मार्च,८ को महिला दिवस के रूप में मनाया गया. अमेरिका की विदेश मंत्री कोण्डालिसा राइस ने कहा कि भारत के विकास में वहां की महिलाओं का विशेष योगदान है. योगदान तो निश्चित है, लेकिन योगदान करने वाली महिलाओं का प्रतिशत कितना है! क्या कारण है कि महामहिम राष्ट्रपति को यह कहना पड़ता है कि हमारे यहां विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या बहुत कम है. केवल विज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं, प्रबन्धन आदि अनेक क्षेत्रों में यह कमी विचारणीय है. आई.आई.एम. में छात्राओं की संख्या दस प्रतिशत के आंकड़े पार नहीं कर पाते. आई.आई..टी आदि संस्थानों की स्थिति भी ऎसी ही है. कारण बहुत स्पष्ट हैं. समाज में अस्सी प्रतिशत लोगों की सोच लड़कियों को लेकर अठारहवीं शताब्दी वाली ही है. किसी प्रकार अधिक से अधिक स्नातक तक शिक्षा दिलाकर विवाह कर देने तक. इसमें एक पहलू विवाह को लेकर उत्पन्न होने वाली स्थितियों से भी जुड़ता है. अधिक शिक्षिता लड़की के लिए कम से कम उतना शिक्षित वर चाहिए ही और शिक्षित लड़कों की कीमत चुका पाने की क्षमता सामान्य आदमी में नहीं होती. अर्थात दहेज-दानव का निरंतर फैलता जबडा़ लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलाने की आकांक्षा रखने वाले अभिभावकों को हतोत्साहित करता है और समाज (जो कि सदैव दकियानूस ही रहा है) की चिन्ता करने वाले लोग अपनी लड़कियों के स्वैच्छिक चयन को बमुश्किल ही स्वीकार कर पाते हैं. हलांकि इस दिशा में स्थितियां बदल रहीं हैं, लेकिन संख्या नगण्य ही है. लड़कियों के उच्च शिक्षित होने के लिए समाज की सोच को बदलने की आवश्यकता है.
हमारे समाज में हजारों इंदिरा नूयी और कल्पना चावला हैं, लेकिन उन्हें अवसर नहीं मिल पा रहे. इसके लिए अभिभावक जितना दोषी हैं, सरकार- व्यवस्था उससे अधिक दोषी हैं. जब उच्च-शिक्षा की बात आती है, राजनीति और अफसरशाही अपने वास्तविक रूप में दिखाए देते हैं. इसका एक ज्वलंत उदाहरण प्रबंधन संस्थानों में होने वाले सरकारी हस्तक्षेप के रूप में सामने आया. दूसरा रूप देखने को तब मिला जब विदेशी विश्वविद्यालयों ने उच्च शिक्षा के लिए भारत में अपने कैंपस स्थापित करने के प्रस्ताव किए, लेकिन राजनीतिक विरोध के कारण सरकार को उनके प्रस्ताव ठुकराने पड़े. आश्चर्यजनक रूप से विरोध करने वाले वे राजनैतिक लोग थे जो प्रगतिशीलता का दावा करते हैं , लेकिन प्रगति पथ पर अवरोध उपस्थित करने में वे ही सबसे आगे थे. यदि विदेशी विश्वविद्यालय अपने कैंपस यहां स्थापित करने में सफल होते तो जिस शिक्षा को प्राप्त करने के लिए हमारे छात्रों को अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन आदि देशों में जाना पड़ता है वह उन्हें कम शुल्क में अपने ही देश में उपलब्ध हो जाती. कितने अभिभावक हैं जो अपने प्रतिभाशाली बच्चों को विदेश भेज पते हैं ! अर्थाभाव के कारण लाखों प्रतिभाओं को अपनी उच्च शिक्षा की आकांक्षा को दबाना पड़ता है. हार्वर्ड और येल जैसे विश्वविद्यालयों के कैंपस खुलने से न केवल लड़कों को लाभ मिलने वाला था बल्कि लड़कियों की दिशा-दशा में भी परिवर्तन होता. आज हमारे देश के अस्सी हजार छात्र अमेरिका और लगभग इतने ही आस्ट्रलिया में पढ़ रहे हैं. कारण जो भी हों, लेकिन विगत कुछ दिनों से वहां हमारे छात्रों को हिंसा का सामना करना पड़ रहा है.
इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि हमारे यहां उच्च-शिक्षण सस्थानों की संख्या उच्च-शिक्षा पाने के आकांक्षी युवाओं के अनुपात में बहुत कम है. ऎसी स्थिति में विदेशी विश्वविद्यालयों के कैम्पस स्थापित करने से उस कमी की पूर्ति किसी हद तक संभव थी. लेकिन रतनैतिक विरोध और अफसरशाही के चलते वह संभव नहीं हो पाया. एक तथ्य यह भी है कि विरोध करनेवालों के अपने बच्चे उच्च -शिक्षा के लिए अमेरिका आदि देशों में जाते हैं, क्योंकि वे लाखों खर्च करने की क्षमता रखते हैं . विरोध करने वाले क्या इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि वे आम आदमी के प्रतिभाशाली बच्चों को, जो अर्थाभाव के कारण में विदेशों पढ़ने नहीं जा सकते, आगे आने से रोकना चाहते हैं और अपने बच्चों के लिए स्थान सुरक्षित रखना चाहते हैं. वास्तविकता यह भी है कि महिला सशक्तिकरण, महिला विकास और उच्च-शिक्षा के नारे अधिक लगाए जाते हैं, कार्यान्वयन कम किया जाता है.
उच्च-शिक्षा के प्रति व्यवस्था की उदासीनता का एक उदाहरण और है. वर्षों से अमेरिका का सी.एफ.ए. इन्स्टीट्यूट (Chartered Financial Analyst Institute) भारते में अपनी परीक्षा आयोजित करता आ रहा था. लगभग सात हजार छात्र प्रतिवर्ष इस परीक्षा में बैठते हैं. यह एक अंतराष्ट्रीय स्तर का कोर्स है. लेकिन अवरोधकों ने इसके भारत में आयोजित होने का विरोध किया. यहां के एक विश्विद्यालय ने सी.एफ.ए. के विरुद्ध मुकदमा डाल दिया. मुकदमा कोर्ट में और विद्यार्थियों को परीक्षा के लिए श्रीलंका, नेपाल, सिगांपुर आदि पड़ोसी देशों में परीक्षा देने के लिए भागना पड़ रहा है.
विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में कैंपस स्थापित करने का विरोध करने वालों को जानकारी अवश्य होगी कि चीन और मध्य-पूर्व एशिया के देशों ने बिना किसी हिचक के उन्हें अपने देश में कैंपस स्थापित करने की अनुमति दे दी है जबकि चीन को अपना रोल मॉडल मानने वाले अर्थात हर बात के लिए उनकी ओर देखने वाले हमारे राजनेता विरोध कर रहे हैं. वास्तविकता यह है कि चीन आदि ने विश्व-विकास की स्थिति को भलीभांति समझ लिया है, जबकि हमारे यहां के रजनीतिक और अफसर महज षडयंत्रों में जीने के आदी हो गये प्रतीत होते हैं. अतः जब उच्च-शिक्षा के लिए ही अवरोध उत्पन्न किये जा रहे हों तब लड़कियों की उच-शिक्षा के विषय में सोचा जा सकता है.
5 टिप्पणियां:
महिला दिवस पर तुमने बेहद अच्छा, प्रासंगिक और सार्थक पोस्ट दिया है। बधाई।
-सुभाष नीरव
एक उम्दा आलेख.,..बधाई.
मेरे अपने अनुभव से विग्यान के क्षेत्र मे महिलओ को हिन्दुस्तान मे नौकरी देने मे जितना भेदभाव है, उतना शायद ही किसी दूसरे देश मे हो.
विग्यान के कुछ विशयो मे जैसे कि बायोलोजी मे हमेशा, किसी भी विश्व्विधालय मे M. Sc. (zoology, Botany, Biochemistry, Biotechnology, Life science, environmental Science etc.) मे पिचले 15 सालो मे छात्राओ की संख्या, छात्रो से बहुत ज्यादा रही है. यहा तक की पी. एच. डी. मे भी ये अनुपात लग्भग बराबर का है.
पिछ्ले 15 सालो मे किसी भी संस्थान मे हुयी वैग्यानिको की नियुक्ती मे महिलओ क प्रतिशत 5-10% के बीच है. और जिन खास महिलओ की नियुक्ती हुयी भी है, वो सक्षम ज़रूर है, उतनी ही जितने उनके साथी पुरुष, पर उनकी नियुक्ती, के कारण है, उनके, पिता, ससूर, पति, आदि का रसूख या फिर किसी बडे पोस्ट पर बैठे आदमी के साथ शारीरिक सम्बंध.
इस बारे मे भी शोध होना चाहिये कि क्यो, महिलओ की इतनी कम नियुक्ती होती है वैग्यानिक के पद पर जब कि देश भारत मे कई महिलाये शोध कर्ती, है, और अस्थायी पद पर एक लम्बे अरसे से, एक बडी संख्या मे कार्य्ररत है?
अगर इन महिलो को रोज़्गार की और रचनात्मक्ता की आज़ादी नही मिल सकती तो किस बूते पर हम अपनी बच्चियो को इस रास्ते पर आगे बढने के लिये प्रेरित कर सकते है?
पहली बार आपके ब्लाग पर हू, पर अच्छा लग रहा है. आता रहुन्गा.
भारत जैसे विशाल देश को उच्च्ह शिक्षा पर गहन मीमंसअ करनी चाहिये। इस समय भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में नकलची और आत्मविश्वासहीन भरे हुए हैं। विविधता की भयंकर कमिइ है। हर कोई इंजिनीयर या डाक्टर बनने के चक्कर में है। कोई समाजशास्त्री, शिक्षाशास्त्री, भाषाशास्त्री, आदि नहीं बनना चाहता। बस भेंड़-चाल हर जगह हाबी है; स्वतन्त्र-चिन्तन से सभी परहेज करते हैं। कोई लीक से हटकर न सोच रहा है न कुछ कहने का साहस कर पा रहा है। उच्च-शिक्षा में सृजनात्मकता पैदा करने की शक्ति नहीं के बराबर ही है।
एक टिप्पणी भेजें