बागों में दफ्न हैं इतिहास की यादें
रूपसिंह चन्देल
देश की धड़कन कही जाने वाली दिल्ली जहां अनेक ऐतिहासिक स्थलों, भवनों, गली-कूचों आदि के लिए प्रसिद्ध है वहीं यहां अनेक ऐतिहासिक बाग और आधुनिक पार्क हैं। 'बेगम बाग', 'रोशनआरा बाग', 'शालीमार बाग' और 'कुदसिया बाग' जैसे ऐतिहासिक महत्व के बागों के अतिरिक्त 'लोदी बाग' (1936) , 'तालकटोरा बाग', 'मुगल गार्डन' (राष्ट्रपति भवन), बुद्ध जयंती पार्क, महावीर जयंती पार्क, कमला नेहरू पार्क आदि के कारण यदि दिल्ली को बागों और पार्कों का शहर भी कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी। लेकिन अधिकांश बागों-पार्कों की स्थिति आज सोचनीय है। यहां के तीन ऐसे बाग हैं जिनका इतिहास शाहजहां से जुड़ता है।
लालकिला आगरा से ग्यारह वर्षों तक हिन्दुस्तान पर शासन करने के पश्चात शाहजहां ने अपनी राजधानी दिल्ली ले जाने का निर्णय किया था। परिणामतः एक नया शहर बसाने की योजना बनी, जिसका नाम शाहजहानाबाद रखा गया। आगरा और लाहौर किलों की तर्ज पर बादशाह के निवास के लिए 'लालकिला' का निर्माण 1638 ई में इज्जत खां की देखरेख में प्रारंभ हुआ। बाद में इस कार्य को अलीवर्दी खां और मकरावत खां ने अंजाम दिया , जिनके साथ अहमद और हमीद नामक इंजीनियरों का अमूल्य सहयोग रहा था। ग्यारह वर्ष पश्चात 1647 में लालकिला बनकर तैयार हुआ तो 8 अप्रैल 1648 को शाहजहां की दिल्ली में ताजपोशी हुई थी। उसके साथ उसके परिवार का दिल्ली आना स्वाभाविक था। बीमार होकर 1657 में आगारा वापस लौटने तक शाहजहां दिल्ली से हिन्दुस्तान पर शासन करता रहा था। अपने शासन काल के इस दौर में बादशाह ने न केवल विश्वप्रसिद्ध जामा मस्जिद और अन्य भवनों का निर्माण करवाया , बल्कि उसके परिवार के सदस्यों ने कई महत्वपूर्ण बाग लगवाये ।
शाहजहां की बड़ी बेटी थी जहांआरा , जिसने पिता की खिदमत में अपना जीवन ही अर्पित कर दिया था। जहांआरा ने चांदनी चौक से सटा (आज के टॉऊन हाल के सामने) एक बड़ा बाग लगवाया था, जिसे 'जहांआरा बाग' या 'बेगम बाग' कहा जाता था। रंग-बिरंगे सुगन्धित फूलों से सज्जित था वह बाग। उसने बाग के मध्य में एक सराय का निर्माण भी करवाया था। प्रसिद्ध इतिहासकार बर्नियर के अनुसार सराय अपनी मेहराबों और स्थापत्य के कारण उस काल की खूबसूरत इमारतों में से एक थी। बाद में अंग्रेजों ने इस बाग का नाम बदलकर 'कंपनी बाग' रख दिया था। यही नहीं इसके बड़े भाग को नष्ट करवाकर दिल्ली रेलवे स्टेशन का निर्माण करवाया । आजादी के बाद इसे पुनः 'बेगम बाग' कहा जाने लगा । चांदनी चौक से पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क इस बाग को दो भागों में बांटती है। आजादी के कुछ वर्षों पश्चात ही इस बाग का पुनः नामकरण किया गया। इसके एक भाग को 'आजाद पार्क' और दूसरे को 'कंपनी बाग' कहा जाने लगा। इस प्रकार 'बेगम बाग' या 'जहांआअरा बाग' इतिहास के पन्नों में दफ्न होकर रह गया, जबकि अपना अतीत का गौरव तो वह बहुत पहले ही खो चुका था।
लोदी बाग
'जहांआरा' या 'बेगम बाग' की भांति दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में 'बादली की सराय' के निकट कश्मीर और लाहौर के शाही 'शालीमार बाग' के अनुकरण पर शाहजहां की एक बेगम अज्जून्निसां ने, जो बीबी अकबराबादी के नाम से जानी जाती थीं, शालीमार बाग लगवाया था। बाग के मध्य में शीश महल नामकी भव्य इमारत बनवायी थी, जिसमें बैठकर वह बाग के सौंदर्य, उसके झरनों, फव्बारों और छोटी नहरों का अवलोकन करती थी। कहा जाता है कि यह वही बाग है, जिसमें ताज के दावेदार भाइयों से मुक्ति पाने के पश्चात आनन-फानन औरंगजेब की ताजपोशी की गई थी। बर्नियर लिखता है कि दिसम्बर, 1664 में कश्मीर और लाहौर प्रस्थान (बीमारी की हालत में) करते समय औरंगजेब ने इसी बाग में पहला पड़ाव डाला था। 1803 के बाद कुछ समय के लिए शीश महल को अंग्रेज रेजीडेण्ट के ग्रीष्मकालीन निवास के रूप में प्रयोग करते रहे थे। कहते हैं सर चार्ल्स मेटकॉफ को यह महल बहुत पसंद था। वह अपनी भारतीय पत्नी के साथ प्रायः वहां आकर रहता था। बाद में उसे 'मेटकॉफ साहब की कोठी' के नाम से जाना जाने लगा था। बाग के विषय में 1825 में पादरी हर्बर ने आहत भाव से कहा था, "यह पूर्णतया नष्ट हो चुका है।" 1857 की क्रान्ति के बाद यह बाग मुगलों की सम्पत्ति नहीं रहा । उसे बेच दिया गया था। पादरी हर्बर के कथन से बाग की आज की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। उसके सभी फव्बारे और पानी के स्रोत पूरी तरह मिट्टी में छुप चुके हैं और यह पता लगाना भी कठिन है कि बाग में निरतंर प्रवाहित होने वाले पानी का उद्गम कहां से होता था।
कंपनी बाग
'शालीमार बाग' की भांति ही अति- ऐतिहासिक महत्व का बाग है 'रोशनारा बाग' । लालकिला से पश्चिम में लगभग तीन मील की दूरी पर शाहजहां की दूसरी बेटी रोशनआरा बेगम ने यह बाग लगवाया था । जहांआरा जहां अपने पिता की चहेती थी, वहीं रोशनआरा औरगजेब की प्रिय। एक प्रकार से वह पिता के विरुद्ध ही रही थी और औरंगजेब के बादशाह बनने के लिए उसने हर संभव प्रयत्न किए और सहयोग दिया था। औरगंजेब के बादशाह बनने के पश्चात उसने प्रथम महारानी (बेगम) के सभी अधिकार प्राप्त कर लिए थे। दरबारियों और जनता में 'बेगम साहिबा' के नाम से प्रसिद्ध रोशनआरा का शासन में पर्याप्त हस्तक्षेप और दबदबा था। एक प्रकार से वह औरगंजेब की मुख्य सलाहकार की भूमिका निभाती थी। सर यदुनाथ सरकार के अनुसार वह इतनी ताकतवर थी कि कई बार औरंगजेब उसकी बात की उपेक्षा नहीं कर पाता था। शिवाजी को आगरा में कैद करवाने के पीछे 'बेगम साहिबा' की ही सलाह थी। उसी रोशनआरा ने लालकिला से बाहर निकल प्रकृति का आनंद लेने और शांति-पूर्वक कुछ क्षण व्यतीत करने के उद्देश्य से 1650 में यह बाग लगवाया था, जो कालांतर में उसीके नाम से चर्चित हुआ। हालांकि तब औरंगजेब बादशाह न था, लेकिन रोशनआरा का दबदबा प्रारंभ से ही था।
रोशनआरा ने बाग के मध्य में एक 'ग्रीष्म महल' (समरहाउस) बनवाया था, जिसके विषय में बर्नियर का कथन है कि वह स्थापत्य कला का अनूठा नमूना था । बाग के चार दिशाओं से चार स्रोत इस 'समर हाउस' तक जाते थे, जिनसे अनवरत पानी इसमें पंहुचता रहता था। जाहिर है ये स्रोत यमुना से निकलते थे। यही नहीं महल के चारों ओर फव्बारे, झरने और बेगम के स्नान के लिए खूबसूरत तालाब था। 'समर हाउस' का जो वर्णन मिलता है उससे स्पष्ट है कि वह आज प्राप्त तालाब और 'रोशनआरा क्लब' के मध्य अवस्थित रहा होगा, जिसे 1875 में कर्नल क्रैक्राफ्ट ने नष्ट करवा दिया था। तालाब यहां आज भी है, लेकिन वह तालाब नहीं किसी गड़ैय्या की भांति है, जिसके पूर्वोत्तर की ओर केवल दो स्थानों पर सीढ़ियां और लाल पत्थर की दीवारें शेष हैं। दक्षिण-पश्चिम की ओर के भाग को समय के हस्तक्षेप ने मिट्टी से ढक दिया है। तालाब के उत्तर-दक्षिण की ओर बेगम के बैठने के लिए छतरियां बनवायी गयी थीं, जो आज भी विद्यमान हैं। बेगम ने बाग को न केवल हरे-भरे वृक्षों से सजाया था, बल्कि रंग-बिरंगे फूल भी लगवाये थे । गर्मी के दिनों में प्रायः बेगम बाग में तशरीफ लाती थी। बर्नियर लिखता है, "जब बेगम का काफिला लालकिला से चलता , उसमें अनेक हाथी होते , जिन पर स्वर्ण जड़ित झूले और झालरें पड़ी होतीं और चांदी की घण्टियों की मधुर टुनटुनाहट से वातावरण झंकृत होता रहता । बेगम स्वर्ण-जड़ित कपड़े से ढकी पालकी में होती थी और उसके आगे-पीछे दो छोटे कद के हाथी चलते थे। बेगम कुछ घण्टे फूलों की मादक सुगंध, ऊर्ध्वगमित फव्बारों और निरंतर प्रवहित झरनों के मध्य शांतिपूर्वक व्यतीत करती थी।"
औरंगजेब की विश्वासपात्र और चहेती बहन इस बेगम का अंत अतंतः दुखद था । 1664 में औरंगजेब अत्यधिक बीमार पड़ा। रोशनआरा को उसके बचने की कोई आशा न दिखी। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर बेगम ने षडयंत्र कर राजकीय मुद्रिका प्राप्त कर ली और औरंगजेब के वास्तविक उत्तराधिकारी उसके बड़े पुत्र शाह आलम को बेदखलकर औरंगजेब के छः वर्षीय पुत्र आजमशाह को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। ऐसा इसलिए, जिससे वह आजमशाह के बालिग होने तक उसके नाम पर शासन कर सके। लेकिन रोशनआरा के दुर्भाग्य से औरंगजेब स्वस्थ हो गया और बेगम के षडयंत्र का पर्दाफाश हो गया। इससे दरबार में न केवल बेगम के अधिकार कम हुए, बल्कि औरगंजेब ने उसे जहर देकर मरवा दिया था। 1671 में बेगम को रोशनआरा बाग में दफना दिया गया, जहां आज भी उसका खण्डहरनुमा मकबरा अवस्थित है। मकबरे के चारों ओर चार कमरे हैं, जो बंद हैं। बेगम की मजार असुरक्षा और देखरेख के अभाव में नष्टप्रायः है। मकबरे के चारों ओर पतली नहर है, जिसमें कभी पानी के फव्बारे चलते रहे होगें। मकबरे के ठीक सामने पूर्व की ओर मुख्य द्वार है, जो ढहने की स्थिति में है। मुख्य द्वार पर जंग खाया लोहे का विशाल दरवाजा अतीत की कहानी कह रहा है। द्वार के सामने रोशनआरा मार्ग के उस पार लाल पत्थर की एक इमारत है,जिसके विषय में कहा जाता है कि उसे भी रोशनआरा ने बनवाया था। आज उसमें दिल्ली नगार निगम का प्राइमरी स्कूल चल रहा है।
रोशनआरा की मृत्यु के लगभग दो सौ वर्षों के अंदर न केवल बाग की स्थिति खराब हो चुकी थी, बल्कि 'समर हाउस' भी ढह गया था। 1875 में दिल्ली के तत्कालीन कमिश्नर कर्नल क्रैक्राफ्ट ने रोशनआरा के मकबरे को छोड़कर 'समर हाउस' सहित सभी इमारतों को गिरवा दिया था और बाग को नया रूप देने का प्रयास किया था। उत्तर की ओर गुलाब के फूलों का बाग लगवाया गया था, जिसके एक ओर पैंतीस फीट चौड़ी नहर खुदाई गई थी। बाग में सर्वत्र रंग-बिरंगे फूलों के पौधे लगवाये गये थे। बाग को लोदीबाग
रूपसिंह चन्देल
देश की धड़कन कही जाने वाली दिल्ली जहां अनेक ऐतिहासिक स्थलों, भवनों, गली-कूचों आदि के लिए प्रसिद्ध है वहीं यहां अनेक ऐतिहासिक बाग और आधुनिक पार्क हैं। 'बेगम बाग', 'रोशनआरा बाग', 'शालीमार बाग' और 'कुदसिया बाग' जैसे ऐतिहासिक महत्व के बागों के अतिरिक्त 'लोदी बाग' (1936) , 'तालकटोरा बाग', 'मुगल गार्डन' (राष्ट्रपति भवन), बुद्ध जयंती पार्क, महावीर जयंती पार्क, कमला नेहरू पार्क आदि के कारण यदि दिल्ली को बागों और पार्कों का शहर भी कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी। लेकिन अधिकांश बागों-पार्कों की स्थिति आज सोचनीय है। यहां के तीन ऐसे बाग हैं जिनका इतिहास शाहजहां से जुड़ता है।
लालकिला आगरा से ग्यारह वर्षों तक हिन्दुस्तान पर शासन करने के पश्चात शाहजहां ने अपनी राजधानी दिल्ली ले जाने का निर्णय किया था। परिणामतः एक नया शहर बसाने की योजना बनी, जिसका नाम शाहजहानाबाद रखा गया। आगरा और लाहौर किलों की तर्ज पर बादशाह के निवास के लिए 'लालकिला' का निर्माण 1638 ई में इज्जत खां की देखरेख में प्रारंभ हुआ। बाद में इस कार्य को अलीवर्दी खां और मकरावत खां ने अंजाम दिया , जिनके साथ अहमद और हमीद नामक इंजीनियरों का अमूल्य सहयोग रहा था। ग्यारह वर्ष पश्चात 1647 में लालकिला बनकर तैयार हुआ तो 8 अप्रैल 1648 को शाहजहां की दिल्ली में ताजपोशी हुई थी। उसके साथ उसके परिवार का दिल्ली आना स्वाभाविक था। बीमार होकर 1657 में आगारा वापस लौटने तक शाहजहां दिल्ली से हिन्दुस्तान पर शासन करता रहा था। अपने शासन काल के इस दौर में बादशाह ने न केवल विश्वप्रसिद्ध जामा मस्जिद और अन्य भवनों का निर्माण करवाया , बल्कि उसके परिवार के सदस्यों ने कई महत्वपूर्ण बाग लगवाये ।
शाहजहां की बड़ी बेटी थी जहांआरा , जिसने पिता की खिदमत में अपना जीवन ही अर्पित कर दिया था। जहांआरा ने चांदनी चौक से सटा (आज के टॉऊन हाल के सामने) एक बड़ा बाग लगवाया था, जिसे 'जहांआरा बाग' या 'बेगम बाग' कहा जाता था। रंग-बिरंगे सुगन्धित फूलों से सज्जित था वह बाग। उसने बाग के मध्य में एक सराय का निर्माण भी करवाया था। प्रसिद्ध इतिहासकार बर्नियर के अनुसार सराय अपनी मेहराबों और स्थापत्य के कारण उस काल की खूबसूरत इमारतों में से एक थी। बाद में अंग्रेजों ने इस बाग का नाम बदलकर 'कंपनी बाग' रख दिया था। यही नहीं इसके बड़े भाग को नष्ट करवाकर दिल्ली रेलवे स्टेशन का निर्माण करवाया । आजादी के बाद इसे पुनः 'बेगम बाग' कहा जाने लगा । चांदनी चौक से पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क इस बाग को दो भागों में बांटती है। आजादी के कुछ वर्षों पश्चात ही इस बाग का पुनः नामकरण किया गया। इसके एक भाग को 'आजाद पार्क' और दूसरे को 'कंपनी बाग' कहा जाने लगा। इस प्रकार 'बेगम बाग' या 'जहांआअरा बाग' इतिहास के पन्नों में दफ्न होकर रह गया, जबकि अपना अतीत का गौरव तो वह बहुत पहले ही खो चुका था।
लोदी बाग
'जहांआरा' या 'बेगम बाग' की भांति दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में 'बादली की सराय' के निकट कश्मीर और लाहौर के शाही 'शालीमार बाग' के अनुकरण पर शाहजहां की एक बेगम अज्जून्निसां ने, जो बीबी अकबराबादी के नाम से जानी जाती थीं, शालीमार बाग लगवाया था। बाग के मध्य में शीश महल नामकी भव्य इमारत बनवायी थी, जिसमें बैठकर वह बाग के सौंदर्य, उसके झरनों, फव्बारों और छोटी नहरों का अवलोकन करती थी। कहा जाता है कि यह वही बाग है, जिसमें ताज के दावेदार भाइयों से मुक्ति पाने के पश्चात आनन-फानन औरंगजेब की ताजपोशी की गई थी। बर्नियर लिखता है कि दिसम्बर, 1664 में कश्मीर और लाहौर प्रस्थान (बीमारी की हालत में) करते समय औरंगजेब ने इसी बाग में पहला पड़ाव डाला था। 1803 के बाद कुछ समय के लिए शीश महल को अंग्रेज रेजीडेण्ट के ग्रीष्मकालीन निवास के रूप में प्रयोग करते रहे थे। कहते हैं सर चार्ल्स मेटकॉफ को यह महल बहुत पसंद था। वह अपनी भारतीय पत्नी के साथ प्रायः वहां आकर रहता था। बाद में उसे 'मेटकॉफ साहब की कोठी' के नाम से जाना जाने लगा था। बाग के विषय में 1825 में पादरी हर्बर ने आहत भाव से कहा था, "यह पूर्णतया नष्ट हो चुका है।" 1857 की क्रान्ति के बाद यह बाग मुगलों की सम्पत्ति नहीं रहा । उसे बेच दिया गया था। पादरी हर्बर के कथन से बाग की आज की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। उसके सभी फव्बारे और पानी के स्रोत पूरी तरह मिट्टी में छुप चुके हैं और यह पता लगाना भी कठिन है कि बाग में निरतंर प्रवाहित होने वाले पानी का उद्गम कहां से होता था।
कंपनी बाग
'शालीमार बाग' की भांति ही अति- ऐतिहासिक महत्व का बाग है 'रोशनारा बाग' । लालकिला से पश्चिम में लगभग तीन मील की दूरी पर शाहजहां की दूसरी बेटी रोशनआरा बेगम ने यह बाग लगवाया था । जहांआरा जहां अपने पिता की चहेती थी, वहीं रोशनआरा औरगजेब की प्रिय। एक प्रकार से वह पिता के विरुद्ध ही रही थी और औरंगजेब के बादशाह बनने के लिए उसने हर संभव प्रयत्न किए और सहयोग दिया था। औरगंजेब के बादशाह बनने के पश्चात उसने प्रथम महारानी (बेगम) के सभी अधिकार प्राप्त कर लिए थे। दरबारियों और जनता में 'बेगम साहिबा' के नाम से प्रसिद्ध रोशनआरा का शासन में पर्याप्त हस्तक्षेप और दबदबा था। एक प्रकार से वह औरगंजेब की मुख्य सलाहकार की भूमिका निभाती थी। सर यदुनाथ सरकार के अनुसार वह इतनी ताकतवर थी कि कई बार औरंगजेब उसकी बात की उपेक्षा नहीं कर पाता था। शिवाजी को आगरा में कैद करवाने के पीछे 'बेगम साहिबा' की ही सलाह थी। उसी रोशनआरा ने लालकिला से बाहर निकल प्रकृति का आनंद लेने और शांति-पूर्वक कुछ क्षण व्यतीत करने के उद्देश्य से 1650 में यह बाग लगवाया था, जो कालांतर में उसीके नाम से चर्चित हुआ। हालांकि तब औरंगजेब बादशाह न था, लेकिन रोशनआरा का दबदबा प्रारंभ से ही था।
रोशनआरा ने बाग के मध्य में एक 'ग्रीष्म महल' (समरहाउस) बनवाया था, जिसके विषय में बर्नियर का कथन है कि वह स्थापत्य कला का अनूठा नमूना था । बाग के चार दिशाओं से चार स्रोत इस 'समर हाउस' तक जाते थे, जिनसे अनवरत पानी इसमें पंहुचता रहता था। जाहिर है ये स्रोत यमुना से निकलते थे। यही नहीं महल के चारों ओर फव्बारे, झरने और बेगम के स्नान के लिए खूबसूरत तालाब था। 'समर हाउस' का जो वर्णन मिलता है उससे स्पष्ट है कि वह आज प्राप्त तालाब और 'रोशनआरा क्लब' के मध्य अवस्थित रहा होगा, जिसे 1875 में कर्नल क्रैक्राफ्ट ने नष्ट करवा दिया था। तालाब यहां आज भी है, लेकिन वह तालाब नहीं किसी गड़ैय्या की भांति है, जिसके पूर्वोत्तर की ओर केवल दो स्थानों पर सीढ़ियां और लाल पत्थर की दीवारें शेष हैं। दक्षिण-पश्चिम की ओर के भाग को समय के हस्तक्षेप ने मिट्टी से ढक दिया है। तालाब के उत्तर-दक्षिण की ओर बेगम के बैठने के लिए छतरियां बनवायी गयी थीं, जो आज भी विद्यमान हैं। बेगम ने बाग को न केवल हरे-भरे वृक्षों से सजाया था, बल्कि रंग-बिरंगे फूल भी लगवाये थे । गर्मी के दिनों में प्रायः बेगम बाग में तशरीफ लाती थी। बर्नियर लिखता है, "जब बेगम का काफिला लालकिला से चलता , उसमें अनेक हाथी होते , जिन पर स्वर्ण जड़ित झूले और झालरें पड़ी होतीं और चांदी की घण्टियों की मधुर टुनटुनाहट से वातावरण झंकृत होता रहता । बेगम स्वर्ण-जड़ित कपड़े से ढकी पालकी में होती थी और उसके आगे-पीछे दो छोटे कद के हाथी चलते थे। बेगम कुछ घण्टे फूलों की मादक सुगंध, ऊर्ध्वगमित फव्बारों और निरंतर प्रवहित झरनों के मध्य शांतिपूर्वक व्यतीत करती थी।"
औरंगजेब की विश्वासपात्र और चहेती बहन इस बेगम का अंत अतंतः दुखद था । 1664 में औरंगजेब अत्यधिक बीमार पड़ा। रोशनआरा को उसके बचने की कोई आशा न दिखी। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर बेगम ने षडयंत्र कर राजकीय मुद्रिका प्राप्त कर ली और औरंगजेब के वास्तविक उत्तराधिकारी उसके बड़े पुत्र शाह आलम को बेदखलकर औरंगजेब के छः वर्षीय पुत्र आजमशाह को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। ऐसा इसलिए, जिससे वह आजमशाह के बालिग होने तक उसके नाम पर शासन कर सके। लेकिन रोशनआरा के दुर्भाग्य से औरंगजेब स्वस्थ हो गया और बेगम के षडयंत्र का पर्दाफाश हो गया। इससे दरबार में न केवल बेगम के अधिकार कम हुए, बल्कि औरगंजेब ने उसे जहर देकर मरवा दिया था। 1671 में बेगम को रोशनआरा बाग में दफना दिया गया, जहां आज भी उसका खण्डहरनुमा मकबरा अवस्थित है। मकबरे के चारों ओर चार कमरे हैं, जो बंद हैं। बेगम की मजार असुरक्षा और देखरेख के अभाव में नष्टप्रायः है। मकबरे के चारों ओर पतली नहर है, जिसमें कभी पानी के फव्बारे चलते रहे होगें। मकबरे के ठीक सामने पूर्व की ओर मुख्य द्वार है, जो ढहने की स्थिति में है। मुख्य द्वार पर जंग खाया लोहे का विशाल दरवाजा अतीत की कहानी कह रहा है। द्वार के सामने रोशनआरा मार्ग के उस पार लाल पत्थर की एक इमारत है,जिसके विषय में कहा जाता है कि उसे भी रोशनआरा ने बनवाया था। आज उसमें दिल्ली नगार निगम का प्राइमरी स्कूल चल रहा है।
रोशनआरा की मृत्यु के लगभग दो सौ वर्षों के अंदर न केवल बाग की स्थिति खराब हो चुकी थी, बल्कि 'समर हाउस' भी ढह गया था। 1875 में दिल्ली के तत्कालीन कमिश्नर कर्नल क्रैक्राफ्ट ने रोशनआरा के मकबरे को छोड़कर 'समर हाउस' सहित सभी इमारतों को गिरवा दिया था और बाग को नया रूप देने का प्रयास किया था। उत्तर की ओर गुलाब के फूलों का बाग लगवाया गया था, जिसके एक ओर पैंतीस फीट चौड़ी नहर खुदाई गई थी। बाग में सर्वत्र रंग-बिरंगे फूलों के पौधे लगवाये गये थे। बाग को लोदीबाग
दर्शनीय 'सौन्दर्य स्थल' के रूप में विकसित करने का प्रयास किया था । शायद यह सब कुछ वर्षों तक रहा भी होगा। लेकिन आज उसके निशान भी शेष नहीं हैं। बाग के पूर्व दिशा में मुख्य द्वार के निकट इन दिनों एक व्यायामशाला बाग की जमीन का अतिक्रमण कर चलायी जा रही है। उत्तर की ओर प्रशासन की ओर से बाग के एक हिस्से को बच्चों के 'ट्रफिक खेल' के लिए विकसित कर लिया गया है। इसी दिशा में काफी बड़े भाग में सी पी डब्लू डी का दफ्तर है। कुछ दिनों पहले तक इसके उत्तर-पश्चिम में 'राजोरिय नर्सरी' हुआ करती थी।
बाग की छाती को दो सड़कें चीरती हैं। एक गुलाबी बाग (यह भी ऐतिहासिक बाग रहा है, लेकिन बढ़ती आबादी और अतिक्रमण के कारण छोटे से भूखण्ड में ही सिमट गया है) से रोशनआरा मार्ग की ओर और दूसरी शक्तिनगर की ओर निकलती है। बाग को रौंदते भारी प्रदूषण छोड़ते वाहन इन सड़कों पर रात-दिन दौड़ते रहते हैं। बाग के नाम पर जो भी पेड़ पौधे बचे हैं प्रदूषण उनके लिए कितना घातक है, न इस विषय में उद्यान विभाग गंभीर है और न ही पुरातत्व विभाग। सातवें दशक में जापानी प्रकृति विशेषज्ञ मोरी इस बाग को देखने आये थे। उन्हें इसमें अपरिमित संभावनाएं दिखी थीं और उन्होंने यहां जापानी ढंग के बाग का सुझाव दिया था, जिसमें झूले, पतली नहरें, जापानी किस्म की छतरियां आदि बनवाया जाना था और बाग को एक खूबसूरत दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया जाना था। लेकिन योजना का क्रियान्वयन न हो सका। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना ने अपने कार्यकाल में बाग को पर्यटन योग्य बनाने के लिए तेरह लाख रुपये मुकर्रर किए थे, लेकिन बाग जैसा था आज भी वैसा ही है।
रोशनआरा
बाग की जीवन्तता किंचित रोचनआरा क्लब के रूप में है। बाग के पश्चिमी छोर के बड़े भू भाग को जहां से कभी 'समर हाउस' के लिए एक जलस्रोत जाता था, दिल्ली गजेटियर (1970) के अनुसार 7 जुलाई, 1923 को रोशनआरा क्लब को तीस वर्षों के लिए मामूली किराये पर लीज पर दे दिया गया था। क्लब में यह तारीख 1922 उल्लखित है। बाद में यह लीज अगले तीस वर्षों के लिए और बढ़ा दी गई थी। आश्चर्य यह कि क्लब के इतिहास से सम्बन्धित क्लब में कोई रिकार्ड नहीं है। क्लब के बीस संस्थापक सदस्यों के नामों के अतिरिक्त क्लब के लोग कुछ भी बताने मे असमर्थ थे। क्लब में आधी रात के बहुत बाद तक लक्ष्मीपुत्रों की गतिविधियों का साक्षी बना रहता है अंधेरे में खोया बाग का पूर्वी हिस्सा। बाग के शेष भाग में उद्यान विभाग को मुंह चिढ़ाते बच्चे दिन भर क्रिकेट खेलते रहते हैं। कभी-कभी बेगम की मजार के पास सत्संग होते भी देखा जा सकता है। बाग के चारों ओर कूड़े के ढेर हर मौसम में सड़ान्ध पैदा करते रहते हैं। अतीत का यह गौरव आज कितना उपेक्षित है !
दिल्ली का एक और ऐतिहासिक बाग है -- 'कुदसिया बाग।' इसे 1748 में बादशाह मुहम्मदशाह की बेगम और अहमद शाह की मां कुदसिया बेगम ने लगवाया था। कुदसिया एक दासी थी, जो बादशाह की बेगम बनने का गौरव प्रप्त कर सकी थी। बाग के लिए उसने कश्मीरी दरवाजे की ओर यमुना का किनारा चुना था। उसमें उसने एक खूबसूरत मस्जिद और एक चबूतरा बनवाया था। चबूतरे पर बैठकर यमुना को निहारा जा सकता था। यमुना की ओर दो मीनारें और पत्थरों की चौरस छत भी बनवायी थी। आज मस्जिद का कुछ भाग ही शेष बचा है, शेष सब नष्ट हो चुका है। आज ये सभी ऐतिहासिक बाग जिस रूप में हैं, यदि समय रहते ध्यान न दिया गया तो इनकी उपस्थिति मात्र इतिहास की पुस्तकों में ही देखी जा सकेगी।
बाग की छाती को दो सड़कें चीरती हैं। एक गुलाबी बाग (यह भी ऐतिहासिक बाग रहा है, लेकिन बढ़ती आबादी और अतिक्रमण के कारण छोटे से भूखण्ड में ही सिमट गया है) से रोशनआरा मार्ग की ओर और दूसरी शक्तिनगर की ओर निकलती है। बाग को रौंदते भारी प्रदूषण छोड़ते वाहन इन सड़कों पर रात-दिन दौड़ते रहते हैं। बाग के नाम पर जो भी पेड़ पौधे बचे हैं प्रदूषण उनके लिए कितना घातक है, न इस विषय में उद्यान विभाग गंभीर है और न ही पुरातत्व विभाग। सातवें दशक में जापानी प्रकृति विशेषज्ञ मोरी इस बाग को देखने आये थे। उन्हें इसमें अपरिमित संभावनाएं दिखी थीं और उन्होंने यहां जापानी ढंग के बाग का सुझाव दिया था, जिसमें झूले, पतली नहरें, जापानी किस्म की छतरियां आदि बनवाया जाना था और बाग को एक खूबसूरत दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया जाना था। लेकिन योजना का क्रियान्वयन न हो सका। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना ने अपने कार्यकाल में बाग को पर्यटन योग्य बनाने के लिए तेरह लाख रुपये मुकर्रर किए थे, लेकिन बाग जैसा था आज भी वैसा ही है।
रोशनआरा
बाग की जीवन्तता किंचित रोचनआरा क्लब के रूप में है। बाग के पश्चिमी छोर के बड़े भू भाग को जहां से कभी 'समर हाउस' के लिए एक जलस्रोत जाता था, दिल्ली गजेटियर (1970) के अनुसार 7 जुलाई, 1923 को रोशनआरा क्लब को तीस वर्षों के लिए मामूली किराये पर लीज पर दे दिया गया था। क्लब में यह तारीख 1922 उल्लखित है। बाद में यह लीज अगले तीस वर्षों के लिए और बढ़ा दी गई थी। आश्चर्य यह कि क्लब के इतिहास से सम्बन्धित क्लब में कोई रिकार्ड नहीं है। क्लब के बीस संस्थापक सदस्यों के नामों के अतिरिक्त क्लब के लोग कुछ भी बताने मे असमर्थ थे। क्लब में आधी रात के बहुत बाद तक लक्ष्मीपुत्रों की गतिविधियों का साक्षी बना रहता है अंधेरे में खोया बाग का पूर्वी हिस्सा। बाग के शेष भाग में उद्यान विभाग को मुंह चिढ़ाते बच्चे दिन भर क्रिकेट खेलते रहते हैं। कभी-कभी बेगम की मजार के पास सत्संग होते भी देखा जा सकता है। बाग के चारों ओर कूड़े के ढेर हर मौसम में सड़ान्ध पैदा करते रहते हैं। अतीत का यह गौरव आज कितना उपेक्षित है !
दिल्ली का एक और ऐतिहासिक बाग है -- 'कुदसिया बाग।' इसे 1748 में बादशाह मुहम्मदशाह की बेगम और अहमद शाह की मां कुदसिया बेगम ने लगवाया था। कुदसिया एक दासी थी, जो बादशाह की बेगम बनने का गौरव प्रप्त कर सकी थी। बाग के लिए उसने कश्मीरी दरवाजे की ओर यमुना का किनारा चुना था। उसमें उसने एक खूबसूरत मस्जिद और एक चबूतरा बनवाया था। चबूतरे पर बैठकर यमुना को निहारा जा सकता था। यमुना की ओर दो मीनारें और पत्थरों की चौरस छत भी बनवायी थी। आज मस्जिद का कुछ भाग ही शेष बचा है, शेष सब नष्ट हो चुका है। आज ये सभी ऐतिहासिक बाग जिस रूप में हैं, यदि समय रहते ध्यान न दिया गया तो इनकी उपस्थिति मात्र इतिहास की पुस्तकों में ही देखी जा सकेगी।
7 टिप्पणियां:
वाह ! दिल्ली के खूबसूरत बागों के बारे में क्या महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई है तुमने !
बहुत मेहनत से लिखे गये इस आलेख के लिये बधाई एवं साथ ही पत्रिका को खूबसूरती से संयोजित करने के लिए भी. पीयूस दयया के अच्छे अनुवाद पढवाने के लिए आभार.
dillee ki yaad kila di, sabhi bago mein mein jaa chuki hoon
dilli abhi bahut door hai mere liye, dekhain kab jaana hota hai
dhanyvad aur sasneh
divya
आज मुझे आप का ब्लॉग देखने का सुअवसर मिला।
वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी
और हमें अच्छी -अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगे
बधाई स्वीकारें।
आप मेरे ब्लॉग पर आए, शुक्रिया.
मुझे आप के अमूल्य सुझावों की ज़रूरत पड़ती रहेगी.
...रवि
http://meri-awaj.blogspot.com/
http://mere-khwabon-me.blogspot.com/
Dear Chandel,
Gone through your topic about the ancient Delhi. It is very much informative for the new generation.
Good work done. Keep it up.
I. BURMAN
sir :: aapne ek niraas vishay ke ubaaoon vivranon ko n keval jeevit tewar diya hain balkii pathaniya rochakta se ninaadit bhi,aap baraabar likhte rahe--yehii prarthna hain,
piyush daiya
sir,yeh ek bahut hi knowledgeble topic hai and I like it thank you.
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