथ हन्जख जाने का अनुरोध किया। मैं गया। पैगाम्बरों ने खांशा को समझाने का प्रयास किया कि बड़े खान को भी हमज़ा के पास जाना चाहिए ।''
''मुझे विश्वासघात की गंध आई, और मैंने खांशा से कहा कि वह अपने बेटे को न भेजें । लेकिन एक औरत के दिमाग में उतनी ही अक्ल होती है जितनी एक अण्डे पर बाल। उसने उस पर विश्वास किया और अपने बेटे को जाने के लिए कहा । अबू नुसल खाँ ने इंकार कर दिया । तब वह बोली, ''तुम जरूर ही डर रहे हो ।'' वह एक मधुमक्खी की तरह जानती थी कि डंक कहाँ अधिक जख्मी करता है । अबू नुसल खाँ क्रोध से धधक उठा, कुछ नहीं बोला । उसने अपने घोडे़ पर जीन कसवा दी । मैं उसके साथ गया । हमज़ा ने उम्मा खां से भी अच्छा हमारा स्वागत किया । वह हमसे मिलने के लिए पहाड़ी पर दो फर्लागं चलकर आया । पताकाएं फहराते हुए घुड़सवार उसके चारों ओर गाते और गोलियाँ चलाते तेजी से चल रहे थे। जब हम कैम्प में पहुंचे हमज़ा खान को तम्बू के अन्दर ले गया । मैं घोड़ों के साथ रुका रहा था।''
''मैं पहाड़ी में नीचे की ओर था जब मैनें हमज़ा के तम्बू से गोली चलने की आवाज सुनी । मैं दौड़कर तम्बू में गया । उम्मा खाँ पीठ के बल खून से लथपथ पड़ा हुआ था, और अबू नुसल खाँ मुरीदों से जद्दोज़हद ( संघर्ष ) कर रहा था । उसका आधा चेहरा कट गया था और नीचे की ओर लटका हुआ था । उसने उसे एक हाथ से पकड़ रखा था, और दूसरे हाथ से अपनी तलवार से अपने निकट आने वाले हर व्यक्ति को काटता जा रहा था । मेरी दिशा में उसने हमज़ा के भाई को काट गिराया था और दूसरे की ओर बढ़ रहा था, लेकिन तभी मुरीदों ने उस पर गोली चलायी थी, और वह गिर गया था।''
हाजी मुराद रुका, धूप से जला उसका संवलाया चेहरा लज्जित हो उठा, और उसकी आंखें रक्तिम हो उठीं थीं ।
'' मुझ पर भय सवार हो गया था, और मैं भाग खड़ा हुआ था।''
''क्या?'' लोरिस-मेलीकोव बोला, ''मैं सोचता था कि आप कभी किसी से नहीं डरते ।''
''फिर कभी नहीं । उसके पश्चात् मैनें उस शर्मनाक घटना को सदैव याद रखा, और जब मैनें उसे याद किया किसी से भी भयभीत नहीं हुआ ।''

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