अशोक आन्द्रे का यह आलेख सन २००० में संबोधन
(सम्पादक – क़मर मेवाड़ी) के एक अंक में प्रकाशित हुआ था. आलेख आज भी उतना ही प्रासंगिक
है. पहले की अपेक्षा स्थितियां कहीं अधिक ही विद्रूप हुई हैं. आशा है आपको पसंद आएगा.
साहित्य में
विकृत महत्वाकांक्षा का दौर
अशोक आंद्रे
पिछले कई वर्षों से जाने माने साहित्यकारों,आलोचकों के मध्य इस बात पर
काफी चिंता व्यक्त की जाती रही है कि हिंदी साहित्य के पाठकों की संख्या आखिर किन कारणों
से कम हो रही है।जिसका अनुमान लगाना प्राय असंभव प्रतीत होता है।
निःसंदेह यह चिंता का विषय तो है इसका हल भी किसी के पास नहीं है तथा अपने-
अपने हिसाब से इसकी विवेचना करते दिखाई देते हैं।
लेकिन सबके तर्क अपने-अपने घेरों में उलझे हुए हैं। किन्तु उत्तर नदारद रहा।
दूसरी तरफ हिंदी की व्यावसायिक पत्रिकाये क्रमशः बंद होती चली गईं। शायद इसमें भी उपरोक्त
कारण प्रमुख रहा। यह अलग बात है कि इन सबके बावजूद हंस,वर्तमान साहित्य, कथन कथाबिंब,
तथा संबोधन जैसी अव्यवसायिक लघु पत्रिकाये ही इस संकट से उबरने की कोशिश में सक्षम
रहीं। हालांकि लघु पत्रिकाओं की स्थिति काफी शोचनीय है। उनके समक्ष आर्थिक संकट मुहं
बाये खडा दिखाई देता है। जिसके कारण इन पत्रिकाओं की कभी भ्रूण हत्या हुई या वे आत्महत्या
करने को मजबूर हो गयी। प्रकाशन की इन्हीं समस्याओं ने लेखकों के मध्य आपाधापी की स्थिति
पैदा की। जिसके शिकार पुराने और स्थापित रचनाकारों की अपेक्षा नवें दशक के उतरार्ध
में अभ्युदित या उसके पश्चात साहित्य में आए नवोदित रचनाकार अधिक हुए। सीमित लेखकीय
संभावनाओं के कारण नए लेखकों को थोड़े ही समय में कम लिख कर अधिक पा लेने के लिए किसी
भी सीमा रेखा का अतिक्रमण करने में उन्हें किसी प्रकार का गुरेज नहीं था। जिसे आज भी इसी सन्दर्भ में सपष्ट देखा जा सकता है।
उनकी महत्वकांक्षाएं किसी भी अनियंत्रित/अविजित पहाड़ से कम उंची
नहीं थीं,क्योंकि उनके विश्वास डगमगाए हुए थे। धैर्य की उनमें कमी थी। लम्बी यात्रा
करने में वे हांफने लगते थे। कुछ भी करने के लिए पागलपन की हद तक जा सकते थे। यह अति
बाजारवाद का ध्योतक है। जिसमें व्यक्ति गौण हो जाता है।
महत्वाकांक्षा शब्द प्रायः सकारात्मक भाव को ही सूचित करता है।व्यक्ति
में निहित महत्वाकांक्षा का अम्भुदय उसकी प्रगति की ओर संकेत करता है। इसीलिए किसी
भी ऊँचाई की उपलब्धि को पाने की प्रेरणा का प्रस्थान बिन्दू माना जाता रहा है। इसके
बिना किसी भी लक्ष्य को पाने में व्यक्ति सर्वथा अयोग्य ही घोषित होगा। लेकिन इसका
दूसरा पक्ष मनुष्य को कहीं का नहीं छोड़ता,जब किसी लक्ष्य को पाने में आकांक्षी व्यक्ति
कुटिलता का सहारा लेकर उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। यह स्थिति न केवल उसके
लिए बल्कि पूरे समाज के लिए भी अहितकर होती है समाज के हर क्षेत्र में आज ऐसे
ही कुकुरमुत्तों की संख्या बढ़ रही है। साहित्य में इस तरह की स्थिति को
मान्यता नहीं दी जा सकती है। आखिर किसी भी देश की बड़ी ताकत और पहचान उसका
साहित्य ही होता है। आज साहित्य में एक प्रकार से विकृत महत्वाकांक्षा का दौर चल रहा
है। इसे हम आज के युग के सन्दर्भ में वैक्यूमवाद के नारे से सुशोभित कर सकते हैं। आज
का दौर नारों का दौर है।यही दौर पूरे कथा साहित्य में अपनी घुसपैठ करता दिखाई
देता है। जिस तरह नेता लोग किसी एक नारे के माध्यम से पूरे समाज में वोटों की
राजनीति करते हैं ठीक उसी तरह नई लेखक पीढी मात्र एक कृति के आधार पर अपने
समय में ही न केवल कालजयी हो जाना चाहती है बल्कि सम्मान तथा पुरस्कारों को भी एक ही
झटके में अपनी झोली में भरना चाहती है। ऐसे में आज के वरिष्ठ साहित्यकारों की भूमिका
काफी महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि वे कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में नई पीढी के
आदर्श होते हैं।अपने को इस स्थिति से अलग रख कर मुक्ति नहीं पा सकते हैं कि हम क्या कैसे की स्थिति में सोचते हुए।
आज की युवा पीढी अपने आप में भ्रमित तो है ही लेकिन भविष्य की आशंकाओं
में डूबती उतराती दिखाई देती है। आज का लेखक छोटो से छोटी कृति को भुनाने में प्राणपण
से जुट जाता है।वह पूरी तरह से भ्रमित है तथा अपने
समकालीनों की कृतियों को नगण्य व निकृष्ट बताकर मन को संतोष देता रहता है।
महत्वकांक्षा जब विकृत हो जाती है तब व्यक्ति खूंखार भाव से दूसरों को
शिकार बनाने का प्रयत्न करने लगता है। आज बहुत कुछ ऐसी ही स्थिति हिंदी साहित्य में
दिखाई देने लगी है। ऐसी गतिविधियों में लिप्त लोगों का साहित्यिक बहिष्कार किया जाना
चाहिए। आश्चर्यजनक रूप से हिंदी के साहित्यकारों में दूसरों को उखाड़ देने की घातक प्रवृति
काम कर रही है। लोग इतने असहिष्णु हो उठे हैं कि उन्हें उचित अनुचित का भी बोध नहीं
रहा। ऐसे रचनाकार दया के पात्र तो हैं ही यदी उन्हें विकलांग मानसिकता का शिकार माना
जाए तो अनुचित नहीं होगा।ऐसे लोग स्वयं की प्रशंसा से बौराए हुए दिखाई देते हैं।जब
कि अपनी कृति की प्रतिकूल समीक्षा से बौखला उठते हैं। समीक्षक को पागल घोषित करने के
साथ - साथ उसके पीछे किन्हीं राजनीति तत्वों की खोज करने लगते हैं। ऐसी मानसिकता के शिकार ये
लोग अपनी सारी ऊर्जा तथा पूरा वक्त अपने समकालीनों को खारिज करने में लगा देते हैं
जिससे
उनके समकालीनों का लेखन बाधित होता रहे। मेरा मानना है कि सशक्त लेखक उगते
हुए सूरज की तरह होता है जिसे लाख काले परदों से ढकने के बावजूद उससे प्रस्फुटित होती
किरणों को अँधेरे में परिवर्तित करना नामुमकिन होता है। वे दूसरों की हत्या के प्रयास
तो करते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि वे स्वयं भी आत्महत्या की ओर अग्रसर हो रहे हैं।यहाँ
स्व . शैलेश मटियानी जी की एक बात याद आती है। उन्होंने कहा था कि "छोटे- छोटे
घटिया कामों से दूसरे साहित्यकारों के प्रति
राजनीति करने वाले हिंदी के लेखक कभी बड़ी रचना नहीं दे सकते।" काश आज के नवोदित
लेखक इस सच्चाई से भी रूबरू होते।
हिंदी साहित्य को विकृत राजनीति
में झोंकने वाले लोग प्रायः यह तर्क देते हैं कि हमारी पूर्व पीढ़ी ने भी तो यही सब
किया था। अपने पक्ष में इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है। वे भूल जाते हैं कि पूर्व
पीढ़ी ने अपनी पुरानी पीढ़ी से अलग पहचान कायम करने के लिए ' नई कहानी ' आन्दोलन को प्रबलता
दी थी,लेकिन उनके प्रति अनादर का भाव नहीं था। विरोध था तो रचनात्मक स्तर पर न कि व्यक्तिगत
संबंधों के स्तर पर उसके बाद के आंदोलनों, खासकर व्यक्तिवादी आंदोलनों के पीछे महत्वाकांक्षा
का भय तो था, लेकिन अपने समकालीनों और पूर्व पीढ़ी के प्रति दुर्भाव नहीं था। पा लेने
का भाव वहां भी था, लेकिन निकृष्टता के स्तर तक जाकर पा लेने का भाव नहीं था। इस सबके
लिए काफी हद तक बाजारवाद दोषी है। उसने नये रचनाकारों में साहित्य को लेकर जिस बाजारवाद
के बीज बोये हैं वह उन्हें न तो सोने दे रहाहै , लेकिन उसके कारण वे अपने
समकालीनों की नींद भी खराब करने पर तुले हुए हैं। यह एक ऐसा विषय है जिस पर गंभीर रचनाकारों,बुद्धिजीवियों
और पाठकों को नए सिरे से विचार करना होगा तभी कुछ सार्थक स्थितियों
को सामाजिक सरोकारों के साथ जोड़ा जा सकेगा वरना हिंदी साहित्य में विकृत महत्वाकांक्षीऔर
मसखरों की संख्या को बढ़ने से रोका नहीं जा सकता और तब मसखरे साहित्यकार तो होंगे, साहित्य
नहीं होगा।जो हिंदी साहित्य को मरणासन स्थिति में पहुचाने में मील का पत्थर साबित होगा।इस स्थिति से उबरने के लिए हम
सभी को नई पहल तो करनी ही होगी।वर्ना बेकाबू होती स्थिति से भविष्य में हम सभी जिम्मेदार
होंगे जिसको हमारी आने वाली पीडी कभी माफ नहीं करेगी।
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2 टिप्पणियां:
हिंदी साहित्य में कम होते जा रहे पाठकों पर विद्वान् लेखक अशोक आंद्रे का लेख
विचारणीय है . एक ज़माना था कि जब देवकीनंदन के उपन्यासों को पढने के लिए
लोगों ने हिंदी सीखी थी , एक ज़माना यह भी है कि पाठक उपलब्ध नहीं है , अच्छी
कृतियों के होने के बावजूद . मेरे विचार में पाठक तो है लेकिन लेकिन उसके मन
में रस घोलने वाला साहित्य लुप्त है . हरिवंश राय बच्चन या रवींद्र कालिया की
आत्म कथाएँ या नरेन्द्र कोहली के उपन्यास जैसी आर्मिक रचनाएँ छपें तो पाठक
अवश्य सामने आयेगा . सरस साहित्य में पाठक को लुभाने की क्षमता होती है .
नीरस साहित्य तो दो दिन भी नहीं चलता .
बहुत ही सार्थक लेख..वास्तव में स्थिति गंभीर है..
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