रविवार, 11 सितंबर 2011

धारावाहिक उपन्यास



’गलियारे’

(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल

(भाग-दो, चैप्टर १९ और २०)
भाग-दो
(19)
मेरठ मेडिकल कॉलेज के आई.सी.यू. में सुधांशु अर्द्धचेतन अवस्था में थे। बीच-बीच में अर्द्धनिमीलित आंखों से आती-जाती नर्सों और डॉक्टरों को देख लेते, लेकिन उन्हें उनके चेहरे धुंधले दिखाई देते। वह यह तो समझ रहे थे कि वह उस समय अस्पताल में थे और यह भी उन्हें याद आ रहा था कि वह सब कैसे हुआ था और ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। तीसरी बार था और कहीं अधिक तेज....वह अपने एक अधिकारी के साथ किसी केस पर चर्चा कर रहे थे कि अचानक उठे दर्द से छटपटा उठे थे। कुर्सी से गिरते बचे थे। अधिकारी ने उन्हें कुर्सी से उतार फर्श पर लेटाया था और देर तक घण्टी पर उंगली रख पूरे दफ्तर में खतरे का संदेश दे दिया था। पांच मिनट में सुधांशु दास मेडिकल कॉलेज के लिए रवाना हो गये थे। वह अधिकारी लगातार उनके हृदय के पास मसाज करता रहा था।
मेडिकल कॉलेज पहुंचने से पहले ही सुधांशु बेहोश हो चुके थे। कब से वह वहां थे, यह उन्हें याद नहीं आ रहा था, लेकिन स्टॉफ के लोग उन्हें कैसे मेडिकल कॉलेज लेकर आये थे यह अवश्य याद था।
मेडिकल कॉलेज के उस आई.सी.यू. से वह पूर्व परिचित थे। एक वर्ष पहले जब दूसरा हार्ट अटैक हुआ था तब वह मेरठ में ही थे और वहीं उनकी ओपेन हार्ट सर्जरी हुई थी। तीन महीने तक बिस्तर पर पड़े रहने के बाद उन्होंने कार्यालय ज्वाइन किया और जल्दी ही पूर्ववत स्थिति में आ गए थे। वह अपने को जीवटवाला व्यक्ति कहते और इसीलिए उनकी दिनचर्या पूर्ववत प्रारंभ हो गयी थी।
सुधांशु को जब पहला हार्ट अटैक हुआ तब वह जबलपुर में थे और तब भी अकेले थे। पिछले दोनों अटैक में उन्हें प्रीति की बहुत याद आयी थी और स्वस्थ होने पर उन्होंने चाहा था कि वह कुछ दिनों के लिए उसके पास जाकर रहें, लेकिन दोनों ही अवसरों पर होश रहते उन्होंने अपने अघिकारियों को संक्षेप में केवल इतना ही कहा था कि वे प्रीति को सूचना नहीं देंगे।
'लेकिन क्या प्रीति को उनकी अस्वस्थता की जानकारी प्राप्त नहीं हुई होगी। 'हम एक ऐसे विभाग के सदस्य हैं जहां खबरें सेकेण्डों में हजारों मील की दूरी तय कर लेती हैं....।' दोंनो बार स्वस्थ होने के बाद वह सोचते रहे थे, लेकिन इस बार मेडिकल कॉलेज ले जाने के लिए कार में लेटाये जाते समय उन्होंने अपने सहायक निदेशक (प्रशासन) दिलीप बत्रा से मंद स्वर में कहा था, ''प्रीति दास को सूचित कर दो।''
लेकिन प्रीति दास को सूचित करने के बत्रा के सभी प्रयास विफल रहे थे। वह सीधे उनसे बात करना चाहता था, लेकिन सफल न हो पाने पर उसने उनके पी.ए. चन्द्रभूषण को कहा था।
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चटख लाल साड़ी और उस पर सफेद कोट पहने सामने से आती महिला डाक्टर को धुंधली आंखों से देख सुधांशु बुदबुदाए, ''तुम आ गई प्रीति?''
जिस क्षण सुधांशु ने यह कहा, डाक्टर बिल्कुल उनके निकट थी। उन्हें विश्वास हो गया कि वह प्रीति ही थी और उनके होठ पुन: हिले ,''प्रीति....।'' महिला डाक्टर के कदम ठिठक गए। वह उनके निकट आयी और पूछा, ''आपने कुछ कहा?''
सुधांशु ने आंखें फाड़ देखना चाहा कि वह प्रीति दास ही थी न लेकिन तभी उन्हें डाक्टर की आवाज सुनाई दी, ''नर्स, देखो मरीज को कुछ चाहिए...नर्स...।'' और दूर से लपककर अपनी ओर आती नर्स को सुधांशु ने देखा। डाक्टर जा चुकी थी।
''मिस्टर दास, आर यू ओ.के.?'' नर्स उन पर झुकी हुई थी।
''यह.....।'' वह फुसफुसाए।
''डाक्टर से आप कुछ कह रहे थे?''
सुधांशु ने नर्स की ओर अर्द्धनिमीलित दृष्टि से देखा और आंखें मूंद लीं।
नर्स देर तक उनकी नब्ज देखती रही....और उनसे पुन: कुछ कहे बिना वापस अपने केबिन में लौट गयी थी।
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(20)
शोभाराम को मिसेज प्रीति दास के बंगले में ताला बंद मिला। वह लगभग एक घण्टा बंगले के बाहर फुटपाथ पर बैठा रहा। पूरा बंगला अंधकार में डूबा हुआ था सिवाय एक चालीस वॉट के बल्ब के जो बंगले में लॉन की ओर जल रहा था। बंगले के सामने फुटपाथ पर तने खड़े खंभे पर ट्यूब लाइट जल नही थी और उसीकी रोशनी में बंगले के गेट पर लटकता ताला उसे दिखाई दे रहा था। कुछ समय और बीता, लेकिन बंगले में झींगुरों की आवाज के अलावा उसे कुछ नहीं सुनाई दिया। उसने घड़ी देखी, साढ़े आठ बज रहे थे। वह साईं बाबा मंदिर की ओर चल पड़ा, 'कुछ प्रसाद ही मिल जाए....भूख कम हो' सोचता हुआ।
रास्ते में खयाल आया कि मैडम के बंगले में ताले की सूचना उसे किसी को देनी चाहिए, वर्ना सोमवार उससे जवाब तलब किया जायेगा। बीच में दो दिन की छुट्टी है.....मामला गंभीर है और उसे इसे टालना नहीं चाहिए। 'शायद साई बाबा मंदिर के पास की किसी दुकान में पी.सी.ओ. हो।' उसने कदम तेज कर दिए, 'चन्द्रभूषण ने अपने घर का फोन नंबर लिखकर दिया था...।'
साई बाबा मंदिर पहुंचते नौ बज गये थे। भक्तों की भीड़ देख वह प्रसाद भूल गया और भूल गया अपनी भूख। याद रहा चन्द्रभूषण को फोन करना और मंदिर के पास उसे प्रसाद और फुल-माला की दुकानों के अतिरिक्त कुछ भी नजर नहीं आया।
'अब!' क्षणभर वह खड़ा हाथ फैलाए भिखारियों और लकदक कपड़ों में सुगन्ध बिखेरते हाथ में प्रसाद और फूल आदि थामे पंक्तिबद्ध खड़े भक्तों को देखता रहा, जिनके साफ-सुन्दर चेहरे उसे मोहक लग रहे थे।
'आधी से अधिक दिल्ली भगवान भक्त हो गयी है। शायद ही कोई मंदिर हो जहां लंबी लाइनें न लगती हों....क्या कनॉट प्लेस का हनुमान मंदिर, क्या छतरपुर, कालका जी, झण्डेवालान या यमुना बाजार के मंदिर....ये सब ठहरे बड़े देव स्थान...दिल्ली वालों में असुरक्षा और भय इस कदर घर कर गया है कि गली कूंचों में बने छोटे-छोटे मंदिरों में लोग सुबह पांच बजे से भीड़ लगा लेते हैं। औरतें थाल में पता नहीं क्या सजा उसे पकड़े से ढक सुबह पांच बजे मंदिर जाती दिख जाती हैं।'
उसे याद आया शास्त्रीनगर पेट्रोल पंप के सामने का मंदिर। अस्सी-बयासी तक वहां कुछ नहीं था। खाली जगह पड़ी थी। कुत्ते वहां निवृत्त होते या छोटी झाड़ियों में दिन भर आराम करते थे। किसी को वह जगह जंच गई। उसने वहां एक शिवलिंग रखा और सुबह-शाम उसकी पूजा करने लगा। शिवलिंग महात्म्य की चर्चा गुलाबीबाग, शक्तिनगर, शास्त्रीनगर ही नहीं अशोक विहार की सीमाएं पार कर गयी। कुछ भक्त आने लगे। फिर कुछ गाड़ियां आकर रुकने लगीं, जिनसे सजी-धजी स्त्रियां और तोंदवाले लोग उतरते और थाल में लायी सामग्री चढ़ा देते। कुछ मनौती मानते और चले जाते। दो-तीन महीनों में वह शिवलिंग छोटे-से मठ में बैठा दिया गया और जिस व्यक्ति न उसकी खोज की थी वह वहां सुबह से देर रात तक विराजमान रहने लगा माथे पर तिलक-चंदन लगाए धोती-कुर्ता में।
एक वर्ष बीतते न बीतते वह छोटा-सा तीन फीट गुणा चार फीट, जिसकी ऊंचाई भी तीन फीट ही थी मठ मंदिर का रूप लेने लगा और अगले एक वर्ष में, जहां कुत्ते हगते-मूतते या केलि-क्रीड़ा करते थे वहां भव्य शिव और हनुमान मंदिर खड़ा हो गया था। मंदिर खड़ा हुआ तो भक्तों की भीड़ भी बढ़नी थी और अब वह यमुना बाजार के मंदिर को टक्कर दे रहा है।'
मंदिर में किसी भक्त ने जोर से घण्टा बजाया। वह चौंका, 'शोभाराम यह समय भक्तों और मंदिर के विषय में सोचने का नहीं है। पी.सी.ओ. खोजने का है।'
उसने एक दुकानदार से पूछा और उसके बताए अनुसार पी.सी.ओ. की दुकान खोजने में सफल रहा।
चन्द्रभूषण के बेटे ने बताया, ''पापा अभी तक घर नहीं पहुंचे। दफ्तर से लेट निकले थे...आ रहे होंगे।''
''बेटा उन्हें बताना कि मैडम दास के घर ताला बंद है।''
''अंकल ...पापा अभी आने ही वाले हैं। आप थोड़ी देर बाद फोन कर लीजिएगा।''
''मैं पी.सी.ओ से फोन कर रहा हूं बेटे।''
''अंकल थोड़ी देर बाद कर लेना...पापा को यह सब आप ही बता देना।''
'अजब बच्चा है।' किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा शोभाराम सोचता रहा, 'चलो शोभाराम, एक बार और मैडम के बंगले की ओर...।' उसने घड़ी देखी साढ़े नौ बजने वाले थे। वह तेजी से बंगले की ओर बढ़ा। दूर से ही बंगले के गेट पर ताला लटकता देख वह उल्टे पांव पलट पड़ा। पी.सी.ओ वाला दुकान बंद कर रहा था। उसने लपककर आवाज दी, ''भाई साहब, एक फोन और....मेहरबानी होगी।''
''किधर करना है?'' भोजपुरी लहजे में पी.सी.ओ. वाले ने पूछा, जो पान की दुकान भी चलाता था।
''लोकल....शाहदरा...।''
''कर लो।'' फोन उठाकर उसके सामने रखता हुआ वह बोला।
''हेलो, मैं शोभाराम चपरासी बोल रहा हूं।'' अब तक वह इतना खीज चुका था कि उसने जानबूझकर अपने नाम के साथ चपरासी शब्द जोड़ा।
''शोभाराम, बोलो...।'' चन्द्रभूषण की आवाज सुन शोभाराम की जान में जान आयी।
''सर, आपके बेटे ने बताया होगा।''
''यार, ये बच्चे कहां कुछ बताते हैं। टी.वी. से चिपके बैठे हैं। तुमने फोन किया था?''
''जी सर।''
''मैडम को बता दिया।''
''वही तो दुख है सर।''
''क्यों?''
''मैडम के बंगले में अंधेरा छाया हुआ है सर।''
''सो गयी होंगी....आज दिन भर मीटिंग में थीं....थक गई होंगी।''
''सर, सोयेगा कोई तभी न जब हाजिर होगा। बंगले में ताला लटक रहा है।''
''यार, शोभाराम, वहां सुधांशु सर को सीरियस हार्ट अटैक पड़ा है....।''
''सर, उन्होंने मैडम को बता दिया होता कि उन्हें अटैक पड़ने वाला है....तब शायद वो कहीं न जातीं....।''
''क्या बोल रहे हो? हर समय तुमहारा मजाक अच्छा नहीं लगता। एक भले आदमी....।''
''सर, आप बताएं मैं कहां से खोज लाऊं प्रीति दास को! अब ये पी.सी.ओ. भी बंद होने वाला है। आप आगे जिसे चाहें फोन करें।''
''क्या मतलब?''
''मतलब यह कि अब मैं फोन पर भी आपको कुछ बता न पाऊंगा। इस इलाके में यह इकलौता पी.सी.ओ. रात में खोजे से मिल गया...दूसरा खोजना मेरे वश में नहीं और जब ये भाई साहब इसे बंद करने जा रहे हैं तब दूसरे भी क्या खुले मिलेंगे।''
''हां, दस बज रहा है।'' चन्द्रभूषण ने क्षणभर कुछ सोचा, फिर बोला, ''शोभाराम, तुम मैडम के बंगले की ओर से निकल जाओ...तब तक मैं विपिन सर को फोन करके वस्तुस्थिति बता देता हूं। वर्ना सोमवार को मैडम भले ही कुछ न कहें....ये हरामी का बीज हम दोंनो का जीना हराम कर देगा।''
''जैसा हुकम सर। मैं उधर से होकर घर चला जाऊंगा। आदर्श नगर जाना है सर। बहुत दूर है यहां से। रात बारह बजेगा....मेरे घर वाले परेशान होंगे। आप बताइये मैं उन्हें कैसे बताऊं कि मैं यहां बंगला झांकता घूम रहा हूं।'' और शोभाराम ने चन्द्रभूषण की बात सुने बिना ही फोन काट दिया। लेकिन इस बार वह मिसेज दास के बंगले की ओर न जाकर घर जाने के लिए बस पकड़ने बस स्टैण्ड की ओर चला गया।
शनिवार-रविवार भी मिसेज प्रीति दास के बंगले में ताला बंद रहा। उनकी कार भी नहीं थी। बाद में ज्ञात हुआ कि वह माया और अपने लेब्राडोर साशा के साथ अपनी कजिन से मिलने जयपुर चली गई थीं, जिसकी अनुमति उन्होंने पहले ही हेडक्वार्टर ऑफिस से ली थी।
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1 टिप्पणी:

ashok andrey ने कहा…

priya chandel kaphi samay ke upraant yeh upanyaas ansh padaa isme rishton ki tootan ko bade hee saphal tarike se vayakhakt kiya hai jise bistar par pada vykti hee mehsoos kar saktaa hai jab kribi rishte bhee anjaan hone lagte hain.