शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

आलेख













कौन है द्रौपदी
डॉ. सुमित्रा अग्रवाल
द्रौपदी महाभारत का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्त्री-पात्र तथा इसके कथानक का केन्द्रबिन्दु है। उसका व्यक्तित्व अन्य स्त्री-पात्रों की तुलना में इतना विशाल एवं महत्त्वपूर्ण है कि वह महाभारत के सम्पूर्ण कथानक को गति प्रदान करता है। द्रौपदी मूर्तिमती शक्ति है। आधुनिक नारी रोल मॉडल के लिए जब अतीत की ओर दृष्टिपात करती है तब द्रौपदी की छवि पुनः पुनः उसकी आँखों में कौंध उठती है। कौन है वह द्रौपदी? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए जब हम महाभारत के पृष्ठ पलटते है तो वहाँ दर्शाया गया है कि द्रौपदी का जन्म यज्ञकुंड की अग्नि से हुआ है।
द्रौपदी के जन्म के विषय में महाभारतकार द्वारा प्रस्तुत कथा अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण संकेत लिये हुए है। अतीत में द्रोण द्वारा अपमानित द्रुपद एक ऐसा पुत्र पाना चाहते थे जो युद्ध में दुर्जय और द्रोणाचार्य का विनाशक हो। तदर्थ महर्षि याज और उपयाज की सहायता से उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया। उसी यज्ञ की अग्नि से देवता के समान तेजस्वी एक कुमार प्रकट हुआ। उसके अंगों की कान्ति अग्नि की ज्वाला के समान उद्भासित हो रही थी। उसके माथे पर किरीट सुशोभित था। उसके अंगों में उत्तम कवच धारण कर रखा था। हाथों में खड्ग, बाण और धनुष धारण किये वह बार-बार गर्जना कर रहा था। वह कुमार उसी समय एक श्रेष्ठ रथ पर जा चढ़ा, मानो युद्ध के लिए यात्रा करने को उद्धत हो। तत्पश्चात् यज्ञ की वेदी से एक कुमारी कन्या भी प्रकट हुई जो पांचाली कहलायी। सुन्दर कटिप्रदेश वाली उस कन्या के प्रकट होने पर भी आकाशवाणी हुई - `इस कन्या का नाम कृष्णा है। यह समस्त युवतियों में श्रेष्ठ एवं सुन्दरी है और क्षत्रियों का संहार करने के लिए प्रकट हुई है। यह सुमध्यमा समय पर देवताओं का कार्य सिद्ध करेगी। इसके कारण कौरवों को बहुत बड़ा भय प्राप्त होगा।' यह आकाशवाणी सुनकर समस्त पांचाल सिंहों के समुदाय की भाँति गर्जना करने लगे। उस समय हर्ष में भरे हुए उन पांचालों का वेग पृथ्वी नहीं सह सकी। इस प्रकार द्रुपद के महान यज्ञ में वे जुड़वाँ सन्तानें उत्पन्न हुईं। (महाभारत, आदिपूर्व)
महामुनि व्यास ने लौकिकता और अलौकिकता के जिस समवाय से द्रौपदी सदृश कालातीत पात्र का सृजन किया है उसमें उसका जन्म अलौकिकता की छाया में दर्शाया गया है। यह अलौकिकता इतनी अद्भुत है, इतनी प्रभावशाली है, इतनी विश्वसनीय है कि उससे प्रकीर्ण तीव्र प्रकाश की चौंध में द्रौपदी का वास्तविक जन्म-रहस्य दृष्टि से ओझल रह जाता है और सम्पूर्ण महाभारतीय कथा में तथा उसके पाठकों के मन में द्रौपदी का अस्तित्व अयोनिसम्भवा और अग्निकन्या के रूप में बना रहता है। वस्तुतः दिव्यजन्म एक स्वयं प्रकाशित प्रतीक है जो द्रौपदी के व्यक्तित्व को प्रकाशित कर रहा है।
सम्भवतः इस मिथक की रचना द्वारा महर्षि व्यास अपनी मानसपुत्री द्रौपदी के व्यक्तित्व को एक अद्भुत सामर्थ्य, एक विलक्षणता, एक गरिमा और एक सौन्दर्य प्रदान करना चाहते हैं। द्रौपदी का अलौकिक जन्म उसके व्यक्तित्व को अन्यों की दृष्टि में असाधारण बनाता है। जिससे उसकी असाधारणता को लोक की स्वीकृति और मान्यता मिल सकी है। द्रौपदी लौकिक ही है पर उसकी मानसिक सामर्थ्य अलौकिक है। यह अलौकिक मानसिक सामर्थ्य ही उसकी तेजस्विता का आधार है जो उसके व्यक्तित्व की प्रमुख पहचान है।
इस बिन्दु पर यह भी उतना ही निर्विवाद सत्य है कि एक मानवी का जन्म मानवी के गर्भ से ही सम्भव है। तब प्रश्न उठता है कि कौन है यह द्रौपदी? महाभारत यज्ञ की अग्नि से जन्म की मिथकीय कथा कहकर इस प्रसंग की लौकिकता पर अलौकिकता का एक आवरण डाल देता है। जिससे द्रौपदी की आनुवांशिकता मिथक की ओट में छिप जाती है।
महाभारत के अनुसार द्रुपद को ये दोनों जुड़वाँ सन्तान वनप्रान्तर में स्थित यज्ञवेदी पर मिली हैं (यज्ञ की अग्निशिखाओं से)। इससे स्पष्ट है कि इन दोनों सन्तानों का सम्बन्ध नगर और नगरजनों से न होकर वन और वन में रहनेवाले आदिवासियों से है और यज्ञ की अग्निशिखा से जन्म की जो कथा द्रौपदी के जन्म-रहस्य से जुड़ी है, उसका अभिप्राय सम्भवतः द्रौपदी के राजकन्या बनने की विधि का जुड़ाव अग्नि से दर्शाना है। यहाँ महाभारतकार का उद्देश्य अग्निशुद्धि की इस प्रक्रिया को मिथकीय कथा के द्वारा प्रस्तुत करना है। इस तथ्य की पुष्टि अनेक प्रमाणों के आधार पर की जा सकती है। आदिवासी समाज से द्रौपदी के घनिष्ठ सम्बन्ध की पुष्टि उसके कान्तिमान साँवले वर्ण, लहराते हुए नीले कचपाश और अनुपम देहयष्टि से होती है। उसके सौन्दर्य का मादक प्रभाव भी उसकी इस आनुवांशिकता से जुड़ा हो सकता है। यहाँ यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि यज्ञवेदी से जन्म ग्रहण करने के समय द्रौपदी पूर्णयौवना अप्रतिम सुन्दरी है।
देहगत साम्य के अलावा उसके व्यक्तित्व के मनोवैज्ञानिक स्वरूप में भी आदिवासी कुल से जुड़ाव के पर्याप्त प्रमाण विद्यमान हैं। सर्वप्रथम नागरकन्या और आदिवासी कन्या की स्वतत्रताविषयक अवधारणा में पर्याप्त भेद होता है। नागरकन्या को स्वतंत्रता मिलती है एक बन्द निश्चित घेरे में; जबकि आदिवासीकन्या अपने चारों ओर के मुक्त स्वतंत्र परिवेश से सहज ही अपनी स्वतंत्रता को जोड़कर उसे परम्परासम्मत ढंग से पाती है। द्रौपदी की स्वतंत्र्येच्छा भी ऐसी ही है। द्रौपदी की अदम्य स्वतंत्र्येच्छा सिद्ध करती है कि घेरों में घिरा बन्द जीवन जीना उसका स्वभाव नहीं है। वह स्वतंत्र रही है, स्वतंत्र ही रहना चाहती है। आदिवासी कन्या की ही भाँति अपने मन और शरीर पर वह अपना अबाध अधिकार मानती है। सम्भवतः इसीलिए अपने `जोस्ती' करने के जन्मजात अधिकार का प्रयोग करते हुए वह कृष्ण से जोस्ती यानि सख्य स्थापित करती है। (खस कन्या के युवागृह (रिंगना) में किसी पुरूष साथी से मित्रता को `जोस्ती' कहते हैं। इसमें यौन-सम्बन्ध स्थापित किया भी जा सकता है और नहीं भी। प्रत्येक कन्या को जोस्ती का जन्मसिद्ध अधिकार है जो समाजसम्मत है। यार या जोस्त के नाम को बायीं बाँह पर गुदवाने की भी प्रथा है। जोस्ता आगे चलकर पति भी हो सकता है या जोस्त ही बना रह सकता है। (वुमन ऐंड पॉलीऐंड्री इन श्वाइन जौनपुर, जी.एस. भट्ट, पृ. 116) रोष और मान के चार आँसू उनके समक्ष बहाती है तथा अपने सुगन्धित कचपाश की शपथ में सखा को बाँधकर उनसे अपना अभीष्ट सिद्ध करवाती है। कृष्ण और द्रौपदी के सख्य के मध्य उसके पतियों और कृष्ण के संबंधों की कोई भी छाया नहीं है। स्वयं का अपमान करनेवाले जयद्रथ और कीचक की जिन कड़े शब्दों में वह भर्त्सना करती है तथा अपने शील की रक्षा का समस्त प्रबन्ध स्वयं करती है वह भी उसके इसी स्वतंत्रचेता स्वभाव के अनुरूप है।
आदिवासी समाज के बन्धन निसर्ग निर्मित होते हैं न कि मानव-निर्मित। उनका जीवन प्रकृति द्वारा संचालित होता है। उनका आचरण भी प्राकृतिक न्याय के नियमों के अनुरूप होता है। अतः निर्णय करने में लौकिक शिष्टाचार या अन्य तत्व आड़े नहीं आते। अपनी ही मानसिक ऊर्जा से वे निर्णय करते हैं- उन्हें कार्यान्वित करते हैं। आदिवासी समाज के मानस में न्याय और अन्याय, धर्म और अधर्म की अपनी ही एक अवधारणा होती है और एक बार जब वह अपने प्राकृत मूल्यबोध के अनुरूप अपनी धारणा निश्चित कर लेते हैं, फिर वह उस पर अडिग रहते हैं। द्रौपदी में भी यह प्रवृत्ति पायी जाती है। वह भी एक बार जब अपना मत निश्चित कर लेती है, फिर उस पर अडिग ही रहती है। परिवेश की समस्त प्रतिकूलताओं को अतिक्रमित करते हुए वह अपने अभीप्सित पथ पर आगे बढ़ती ही जाती है। पीछे मुड़कर देखना उसने कभी स्वीकार नहीं किया।
इसी के साथ आदिवासी समाज का प्राकृत न्यायबोध अत्याचार के प्रतिशोध को अनिवार्य मानता है। द्रौपदी के मानस को भी तीव्र प्रतिशोध भावना संचालित करती है। इसी भावना के अन्तर्गत वह मयसभा प्रसंग में दुर्योधन पर हँसती है, वन जाते समय कौरवों की पत्नियों के अमंगल वेश की भविष्यवाणी करती है, अपना अपमान करनेवाले जयद्रथ और कीचक को कड़ा दंड देती है तथा कौरवों से प्रतिशोध की अग्नि को अपने मन में तथा अपने पतियों के मन में निरन्तर तेरह वर्षों तक सुलगाये रहती है। यही नहीं, वनवास की अवधि में मिट्टी की वेदी बनाकर उस पर सोती है। द्रौपदी न केवल अपने अपमान का पूर्ण प्रतिशोध लेती है अपितु वह सदैव धर्म और न्याय को ही मुद्दा बनाती है। आम स्त्री के विपरीत न तो वह सहमती है और न ही करुणा की याचना करती है।
आदिवासी समाज में स्त्री एक व्यक्ति है, उतनी ही सचेतन जितना कि पुरुष, वहाँ वह न तो दोयम श्रेणी की नागरिक है और न केवल उपभोग्य वस्तु। वहाँ स्त्री-पुरूष की समानता में अन्तर मात्रा का है न कि नींव का। अपने जीवन को गति और दिशा देने में स्त्री की निश्चित सहभागिता रहती है। योनिशुचिता का मिथक उसके जीवन को घेर नहीं पाता है क्योंकि स्त्री योनिमात्र नहीं है। आदिवासी समाज में स्त्री काम और विवाह विषयक निर्णयों में तुलनात्मक रूप में अधिक स्वतंत्र है।
नागरी सभ्यता स्त्री को दोयम स्थान प्रदान कर उसे उपभोग की वस्तु समझती है। द्रौपदी की प्राकृतिक अस्मिताचेतना स्त्री के प्रति इस दृष्टिकोण का विरोध करती है। द्यूतपर्व की विडम्बना को अपनी आँखों से देखनेवाली द्रौपदी भीष्म, द्रोण आदि मनीषी पुरुषों को स्त्री को दासी समझने की प्रवृत्ति के प्रति किसी भी प्रकार का विरोध प्रकट किये बिना तटस्थ और निक्रिय देखती है। इसका अतिगम्भीर प्रभाव उसके संवेदनशील मन पर पड़ता है जो उसकी जाग्रत अस्मिताचेतना से युक्त परम्पराभंजक व्यक्तित्व के लिये स्वाभाविक ही है। उसके इस व्यक्तित्व की प्रतिच्छवि हमें आदिवासी स्त्री में मिलती है।
पंचपतिवरण का प्रसंग द्रौपदी के जीवन में आया आरोह नहीं है- अवरोह है। पर अपने व्यक्तित्व की अद्भुत सामर्थ्य द्वारा इस अवरोह को आरोह में परिवर्तित कर स्वयं को श्रेष्ठ पतिव्रताओं की पंक्ति में स्थापित कर द्रौपदी ने अपने बहुपतीत्व की सफलता सिद्ध की है। अत्यन्त विशिष्ट व्यक्तित्व से युक्त पाँचों पांडवों से द्रौपदी का बहुपतित्वयुक्त विवाह द्रौपदी के आकर्षण और उसकी सामर्थ्य में वृद्धि करता है। अपने पाँचों पतियों के साथ उसके सम्बन्ध सख्यपूर्ण हैं; उन पाँचों के साथ वह छठी बनकर रही है। सौन्दर्य, शक्ति, बुद्धिमत्ता, वीरता, संवेदनशीलता, आयु तक रुझान सदृश प्रत्येक बिन्दु पर भिन्न -भिन्न कक्षा पर खड़े पाँचों पांडवों का समन्वित साहचर्य द्रौपदी को समृद्ध बनाता है। युधिष्ठिर के साथ यदि वह बौद्धिक चर्चा करती है तो भीष्म के समक्ष कभी वह स्वामिनी बनती है, कभी बालिका। पति पर निहित जो अधिकारभावना किसी स्त्री को तुष्ट करती है वही अधिकारभावना द्रौपदी के हृदय में भीम के प्रति है। सखा अर्जुन के साथ वह जीवन के सारे सुखस्वप्न देखती है, उनके विरह में उत्कंठित होती है। उसके सामीप्य में पल्लवित और पुष्पित होती है। नकुल और सहदेव पर अपना ममत्व उँडेलकर वह उन्हें तृप्त करती है, स्वयं भी तृप्त होती है। महाभारत की इस सुकुमारी नायिका ने पांडवों की एकता अक्षुण्ण रखी, उन्हें एक सूत्र में बाँधे रखा, उन्हें शक्ति प्रदान की, इसी के साथ द्यूतप्रसंग में उसने उनका संरक्षण भी किया। अपने पतियों को कलंकपूर्ण दासता से मुक्ति दिलाकर हथियारों सहित उन्हें स्वतंत्र कराया है। स्त्री की गरिमा दर्शानेवाले प्रसंगों में इस प्रसंग का स्थान शीर्षस्थ है। बहुपतित्व के रूप में जीवन की द्रौपदी के समक्ष एक कसौटी रखता है। अर्जुन से विवाह का सुखस्वप्न देखनेवाली द्रौपदी उस स्वप्न के भंग होने पर अपना सन्तुलन नहीं होती अपितु पाँचों वीर पतियों से विवाह का अवसर मिलने पर प्रसन्न ही होती है। अपने स्वप्नभंग से उबरकर नवीन परिवेश में स्वयं को समायोजित कर लेती है। यह तथ्य उसके व्यक्तित्व की सहजता, लचीलेपन और व्यवहारकुशलता का अन्यतम प्रमाण है।
योनिशुचिता की परम्परागत आर्य अवधारणा से भिन्न द्रौपदी का विवाह पाँचों पांडवों से होता है और द्रौपदी अपने इस बहुपतित्वयुक्त विवाह का सहज और सफल निर्वाह करती है। उसकी यह सहजता, उसकी यह शक्ति उसे आर्यकुल से भिन्न आदिवासी कुल के समीप ले जाकर खड़ा कर देती है। ये परिस्थितिजन्य प्रमाण सिद्ध करते हैं कि बहुपतित्व द्रौपदी के लिए एक सहज प्रथा है और इसीलिए वह इसका सहज और सफल निर्वाह कर पायी है। इतना ही नहीं अपने गौरवस्मरण के प्रत्येक अवसर पर द्रौपदी अपने पाँच वीर पतियों का स्मरण करती है। इस बिन्दु पर आदिवासी समाज की यह मान्यता बरबस हमें याद आ जाती है| `जितना बड़ा पतियों का समूह, उतनी बड़ी स्त्री की प्रतिष्ठा।' और इसी के द्वारा द्रौपदी के बहुपतित्व के मूल भाव को समझा जा सकता है।
द्रौपदी का स्वयंवर-प्रसंग वह निष्पत्ति है जिसके आधार पर द्रौपदी के पूर्वजीवन की झिलमिल छवि का अंकन महाभारत के आधार पर किया जा सकता है और यह निष्पत्ति सिद्ध करती है कि महाभारत के पटल पर दिव्यजन्मा के रूप में जिसका आविर्भाव महामुनि व्यास ने कराया है उस द्रौपदी का पालन-पोषण अत्यन्त स्वतंत्र परिवेश में हुआ है। उस स्वतंत्र  परिवेश में खिली इस पद्मगन्धा नायिका ने न केवल स्वतत्रा का उपभोग किया है वरन् उसने अपनी स्वतंत्रता के निर्वाह की सामर्थ्य भी अर्जित की है। इसी अर्जित सामर्थ्य का चरम उत्कर्ष है स्वयंवर-प्रसंग में कर्ण का वरण न करने विषयक उसकी स्पष्ट निर्भीक उद्घोषणा।
पांचालदेश की राजकन्या के रूप में अपने अलौकिक सौन्दर्य, असाधारण गुणों और श्रेष्ठ  सामाजिक स्थिति के कारण द्रौपदी सहज ही सबकी प्रशंसा और स्वीकृति प्राप्त करती है। इस प्रशंसा और स्वीकृति ने उसके मौलिक व्यक्तित्व के विकास की ठोस भूमिका प्रस्तुत की और इसी सुदृढ़ भित्ति पर उसका आत्मविश्वास सबलतर होता गया है।
पांचाल के राजप्रसाद में परम क्षत्रिय पिता द्रुपद के सानिध्य में द्रौपदी का जो अग्नि व्यक्तित्व आकार ग्रहण करता है। वह अपने आत्मविश्वास में इतना दीप्त है कि स्वयंवर-प्रसंग में वह स्वयं के स्वयंवर को सम्पूर्ण अर्थछटा में स्वयंवर बना देती है। यों द्रौपदी वीर्यशुल्का है - शर्त के आधार पर मत्स्यवेध करनेवाले पुरूष का वरण उसके लिये अनिवार्य है। परन्तु अपने स्वतंत्र  व्यक्तित्व की विलक्षण सामर्थ्य के द्वारा द्रौपदी इस अनिवार्यता को सहज ही परे कर वीर्यशुल्क पर आधारित स्वयंवर को वास्तविक `स्वयं-वर' बना देती है।
द्रौपदी का साँवला वर्ण, अनुपम देहयष्टि, अदम्य स्वतंत्र्यचेतना, निर्भीक पारदर्शी स्वभाव, अखंड आत्मविश्वास, सहज प्राकृत न्याय के प्रति गहन आस्था, विशिष्ट मूल्यबोध, अन्याय का विरोध करने की प्रबल सामर्थ्य, स्त्री की गरिमा के प्रति सचेत दृष्टि, झरने की अजस्र धारा सदृश ऊर्जासम्पन्न गतिशील व्यक्तित्व तथा महाभारत का सांकेतिक जन्मसन्दर्भ - ये सब मिलकर इस मत की पुष्टि करते हैं कि द्रौपदी सुसंस्कृत नागर समाज की कन्या न होकर प्राकृत आदिवासी समाज की कन्या है। आदिवासी समाज की कन्या के रूप में व्यतीत बाल्यावस्था ने उसे उन चौखटों से परे रखा है जो एक नागरकन्या को घेरे रखती है। अपनी बाल्यावस्था में वह न केवल स्वतंत्र  रही है अपितु स्वतंत्रता के निर्वाह की शक्ति भी उसने अर्जित की है। महाभारत में वह शिशु रूप में नहीं युवती रूप में पदार्पण करती है, निर्मित हो नहीं रही है - निर्मित हो चुकी है, अपनी ही तरह से।
द्रौपदी के आदिवासी समाज से धीनाल जुड़ाव का एक सबल प्रमाण यह भी है कि केवल आदिवासी बहुपतित्वयुक्त प्रदेशों में ही द्रौपदी के मंदिर भी पाये जाते हैं।
इस आदिवासी कुल से सम्बद्ध आनुवंशिकता ने उसके मनस्विनी बनने की आधारभूमि प्रस्तुत की है। अग्नि से उसके जन्म की कथा संकेत करती है उसके आदिवासी समाज से नागर समाज में प्रस्तुत की, उसके मन के एक विशिष्ट भूमिका के निर्वाह के प्रति उन्मुख होने की। मानो इस अग्निस्नान में उसने अपनी सारी पूर्व इच्छाओं, आकांक्षाओं की आहुति देकर पिता द्रुपद के लक्ष्य को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया और पिता के अपमान के प्रतिशोध को अपना जीवन ध्येय समझ लिया।
इन तथ्यों के आधार पर जब `द्रौपदी कौन है?' इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करते हैं तो स्पष्ट होता है कि द्रौपदी की आनुवंशिकता का गहन सम्बन्ध आदिवासी समुदाय से है। उसका राजसी स्वभाव यह सम्भावना जगाता है कि वह किसी आदिवासी समुदाय की राजकुमारी होगी जो कालान्तर में पांचालकुमार द्रुपदकन्या द्रौपदी के रूप में महाभारत के पृष्ठों में साकार होती है।

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क्या द्रौपदी मनस्विनी बन पाई है?
डॉ. सुमित्रा अग्रवाल
महाभारत ने अपने महाकाव्य की नायिका द्रौपदी को विशेषण दिया है - `मनस्विनी'। मनस्विनी यानि अपने अच्छे मन द्वारा संचालित जीवन जीने में समर्थ स्त्री। सद्सद्विवेक द्वारा जो सद् और असद् का भेद समझकर असद् को छोड़कर सद् की ओर कदम बढ़ाती है, ऐसा नहीं है कि मानवीय दुर्बलतायें उसमें नहीं होती पर अपने सजग आत्मनियंत्रण द्वारा उन दुर्बलताओं से ऊपर उठकर वह सत्य की ओर ही उन्मुख होती है।
व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं - मनसोक्त तथा मनस्वी। मनसोक्त व्यक्ति वह व्यक्ति है जो वही करता है जो मन कहता है। मनस्वी व्यक्ति वह व्यक्ति है जो अपने मन की इच्छा पर अपने विवेक द्वारा नियंत्रण कर करणीय कर्तव्य का पालन करता है। इसी प्रकार निर्णय भी दो प्रकार के होते हैं| प्रथम प्रकार के अंतर्गत वे निर्णय समाहित हैं जो अंतःस्फूर्ति के आधार पर लिखे जाते हैं, द्वितीय प्रकार के अंतर्गत वे निर्णय आते हैं जो विवेक के आधार पर लिखे जाते हैं, द्वितीय प्रकार के अंतर्गत वे निर्णय आते हैं जो विवेक के आधार पर लिखे जाते हैं; संकल्पशक्ति के आधार पर लिये जाते हैं। मनुष्य का मन प्रगल्भ है, वह वायु के समान क्षणमात्र में अपनी इच्छा के अनुकूल निर्णय करता है। परंतु चूंकि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है अतः वह अपने विवेक के अनुरूप निर्णय करता है जिसमें उसकी संकल्पशक्ति सहायक होती है। मनस्वी व्यक्ति वह है जो अपनी संकल्पशक्ति के आधार पर मन को रोककर विवेक आधारित निर्णय करता है।
इस निकष के प्रकाश में द्रौपदी की प्रतिमा का अवलोकन करने पर प्रतीति होती है कि महाभारतकार की मानसकन्या द्रौपदी प्रारंभ से ही मनस्विनी है। उसके मनस्विनी बनने की प्रक्रिया का बीजारोपण उसकी आदिम आनुवांशिकता में निहित कतिपय विशिष्टताओं से होता है और फिर पांचालराज द्रुपद के घर में मिले अनुकूल परिवेश के कारण इस प्रक्रिया को धार और गति मिलती है। यह प्रक्रिया निरंतर गतिमान रही है। सर्वप्रथम स्वयंवर प्रसंग में कर्ण को वरण करने का निषेध कर वह अपने मनस्विनी रूप का प्रकाशन करती है। इसी प्रसंग में पुनः एक बार वह अपने इस वैशिष्ट्य को प्रमाणित करती है। स्वयंवर के पश्चात् सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी सव्यसाची अर्जुन को वरण करने विषयक उसका सुखस्वप्न जब भंग होता है तब मननस्विनी द्रौपदी ने उस स्वप्नभंग की छाया द्वारा अपने नवीन दांपत्य को धुंधला नहीं होने दिया है अपितु अपने पांचों वीर पतियों को उत्फुल्ल भाव से स्वीकार कर अपने व्यक्तित्व की शक्ति को सिद्ध किया है। उसके पश्चात् इन्द्रप्रस्थ में जब पांडवों की पटरानी के रूप में द्रौपदी सुख-समृद्धि के शिखर पर विजयमान है उसी समय उसके स्वप्नपुरूष अर्जुन ने जब कृष्णभगिनी सुभद्रा को इन्द्रप्रस्थ के अंतःपुर में उसकी सपत्नी के रूप में ला खड़ा किया तब भी इस दंश को भुलाकर वह सुभद्रा को गले लगाती है।
उसके मनस्विनी रूप का उद्घाटन द्यूतप्रसंग में पूर्णतः हुआ है। अपने जीवन की चरम विडंबना के समय द्रौपदी न तो गिड़गिड़ाती है और न ही अपनी भावनाओं के वश होकर अपना अपमान करने वाले कौरवों को शाप देकर अपनी क्षमता गंवाती है अपितु इस विषम परिस्थिति में भी उसका बुद्धिवाद जागृत रहता है और वह एक ऐसा प्रश्न पूछती है जिसका उत्तर पूरी सभा में किसी के पास नहीं। उसने यह चिंता भी कभी नहीं की कि उसके मन का समर्थन या विरोध कौन-कौन करता है या तथ्यों की कितनी रंगछटायें उसके सम्मुख आई हैं। उसका अटल निश्चय है कि सामर्थ्य से बुरी जो बात है वही कहानी है। पुनः अपने स्त्रीत्व का अपमान करनेवाले जयद्रथ को क्षमा करते समय, स्वयं पर बलात्कार करने का प्रयास करनेवाले कीचक को मृत्युदंड दिलवाते समय द्रौपदी महाभारतकार द्वारा दिये गये `मनस्विनी' विशेषण को सार्थक करती है। परंतु गतिशील ऊर्जा संपन्न व्यक्तित्व से युक्त द्रौपदी यहीं नहीं रुकती; इसके पश्चात् विकास की अगली भावभूमि पर वह खड़ी दिखाई देती है| अश्वत्थामा को क्षमा करते समय। इस संदर्भ में दृष्टव्य है कि एक मन ऐसा भी है जो इतना पावन है कि बीच का रास्ता-विवेक का रास्ता-उसके संदर्भ में आता ही नहीं है। उसकी इच्छा उतनी ही शुद्ध होती है जितनी विवेक के रास्ते आनेवाली इच्छा शुद्ध होती है। ऐसे मन से युक्त व्यक्ति को मनःपूत कहते हैं। मनःपूत अर्थात् ऐसे व्यक्तित्व जो मन से ही पवित्र हो। उस मनःतूप के कारण असत्य तथा अशिव और असुंदर के प्रति उसकी कोई गति हो ही नहीं सकती। जीवन में मिली यातना ने द्रौपदी के व्यक्तित्व का परिष्कार किया है और निरंतर चली इस परिष्कार की प्रक्रिया द्वारा अर्जित शुद्धता और परिपक्वता के फलस्वरूप द्रौपदी का मनःपूत व्यक्तित्व विकास के अंतिम सोपान पर स्थित हो अपने प्रिय पांचों पुत्रों का सोते समय वध करनेवाले अश्वत्थामा को क्षमा करता है। इस अभूतपूर्व क्षण में उसके मातृत्व का विस्तार पुत्रहन्ता को भी अपनी परिधि में ले लेता है। यातना की अग्नि में तपती द्रौपदी संभवतः वैसी ही यातना की अग्नि में गुरूपत्नी को झुलसते हुए नहीं देखना चाहती है या अश्वत्थामा के विवश प्रतिशोध के मर्म को उसने समझ लिया है। पर मनःपूत अवस्था में उसके व्यक्तित्व की यह परिणति उसके व्यक्तित्व परिष्कार की समग्र प्रक्रिया की संगति में ही है।
द्रौपदी मनस्विनी तो प्रारंभ से ही है पर जीवन में मिले विलक्षण अनुभवों की अग्नि में तपकर यह अग्निकन्या निरंतर परिष्कृत होती गई है। अग्नि जलाती है - पवित्र भी करती है। जीवन में पाई अनुभूतियों ने उसे जलाया भी है। पवित्र भी किया है। इस अग्नि में तपकर बाहर निकली द्रौपदी इतनी पवित्र है कि कृष्ण के साथ सरव्य का अभिनव संबंध वह स्थापित कर पाती है। मन की यही पवित्रता उसके सौंदर्य को भी एक अलौकिक दिव्यता की आभा प्रदान करती है जिसकी ओर बार-बार महाभारत में संकेत किया गया है। उसका मनःपूत व्यक्तित्व अपने पूर्ण प्रकर्ष में महाभारत युद्ध के अंत में अश्वत्थामा को क्षमा करने के प्रसंग में उभर आया है जहाँ वह मानुषी की लौकिक भूमिका को अतिक्रांत कर एक अलौकिक भूमिका पर स्वयं को अधिष्ठित करती है।
यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि अपने समय से भिन्न या विपरीत व्यक्तित्व द्रौपदी ने कैसे पाया? इस प्रश्न पर विचार करते समय जो तथ्य हमारे सामने आते हैं वे ये हैं कि अग्नि सदृश तेजस्वी व्यक्तित्व से युक्त महाप्राज्ञा द्रौपदी की आंतरिक प्रवृत्ति अपने काल की सामान्य प्रवृत्ति से पर्याप्त भिन्न है। उसका तेजस्वी व्यक्तित्व दृढ़ संकल्पशक्ति से युक्त है, अपनी इस दृढ़ संकल्पशक्ति का वह निरंतर परिष्कार करती है। अपने तेज पर छाया डालनेवाले किसी भी शक्ति का प्राणपण से विरोध करना और अपने अपमान का प्रतिशोध लेना उसके लिये अनिवार्य है। उसका आत्मविश्वास इतना दीप्त है कि कोई संशय कभी भी उसे नहीं घेरता। प्रत्येक कठिन क्षण में मनस्विनी द्रौपदी का निर्भय अचूक है, अडिग है, स्वतंत्र है, इन क्षणों में वह न सहमती है, न करूणा की याचना करती है अपितु अपनी जागृत अस्मिताचेतना द्वारा उस कठिन क्षण का सामना करती है। द्यूतप्रसंग उसकी इस विशिष्टता का अप्रतिम उदाहरण है। इस प्रसंग में धृतराष्ट्र उदार बनते हैं पर द्रौपदी लाचार नहीं बनती। यह मनस्विनी धृतराष्ट्र के आग्रह पर भी तीसरा वर नहीं मांगती और अपने पतियों को उनके शास्त्रों सहित स्वतंत्र कराकर उनके भावी पराक्रम का मार्ग प्रशस्त कर तीसरा वर मांगने से इंकार कर देती है। इस क्षण के निचाट सूनेपन में वही मन उसे उसकी मर्यादा सुझा देता है।
नागरी सभ्यता स्त्री को दोयम स्थान प्रदान कर उसे उपभोग की वस्तु समझती है। द्रौपदी की जागृत अस्मिता चेतना स्त्री के प्रति इस दृष्टिकोण का तीव्र विरोध करती है। द्यूतपूर्व की विडम्बना को अपनी आँखों से देखनेवाली द्रौपदी ने भीष्म, द्रोण आदि मनीषी पुरूषों को स्त्री को दासी समझने की प्रवृत्ति के प्रति किसी भी प्रकार का विरोध प्रकट किये बिना निक्रिय और तटस्थ देखा तो यह मनस्विनी उनसे जो प्रश्न पूछती है वह उसकी जागृत अस्मिताचेतना का प्रतीक और उसके परंपराभंजक व्यक्तित्व के अनुकूल ही है। वह प्रश्न मानो सनातनकाल से नारी की इयत्ता से जुड़कर पुरूष समाज से उत्तर मांग रहा है। मनस्विनी - द्रौपदी नारी को पुरूष जितनी ही स्वतंत्र और प्रतिष्ठित मानती है इसलिये नारी की छवि पर प्रहार करनेवाले किसी भी प्रयास का यह वीरांगना प्राणपण से विरोध करती है। उसकी यह मुखर अधिकार संचेतनता तथा विरोध करने का सामर्थ्य उसे अपने समय से बहुत आगे ले जाती है और उसे अपने समय से भिन्न व्यक्तित्व प्रदान करती है।

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द्रौपदी, नारी का एक सचेतन और मनस्वी रूप
डॉ. सुमित्रा अग्रवाल
महाकवि व्यास की मानस कन्या, योगिराज, कृष्ण की परमसखि, पाण्डुपुत्रों की अभिसारिका और महाभारत जैसे विश्व के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ की महानायिका द्रौपदी स्त्री रूप में सदियों से एक किंवदन्ती की तरह स्थापित है।
प्रस्तुत है `अक्षरा' में महाभारत काल के एक सजीव और गौरवपूर्ण अध्याय का पुनार्पण करता हुआ श्रेष्ठ व्याख्याकार सुमित्रा अग्रवाल का यह आलेख जो उस महानायिका को समझने में तथा आज प्रचलित नारी-विमर्श के संदर्भ में दिशा प्रदान करेगा।                          - सम्पादक
``या नः श्रुता मनुष्येषु स्त्रियो रूपेण सम्मताः।
तासामेतादृशं कर्म न कस्याश्चन शश्रुष ।।1।।
क्रोधाविष्टेषु पार्थेषु धार्तराष्ट्रेषु चाप्यीत।
द्रौपदी पाण्डुपुत्राणां कृष्णा शान्तिरिहाभवत् ।।2।।
अप्लवेऽम्भसि मग्नानामप्रतिष्ठे निमज्जताम्।
पाञ्चाली पाण्डुपुत्राणां नौरेषा पारगाभवत् ।।3।।
(सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व - बहत्तरवाँ अध्याय)
``मैंने मनुष्यों में जिन सुन्दरी स्त्रियों के नाम सुने हैं, उनमें से किसी ने भी ऐसा अद्भुत कार्य किया हो, यह मेरे सुनने में नहीं आया। कुंती के पुत्र तथा धृतराष्ट्र के पुत्र सभी एक दूसरे के प्रति अत्यंत क्रोध में भरे हुए थे, ऐसे समय में यह द्रुपदकुमारी कृष्णा इन पांडवों को परम शांति देनेवाली बन गयी। पांडव नौका और आधार से रहित जल में गोते खा रहे थे अर्थात् संकट के अथाह सागर में डूब रहे थे, किन्तु यह पाञ्चाली राजकुमारी इनके लिये पार लगानेवाली नौका बन गयी।''
यों तो संपूर्ण महाभारत में अनेक स्थानों पर अनेक व्यक्तियों द्वारा व्यास की मानसकन्या द्रौपदी के लिये अनेक प्रशंसापूर्ण उद्गार अभिव्यक्त किये गये हैं पर द्यूतसभा में उसके द्वारा दर्शाये गये धैर्य, संयम, सहिष्णुता और गरिमा से अभिभूत हो कर्ण के द्वारा अभिव्यक्त उद्गार अद्भुत हैं। जीवन में कभी-कभी ऐसा भी क्षण आता है जब व्यक्ति अपनी सहज प्रवृत्ति और पूर्वाग्रह को छोड़कर उस क्षण का सत्य अभिव्यक्त करने के लिये स्वयं को बाध्य पाता है। कर्ण के जीवन का यह ऐसा ही क्षण है। जो कर्ण अभी कुछ क्षणों पूर्व कटु से कटुतम और अश्लील से अश्लील शब्दों में द्रौपदी की निंदा कर रहा था, उसे `वेश्या' तक कह रहा था - वही कर्ण इस क्षणविशेष में स्वयं को द्रौपदी को अलौकिक सामर्थ्य से अभिभूत पाता है और इसी विशिष्ट मनःस्थिति में सत्य अनायास उसकी वाणी में फूट पड़ता है।
द्रौपदी महाभारत के अरण्य में खिला एक ऐसा पुष्प है जिसका वर्ण न्यारा है, गंध अत्यंत तीव्र और मादक है तथा जिसका सौन्दर्य भी अपनी अलग ही छटा लिये हुए है। वह इस दुनिया का है भी और नहीं भी है। महाभारत की द्रौपदी लौकिक ही है, यों अलौकिकता भी उसमें है पर वह अलौकिकता उसकी विश्वसनीयता को ठेस नहीं पहुँचाती है। अभिजात्य उसमें भरपूर है पर वह अभिजात्य भी उसको जकड़ नहीं पाता है। इस परम सौंदर्यवती का सौन्दर्य अभिनव है, मादक है पर उसका जीवन उसके सौन्दर्य द्वारा संचालित नहीं है, न ही वह अपने इस लोकोत्तर सौन्दर्य पर निर्भर है। इस महाप्राज्ञा की बुद्धिमत्ता उसके व्यक्तित्व को एक धार देती है पर यह बुद्धिमत्ता एक आदिम गंध से भी युक्त है। इस बुद्धिमत्ता ने द्रौपदी को अपने मूल्य दिये हैं, अपने निकष दिये हैं- जिन पर वह जीवन को तौलती है। उसका विवेक उसे दुर्योधन की दुर्दशा पर हंसने से नहीं रोकता तो साथ ही अपने प्रिय पुत्रों का वध करनेवाले अश्वत्थामा को क्षमा करने के लिए भी प्रेरित करता है। जिस अदम्य साहस ने उसे पाँचों पांडवों की भार्या बनना स्वीकार करने के लिये प्रेरित किया है उसी साहस ने परंपरा को एक अभिनव मोड़ देकर अपने केशपाश की शपथ में सखा कृष्ण को भी बांध लेने की सामर्थ्य दी है। पारदर्शिता उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है, मन की बात मन में रखना उसका स्वभाव नहीं है पर साथ ही धैर्य अद्भुत है। इसी धैर्य ने द्रौपदी को वस्त्रहरण जैसे दारूण यातना में भी बिना चटखे, बिना टूटे बाहर आने की क्षमता दी है। स्वातंत्र्येच्छा उसकी प्रबल है। इसी स्वातंत्र्येच्छा ने द्रौपदी को अज्ञातवास का समय सैरंध्री के रूप में स्वयं निर्भर होकर व्यतीत करने के लिये प्रेरित किया और यही स्वातंत्र्येच्छा उसे अपने जीवन का प्रत्येक निर्णय स्वयं करने और जीवन को अपनी दृष्टि से आंकने की क्षमता भी देता है। जिजीविषा उसमें भरपूर है। यह जिजीविषा उसे न कभी हतास होने देती है न दिशाहारा और यही प्रत्येक कठिन परिस्थिति से उसे उबार भी लेती है। व्यक्तित्व उसका तेजस्वी है- बाह्य तेजस्विता जन्मना है तो आंतरिक तेजस्विता अर्जित है। पर यह तेजस्विता भी उसके जीवन का साध्य नहीं है। यह केवल साधन है उस अत्यंत स्वशासी, आत्मनिर्भर, मौलिक और कालजयी व्यक्तित्व की प्राप्ति का। अपने जीवन की नियामक स्वयं बनकर वरण की स्वतंत्रता को उसने सर्वोपरि स्थान दिया है फिर भले ही परिवेश स्वयंवर सभा का हो, कुम्हारगृह के आंगन का हो, अज्ञातवास की विभीषिका की परछाई तले सांस लेते वनप्रांतर का हो, विराट के राजमहल का हो या कुरूक्षेत्र की युद्धभूमि का हो। द्रौपदी का यह स्वशासी स्वभाव अपनी देह और अपने मन पर अन्य किसी का नियंत्रण स्वीकार नहीं करता। पांडवों सदृश तेजस्वी पतियों के जीवन में भी द्रौपदी ने अपना एक विशिष्ट स्थान रखा है और उनके निर्णयों को उसने अपनी ही तरह से प्रभावित भी किया है। कुरूक्षेत्र का युद्ध यद्यपि सत्ता के उत्तराधिकार का युद्ध है पर पांडवों के हृदय में इस युद्ध की चिन्गारी सुलगाये रखने में द्रौपदी का विशिष्ट योगदान है।
द्रौपदी भारतीय इतिहास की एक ऐसे विशिष्ट नायिका है जो अपनी एक स्वतंत्र अस्मिता रखती है। महाभारतकार ने अपनी इस नायिका का व्यक्तित्व ऐसा गढ़ा भी नहीं है कि वह छायासदृश पति का अनुसरण करे। जब-जब उसकी अस्मिता को ठेस पहुँचती है तब-तब उसने अपनी अस्मिता की रक्षा का सशक्त प्रयास किया है - रूढ़ियों और परंपरा को अतिक्रांत करके भी, द्यूतप्रसंग में स्वयं को दांव पर लगाने के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगाती हुई द्रौपदी पूछती है कि यदि मुझे दांव पर लगाने के पूर्व युधिष्ठिर स्वयं को हार गये थे तो उन्हें मुझे दांव पर लगाने का क्या अधिकार था? उद्योगपर्व में जब कौरवों-पांडवों में संधि के लिए प्रयास किया जा रहा है तब भी अपने पतियों के संधि-प्रयास को देखते हुए भी द्रौपदी श्रीकृष्ण से अपने अपमान के प्रतिकार का आग्रह करती है। कृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, सहदेव, नकुल और कर्ण - अपने जीवन में आनेवाले इन सातों पुरूषों से अपने विशिष्ट संबंधों के कारण द्रौपदी का समग्र व्यक्तित्व इन्द्राधनुष की भांति विविध रंगछटाओं से शोभायमान हुआ। तत्कालीन समाज की पतिव्रत्य और सदाचार-व्यभिचार संबंधी धारणायें ठीक अद्यतन युग सदृश नहीं है। इस संक्रांतिकाल में अनेक पुरातन प्रथायें अपना अस्तित्व खो रही हैं तो अनेक नवीन प्रथायें अस्तित्व में आ भी रही हैं। इसीलिये द्रौपदी का विलक्षण व्यक्तित्व एक विलक्षण जीवनानुभव से गुजरता है।
द्रौपदी के व्यक्तित्व की एक अन्य विशिष्टता है - अपने व्यक्तित्व के आधार पर गौरव अर्जित करने की सामर्थ्य। भारतीय संस्कृति में नारी का गौरव सामान्यतः उसके मातृत्व पर अवलंबित है। पर द्रौपदी का गौरव उसके मातृत्व का अपेक्षी नहीं है। अप्रतिम सुन्दरी, परम बुद्धिमती, तेजस्विनी, धृष्टद्युम्न की प्रिय बहिन, पांडवों की सहधर्मचारिणी वीर अर्जुन की प्रेयसी, पूर्णपुरूष कृष्ण की सखी और इन्द्रप्रस्थ की ऐश्वर्यमयी साम्राज्ञी - इन्हीं रूपों में महाभारत में द्रौपदी अवतरित होती है। युधिष्ठिर ने उसके लिये जिन विशेषणों का प्रयोग किया है वे हैं - प्रिया, परमदर्शनीया, पतिव्रता और महाप्राज्ञा द्रौपदी की लौकिकता, अलौकिकता, बुद्धिमत्ता, स्वातंत्र्येच्छा, तेजस्विता, परंपरा पर आघात करने की प्रवृत्ति, जीवन में मिली यातना, यातना से गुजरते हुए भी बरती गयी सहिष्णुता, धैर्य और इन सबके साथ ही स्वयं की अस्मिता के प्रति अभिव्यक्ति उत्कट आग्रह ने उसके व्यक्तित्व को एक अनोखा आकर्षण प्रदान किया। व्यास ने अपनी मानसकन्या द्रौपदी को एक विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान किया है। उसका अंतःव्यक्तित्व जितना तेजस्वी और प्रभावशाली है, उतना ही तेजस्वी और प्रभावशाली उसका बाह्य व्यक्तित्व भी है। द्यूतपूर्व में उसे दांव पर लगाते समय युधिष्ठिर ने सात श्लोकों में द्रौपदी का जो मनोरम शाब्दिक वर्णन अंकित किया है अत्यंत प्रभावशाली है। स्थितप्रज्ञ युधिष्ठिर कहते हैं-
``जो न नाटी है न लंबी न कृष्णवर्णा है न अधिक रक्तवर्णा तथा जिसके केश नीले और घुंघराले हैं, उस द्रौपदी को दांव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ जुआ खेलता हूँ। उसके नेत्र शरदऋतु के प्रफुल्ल कमलदल के समान सुन्दर एवं विशाल हैं। उसके शरीर से शारदीय कमल के समान सुगन्ध फैलती रहती है। वह शरदऋतु के कमलों का सेवन करती है तथा रूप में साक्षात् लक्ष्मी के समान है। पुरूष जैसी स्त्री प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है - उसमें वैसा ही दयाभाव है, वैसी ही रूप सम्पत्ति है तथा वैसे ही शील-स्वभाव है। वह समस्त सद्गुणों से संपन्न तथा मन के अनुकूल और प्रिय वचन बोलने वाली है। मनुष्य धर्म, काम और अर्थ की सिद्धि के लिये जैसी पत्नी की इच्छा रखता है, द्रौपदी वैसी ही है। वह ग्वालों और चरवाहों से भी पीछे सोती और सबसे पहले जागती है। कौन-सा कार्य हुआ और कौन-सा नहीं हुआ, इन सबकी वह जानकारी रखती है। उसका स्वेदबिन्दुओं से विभूषित मुख कमल के समान सुन्दर और मल्लिका के समान सुगन्धित है। उसका मध्यभाग वेदी के समान कृश दिखाई देता है। उसके सिर के केश बड़े-बड़े हैं मुख और ओष्ठ अरूणवर्ण के हैं तथा उसके अंगों में अधिक रोमावलियाँ नहीं है। सुबलपुत्र! ऐसी सर्वांङ्सुन्दरी सुमध्यमा पाञ्चाल कुमारी द्रौपदी को दांव पर रखकर मैं तुम्हारे साथ जुआ खेलता हूँ, यद्यपि ऐसा करते हुए मुझे महान कष्ट हो रहा है।''
आज की आधुनिक नारी जब पीछे मुड़कर देखती है तब उस प्राचीन मिथकीय इतिहास में उसे सभा में खड़ी न्याय मांगती अपने अधिकार के लिये संघर्ष करती मनस्विनी द्रौपदी प्रतिमानस्वरूप दिखायी देती है। वधू की परंपरागत भूमिका के घेरे से बाहर आकर द्रौपदी एक आत्मस्थित मनस्विनी स्त्री की भूमिका में संचरण कर अपनी अस्मिता की रक्षा का दायित्व स्वयं पर ले लेती है और सारे परंपरागत प्रतिमानों को अतिक्रमित करती हुई एक नये क्षितिज को स्पर्श करती है। द्रौपदी के व्यक्तित्व की यही चिरंतन आधुनिकता उसे परंपराभंजक नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के मानस से जोड़ देती है - ``मैंने जब कहानी लिखने के लिये कलम पकड़ी तो यह मेरे जेहन का तकाजा था कि मेरी कहानी की किरदार वह औरत होगी जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती हो।
(द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता प्रीतम, पृष्ठ 10-11)
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क्या द्रौपदी मनस्विनी बन पाई है?
डॉ. सुमित्रा अग्रवाल
``मैंने जब कहानी लिखने के लिये कलम पकड़ी तो यह मेरे जेहन का तकाजा था कि मेरी कहानी की किरदार वह औरत होगी जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती हो.... इसलिये कह सकती हूँ कि मेरी कहानियों में जो भी किरदार हैं, उन औरतों के किरदान जिन्दगी से ही लिये हुये हैं, लेकिन उन औरतों के जो यथार्थ और यथार्थ का फासला तय करना जानती है - यथार्थ जो है, और यथार्थ जो होना चाहिये - और वह जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में वक्त के निजाम से कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती है।''1
अमृता प्रीतम का उपर्युक्त मंतव्य यह सोचने के लिये प्रेरित करता है कि ऐसा क्या है इस प्राचीना द्रौपदी में जो आज की अति आधुनिक और स्वतंत्रचेता लेखिका के लिये भी वह रोलमॉडल बनकर उसके मानस में विराज रही है और इसी के साथ नित नये रूप धारणकर, नये सवालों के साथ काल के समान खड़ी हो रही है। उसके सवालों की धार पहले भी बड़ी पैनी थी, आज भी वह उतनी ही पैनी है। कहाँ से पाई उसने यह धार? कब तक उसका सवाल हवा में यों ही खड़ा रहेगा? भविष्य की नारी भी क्या उसके सवालों की ध्वनि में अपने सवालों के बीज देखेगी?
कैसी है यह द्रौपदी? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिये जब समुद्र के समान विशाल, वहन और गंभीर महाभारत खोलते हैं तो यज्ञ की अग्नि से बाहर आती पूर्णयौवना, सर्वांगसुंदरी, नित्ययौवना द्रौपदी दिखाई देती है। उसका प्रादुर्भाव और अधिक असाधारण बनाने के लिये कवि ने एक चमत्कार की सृष्टि की है जो द्रौपदी की महानता और शक्तिमत्ता को प्रकर्ष तक पहुँचाता है। यज्ञ की ज्वालाओं से अपनी मानसपुत्री द्रौपदी को आविर्भूत होते दर्शाकर महामुनी व्यास ने लौकिकता पर अलौकिकता का दर्शन देते हुये उसे एक अभिनव व्यक्तित्व प्रदान किया है। महाभारत के पटल पर उसका अविर्भाव देवों, यक्षों और मानवों द्वारा समान रूप से काम्य स्त्री के रूप में हुआ है। युधिष्ठिर के शब्दों में एक पुरूष जैसी स्त्री की कामना करता है - द्रौपदी वैसी ही है। आकर्षण उसका दुनिर्वार है, कमनीयता लुब्ध करनेवाली है, बुद्धिमत्ता चमत्कृत करनेवाली है, धैर्य अभिभूत करनेवाला है और तेजस्विता प्रखर है। उसका गतिशील उर्जासंपन्न स्त्रीत्व, परिवेश से समायोजन की उसकी अद्भुत क्षमता, जागृत विवेक, समर्थ मनस्विता, सहज मनःपूत व्यक्तित्व सभी मिलकर उसे एक ऐसे तेजोवलय में स्थापित करते हैं जो उसके जन्मना तेजराशि रूप के अनुरूप ही है। वह मानो सीता, मैत्रेयी और रति का सम्मिलित नारी विग्रह है। महाभारत में उसका स्त्रीत्व इतना प्रभावशाली है कि उसके समक्ष द्रौपदी के स्त्री-जीवन की विविध भूमिकायें नेपथ्य में चली जाती हैं और केवल उसका सचेतन स्त्रीत्व सम्मुख रह जाता है।
भारतीय स्त्रीत्व के समस्त आदर्शों का मूर्त रूप होने पर भी वह लौकिक ही है। हिमालयी बहुपतित्वयुक्त प्रदेशों में वह देवी की स्थानापन्न है। उसके नाम पर बलि दी जाती है, पूर्वकाल में वहाँ पांडवनृत्य में उसकी भूमिका का निर्वाह करनेवाली अभिनेत्री उसके नाम पर बलि दी गई बकरी का खून पीती थी और द्रौपदी की आत्मा द्वारा अविष्ट होकर अपनी भूमिका का निर्वषन पूर्ण जीवंतता के साथ करती थी। इसीलिये प्रत्येक स्त्री के अंदर द्रौपदी सांस लेती है - अपनी ही तरह से। यही उसके सार्वकालिक आधुनिक व्यक्तित्व का केंद्रबिंदु है।
द्रौपदी मे एक सनसनाता चैतन्य है, एक ऐसी उर्मि है कि अपने स्थान और काल को लांघकर अपने युग के विभूतिपुरूष श्रीकृष्ण से वह सख्य स्थापित कर पाती है। यह सख्य उसके व्यक्तित्व का पूरक बनकर उसे समृद्ध करता है। यह उर्मि उसे नित नवीना बनाये रखती है और यह पूर्णता, यह समृद्धि, यह संपन्नता, उसके आकर्षण में एक दीप्ति उत्पन्न करती है। जीवन के अन्य सभी रूढ़, सम्बन्ध व्यक्ति को पूर्ण करते हैं पर उस पूर्णता के पश्चात् भी कुछ ऐसा रह जाता है जो उसमें समा नहीं पाता। उसी कुछ को द्रौपदी ने इस सख्य में समो दिया है।
एक आधुनिक स्त्री का मानस स्वकेन्द्रित होता है। उसी स्वकेन्द्रित मानस के द्वारा लिये गये निर्णय को वह सुविधा के अनुसार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से पूर्ण कराती है और इस सारे आयोजन के केन्द्र में स्वयं स्थित रहती है। द्रौपदी का आधुनिक मानस भी स्वयं केन्द्र में स्थित रहकर अपने द्वारा लिये निर्णयों को अन्य शक्तियों की सहायता से पूर्ण करता है। महाभारत की नायिका द्रौपदी अपने समय से भिन्न या विपरीत व्यक्तित्व अर्जित कर सकी है। उसकी विशिष्ट आनुवंशिक तथा पारिवेशिक शक्तियाँ इस संदर्भ में उसकी सहायक हुई हैं। `स्व' से निर्मित स्वातंत्र्यचेतना का विकास वह इस सीमा तक करती है कि उसके प्रकाश में एक स्वतंत्र जीवनस्वप्न वह न केवल देखती है अपितु उसके आधार पर अपने जीवन और परिवेश का मूल्यांकन भी करती है, विदुषी, पंडिता, महाप्राज्ञा द्रौपदी इसी विशिष्ट संदर्भ में `मनस्विनी' है। यह मनस्विनी युधिष्ठिर द्वारा हारे गये तेरह वर्षों के काल को मुट्ठी से सरकने नहीं देती - उसे बांधे रखती है।
महाभारतकालीन समाज में स्त्री का स्थान पतनोन्मुख था उसके गौरव की दीप्ति धुंधली पड़ती जा रही थी। पर स्त्री के इस दासत्वकाल में द्रौपदी एक प्रज्वलित दीपशिखा के रूप में महाभारत के पटल पर उभरती है। वह अदम्य स्वातंत्र्यचेतना द्वारा परिचालित है। अपने स्वयंवर को यह मनस्विनी अपने अपार मनोबल से वास्तविक `स्वयं-वर' बना देती है। विवाह के पश्चात् उसका बहुपतित्व उसे कुंठित नहीं बनाता - उसकी प्रभा में और भी दीप्ति ला देता है। पांडवों सदृश्य अमित तेजस्वी वीरों की पत्नी के रूप में वह अपने गौरव का स्मरण महाभारत में अनेक स्थलों पर करती है जिससे स्पष्ट है कि यह बहुपतित्व द्रौपदी की सामर्थ्य में श्रीवृद्धि कर उसे और अधिक गौरवशालिनी और अधिक समर्थ तथा और अधिक आकर्षक बनाता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व से युक्त अपने पांचों पतियों को एकसूत्र में आबद्ध रखने में समर्थ द्रौपदी की प्रशंसा महाभारत के अनेक प्रमुख व्यक्तियों ने की है, अपने सफल बहुपतित्व से समर्थ बनी द्रौपदी युगपुरूष कृष्ण की सखी बनती है। सखी बनकर इस सख्य को वह केवल भावात्मक आयाम तक सीमित नहीं रखती अपितु जीवन के प्रत्येक आयाम में वह इस सख्य को मूर्त रूप प्रदान कर सखा कृष्ण का आवाहन करती है।
द्रौपदी का बहुपतित्व उसकी सामर्थ्य में किस प्रकार वृद्धि कर उसे भारतीय इतिहास पुराण की सर्वश्रेष्ठ स्त्री के रूप में प्रतिष्ठित करता है - इस तथ्य की स्थापना के क्रम में एक अन्य सत्य उद्घाटित हुआ कि आदिवासी स्त्री की मूल्य संकल्पना, प्रखर स्वातंत्र्यचेतना और बहुपतित्व के निर्वाह की अद्भुत सहज क्षमता महाभारत की द्रौपदी में उसी रूप और मात्रा में विद्यमान है। यह सत्य इस तथ्य का संकेतन है कि द्रौपदी की आनुवांशिकता का घनिष्ठ सम्बन्ध इस स्वतंत्र समर्थ आदिवासी स्त्री से है और उसका अग्नि से जन्म उसके व्यक्तित्व के अग्निसंस्कार का संकेतक है। परिस्थिति जन्य प्रमाण इस अवधारणा का समर्थन करते हैं।
द्रौपदी को देखकर प्रतीत होता है कि द्रौपदी यानि व्यास महामुनि के मन की स्त्री विषयक कल्पना तो नहीं है? महामुनि को अभिप्रेत वास्तविक स्त्री संभवतः द्रौपदी के रूप में उन्होंने साकार की है। इसलिये वह `है' `जैसी ही है' - बनती नहीं गई है। स्त्रीत्व के सारे सौन्दर्य, सारे माधुर्य, सारी शालीनता, स्त्री में निहित स्त्रीत्व की धारदार अस्मिता, स्वत्व का प्रचंड भान अखंड सेवावृत्ति - इन सबका प्रतीक है द्रौपदी। द्रौपदी जो भारतीय बहुपतित्व की आनंदप्रद देवी भी है। 
द्रौपदी की प्रासंगिकता और आधुनिकता की दृष्टी से मृणाल कुलकर्णी के विचार महत्त्वपूर्ण है जिन्होने दूरदर्शन के धारावाहिक `द्रौपदी' में द्रौपदी के पात्र को जीवन्त किया है। उनकी दृष्टी में, ``पूरे विश्व में वह अपने हक के लिये अकेली लड़ती है। वास्तव में द्रौपदी के अन्दर सीता, गार्गी और क्लियोपेट्रा का अद्भुत संगम नजर आता है। द्रौपदी ही महाभारत की धुरी है। उसी के चारों और महाभारत की समूची कहानी घूमती है। वह पांडवों की शक्ति और प्रेरणा है। द्रौपदी अपने समय से बहुत आगे थी वास्तव में वह हर समय की महिला का प्रतिनिधित्व करती है। यही वजह है कि द्रौपदी का पात्र आज भी प्रासंगिक है।''2
स्त्री की बदलती तस्वीर की बात उठने पर संदर्भित किया गया है द्रौपदी को। कुरूसभा में द्रौपदी ने जो प्रश्न उठाया है वह आज भी उठाया जा रहा है - नये संदर्भों में, नये रूपों में। इस विषय में मृदुला गर्ग सदृश विचारशील लेखिका का मंतव्य दृष्टव्य है - ``मुझे लगता है, द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर हमें मध्यवर्ग की औरत के बजाय श्रमिकवर्ग की औरत ही दे सकती है। वह जानती है कि उसका मूल्य उसकी कल्याणकारी शक्ति में निहित है। उसे अपने प्रभाव का दायरा बढ़ाना होगा, जिसमें घर-गृहस्थी से आगे बढ़कर वह परिवेश और पर्यावरण को भी समेट सके। उसके लिये जरूरी है कि सरकार स्थानीय पर्यावरण के रखरखाव, प्रबंध और नवीनीकरण का अधिकार महिलाओं को दे दें।''3
अपनी इसी आधुनिकता के कारण महाभारत की बीजस्वरूपा प्राचीना द्रौपदी आधुनिक भारतीय साहित्य में अनेक रंगों में, अनेक रूपों में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही है। यह उसके व्यक्तित्व की शक्ति है कि अनेक प्रतिष्ठित मनस्वी सर्जकों ने उसके बहुआयामी व्यक्तित्व को अनेक नवीन आयामों में देखा है। ये सभी नवीन आयाम मिलकर जिस प्रतिमा का निर्माण करते हैं वह प्रतिमा अत्यंत अनूठी है। आधुनिक भारतीय भाषाओं में द्रौपदी के मिथकीय पुनःसर्जन में उसके व्यक्तित्व की जिस विशिष्टता को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है वह है उसकी शक्तिमत्ता, उसकी तेजस्विता, उसकी सनातन आधुनिकता। असमिया महाभारत से लेकर अति नवीन सृजनों तक उसकी यह विशिष्टता बनी रही है। कहीं वह पांडवों की विजयिनी सेना का नेतृत्व कर रही है, कहीं भारतमाता के रूप में अन्याय के प्रतिकार की शपथ ले रही है, कहीं पांडवों की गांडीव शक्ति है और कहीं वीरांगना क्षत्राणीरूप होकर युद्धकथाओं को सुनकर पुलकित हो रही है। सभी स्थानों पर वह पांडवों को चैतन्य करनेवाली ऊर्जा है। वह कृष्णप्रीति के रंग में रंगी है पर साथ ही मनस्विनी स्वयंसिद्धा है। उसका मनःपूत व्यक्तित्व अपनी ही पवित्रता से शुचितासंपन्न है।


आधुनिक स्त्री-विमर्श जिस शक्तिस्वरूपा, स्वयंसिद्धा, मनस्विनी नारी की प्रतिमा सामने रखकर अपनी बात कह रहा है वह प्रतिमा महामुनि व्यास ने महाभारत में हजारों वर्षों पूर्व ही गढ़कर लोकमानस में प्रस्थापित कर दी थी। यह द्रौपदी निरंतर मेरे मन में बसी रही, नित्य नवीन रूपों में मन के आकाश में उदित होती रही और इसी क्रम में पुनः अमृता प्रीतम की द्रौपदी मन के आकाश में आ खड़ी होती है-
``मैं जन्म जन्म की द्रौपदी हूँ
 मैं पाँच तत्व की काया....
 किसी एक तत्व से ब्याही हूँ....
 जुए की वस्तु की तरह
 राजसभा में आई थी
 इस जन्म में भी वह कौरव हैं
 वही चेहरे, वही मोहरें,
 और उन्होंने वही बिसात बिछायी है
 मैं वही पांच तत्व की काया
 मैं वही नारी द्रौपदी...
 आज जुए की वस्तु नहीं हूँ
 मैं जुआ खेलने आयी हूँ....
 मैं जन्म-जन्म की द्रौपदी हूँ।
 पूरा समाज कौरवों ने जीत लिया
 और नया दांव खेलने लगे
 तो पूरी सियासत दांव पर लगा दी।
 मैंने दाएँ हाथ से समाज हार दिया
 बायें हाथ से सियासत हार दी
 लेकिन कौरव दुहाई देते हैं-
 कि पांच तत्व... मेरे पांच पांडव हैं
 मैं भरी सभा से उठी हूँ
 और पाँचों जीतकर लायी हूँ...
 मैं जन्म जन्म की द्रौपदी हूँ।''4

1. द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता : एक नजरिया/इमरोज
2. नवभारत टाइम्स, मृणाल कुलकर्णी 15/10/2001
3. मृदुला गर्ग, नवभारत टाइम्स 15/10/2001
4. द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता : एक नजरिया/इमरोज
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डॉ. सुमित्रा अग्रवाल


13 सितंबर 1947 को कराची पाकिस्तान में जन्म
राजस्थान यूनिवर्सिटी से महाभारत की द्रौपदी और आधुनिक रूप विषय पर 2007 में डी.लिट् के लिए थीसिस जमा किया गया‌।
1992 में एस.एन.डी.टी. यूनिवर्सिटी, मुंबई से नरेश मेहता के काव्य में मिथकीय चेतना विषय पर पीएच-डी. जिसके लिए 3 वर्ष तक जीआरएस प्राप्त।
मुंबई यूनिवर्सिटी के स्नातकोत्तर विभाग में व्याख़्याता तथा सोफिया कॉलेज में व्याख्याता के रूप में अध्यापन।
प्रकाशन :
नरेश मेहता के काव्य में मिथकीय चेतना शीर्षक से आनंद प्रकाशन द्वारा 1994 में पुस्तक प्रकाशित
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में 15 रिसर्च पेपर तथा 50 से अधिक समीक्षाएँ तथा लेख प्रकाशित
संप्रति :
बहुपतित्व : एक तुलनात्मक अध्ययन – खस आदिवासी समाज तथा महाभारत की द्रौपदी के विशेष संदर्भ में
संपर्क :
बी/604, वास्तु टावर
एवरशाइन नगर, मलाड (पश्चिम)
पिन : 400 064
मो. 98921 38846
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