रविवार, 2 अक्तूबर 2011

धारावाहिक उपन्यास

’गलियारे’
(उपन्यास)
रूपसिंह चन्देल
(चैप्टर २४ और २५)

(24)


प्रशिक्षण के बाद प्रीति की पहली पोस्टिंग देहरादून कार्यालय में हुई। उससे पहले अपने बैच के तेरह अधिकारियों के साथ एक सप्ताह के लिए उसे दिल्ली स्थित प्रधान कार्यालय में पोस्ट किया गया था। सभी अधिकारियों के ठहरने की व्यवस्था कैण्ट स्थित गेस्ट हाउस में थी। वहीं उस विभाग का प्रशिक्षण केन्द्र भी था। सप्ताह के चार दिन उस बैच के अधिकारियों को सुबह से शाम तक विभागीय प्रशासनिक सेवा संबन्धी प्रशिक्षण दिया गया। इसके लिए प्रधान कार्यालय के उच्च अधिकारी आए और उन्होंने विभागीय कार्य शैली के साथ ही यह भी बताया कि उन लोगों को अपने अधीनस्थों के साथ किस प्रकार पेश आना होगा, कि वे देश की उस सेवा वर्ग का हिस्सा हैं जिसे विशिष्ट, महान, प्रतिभाशाली और गौरवशाली माना जाता है। वे ही देश के हाथ-पैर हैं। भले ही आम जनता उनसे सीधे संपर्कित नहीं, लेकिन वे जिस कार्य के लिए नियुक्त हुए हैं वह किसी भी सचिव या कलक्टर से कम महत्वपूर्ण नहीं है। वे उन समस्त सुविधाओं के अधिकारी हैं, जो मंत्रालय में बैठे आधिकारी भोगते हैं या देश के कर्णधार कहे जाने वाले नेता।
उन अधिकारियों ने उन्हें यह भी बताया कि अब उनका अपना अलग वर्ग है और उन्हें उसी वर्ग विशेष का हिस्सा बनकर रहना है। अपने मातहतों से अधिक संपर्क-संबन्ध उनके पद की गरिमा के अनुकूल नहीं होगा।
प्रीति ने घुट्टी की भांति उन नसीहतों को ग्रहण किया। पिछले दो वर्षों में उसमें एक अलग प्रकार का परिवर्तन हो चुका था और यह परिवर्तन सुधांशु से छुपा नहीं था। विभागीय प्रशिक्षण के अंतिम दौर में वह पन्द्रह दिनों के लिए पटना कार्यालय गयी थी, लेकिन एक बार भी वह सुधांशु के ऑफिस के कमरे में नहीं गई। दिन में वह अपने बैचमेट्स के साथ रहती और सेक्शन-दर सेक्शन घूमती। घर में वह सुधांशु के रहन-सहन पर टीका-टिप्पणी करने लगी थी। ''टॉवेल साफ नहीं है, कपड़े ढंग से प्रेस नहीं हैं...कैसे अफसर हो तुम सुधांशु ....टिपटॉप रहना सीखो....गांव को कब तक ढोते रहोगे....दफ्तर के बाद लिखना-पढ़ना ....कुछ प्रैक्टिकल बनो...अखबारों-पत्रिकाओं में छपने से कुछ हासिल नहीं होगा....देखते हो अपने संयुक्त निदेशक को....लग्जरी कार में चलते हैं। वेतन से कभी ऐसी कार खरीद पाते वह?....कुछ सीखो उन लोगाें से। लेकिन सुना कि मेरी अनुपस्थिति में तुम इन सब चीजों पर ध्यान देने के बजाय फटीचर हिन्दी कवियों के साथ अधिक समय बिताते रहे हो।''
''किसने कहा यह सब तुमसे?'' सुधांशु चुप नहीं रह सका।
''पूरा दफ्तर जानता है। कोई एक कहता तब विश्वास नहीं होता...।''
''प्रीति मैं दूसरों की भांति नहीं हो सकता। मैं जो हूं वही रहना चाहता हूं। अफसर होने का यह मतलब नहीं कि अपनी जड़ों से कट जांऊ।''
''मत कटो।'' पैर पटकती प्रीति दूसरे कमरे में चली गयी थी।
- - - - - - - -
पटना का प्रशिक्षण समाप्त होने के बाद उसके बैच के सभी लागों को एक बार पुन: दिल्ली जाना था, अपनी पोस्टिगं के लिए। प्रीति ने जब सुधांशु को बताया कि उसे सोमवार को हेडक्वार्टर ऑफिस पहुंचना है और उसका आरक्षण अपने बैचमेट्स के साथ है शुक्रवार का तब सुधांशु बोला था, ''तुम आरक्षण बदलवा लो....रविवार की किसी गाड़ी से चलकर सोमवार को सुबह पहुंच जाना।''
''हम सभी को रिसीव करने के लिए हेडक्वार्टर ऑफिस के लोग आएंगे....और अब समय भी नहीं है....।''
''हुंह...।'' कुछ देर सोचने के बाद सुधांशु बोला, ''तुमने पहले क्यों नहीं बताया.....दो दिन पहले बता रही हो...लेकिन अभी भी मैं कोशिश कर सकता हूं.....तुम्हारे साथ और दो दिन रहने के लिए मिल जाएंगे।''
''सभी टिकटें एक साथ हैं।''
''तुम चाहो तो मैं व्यवस्था कर लूंगा।''
''यार, दो साल से अलग हैं... दो दिन में .....।''
''ओ.के.।'' सुधांशु का मन कचोट गया। उसने दीर्घ निश्वास ली।
प्रीति के साथ एक लड़की थी कुलविन्दर कौर, जिसका परिवार चण्डीगढ़ में था। दिल्ली पहुंचकर उसने चण्डीगढ़ जाने का निर्णय किया हुआ था। स्टेशन से उसे सीधे आई.एस.बी.टी. जाना था। दो दिन घरवालों के साथ बिताकर सोमवार सुबह सीधे हेडक्वार्टर ऑफिस पहुंचने का उसने निर्णय किया हुआ था। यह बात स्वयं प्रीति ने सुधांशु को बतायी थी।
'सभी अपने परिवार के साथ अधिक समय बिताना चाहते हैं, लेकिन...।' इसके आगे सुधांशु ने नहीं सोचा।
प्रीति शुक्रवार को राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली चली गई। सुधांशु उसे छोड़ने स्टेशन गया। प्रीति के बैचमेट्स सुधांशु से जूनियर थे इसलिए वह सभी के लिए 'सर' था। हालांकि आयु में दो-तीन उसके हमउम्र थे। लेकिन यही दस्तूर था, और वह जानता था कि केवल उसीके विभाग का नहीं, सभी विभागों में ऐसा ही होता है कि अपने से दस दिन सीनियर को भी सभी 'सर' संबोधित करते हैं और जब कोई पद में एक-दो रैंक बड़ा होता है तब उसके सामने यूं विनयावनत रहते हैं कि यदि वह उन्हें घुटनों के बल रेंगने के लिए कह दे तो वे वह भी करने को तैयार हो जायें।
तीन दिन तक प्रीति और उसके बैच के सभी लोग, जिन्हें सहायक निदेशक पद से अलंकृत किया जाना था, मुख्यालय जाते रहे। अब वे विभाग के अतिथि नहीं थे, जैसा कि वे तब थे जब वे वहां प्रशिक्षण के दौरान थे। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से गेस्ट हाउस पहुंचाने के बाद उनकी खैर-खबर लेने के लिए कोई नहीं आया। स्वयं ऑटो-बस की सेवाएं लेकर वे सब मुख्यालय पहुंचते रहे। सुबह से देर शाम तक एक-दूसरे के चहरे देखते वे बैठे रहे। बात भी करते तो फुसफुसाकर। प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने जान लिया था कि 'पिन ड्रॉप साइलेंस' किसे कहा जाता है। वे सब इस इंतजार में दरवाजे की ओर ताकते बैठे रहते कि कोई अफसर आकर उन्हें सूचित करेगा कि उनकी प्रतीक्षा की घड़ी समाप्त हो चुकी और कुछ ही देर में उन्हें पोस्टिगं आर्डर दिया जाएगा। लेकिन अनुशासन के बोझ से झुकी गर्दन वाले भाव से भरे कनिष्ठ और उच्चाधिकारी उनकी ओर रुख नहीं कर रहे थे। उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि यह भी उनके प्रशिक्षण का ही हिस्सा है। वे भी कभी उच्चाधिकारी होंगे....तब उन्हें भी अपने जूनियर्स के साथ ऐसे ही पेश होना होगा। ब्यूरोक्रेसी के ये अघोषित नियम हैं और यह भाव आते ही उनकी उकताहट कम हो गयी थी। 'इंतजार का अंत होता ही है....यह प्रकृति का नियम है।'
बीच-बीच में कभी दरवाजा खुलता और कोई चेहरा अंदर झांकता, फिर ससंकोच अंदर दाखिल होता और अत्यंत विनम्र स्वर में बताता कि अमुक-अमुक को अमुक अफसर ने अपने चेम्बर में बुलाया है।
जिन लोगों को बुलाया जाता वे प्रशिक्षण के दौरान मुख्यालय से मिले अपने बैग थामे उस व्यक्ति के पीछे हो लेते। उस अफसर के साथ उन लोगों की मीटिंग पन्द्रह मिनट से दो घण्टे तक होती, जिसमें वरिष्ठ अफसर उन्हें उनकी कनिष्ठता का एहसास करवाते हुए नए सिरे से उन्हें प्रशासनिक नुक्ते बताता। बारी-बारी से सभी को तीन-चार के बैच में जाना पड़ा, शेष दीवारों पर टंगी पेटिंग्स देखते या एक-दूसरे के चेहरे पढ़ते बैठे रहे।
प्रीति और कुलविन्दर को सबसे पहले महानिदेशक ने बुलाया, अपरान्ह लंच के बाद उन्हें अपर महानिदेशक प्रशासन ने याद किया। और पांच बजे के लगभग देवेन्द्र प्रताप मीणा ने बुलाया। मीणा उन दिनों भी मुख्यालय में था और सभी प्रशासनिक फाइलें उकी नजरों से होकर ही गुजरती थीं।
मीणा लगभग पांच फीट नौ इंच लंबा, गोरा-बड़ी आंखें, चौड़ा माथा, फूले गाल...आकर्षक पर्सनालिटी वाला व्यक्ति था। जब उसे यह पता चला कि प्रीति सुधांशु दास की पत्नी है, वह किलकता हुआ बोला, ''ओह ...सुधांशु....आई नो हिम....ही इज अ नाइस पर्सन। वेरी नाइस....अ बिट शाई नेचर्ड....।''
प्रीति मुस्कराती रही।
''तो वह पटना में है....।''
''जी।''
''आप दोंनो क्लास-फेलो थे...?''
''नहीं, मैं उनसे एक वर्ष जूनियर थी।''
''और नौकरी में भी जूनियर....हा...हा...।''
मीणा ने घण्टी बजायी। घण्टी की आवाज के साथ ही चपरासी दरवाजा खोलकर झांका।
''तीन कॉफी।''
''सर, बड़े साहब के यहां से हम लोग पीकर आए हैं।''
''बड़े साहब....अरे यहां मुझे छोड़कर सभी बड़े साहब ही हैं....किन बड़े साहब की बात कर रही हो कुलविन्दर?'' एक नोट पर हस्ताक्षर करता हुआ मीणा बोला।
''सर, अपर महानिदेशक, प्रशासन के साथ।''
''उनसे अधिक अच्छी और हॉट कॉफी मैं पिलाउंगा। क्यों प्रीति....?''
''सर।''
''खड़ा चेहरा क्या तक रहा है....तीन कॉफी लेकर आ।'' मीणा ने चपरासी को डांटा।
''सॉरी सर।'' घबड़ाकर चपरासी ने दरवाजा बंद कर दिया।
''आर यू आल्सो मैरीड?'' मीणा ने कुलविन्दर की ओर रुख करके पूछा।
''नो सर।''
''ओ.के.।'' वह प्रीति की ओर मुड़ा। उसने एक और फाइल उठा ली थी। उसमें कुछ पढ़ते हुए उसने प्रीति से पूछा, ''प्रीति, शादी के बाद आई.ए.एस. करना कठिन होता है....कैसा था अनुभव?''
'' मेरे साथ ऐसा नहीं था सर। मेरी तैयारी पहले से ही थी।''
''ओ.के.।'' प्रीति कुछ और भी कहना चाह रही थी लेकिन उसे रुकना पड़ा, क्योंकि मीणा इंटरकॉम पर किसी को डांटने लगा था।
''फाइल ले जाओ और नोट को नये सिरे से लिखो...अंग्रेजी नहीं आती तो कोई कोर्स ज्वायन करो मिस्टर....तुम्हे सेक्शन अफसर किसने बना दिया! काबिलियत चपरासी की भी नहीं...बने हुए हो सेक्शन अफसर।''
मीणा ने इंटरकॉम रखा ही था कि सेक्शन अफसर अपराधी की भांति कमरे में दाखिल हुआ और ''सर'' कहकर हाथ बांध खड़ा हो गया।
मीणा ने फाइल फर्श पर पटकते हुए तीखे स्वर में कहा, ''नोटिंग-ड्राफ्टिंग नहीं आती? ...उठाओ फाइल और घर जाने से पहले ड्राफ्ट दोबारा लिखकर लाओ।''
''जी सर।'' कांपते हाथों सेक्शन अफसर ने फाइल उठायी, उसे सहेजा क्योंकि पटकने से फाइल अस्त-व्यस्त हो चुकी थी, और दबे पांव लौट गया।
मीणा कुलविन्दर और प्रीति को और देर तक रोकना चाहता था लेकिन कॉफी समाप्त होने के साथ ही महानिदेशक का चपरासी दरवाजे से झांका तो मीणा बोला, ''यस?''
''सर, बड़े साहब बुला रहे हैं।''
''मुझे या इन मैडमों को।''
''सर, आपको।''
''ओ.के.....सॉरी प्रीति-कुलविन्दर...हम कल फिर मिलेंगे।'' मीणा ने नोट पैड पकड़ा और महानिदेशक से मिलने जाने के लिए व्यस्तता प्रदर्शित करता हुआ बोला, ''एनी प्राब्लम?''
''नथिंग सर।''
''कुछ होगी तो बेहिचक बताना...।'' वह दरवाजे की ओर बढ़ा, ''कल नहीं तो परसों आप लोंगो की पोस्टिगं मिनिस्ट्री से आ जाएगी।''
''थैंक्यू सर।'' कुलविन्दर और प्रीति भी मीणा के साथ बाहर जाने के लिए खड़ी हो गयी थीं।
मीणा तेजी से बाहर निकल गया।
अगले दो दिन भी मीणा ने विशेषरूप से प्रीति और कुलविन्दर को बुलाया। तीसरे दिन शाम उसने प्रीति को अकेले बुलाया और बहुत ही रहस्यमय स्वर में बोला, ''आप तैयारी कर लें अगले सोमवार को आपको देहरादून कार्यालय में रिपोर्ट करना है।''
''थैंक्यू सर।''
'' बाबू आप सबको छ: बजे तक आर्डर दे देगा। कुछ देर पहले ही मंत्रालय से आया है, लेकिन यह बात आप किसी को बतायेंगी नहीं।''
''जी सर।'' लेकिन प्रीति अपने को रोक नहीं पायी, ''सर कुलविन्दर?''
''वह लकी है...उसे चण्डीगढ़ मिल गया है।''
''सर, मेरा पटना के लिए नहीं हो सकता?''
''अब नहीं, लेकिन मैं कोशिश करूंगा कि सुधांशु दास का ट्रांसफर देहरादून हो जाए।'' मीणा ने प्रीति के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं, ''पति-पत्नी को एक स्टेशन पर रखने का प्रयास रहता है सरकार का...होना भी चाहिए...सरकार अपने कर्मचारियों के हित के विषय में कितना सोचती है.....इसे उसकी दयालुता मानना चाहिए।''
''जी सर।''
''सो, यू आर अ फेथफुल वाइफ।''
प्रीति का चेहरा लाल हो उठा।
''ओ.के. प्रीति।'' प्रीति के चेहरे पर नजरें गड़ाए हुए ही मीणा बोला, ''मैं सुधांशु के ट्रांसफर के लिए पूरी कोशिश करूंगा ....जितनी जल्दी हो सका...वह देहरादून में होगा।'' मीणा उठ खड़ा हुआ। प्रीति भी खड़ी हो गयी, ''ओ.के....विस अ वेरी हैपी लाइफ...।'' उसने प्रीति की ओर हाथ बढ़ा दिया। प्रीति ने भी हाथ बढ़ाया।
मीणा ने जिस गर्मजाशी से हाथ मिलाया उसे प्रीति ने अनुभव किया।
शाम ठीक छ: बजे सभी को पोस्टिगं आर्डर दे दिए गए। कुलविन्दर विशेष प्रसन्न थी। कुछ अंदर से उदास थे, क्योंकि वे जहां अपनी पोस्टिगं की अपेक्षा कर रहे थे, उन्हें नहीं मिली थी। प्रीति न प्रसन्न थी, न दुखी।
-0-0-0-0-0-0-

(25)

सुधांशु ने एक सप्ताह का अवकाश लिया और प्रीति के साथ देहरादून गया। कार्यालय ने प्रीति के लिए इंस्पेक्शन बंग्लो में एक सुइट बुक करवा दिया था। उसे आशा थी कि जल्दी ही उसे सरकारी मकान मिल जाएगा, लेकिन कार्यालय में उसे बताया गया कि मकान मिलने में कम से कम दो माह का समय लगेगा।
सुधांशु यह सोचकर प्रीति के साथ गया था कि उसके लिए कार्यालय का मकान खाली होगा और वह उसके लिए आवश्यक वस्तुएं जुटा देगा। वह वापस पटना जाये या पूरा अवकाश समाप्त कर लौटे यह वह सोच ही रहा था कि दूसरे दिन शाम चाय पीते हुए प्रीति बोली, ''सुधांशु, तुम दिन भर यहां पडे बोर हो जाओगे। जब तक मकान नहीं मिलता, मैं यहीं रह लूंगी। यहां मेस की सुविधा है और मकान मिलते ही तुम्हे बताउंगी। तुम चाहो तो कल लौट जाओ...।''
''हुंह...।'' सुधांशु सोचता रहा।
''बुरा मत मानना...।''
''इसमें बुरा क्या मानना। यह ठीक रहेगा। लेकिन कल का आरक्षण मिलना कठिन होगा।'' वह सोच में डूब गया।
''मैं यहां के एडमिन अफसर से पूछती हूं कि कल सुबह चार बजे तुम्हारे लिए कोई टैक्सी की व्यवस्था कर सकता है दिल्ली जाने के लिए? वहां से फ्लाइट मिल जाएगी। मिस्टर सिंह को....अपने बॉस दलभंजन सिंह को अभी फोन कर दो कि तुम कल वापस लौट रहे हो।''
''एयर टिकट...?'' चिन्तित स्वर में सुधांशु बोला।
''एडमिन अफसर उसका इंतजाम कर देगा। आजकल सभी काम एजेण्ट करते हैं और इन अफसरों का उनसे कमीशन बंधा होता है।''
''वाह, तुम्हें ज्वाइन किए दो दिन हुए हैं और तुम्हें इन बातों की जानकारी भी हो गई।''
''यार, मैं तुम्हारी तरह केवल कलम घिस्सू अफसर नहीं हूं...एक साल से इधर-उधर भटक कर ट्रेनिंग ली है मैंने और तभी इन बातों की जानकारी भी मिली। मुझे यह भी पता है कि अपने विभाग के किस कार्यालय में कितनी चांदी है।''
''मतलब?''
''मतलब यही कि जहां-जहां कांट्रैक्टर्स के माध्यम से काम होते हैं, वहां उनसे कमीशन बंधा होता है और जहां अफसर सीधे खरीद करते हैं वहां खरीदी गयी वस्तुओं में वे सीधे कमीशन खाते हैं।''
''कमाल है! इतने कम समय में इतनी जानकारी...।''
''जी हां...तुम्हे पता नहीं होगा...लखनऊ कार्यालय प्र.र. कर्मियों के लिए मेडिकल संबन्धी आर्थिक व्यवस्था देखता है। वहां के निदेशक के बारे में अखबारों में धुआंधार समाचार छपते रहे....पढ़ा था?''
''टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दू में तो नहीं थे।''
''यार, देश में ये ही अखबार तो नहीं निकलते। दैनिक जागरण और स्वतंत्रभारत ने निरंतर कई किस्तों में वहां के निदेशक अरविन्द के. श्रीवास्तव के बारे में प्रकाशित किया था कि उन्होंने प्र.र. कर्मियों के लिए दवाएं और प्रर अस्पतालों के लिए इंस्ट्रूमेण्ट्स आदि सप्लाई करने में चार वर्षों में कमीशन के रूप में लगभग डेढ़ करोड़ रुपए कमाए और आश्चर्यजनक रूप से चार वर्षों से मंत्रालय और मुख्यालय को भेजी गई शिकायतों के बावजूद न ही उनके खिलाफ कोई कार्यवाई हुई और न ही उन्हें वहां से हटाया गया।''
''मंत्री जी तक शेयर पहुंचाया गया होगा। क्या पता मुख्यालय में महानिदेशक भी बहती गंगा में हाथ धोते रहे हों।'' क्षणभर चुप रहकर सुधांशु बोला, ''सभी भ्रष्ट है।....एक अरविन्द के.श्रीवास्तव ही क्यों....पूरी व्यवस्था ही सड़ चुकी है। लेकिन यह सब तुम्हें कैसे पता चला...दैनिक जागरण या स्वतंत्र भारत तो तुमने भी नहीं पढ़ा होगा।''
''मैं कविताएं नहीं लिखती न...।'' और प्रीति ठठाकर हंस दी। सुधांशु भी हंसने लगा। उसे अच्छा लग रहा था, क्योंकि आई.ए.एस. में चयनित होने के बाद से वह प्रीति के स्वभाव में आए परिवर्तन को अनुभव करता रहा था। बातचीत में वह अतिरिक्त सतर्कता बरतती थी और गंभीर रहने लगी थी, जिसे वह अन्य अफसरों की भांति बलात ओढ़ी गई कृत्रिम गंभीरता मानता था। इसके लिए उसने एक शब्द दिया हुआ था, ''ब्यूरोक्रेटिक सीरियसनेस'। लेकिन उसने जाना था कि ब्यूरोक्रेट्स जब अपने वर्ग के किसी समकक्ष से मिलते हैं तब उनके चेहरे सामान्य होते हैं।...वे हंसते, मजाक करते...यहां तक कि अश्लील मजाक और बातें करते हैं....दूसरों के बारे में निन्दा और जोड़-जुगाड़ की बातें....।' लेकिन दूसरों और विशेषरूप से अपने अधीनस्थों के प्रति वे 'ब्यूरोक्रेटिक सीरियसनेस' ओढ़ लेते हैं।
''एक बात और सुधांशु....व्यस्ततावश जिक्र करना भूल गयी थी।''
''क्या ?''
''ज्वाइनिंग आर्डर लेने वाले दिन हेडक्वार्टर ऑफिस में डी.पी.मीणा साहब से मिली थी....एडमिन में हैं....महानिदेशक और अपर महानिदेशक प्रशासन के चहेतों में हैं...तुम्हें अच्छी प्रकार जानते हैं...।''
''हां, एक बार की मुलाकात है...वैसे वह प्रशासन में हैं तो विभाग के सभी अफसरों के बारे में उन्हें जानना ही चाहिए...।''
''उन्होंने वायदा किया है कि वह देहरादून के लिए तुम्हारे ट्रांसफर की चर्चा महानिदेशक से करेंगे...कोशिश करेंगे कि जल्दी हो जाए।''
''तुमने इस बारे में चर्चा की थी?''
''बिल्कुल नहीं...उन्होंने स्वयं ही चर्चा की...उन्हें मालूम है...।''
''हुंह।'' सुधांशु क्षणभर कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ''बातों में देर हो जाएगी...पहले अपने एडमिन अफसर को फोन कर लो...।''
''अरे....मैं भूल ही गयी थी।'' प्रीति ने एक्सचेंज के लिए नौ नंबर मिलाया और रिसीवर रख दिया। एक मिनट बाद ही एक्सचेंज से फोन आया, ''एस मैडम।''
''एडमिन अफसर चावला को बोलो कि मुझसे तुरंत आकर इंस्पेक्शन बंग्लो में मिले....शायद अभी दफ्तर में होगा...वर्ना उसके घर...नहीं मिलता तो संदेश छोड़ दो.....।''
''ओ.के. मैडम।'' ऑपरेटर की आवाज सुनी सुधांशु ने।
''अभी दो दिन हुए हैं, लेकिन तुम्हारे तो जलवे हैं।...।''
''यह निर्भर करता है अपने पर....आप अफसर बनकर रहना चाहते हैं या क्लर्क...।'' कहते ही प्रीति ने दांतों तले जीभ दबायी और चुप हो गयी।
''विश्लेषण सही है।' बात सुधांशु को अंदर तक चुभी। 'सोचती है तो सोचे, लेकिन मैं जैसा हूं...वैसा ही रहूंगा। क्लर्क क्या इंसान नहीं...क्लर्क या उससे ऊपर का स्टॅफ न हो तो ये अफसर एक कदम भी दफ्तर की गाड़ी नहीं खींच पायें। निचले पाये की यह उपेक्षा....।'' सुधांशु ने सोचा, 'पिता से अफसरी विरासत में पायी है....जीवन क्या होता है इसे जानने के लिए व्यक्ति को नीचे भी देखना चाहिए...ऊपर सब हरा-हरा ही दिखता है। व्यवस्था के हाथ-पैर होते हैं कर्मचारी...।'
''क्या सोचने लगे? बुरा लगा?''
सुधांशु कोई उत्तर देता उससे पहले ही दरवाजे की घण्टी बजी।
''कम इन।'' सुधांशु की ओर मुड़कर प्रीति बोली, ''लगता है मदन लाल चावला आ गया।''
दरवाजे पर पर्दा पड़ा हुआ था और वह खुला हुआ था। पर्दा उठाकर चावला अंदर झांका।
''कम इन।''
चावला पचास वर्ष का स्थूलकाय, साढ़े पांच फुट लंबा व्यक्ति था, जिसका चेहरा चौडा-भारी, आंखें बड़ी और नाक मोटी थी। पेट बाहर निकला हुआ था, जिससे उसकी पैंट नीचे खिसकी हुई थी।
प्रीति और सुधांशु आमने-सामने सिंगल सोफे पर बैठे हुए थे। चावला ने हाथ में नोट बुक पकड़ रखी थी। उनके सामने पहुंच उसने दाहिना हाथ छाती से लगाकर आधा झुककर उन्हें अभिवादन किया।
'चरम चाटुकारिता। ऐसे लोग धूर्त होते है।' सुधांशु ने मन नही मन सोचा और मेज से इंडिया टुडे उठाकर उसके पन्ने पलटने लगा। उसने चावला की ओर देखा भी नहीं।
''चावला मेरे हजबैंड सुधांशु। पटना में सहायक निदेशक...।'' सुधांशु की ओर इशारा करते हुए प्रीति बोली।
''नमस्ते सर....सर, पटना में दलभंजन सिंह जी हैं....मुख्यालय में मेरे अफसर थे।'' चावला पुन: झुक गया था।
''ओ.के.।'' सुधांशु ने उसे अधिक तरजीह देना उचित नहीं समझा। चाटुकारों से उसे चिढ़ थी।
प्रीति चावला को काम समझा रही थी।
''जी मैम...हो जाएगा। आप बेफिक्र रहें। सुबह चार बजे गाड़ी यहां पहुंच जाएगी....।''
प्रीति ने फिर कुछ कहा, जिसे सुधांशु ने नहीं सुना।
''जी मैम....लेकिन एक विनम्र सलाह है मैम...।''
''बोलिए।''
''मैम चार बजे के बजाय साहब अगर पांच बजे ....बहुत सुबह चलना...वैसे भी सुबह रास्ता साफ मिलेगा। साहब चार-साढ़े चार घण्टे में दिल्ली पहुंच जायेंगे। ग्यारह की फ्लाइट से मैं टिकट बुक करवा दूंगा।''
''पैसे...।''
''मैम, पैसों की चिन्ता न करें...बाद में ले लूंगा।''
''ओ.के.।'' चावला लौटने लगा तो प्रीति सुधांशु की ओर उन्मुख हुई, ''सुधांशु ट्रेन की टिकट चावला को दे दो...उसे ये कल कैन्सिल करवा देंगे।''
''जी मैम...हो जाएगा।''
सुधांशु ने उठकर अपने ब्रीफकेस से टिकट निकाली और प्रीति की ओर बढ़ा दी।
चावला चला गया। रात दस बजे वह पुन: आया दिल्ली से पटना की ग्यारह बजे की एयर टिकट देने और यह बताने कि उसने टैक्सी की व्यवस्था कर दी है। साढ़े चार बजे टैक्सी आ जाएगी। उसने टैक्सी नंबर और एजेंसी का फोन नंबर भी उन्हें दिए।
''वेल डन चावला।'' प्रीति बोली, ''अब कल आप साहब की ट्रेन टिकट कैन्सिल करवा दीजिएगा।''
''हो जाएगी मैम।''
''ओ.के चावला।'' प्रीति के इतना कहते ही चावला ने पूर्ववत झुककर अभिवादन किया और दरवाजे की ओर बढ़ गया।
-0-0-0-0-0-0-

2 टिप्‍पणियां:

ashok andrey ने कहा…

Are bhai eisa laga ki is ansh se tum kaaphi gehre utarne lage ho cheegon ko karib se pakde hue ho,gajab.puri katha mujhe bandhe rahi,badhai.

बेनामी ने कहा…

श्री रूप सिंह जी ,
बात की तह तक पहुचने की आपकी क्षमता
दिल को भा गई और इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं |
वैसे तो आपके हर चरित्र का छाप अभी तक अच्छा ही पड़ रहा है
लेकिन सबसे पसंद आया है सुधाँशु का चरित्र जिसमें कोई भी बनावट
अभी तक नहीं दिखा, लेकिन प्रीती कुछ बदलती लग रही है |लगता है इससे गृह कलह
उत्पन्न होने वाला है | राम बचाए |
रूचि लगातार बनी हुई है |
आपका यह उपन्यास एक उत्तम रचना के रूप में उभर रहा है |

\अचल वर्मा \