कवि मित्र अशोक आंद्रे के जन्मदिन (03मार्च) पर विशेष
(मेज पर बाएं से अशोक आंद्रे,रूपसिंह चन्देल और सुभाष नीरव)
अशोक आंद्रे की तीन कविताएं
रोशनियों के मध्य
मन की ध्वनियाँ
कई बार विकृति पैदा करती हैं
और हम खोजने लगते हैं
उन तरल रोशनियों के मध्य अपनों को
जो हमारे आसपास एहसास तो देते हैं
लेकिन भयावह रूप गढ़ कर
डराते हैं हमारे समय को
जहां फिर विकराल रूप धर लेती हैं
हमारी कल्पनाएँ,
बिना सोचे-समझे उस ओर बड़ते हुए .
तब
हमारी सोच को अनंतता का एहसास होता है।
लगता है शायद यहीं कहीं हमारा प्रिय
समय में गोल करते हुए
अन्धकार में छिद्र कर के
हमारे
सम्मुख आ खडा हो जाएगा।
और हम उस अनंतता में हाथ हिलाते हुए
कभी अलविदा नहीं कह पायेगें।
आखिर
ध्वनियाँ तो समय के ऊपर यात्रा एं करती रहती हैं
उन अंधेरों में जहां एक नई खोज के लिए
ज़िंदा रह जाते हैं ब्रह्म की अविरल बहती रोशनी को
देखने के लिए हम,
क्योंकि
प्रिय-
तुम्हें इसी सब के बीच तो ढूंढना है।
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जलजला
आसमान में टिमटिमाते तारों की रोशनी के मध्य
उसकी जिन्दगी की शाम में
पृथ्वी पर आया जलजला
यात्रा करता है उसके मन के भीतर फैली
पदचापों की ध्वनियों के साथ
जहां प्रकाशवर्ष को
जीतने के लिए वह
आह्वान करता है
अपने अन्दर फैली दूरियों को नापने का।
और ऐसे में सोचो !
कल सूर्य ही न निकले।
लेकिन
उसे हल्का सा होश हो यह सब
देखने / समझने के लिए
तब
कैसा लगेगा ?
क्योंकि समय तो होगा नहीं
किसी की गति को पकड़ने के लिए।
जब जल भाप बन कर फैलने लगे
कायनात की हर स्थितियों को घेरने के लि ए
और
वजूद हमारा ---
हवा के बुलबुलों में तैरने लगे
क्योंकि जल तो होगा नहीं,
कैसा लगेगा उस वक्त ?
आईये देखें इसे भी एक बार
आखिर
जलजला तो पृथ्वी पर आ चुका है।
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अकेला खड़ा मैं
वह मेरा शास्त्रीय दिन था उस वक्त
जब मैंने
तुम्हारा साक्षात्कार करने की कोशिश की
थी
तुम थी कि आँखें मूँद रही थी।
पास खड़े पेड़ के पत्ते सिहर रहे थे
जमीन पर उग आए नन्हें फूलों को उकसाने के लिए
फिर बिखर जाना उनका हवा के साथ।
उधर
जमीन पर फैली हरी घास का
लहलहा उठना
एक अदृश्य बीज के पनप ने के साथ
सब कुछ इसी तरह खो जाना फिर
याद है मुझे।
आकाश
में उड़ते पक्षियों को निहारते हुए -
अपनी साँसों के साथ
तुम्हारी धडकनों की आवाज भी सुन रहा था लगातार,
जो ऊपर उठती जा रही थी-
उसी
जगह अकेला खड़ा हूँ मैं।
सत्य क्या है आज तक इसकी
सत्यता पर सवाल अंकित होते रहे हैं मे रे सम्मुख
क्योंकि मेरे बनाए हर सत्य
आज
भी हवा में बगुले बन छितरा रहे हैं तभी तो।
हे ईश्वर !
इसीलिये मुझे उस बीज के पनप ने का रहस्य जानना है
आखिर कैसे एक दिन बिखर कर मौन हो जा ते हैं वे,
न कि तुम्हारे अस्तित्व को
यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य होगा
क्योंकि उस पर तो कभी मन ने कोई
सवाल उठाया ही नहीं है।
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स्वर्गीय पत्नी बीना आंद्रे को समर्पित,जो 20-1-2013 को जीवन की अनंत संभावनाओं से परे ऐसी दिशा की ओर
चली गयी जहां हमारे अस्तित्व सब कुछ
देखने में असमर्थ होते हैं।
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अब तक निम्नलिखित कृतियां प्रकाशित :फुनगियों पर लटका एहसास, अंधेरे के
ख़िलाफ (कविता संग्रह),समय के गहरे
पानी में (कविता संग्रह ),दूसरी मात (कहानी संग्रह), कथा दर्पण (संपादित
कहानी संकलन), सतरंगे गीत , चूहे का संकट (बाल-गीत संग्रह), नटखट टीपू (बाल
कहानी संग्रह).लगभग सभी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.
'साहित्य दिशा' साहित्य द्वैमासिक पत्रिका में मानद सलाहकार सम्पादक और
'न्यूज ब्यूरो ऑफ इण्डिया' मे मानद साहित्य सम्पादक के रूप में कार्य किया
.सम्मान - राष्ट्रीय
हिंदी सहस्त्राब्दी सेवी सम्मान 2001,हिंदी सेवी सम्मान 2005 ( जैमिनी
अकादमी (हरियाणा ), आचार्य प्रफुल चन्द्र राय स्मारक सम्मान २०१०
(कोलकता),ट्वंटी टेन राष्ट्रिय अकेडमी एवार्ड (हिंदी साहित्य ) २०१०
(कोलकत्ता )
4 टिप्पणियां:
APNEE ARDDHANGINI BEENA ANDRE KO
SAPARPIT MERE PRIY SAHITYAKAR SHRI
ASHOK ANDRE KEE TEENON KAVITAAYEN
MAN MEIN RACH - BAS GAYEE HAI .
TEENO KAVITAAYEN HEE UDVELIT V
JHAKJHORTEE HAIN .
KAVI MITR SHREE ASHOK ANDRE JI KO
UNKE JANM DIWAS PAR DHERON HEE
BADHAAEEYAAN AUR SHUBH KAMNAAYEN .
जाने वाली जीवनसंगिनी को समर्पित कवितायें उनके अहसास को शून्य मे ढूँढती सी प्रतीत हो रहीं हैं।
जन्म दिवस पर अशेष शुभकामनाएँ....
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