बुधवार, 4 जुलाई 2012

आलेख










अपनी बात
रूपसिंह चन्देल

डॉ. कमलकिशोर गोयनका के आलेख  पर वरिष्ठ कथाकार महेन्द्र दवेसर ’दीपक’ जी का आलेख मुझे कल प्राप्त हुआ. यह आलेख इतना महत्वपूर्ण है कि प्रवासी साहित्य के संदर्भ में विचार के नये द्वार खोलता है. अब यह छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि कुछ लोग, खासकर भारत के हिन्दी प्राध्यापक, अपने हितार्थ एक षडयंत्र के तहत प्रवासी लेखकों के साहित्य पर राजनीतिक कर रहे हैं. फरवरी,२०११ के ’वातायन’ में इस विषय  पर  बहस प्रारंभ हुई थी. तब से अब तक यह बहस जारी है. इस बहस  ने कुछ चेहरों  की पहचान उजागर कर दी है, लेकिन कुछ चेहरे (जो प्रवासी हैं) ऎसे भी हैं जो पृष्ठभूमि में रहकर ’प्रवासी साहित्य’ के एजेण्डे पर कार्यरत हैं. पहचान उनकी भी हो चुकी है. समय आने पर वे भी बेपहचान नहीं रहेंगे.

फिलहाल प्रस्तुत है महेन्द्र दवेसर ’दीपक’ जी का आलेख जो आपको सोचने के लिए प्रेरित करेगा. मेरा विश्वास है कि यह उन कुछ प्रवासी साहित्यकारों को भी पुनर्विचार के लिए भी प्रेरित करेगा जो ’प्रवासी साहित्य’ के झंडाबरदारों के प्रति अंध आस्था रखते हैं.

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क्या हमारा हिन्दी साहित्य प्रवासी साहित्य है?
महेंद्र दवेसर 'दीपक'
    ४ जून को इला प्रसाद की कहानी-पाठ के पश्चात् शुरू हुए विवाद के संबन्ध में २१ जून का गोयनका जी का स्पष्टीकरण  पढ़ा. मैं अपने विचारों में गोष्ठी के दौरान संबंधों, व्यवहारों के विषय में कुछ न कहकर सीधा मुद्दे पर आता हूँ कि क्या  भारत से बाहर विदेशों में स्थित  मुझ जैसे  लेखकों द्वारा रचित  हिंदी साहित्य को 'प्रवासी साहित्य' कहना उचित है?

(संगोष्ठी की समाप्ति के अवसर पर लिया गया चित्र)

    अपने स्पष्टीकरण में गोयनका जी लिखते हैं ' मैंने यह नहीं कहा था कि प्रवासी शब्द बहुत पुराना है और उसी से प्रवासी साहित्य का जन्म हुआ. मैंने कहा था कि प्रवासी शब्द का प्रयोग काफी समय से हो रहा है.'   प्रश्न  यह नहीं कि प्रवासी शब्द का उद्भव कब हुआ?  विवाद तो हमारे हिंदी साहित्य पर 'प्रवासी साहित्य' का ठप्पा लगाने के  औचित्य पर है.

    श्री गोयनका जी ने 'प्रवासी' शब्द-प्रयोग के दो   उदहारण दिए हैं -- (१) जनवरी १९२६ के 'चाँद' के अंक में छपी कहानी 'शुद्रा' (२) प्रवास में छपी बच्चन जी की 'प्रवासी की डायरी'.

    गोयनका जी के पहले उदहारण का हमारे विवाद से कोई सम्बन्ध नहीं. यह एक भारतीय लेखक द्वारा लिखी मौरिशस में स्थित प्रवासियों की कहानी है. दूसरे उदहारण के विषय में मुझे यह कहना है  कि  प्रवास में बच्चन जी थे.  वहां पर लिखी उनकी डायरी प्रवासी नहीं हो गयी. वैसे ही विदेशों में लिखा हमारा साहित्य प्रवासी नहीं कहा जा सकता.

    'प्रवासी साहित्य' के इस नाम-करण के औचित्य-परिपादन में आप कहते हैं 'यह प्रवासी हिंदी लेखकों द्वारा रचे साहित्य की विशिष्ठ पहचान का साहित्य है.' यहाँ प्रश्न उठता है कि हमें यह तथाकथित ' विशिष्ठ पहचान ' देने की ज़रुरत क्या है? सीधे ही हिंदी साहित्यकारों की मुख्यधारा में शामिल कर देने में क्या दिक्क़त है? या फिर कम से कम हम से ही पूछ लो कि हमें ऐसी ' विशिष्ठ पहचान ' चाहिए  भी या नहीं.
 
     गोयनका जी का कहना है   'भारत में रचे जाने वाले हिंदी साहित्य की तुलना में यह अपनी संवेदना, रचना दृष्टि तथा सरोकारों के कारण  भिन्न है और विशिष्ट है और इस रूप में वह भारतीय प्रवासियों द्वारा लिखा गया हिंदी साहित्य है.' फ़ुटबाल की भाषा में कहें तो यह  गोयनका जी का 'own goal ' है. हम भी तो यही कह रहे हैं कि कोई भी साहित्य किसी देश का नहीं होता. साहित्य भाषा का होता है, देश का नहीं. हमारा साहित्य हिंदी साहित्य है 'प्रवासी साहित्य ' नहीं.

    एक और बात.  रचना-दृष्टि, रचना-शैली  -- वह   भारतीय हो या विदेशी --  हर लेखक की  अलग होती है. यदि गोयनका जी भारतीय साहित्यकारों में अलग तरह की एकरूपता देख रहे हैं तो वे उनके प्रति अन्याय तो कर ही रहे हैं, वे यह भी  ग़लत इशारा कर रहे हैं कि इस  'एकरूपता' के कारण हमारा हिंदी साहित्य बिल्कुल  नीरस  हो गया  है.

 इन महाशय का अगला तर्क यह है कि 'साहित्य की रचना में उसके परिवेश, वातावरण तथा उसके आस पास की ज़िन्दगी का गहरा प्रभाव पड़ता है. रचना को यदि उसके रचना-परिवेश एवं जीवन से अलग कर देंगे तो रचना की आत्मा ही खो जायेगी.' यहाँ अपनी ओर से कह दूं कि 'आत्मा खो जायेगी' पर मर तो नहीं जायेगी!  आत्मा पत्थर नहीं है. लेखक का व्यक्तित्व, उसकी आत्मा उसकी हर कृति में विद्यमान  होते हैं.  जब एक लेखक कोई नयी चीज़ लिखता है तो उसका मन, उसकी आत्मा उसी तरह से उसकी नयी कृति में उसके साथ शामिल हो जाती है. गोयनका जी का तात्पर्य है कि विदेशों की हमारी रचनाओं में विदेशी वातावरण के कारण उनमें विदेशी रंग आ जाता है. मैं स्पष्ट कर दूं कि जब हमारी रचनाएं हमारे  प्रवास की कहानी या कविता कहती हैं  और उनमें विदेशी रंग भरते हैं  तो  इस से हमारे हिंदी साहित्य का कोई नुक़सान नहीं होता बल्कि वह संवर्धित होता है. इस संवर्धन से हमें गर्वित होना चाहिए.

    रही बात परिवेश की! यहाँ दो उदहारण देना ही पर्याप्त समझता हूँ. पर्ल बक और अर्नेस्ट हेमिंग्वे नोबेल-पुरस्कृत अमेरिकन साहित्यकार थे. पर्ल बक ने चीन के परिवेश में एक उपन्यास लिखा था  'Good Earth ' तो वे क्या अमेरिकन नहीं रहीं, प्रवासी चीनी लेखिका हो गयीं? अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने विदेशी परिवेश में कई कहानियां लिखीं, उदहारणतया - 'For Whom The Bell Tolls (स्पेन के गृह-युद्ध की कहानी ) ', 'Snows of Kilimanjaro (केनिया के परिवेश में एक रोमानी कहानी )', और 'Old Man and The Sea (सागर में मछलियों के शिकार की कहानी )'. कमल किशोर जी से मेरा प्रश्न है कि नोबेल-पुरस्कृत इस तीसरी कहानी लिखकर क्या अर्नेस्ट हेमिंग्वे अमेरिकन नहीं रहे, सागर के हो गए?

    २१ जून के उनके स्पष्टीकरण से लगता है कि गोयनका जी काफ़ी confused हैं, भटक गए हैं और हमारी हिंदी साहित्य की चर्चा में वे भक्तिकालीन, रीति कालीन और छायावादी साहित्य का बखेड़ा ले बैठे हैं. ये सब साहित्यिक इतिहास की बाते हैं जैसी कि हम अपने राजनैतिक इतिहास में मौर्य वंश, खिल्जी वंश या मुग़ल वंश की  चर्चा करते हैं.   कोई उन्हें समझाए कि श्रीमान जी, यहाँ विवाद कालान्तर का नहीं, देशांतर का है.

    गोयनका जी के भटकाव का एक और प्रमाण! वे समझते हैं की हम प्रवासियों में से कुछ को 'प्रवासी' शब्द अपमानजनक लगता है. गोयनका जी, 'प्रवासी' शब्द अपमानजनक नहीं है, अपमानजनक है आपका रवैया जब आप साहित्य की वैश्विकता को अपमानित और अवनत करके उसे देशी और प्रवासी श्रेणियों में बांटने का दुष्प्रयास करते हैं.

आपके प्रश्न कि ' विभिन्न देशों में रहने वाले हिंदी लेखकों के साहित्य को एक सूत्र मैं कैसे बांधें?' का उत्तर हम क्या दें? हमें वह एक सूत्र ही   टूटा हुआ लगता है! आजके युग में संसार बहुत छोटा हो गया है और इन्सान घंटों में कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है. आप हमें बतलायें कि निम्नलिखित स्थितियों में आप साहित्यकारों की रचनाओं को किस श्रेणी में रखेंगे:-

(क) एक प्रवासी लेखक छ: महीने के लिए भारत आ जाता है और भारत में अपने अस्थायी निवास के समय कुछ रचनाएँ करता है. उसकी ऐसी कृतियों को आप प्रवासी साहित्य तो नहीं कह सकते. फिर उनका स्थान कहाँ होगा?

(ख) ठीक उसी तरह एक भारतीय लेखक ब्रिटिश कौंसिल की किसी स्कीम के अंतर्गत स्कॉलरशिप प्राप्त करके साल भर के लिए इंग्लैण्ड आ रहता है और वहां के वातावरण से प्रभावित होकर कुछ कवितायेँ या कहानियाँ लिख डालता है तो भारतीय मुख्यधारा के इस हिंदी साहित्यकार की उन कृतियों को किस श्रेणी में डालियेगा? (आपके उदहारण की 'प्रवासी की डायरी' इसी श्रेणी की हकदार लगती है). 

(ग) ऊपर (क) और (ख) की स्थितियों में एक उपन्यासकार उपन्यास लिखना शुरू करता है. वह आधा भारत में लिखा गया है और उसका शेष दूसरा आधा भाग इंग्लैण्ड में पूरा होता है या इंग्लैण्ड में शुरू होकर भारत में पूरा होता है.  यह साहित्य कहाँ का हुआ?

(घ) विदेशों में आजके हिंदी साहित्यकार भारत में  काफ़ी समय तक हिंदी साहित्य-सेवा करते रहे थे. कुछ नाम हैं - तेजेंद्र शर्मा, स्वर्गीय गौतम सचदेव, सत्येन्द्र श्रीवास्तव, उषाराजे सक्सेना, प्राण शर्मा, सुषम बेदी, उमेश अग्निहोत्री, महेंद्र दवेसर, मोहन राणा,  इत्यादि. क्या भारत में रचे इनके साहित्य को आप मुख्यधारा का हिंदी साहित्य कहेंगे और विदेशों में लिखे साहित्य को प्रवासी साहित्य?

आपको हिंदी भाषा से बहुत प्यार है. स्वीकार किया. विदोशों में वर्षों से रह रहे प्रबल विपरीत धारा का मुक़ाबला करते हम भी हिंदी में लिख रहे हैं, हिंदी साहित्य की सेवा कर रहे हैं किन्तु खेद इस बात का है कि आप जैसे हिंदी प्रेमी हमें मुख्यधारा में शामिल करने के लिए आना कानी कर रहे हैं? आप तीस वर्षों से झंडा उठाये फिर रहे हैं , फिर भी व्यर्थ! क्यों? यदि आप लोगों को सचमुच हिंदी से प्यार है तो हमें यथोचित स्थान देने में क्यों झिझक रहे हैं? क्यों हमें एक अलग सूत्र में पिरोना चाहते हैं? यदि वास्तव में आपको हिंदी से सच्चा प्रेम है तो हिंदी का लेखक कोई भी हो, कहीं भी हो, आपको खुली बाहों से उसे गले लगाना चाहिए. मैं यहाँ दुकानदारी की बात नहीं करता किन्तु इतना जानने का अधिकार तो मेरा और मेरे जैसे साहित्यकारों का तो है ही कि हमारे मुख्य धारा में आ जाने से आप लोगों का क्या नुकसान है और हमें इस धारा से अलग रखने में क्या लाभ है ?

सब समझते हैं हम . . .  Pure politics!  Divide and Rule!!
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महेंद्र दवेसर 'दीपक'

 
जन्म-स्थान एवं जन्म-तिथि: नयी दिल्ली, 14 दिसम्बर,1929
 माता : (स्वर्गीय) श्रीमती पुष्पा दवेसर
पिता : (स्वर्गीय) श्री मेहरचंद दवेसर
पत्नी : (स्वर्गीय) श्रीमती आशा दवेसर
बच्चों के नाम: श्री संदीप दवेसर, श्री सुमीत दवेसर
शिक्षा : प्रभाकर (1950 ) पंजाब यूनिवर्सिटी कैम्प कॉलेज, नयी देहली में एम.ए.(अर्थशास्त्र, फाइनल) का विद्यार्थी (१९५२), परीक्षा पूर्व भारतीय विदेश मंत्रालय की सेवा में चयन पश्चात जकार्ता, इंडोनेशिया में भारतीय दूतावास में नियुक्ति .

 प्रकाशित कृतियाँ:
 कहानी-संग्रह: (1) पहले कहा होता (2003),  (2) बुझे दीये की आरती (2007),  (3) अपनी अपनी आग (2009)

सम्मान: कहानी संग्रह 'अपनी अपनी आग' पर भारतीय उच्चायोग द्वारा 'लक्ष्मीमल सिंघवी सम्मान, इसी पुस्तक पर लन्दन के House of Commons में 'पद्मानंद सम्मान और बर्मिंघम के बहुभाषीय साहित्यिक समुदाय द्वारा संमान, मेरी कहानी 'दो पाटन के बीच' पर 'वर्त्तमान साहित्य: कमलेश्वर कहानी पुरस्कार, 2011
 फोन नंबर: 00 (44 ) 0208 660 4750
 ई-मेल: mpdwesar@yahoo.co.uk

2 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

MAHENDRA DWESAR JI SAFAL KAHANIKAAR
HEE NAHIN UCHCH KOTI KE VICHAARAK BHEE HAI .
UNKE IS TATHYAPOORN LEKH KO AGAR KAMAL KISHOR
GOENKA JI PADH LENGE TO MUJHE POORAA
VISHWAAS HAI KI VIDESHON MEIN LIKHE
JAA RAHE HINDI SAHITYA KE SAATH
" PRAVASEE ` LIKHNAA BAND KAR DENGE.

बेनामी ने कहा…

प्रवासी साहित्य?
‘प्रवासी दुनिया’ में डॉ. कमल किशोर गोयनका जी का लेख पढ़ा| मैं उनका बहुत आदर करता हूँ और इस बात की सराहना करता हूँ कि उन्होंने विदेशों में बसे कुछ हिंदी साहित्यकारों व उनकी कृतियों को सामने लाने का प्रशंसनीय कार्य किया| परन्तु मैं हिंदी साहित्य को विभिन्न वर्गों में बाँटने के पक्ष में नहीं हूँ|
साहित्य को भागौलिक या जातीय सीमाओं के आधार पर बाँटना उचित नहीं है| साहित्यकार प्रवासी हो सकते हैं पर साहित्य प्रवासी नहीं होता| अंग्रेजी साहित्य में सलमान रुश्दी, विक्रम सेठ या अरुंधती राय के साहित्य में कोई अंतर नहीं किया जाता यद्यपि ये साहित्यकार विभिन्न देशों में रहते हैं तो फिर हिंदी में ही प्रवासी साहित्य का एक अलग वर्ग रचने की क्या आवश्यकता है? उत्कृष्ट साहित्य चाहे कहीं भी लिख गया हो उत्कृष्ट ही होता है और निकृष्ट साहित्य चाहे भारत में ही क्यों लिखा गया हो निकृष्ट ही होता है| गोयनका जी का इला प्रसाद की रचनाओं को "१४ कैरट के सोने को २४ कैरट बना कर बेचने" की बात न केवल इला जी के लिए बल्कि सभी प्रवासी साहित्यकारों के लिए अपमानजनक है| इस से प्रवासी साहित्यकारों के बारे में गोयनका जी की सोच का पता चलता है|
'प्रवासी सहित्य' की परिभाषा इतनी सहज नहीं है, जितनी गोयनका जी ने की है| महेंद्र देवसरे जी ने चंदेल जी के ब्लॉग : wwwrachanasamay.blogspot.in में इसकी अच्छी व्याख्या की है और इसे परिभाषित करने की कठिनाईयाँ बतलायीं हैं और इसकी अनावश्यकता पर जोर दिया है| मैं महेंद्र जी के विचारों से सहमत हूँ|
- डॉ. दिनेश श्रीवास्तव
संपादक, , 'हिंदी पुष्प'
मेलबर्न, ऑस्ट्रेलिया