रविवार, 9 सितंबर 2012

आलेख

’रचना समय” में प्रकाशित शालिनी माथुर के बहुचर्चित आलेख ’व्याधि पर कविता या कविता पर व्याधि’ (http://wwwrachanasamay.blogspot.in/2012/06/blog-post.html) और डॉ. दीप्ति गुप्ता के आलेख ’प्रतिवाद का प्रतिवाद’ (http://wwwrachanasamay.blogspot.in/2012/08/blog-post_6208.html) के क्रम में प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार, चित्रकार और पत्रकार प्रभु जोशी का बहुचर्चित आलेख ’कविता का कहीं कोई मगध तो नहीं?’. आग्रह है कि इसके साथ ही प्रकाशित राहुल ब्रजमोहन का आलेख भी आप अवश्य पढ़ें.



'कविता का कहीं कोई मगध तो नहीं ?'

प्रभु जोशी

'कथादेश' के ताजा अंक को देखकर यह सुखद विस्मय हुआ कि मूलत: कहानी पर केन्द्रित एक पत्रिका ने अपने पृष्ठों पर कविता को लेकर, इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में, सर्वथा नये कोण से एक ऐसी बहस को जन्म दे दिया है, जिसे जरूरी तौर पर किसी कविता-केन्द्रित पत्रिका से बहुत पहले उठना चाहिए था
कदाचित यह वहां इसलिए सम्भव नहीं हो सका, चूंकि एक लम्बे कालखण्ड से वहां से बहस बिदा हो चुकी है
और अब बहस इस पर भी नहीं होती कि बहस क्यों नहीं हो रही है ? दरअसल , यह क्षम्य है क्योंकि उनकी किंचित् अपरिहार्य-सी विवशताएं हैंमसलन, सम्प्रति वे एक दूसरे की कविता के 'श्रेष्ठ' और 'श्रेष्ठतर' बताने की परिश्रम-साध्य तार्किक युक्तियों को आविष्कृत करने में लगे हुए हैंनतीजतन उनके पास अवकाश का ही सबसे बड़ा अभाव है वे यदा-कदा अपनी उन एक-सी जान पड़ने वाली पत्रिकाओं के पृष्ठों पर, परस्पर एक दूसरे से मिथ्या-असहमति प्रकट करते रहते हैं, जबकि अप्रत्यक्ष रूप से वे एक दूसरे से पूरी तरह सहमत हैं
वस्तुत: वहां. उन सब के बीच एक अप्रकट समन्वय हैएक ऐसा मतैक्य है, जिसके पार्श्व में हितों की अखण्ड सूत्रबद्घता हैवे मोलियर के पात्रों की तरह एक दूसरे को बधाइयां देते हुए बरामद किये जा सकते हैं


बहरहाल कहना न होगा कि उनके बीच मूल-समस्या 'महानता' के निर्धारण की है
सबके अपने-अपने महान हैं , और गाहे-ब-गाहे जिनका 'महा-मस्तकाभिषेक' चलता रहता है
सबके अपने-अपने 'कुलश्रेष्ठ' हैं तथा यह चेतावनी जारी कर दी गई है कि उनके 'रचे हुए' की 'मौलिकता' और 'महानता' के प्रति सभी प्रकार की आशंकाओं को पूर्णत: स्वाहा करने के बाद ही कोई उनकी कविता के निकट आये
यह आकस्मिक नहीं कि, कविता के कुछेक 'कुलशील' तो ऐसे भी हैं, जो ऐसे अप्रत्याशित खतरे का पूर्वानुमान लगा कर अपने काव्य-कुटुम्बियों के सदस्यों की कविता के विषय में होठों को 'अद्रभुत' शब्द से ही खोलते हैं
और यदि उनके लिए इस शब्द को प्रतिबंधित कर दिया जाये तो वे हमेशा के लिए गूंगे ही हो जायें


यह अब कतई विस्मय की बात नहीं कि कविता के क्षेत्र् में 'प्रतिमान' शब्द को अब पूरी तरह लज्जास्पद बना दिया गया है
और आलोचना-दृष्टि की बात करने वालों को ताकीद कर दी गई है कि वे इस शब्द से एक किस्म की 'हाइजीनिक-डिस्टेंस' बनाकर रखें
यह अवश्यम्भावी है, ताकि आप 'समझ की रूग्णता' के शिकार होने से बचे रह सकें
......कहना न होगा कि अब उस 'काल' की तो कभी की अन्त्येष्टि हो चुकी है, जिसमें कभी कविता के नये पुराने 'प्रतिमानों' की कागारौल मची रहती थी
अब 'प्रतिमान' नहीं बस 'पैराडाइम' हैं, जो साहित्य में पूर्व 'प्रतिमानों' के मरणासन्नता की सर्वज्ञात सूचना है
'पैराडाइम' सुविधाजनक प्रविधि से 'दाये' या 'बाये' शिफ्ट होता रहता है
हालांकि, एक 'विचारधारा' के पराभव के पश्चात बायीं तरफ शिफ्ट होने में किंचित अड़चनें उठ आती हैं
अत: अब किसी भी कोण के शिफ्ट को अनिवार्यत: बायां ही मान लिये जाने का अभूतपूर्व और अघोषित प्रस्ताव है
और, अब वामांगियों को विषयवस्तु बनाकर जो कुछ भी रचेगा, वह स्तुत्य ही होगा
चूंकि यह 'दबी हुई अस्मिताओं' का उदयकाल है
कुल मिलाकर निश्चय ही 'घनमंथन' की इस परिस्थिति की निर्मिति में वामालोचना की वयोवृद्घावस्था ने भी काफी हद तक इमदाद की है
फिर नव-उदारवाद के आगमन के साथ ही उन्हें अवकाश पर भी भेज दिया गया है


बहरहाल, 'कथादेश' के दो अंकों में कदाचित् साहित्य में पहली दफा ''कविता और पोर्नोग्राफी'' के अप्रत्यक्ष गठजोड़ पर हो रही इस तरह की जिरह को पढ़कर मुझे साठ के दशक की यूरो-अमेरिकी गर्ली-मेगजींस का स्मरण हो आया, जिनमें पोर्न-इंडस्ट्री की पूंजी लगी हुई थी
यह प्रिंट में पोर्न को प्रविष्टि दिलाने का ही सुविचारित उपक्रम था, ताकि उसे एक यथेष्ट कानून-सम्मत हैसियत हासिल हो सके


उन महिला पत्रिकाओं में उनके सम्पादकीय एकांश के कर्मचारी ही हर अंक में नित नये नामों से चिट्टिठयां लिखा करते थे
पत्र्-सम्पादक नामक स्तंभ में वे स्वयं ही स्त्रियां बनकर अपनी यौन संबंधी समस्याओं के विषय में विस्तार से निर्भीक भाषा में लिखते थे कि उनके स्तन का आकार या कुचाग्रों का रंग ऐसा-वैसा होता जा रहा है
योनि संकुचन की शिथिलता बढ़ गयी है...संसर्ग में आनन्द का चरमोत्कर्ष चला गया है.....'बताइये मैं क्या करूं ?' बाद में वे ही ऐसे प्रश्नों के सन्दर्भ में 'विज्ञान का मुखौटा' लगाकर मिथ्या-गंभीरता के साथ उत्तर तैयार कर के छापते थे, जो उत्तरोत्तर, भाषा के 'सेन्सुअस-इडियम' से अलंकृत किये जाने लगे कि जिसके चलते स्त्रियों से ज्यादा पुरूष पाठकों के 'यौनिक-आनंद' का पाठ-विस्तार होने लगा.

रति रोगों की समस्या के समाधान के बहाने , धीरे-धीरे इन पत्रिकाओं में सेक्स को इतना 'ट्रांसपेरेण्ट' बनाया जाने लगा कि हिन्दी के हमारे 'खुला खेल फरूक्काबादी' वाले जुमले का सफल चरितार्थ होने लगा अब युवतियां पुरूष मित्रों से अपने संसर्ग की इच्छा समस्या और सलाह को समूचे सांस्कृतिक संकोच को तोड़कर रखने लगी और जब आर्गेज्म को लेकर समस्याएं रखी जाने लगीं तो थोड़े ही वक्त में वे पत्रिकाएं लगभग 'सॉफ्ट पोर्न' की रूप-सज्जा में आ गयीं और उन्होंने बिक्री के मार-तमाम अकल्पित कीर्तिमान बनाने शुरू कर दिये....... बहरहाल, दुर्भाग्यवश प्रिंट में हमारे यहां स्त्री-यौनिकता का ऐसा सार्वदेशीय खुलापन हासिल करने में मार-तमाम कई अड़चने थीं, लेकिन भला हो कि भारत में एड्स का छींका सौभाग्यवश अमेरिका के 'सेण्टर फॉर डिसीज कण्ट्रोल' की कृपा से ऐसा टूटा कि हम बहुत जल्दी उन तमाम गर्ली-मेगजींस को पछाड़ने की हैसियत में आ गये 'नाको' के कण्डोम-प्रमोशन कार्यक्रम ने इस उपलब्धि में आशाजनक अभिवृध्दि की । ये माध्यमिक शाला के बच्चों तक में ज्ञानार्जनार्थ वितरित किये गये बिल क्लिण्टन के भारत आगमन पर बैंगलोर में कण्डोम के स्वागत द्वार बनाये गये टेलिजेनिक पिता विज्ञापनों में अपने सुपुत्र् को एड्रस नामक महारोग से बचाने के लिये उसकी जीन्स की जेब में चुपचाप कण्डोम रखकर अपनी विज्ञानवादी भूमिका में आ गया बदचलनी बदलकर उत्तर-आधुनिक जीवनशैली कहलाने लगी । मांए सैक्सी कहला कर दर्पवती होने लगीं
वस्त्र देह पर गनीमत होने लगे । फैशन ने भारतीय स्त्री की देह का नया लोकार्पण किया । प्रोढ़ाओं का यौनिक-निजता को ढांपते रहने वाला पल्ला उड़ा और युवतियों के लिये 'डॉगी-फक' की फैण्टसी फार्म करने वाली जीन्स की 'बैक-फिटिंग' आने लगी । यह पोर्न इंडस्ट्री के भारत में प्रवेश पूर्व का प्रशस्तीकरण-प्रक्रिया थी । क्योंकि जितनी विदेशी पूंजी के लिए हमने अपनी अर्थ-व्यवस्था के दरवाजे खोले, उससे कई गुना राजस्व चीन अमेरिका से सेक्सटॉयज के व्यापार से अर्जित कर लेता है । एक हम हैं कि इस क्षेत्र् में ठिठके और ठहरे हुए हैं फिर हमारे यहां सेक्स-वर्जनाओं की बहुत सारी बाधाएं हैं । वे स्पीड ब्रेकर्स हैं । यदि इसे एक गतिमान समाज बनाना है तो उनकी 'सिद्घान्तिकी' बताती है कि 'सामाजिक आघात' ही 'सामाजिक विकास' है । भारत को इस दिशा में शीघ्र ही कार्यवाही करना है  कहना न होगा कि बाजार के वर्चस्व के बढ़ने के साथ ही यह सम्भव भी होने लगा है । सांस्कृतिक संकोच की बिदाई बेला का पूर्वरंग है ।

जब भाई आशुतोष कुमार ने अपने आलेख में पोर्नोग्राफिक होने के लांछन से इरादतन बदनाम की जा रही हिन्दी की श्रेष्ठतम कविताएं उद्धृत कीं तो सचमुच ही मैंने उन्हें पहली बार अविकल रूप में पढ़ा और पाया कि हिन्दी में कैंसर एक नयी 'काव्य-युक्ति' बनकर ऐन्द्रिकता से निर्विघ्न क्रीड़ा के लिए ''उपर्युक्त नई और निर्द्वन्द संकोचहीनता'' के साथ मनोवांछित स्पेस निर्मित करने में सफलतापूर्वक इमदाद कर रहा है । यह रोग और कविता के मध्य नया सहकार है जो कविता की दुनिया को पहली बार इस सूत्र् से सेन्सुअसली सम्पन्न बना रहा है ।

बहरहाल , अब हम 'स्तन' नामक कविता के आन्तरिक स्थापत्य को देखें तो वहां, उसकी आरंभिक चालीस पंक्तियां प्रकारान्तर से 'प्लेजर विथ बेबी बूब्स' का ही वितान रचती है । अत: 'स्तन' कविता की संरचना के बारे में यदि मैं अपनी स्थानीय मालवी बोली में बताऊं तो कहना होगा, 'ये तो मांड्रणा में टिपकी धर देणे का काम है । ' अर्थात् आप मांडना तो अपनी मन-मर्जी का चाहे जैसा बनाइये बस उसके अंत में कहीं 'टिपकी' (बिन्दी) लगा दीजिये । यह आपके किये धरे को 'अनालोच्य' बनाने की चतुराई होगी । यह आपके 'चित्रवण' को लेकर उठ सकने वाली किसी भी किस्म की आपत्तियों को छीन लेगी । इसलिए कविता में अपनी आरंभिक-संरचना में कवि कुचों से पूर्वरंग की तरह कितनी ही किस्म की 'कुचमात' करता रहे और चाहे कविश्रेष्ठ के लिये यही कविता का आत्यन्तिक अभीष्ट भी हो, लेकिन अंत में करुणा का तिनके की आड़ की तरह उपयोग कर लीजिए
यह आलोचना के खतरे से परिचित होना तथा संभावना को सफलता से दुहना होगा । यह आपत्ति उठाने के लिए मुंहतोड़ उत्तर का आधार होगा । क्योंकि 'करुणा का आचमन' अवशिष्ट की भी शुद्धि करके उसे स्वीकार्य बना देगा । दरअसल कविता में यह अपनी 'चतुराई पर आश्वस्त' कवि का स्वयं को जरूरत से ज्यादा मेधाग्रस्त समझ लेने का संकट है ।

यह पुरुषवादी नहले पर , स्त्री-वादी दहला मारने की तसल्ली है ।

दूसरी कविता 'ब्रेस्ट कैंसर' है । दोनों ही कविताओं में 'दुद्घुओं' से भाषा से भाषा में पैदा किये जाने वाले खेल में स्वयं को पारंगत समझने वाले कवि का युक्ति-प्रदर्शन है । शायद इसे ही विटगेंस्टाइन ने 'भाषा के छुट्रटी पर जाने से पैदा हुई मौज' कहा है । यहां कविता में मौज ही प्रतिपाद्य है । यहां ध्यान देने की एक महत्वपूर्ण बात और भी है । देखें कि दोनों ही सर्जक अतिरिक्त रूप से सतर्क हैं कि वहां कहीं शिशु न आ धमके । क्योंकि कविता में आते ही वह कमबख्त दुधमुंहा उसकी 'अमानत' होने के दावे को खारिज कर देगा, क्योंकि 'जैविक-रूप' से तो वे उसकी ही अमानतें हैं । उन पर उसका 'बॉयोलॉजिकल-'पजेशन' है । उसके जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा है उनसे । वह सस्पेन्शन ऑफ सेक्‍सुएल्टी की अवांछनीय-स्थिति निर्मित कर देगा । कविता में व्यर्थ ही 'यौनिकता' और 'मातृत्व' का द्वैत खड़ा कर देगा । क्योंकि अभी तक संसार में कहीं भी ऐसी स्त्री का बिम्ब नहीं है जिसमें 'मैथुन और मातृत्व' एक साथ रख दिये गये हों । यहां तक कि कोई पोर्नोग्राफर भी ऐसा धृष्टतम दुस्साहस नहीं कर पाया है कि स्तनपानरत स्त्री को सम्भोगरत चित्रित कर दे । न कहो 'सृजनात्मक-स्वायत्तता' को वर्जनाहीन धु्रवान्त तक ले जाने का जो नया स्त्रैण-शौर्य ऐसी कविता में देह के जिस चातुर्य के साथ दिगम्बरत्व का दिग्दर्शन करा रहा है वह कुछ भी करवा सकता है
बहरहाल , स्त्री स्तनों के साथ वहां , कविता से धात्री के रूप में तयशुदा ढंग से विस्थापित कर दी गई है । केवल कुचवती है , जो स्त्री को केवल शिश्न-कीलित ऑब्जेक्ट में अवघटित कर देता है ।

कविद्वय जानते हैं कि वस्तुत: बच्चा कविता में दाखिल होते ही कविता के निर्धारित स्थापत्य को ध्वस्त कर देगा । उसकी किलकारी से कविता कामाश्रयी होने की रंजकता से हाथ धो बैठेगी । यौनानंद का नियोजित 'उपादानी वृत्त' टूट जायेगा । वह 'रमणीत्व' की ऐन्द्रिकता से पैदा होने वाले 'सुख मे प्रवंचना' खड़ी कर देगा । इसलिए स्पष्टत: दोनों की कविता का अभीष्ट भिन्न नहीं है । अलबत्ता, दूसरे नम्बर की कविता पहले नम्बर की कविता को चुनौती देती है जैसे कहती है, ''यह विषय स्त्री का है, कवि बाबू ! अत: देखो, एक नयी स्त्रैण युक्ति से ऐसे विषय पर कविता की चमकीली गढ़न्त कैसे संभव होती है । आओ , मैं बताती हूं । '' इस कविता में पवनकरण की कविता को पीछे छोड़ने का सृजन-संकल्प है । यह पुरुषवादी नहले पर स्त्री-वादी दहला मारने की तसल्ली है । पहली कविता की अपेक्षा यहां इस कविता में सर्जक के पास अपने 'स्त्री-वर्चस्व' की निर्भीकता भी है । वह निर्द्वन्द होकर कुचों से क्रीड़ा रचती है । यह 'माय वैजाइना माय रूल' की पोर्नोग्राफिक मुनादी का साहस है . जिसके चलते स्त्री की यौनिक-निजता का पोर्न-उद्योग के व्यापक हित में लोकार्पण कराना संभव हुआ था ।

पहली कविता में तो मात्र् एक को ही खो देने का हादसा था । यहां एक के बजाय दोनों को खो देने से कवि के लिये कविता में 'क्रीड़ा का वृत्त' वृहद होने की गुंजाइशें बनीं । यह मेसेक्टटॉमी पर एकाग्र कविता है । यहां मेरा मन्तव्य दोनों कविताओं के बीच तुलना करने का कतई नहीं है । 'श्रेष्ठ' और 'श्रेष्ठतर' के पंगे का प्रश्न मेरे लिये सर्वथा निर्मूल है । यह कवि बिरादरी के कौटुम्बिक कलह का आन्तरिक प्रकरण है । पर दूसरी कविता में स्त्री में रजोनिवृत्ति के बाद सेक्स को लेकर जो खिलन्दड़पन अपने पूर्ण प्राकट्रय पर होता है, उसका भी यथोचित योगदान है । घरों में हमें रजोनिवृत प्रौढ़ा चाचियों मासियों व बुआओं की नवोढ़ाओं से होने वाली चुहल में इसके स्पष्ट दर्शन मिलते हैं ।

बहरहाल तुलनाएं सिर्फ उनके मंसूबों की है , जो कि अपनी प्रकृति में 'रचना-साम्य' के लिये दोनों सर्जकों को पूर्णत: वशीभूत कर के रखते हैं । क्योंकि दोनों ही कवि 'गोपन' को खोलने की 'थ्रिल' को करुणा के कतरों से छुपाने का स्वांग रचते हुए , उन्हें खोलकर उनसे खेलने को ही अपना 'काव्याभीष्ट' बनाते हैं । वही उनका और कविता का प्रतिपाद्य है । यहां नवगीतकार नईम की बात याद आ रही है , जिसमें वे गोश्तखोरी की ओर संकेत करते हुए कहते हैं , ' ईद-बकरीद बस तो बहाना है । ' यह वैसा ही चातुर्य है, जो करुणा का कारोबार करते हुए फिल्मों के पेशेवर लोग दृष्य-भाषा के माध्यम से दर्शक की 'यौनेत्तजना' से इस तरह खेलते हैं कि दृश्य से आंख से ज्यादा अन्तर्वस्त्र् भीग उठें ।

निश्चय ही ऐसे में टिप्पणीकर्ता ने इसमें चतुराई से छुपा ली गई 'पोर्नोग्राफिक-नीयत' को पढ़ लिया । उसके पाठ को महान रचनाओं पर 'पोर्नो' होने के लांछन लगाना मानते हुए कविता बिरादरी के पारखियों का एक समूह सहसा तमतमा उठा
दरअसल , पोर्नोग्राफर शब्द के सहारे चित्रात्मक ढंग से 'मिथ्या-यौन तुष्टि' की तरफ ले जाता है । जबकि, 'विजुअल-लैंग्विज' का पोर्नोग्राफर धीरे-धीरे स्त्री को राजी करता है, स्वयं को खोलने के लिए
वह स्वयं को खोलती है और बाद इसके, खुद से खुलकर खेलने लगती है । अपनी यौनिकता भर से नहीं , यौनांगों से खेलते हुए वह 'अन्य' को 'आनन्द' का उपभोक्ता बना लेती है , जो फ्रेम और टेक्स्ट से बाहर है । उसमें पीड़ा और प्रश्नों से भरा कोई सांस्कृतिक संकोच नहीं होता । उसका खिलन्दड़ापन ही माल का सौंदर्यीकरण है । वह जितना खेल के वृत्त का विस्तार करेगी , उतना ही वह उपभोक्ता की तसल्ली का दायरा वृहद बनता जायेगा .यह 'ब्रेस्ट कैंसर' के लेबल के साथ 'वुमन-सेक्सुअल्टी' की सेंसुअसनेस की पण्य-उद्देश्य के लिये की गई प्रीतिकर पैकेजिंग है
इन बातों को ध्यान में रखकर देखें तो लगता है, यहां कविता से मंजा हुआ चातुर्य झलकता है । इस कविता का कवि कुचों को उम्र के दस वर्षों में ले जाता है । पहाड़ों पर चढ़ता है । दूध की नदियां बहाता है । पहाड़ खोद कर चुहिया को पकड़ कर लाता है । ज्वैलथीफ के फिल्मी-स्मगलर की तर्ज पर वहां से हीरे निकालता है -- यानी एक शब्द की छाया से दूसरे शब्द की तरफ फलांगते हुए , कई-कई तरह से 'दुद्घुओं' से पर्याप्त दिलेरी के साथ खेलता है । वह कभी उन्हें एब्सट्रैक्ट में ले जाता है फिर कंक्रीट में ले आता है । मुहावरे के परम्परागत अर्थ की छांह में छुपता है और फिर अर्थ से बाहर निकल कर 'अनर्थ का आनंद' पैदा करता है । यह शब्द में सेक्सुअल की सोलो पर्फार्मेंस है । एक 'इमेजिनेटिव सिन्थेसिस' से 'भाषान्ध' बनाने की अचूक तकनीक है ।

हमारे समीक्षकों का वृद्घ-वृन्द जो अपनी तकनीक-विरक्त दयनीयता को ''स्वयं के भीतर बचा कर रख ली गई मनुष्यता'' के रूप में विज्ञापित करता है । वे नहीं जानते कि ये 'मौलिकता' की कथित 'मार्मिकता' से भरी कविताएं सिर्फ सिन्थेटिक कविताएं हैं-जो साइबर स्पेस को खंगालते रहने की अभ्यस्तता से बहुतेरी गढ़ी जा सकती हैं । इस खदान से कविता के कई चमकीले हीरे जवाहरात निकाल कर उसकी द्युति से हिन्दी आलोचना के अधिपतियों को अभिभूत करते हुए 'भाषान्ध' बनाया जा सकता है
आप गूगल का आश्रय लेकर 'ब्रेस्ट केंसर' को लेकर लिखी गयी कविताओं की राई ढूंढने जायेंगे तो वह आपके कम्प्यूटर के डेस्कटॉप पर राइयों का पहाड़ लगा देगा । आप अपने माउस की मदद से उस पहाड़ में से कविता के काम की चुहिया निकाल लीजिये । भाषा की इतनी पूंजी तो आपके पास होनी ही चाहिये कि चुटकी भर 'रसना' से आप बारह गिलास बना लें
......वहां एक नहीं दोनों स्तनों की शल्यक्रियाओं से की जाने वाली 'बाई-लेटरल मेसटक्टॉमी' पर अलग से कविताएं भरी पड़ी हैं, जिनका किसी भी साहित्यिक दृष्टि से कोई काव्य-मूल्य नहीं है । वहां 'गेट-वेल' पोएट्री है, जो रस्मी तौर पर रोगियों के बीच नर्सों और शुभाकांक्षी-समूहों द्वारा अस्पताल के वोर्डों में वितरित की जाती हैं, ताकि उनकी जिजीविषा और आत्मबल बढ़े
वे रोगी के लिए की जाने वाली लैंग्विज-थैरेपी का हिस्सा है । वहां हर किस्म की व्याधियों पर लिखी गई कविताओं का जखीरा भरा पड़ा है, जिसको उठाकर कोई 'चतुर कविताभ्यासी' अन्य रोगों पर हिन्दी के वृद्घ समीक्षकों को चमत्कृत कर डालने वाली कविताएं थमा कर , महानता की कतार में खड़े होने के लिए , उनके हाथों से इतिहास के दरवाजे का गेटपास छीन सकता है
'वी ऑर क्रैक्ड पॉट्रस' रजस्वला होने के साथ स्त्री से जुड़ जाने वाले नियमित रक्तस्राव को लेकर तंजिया कविताएं हैं । रजोनिवृति पर भी मसखरी करती कई कविताएं हैं । और तो और आप मासिक धर्म के रक्त से सने सेनेट्री नेपकिन को लेकर कविता और पेण्टिंग्स दोनों ही बरामद कर सकते हैं । पेण्टिंग में अचानक कर दी गई मूर्खता जैसा भी सौन्दर्य नहीं है । वहां 'दुद्घू' और 'पद्दू' पर भी पोएट्री है । बहरहाल कई कई तरह की बीमारियों की सनसनी और सच्चाई से लथपथ ऐसी कई संभावनाशील कविताएं और कवि वहां हचर-हचर कर रहे हैं । सड़ांध में स्वाद निर्माण करने की व्यंजन विधि में निष्णात हिन्दी के कुछ अतिरिक्त प्रतिभाशाली कवि वहां से वांछित क्षेत्र् की सामग्री उठायें और उसमें अपने पास से 'मिथ्या-भावमयता' भर कर कई ताजा 'भरवाँ' कविताएं बना सकते हैं । वे गर्मागर्म भी रहेंगीं और आस्वाद के स्तर पर आलोचक के मुखारविन्द से विशेषणों को लार की तरह लगातार टपकाएंगी ।

कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी तमाम चमकीली कविताएं किसी दिन मौलिकता के संदर्भ में 'विश्वास को इरादतन मुअत्तल' करने का काम करेंगी । यदि ऐसी 'सिन्थेटिक' कविताओं की फसल को आलोचना की टेढ़ी नजरों से बचाने के लिए कोई भाषा के कांटेदार तर्कों की बागड़ करेगा तो वह स्वयं संदिग्ध हो जायेगा । यह गंजे के सिर पर टोपी का इंतजाम की कोशिश कही जायेगी । ' डोंट ट्राय टू कीप द कैप्स ऑन बाल्ड हेड' ।

हिन्दी में साठ के दशक की 'अकविता'

यहां मैं साठ के दशक का स्मरण करना चाहता हूं, जब योरप में आमतौर पर और अमेरिका में खासतौर पर 'कल के विरुद्घ बिना किसी कल' वाली पीढ़ी 'विचारहीनता के विचार' की सुरंग में फंस चुकी थी । उस वक्त की अंधी कोख से जन्मी थी, 'एंटी-पोयट्री' जिसके विकृत अनुकरण में हिन्दी में 'अकविता-आंदोलन' खड़ा हो गया था । तब कविता स्त्री की जांघ में पीप और मवाद ढूंढ रही थी । कवि सड़क पर चलती हर स्त्री को छेद की तरह देख रहा था । मरे हुए बत्तखों की सी लटकती छातियों पर हस्तमैथुन से वीर्याभिषेक कर रहा था । उस समय की अमेरिकी 'एण्टी-पोएट्री' में 'ब्लैक-पोएट्री' नाम की कविता का फैलाया हुआ 'घृणा का समाजशास्त्र' अपने कपड़े उतार रहा था । नग्नता और फूहड़ता विकृति का नया कीर्तिमान बन रही थी । वह सर्जन नहीं उत्सर्जन था । साथ ही साथ अकहानियों की धमचक भी शुरू हो गई थी । जिसमें समुद्र तट की रेत में श्वेत-स्त्री के साथ संभोग करते हुए, पात्र् को 'वह अमेरिका की ले रहा है', जैसा शौर्यानुभव हो रहा था । शायद तभी धर्मवीर भारती ने 'चिकनी सतहें बहते आन्दोलन' तथा कमलेश्वर ने 'ऐय्याश प्रेतों का विद्रोह' नामक लेख बहुत आक्रामकता के साथ लिखे थे । लेकिन यहां हिन्दी आलोचना के सामाजिक विवेक की सराहना की जाना चाहिए कि उसने 'बेहतर के लिए मेहतर' की भूमिका निभाई और नाबदान को समय रहते निर्ममता के साथ साफ कर दिया था । 'विजप' ( गंगाप्रसाद विमल , जगदीश चतुर्वेदी और श्याम परमार ) की उस कवित्रयी की उन रचनाओं का आज कोई अता-पता नहीं है । लोगों को सिर्फ राजकमल चौधरी की ''मुक्ति-प्रसंग'' भर की स्मृति है । चन्द्रकान्त देवताले आदि जल्दी ही अलग हो गये थे - और स्वयं को व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य से जोड़कर आज अपने समय के एक महत्वपूर्ण कवि होने का सम्मान अर्जित किये हुए हैं ।

इसकी वजह यही थी कि आलोचना के पास तब व्यापक सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में सृजन को नाथने का प्रतिबद्घ संकल्प था
कुछ निश्चित प्रतिमान थे । लगता है दुर्भाग्यवश वैसी साहसिक आलोचना अब नहीं रह गयी है । नयी 'दमित अस्मिताओं’ की अभिव्यक्ति के नाम पर आ रही ऐसी फूहड़ता के बारे में कुछ भी बोलते हुए आलोचना की अब घिग्घी बंध जाती है ।

आलोचना गोलमोल भाषा में अपना छद्रम-वक्तव्य देकर बच निकलती है । या फिर मारे डर के वह उल्टे उनकी आरतियों और स्तुतिगान की तैयारियों में जुट जाती है ।

दरअसल सृजनात्मकता के क्षेत्र् में ऐसी दारुण दयनीयता इसलिए भी आ गयी है कि वामपंथ के पराभव के पश्चात के इस उत्तरआधुनिक दौर ने आलोचकों के हाथों से वे उपकरण छीन कर घूरे पर फेंक दिये हैं, जिनसे वे 'सृजन' को कठोरता के साथ कसौटी पर रखते थे । तब वे समूचे सृजन क्षेत्र् को विचार से दहकते सवालों को नोंक पर रखते हुए पूछते थे '' तुम्हारे पैमाने और प्रतिमान क्या हैं ? '' पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ? '' लेकिन , बकौल नोम चोमस्की 'अब राजनीति एक बड़ा निवेश हो गयी है और हरेक की जेब में अब अपने-अपने सुभीते और साइज का जनतंत्र है । अब मार्केट-फ्रेण्डली फ्रीडम का फण्डा है । चयन को ही सृजन की स्वतंत्रता की तरह बताया जा रहा है । इसलिए कविता व्यापक जन-संदर्भों के सवालों से मुक्त हो गयी है । नतीजतन कवि तथा कविता में कैरियरिज्म' ने 'विषय वैचित्र्य' की अनियन्त्रि‍त लिप्सा भर दी है । वह वहां जाना चाहता है, जहां कभी कोई गया नहीं और कोई जाएगा भी नहीं । यह संस्कृत के 'अगम्यागमन' का ही संकल्प है । वही अब नया 'काव्याभीष्ट' है । फिर भारत जैसे अत्यन्त जटिलता से अंतरग्रथित समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक निषेधों को तोड़े जाने से जो 'थ्रिल' बनती है, वह अब बहुत बिकाऊ सिद्घ हो रही है । भारतीय अंग्रेजी में ऐसे लेखन को लगे हाथ प्रकाशक सर पर उठाने के लिए आगे आ जाता है । अत: 'इनसेस्ट' अर्थात्र रक्त-संबंधियोंसे सेक्स का चित्रण बहुत सेलेबल है । याद कीजिए कि कैसे 'ब्लू-बेडस्प्रडे' के प्रकाशन का सौदा तत्काल सत्तर लाख में हो गया क्योंकि वह सहोदरा से सेक्स को चित्रित्त करता था । यदि ऐसे साहित्य को हिन्दी में अनूदित कर दिया जाये तो उसकी औकात उस पल्प-लिट्रेचर की रह जायेगी जो रेलों तथा छात्रवासों में पढ़ने भर की होंगी । हकीकत ये है कि अब 'फैशन' और 'उपभोग' साहित्य में शिफ्ट हो गया है । यह निश्चय ही 'विचारहीनता के विचार' की सर्वग्रासी अवस्था है । बहरहाल ऐसे समय में 'विचार' की बात करने का अर्थ 'दिगम्बरों' के मुहल्ले में लॉण्ड्री खोलने की जिद करना है ।

कुछ वर्षों से 'माय मॉम्स लवर', 'माय मॉम्स न्यू ब्वाय फ्रेण्ड', 'डोण्ट टेल इट टू मॉम' शीर्षकों वाली कविताओं और कहानियों ने साइबर-बिजनेस में करोड़ों की संख्या में 'हिट्स' दीं । अब तो इन टाइटिल के वीडियो आ गये हैं और उनकी क्लिप्स को अपने ब्लैक-बेरी के जरिये मित्रें को भेजना युवा पीढ़ी का नया उत्तर-आधुनिक सांस्कृतिक-आदान-प्रदान है । 'सविता भाभी' की अपने प्रेमियों के साथ सेक्स-कथा ग्राफिक्स और एनीमेशन में खासा व्यवसाय कर चुकी है । यदि हिन्दी का कोई कवि ऐसे विषयों को कविता में शामिल करके अपनी प्रतिभा के विस्फोट का चमत्कार पैदा करने लगे और हम उसकी प्रेरणा के मुख्य स्रोतों से अनभिज्ञ हैं तो यह हमारी आलोचना की सूचना सम्पन्नता की दरिद्रता का प्रमाणीकरण है । यह सामाजिक संदर्भों के इलाके का नया अंधत्व है, जिन्हें चमत्कार की चौंध ने 'फोटोफोबिया' पैदा कर दिया है । उनसे ऐसी चमक में विकृतियों की शक्लों की शिनाख्त नहीं हो पा रही है । यह उनके द्वारा गन्धाते गोबर में गालिब का दिग्दर्शन कर लिया जाना है ।

अब बिजूकों के दिन लद गये !

अब अंत में थोड़ी बातें 'ब्रेस्ट कैंसर' नामक कविता की रचयिता विदुषी अनामिका की प्रति-टिप्पणी को लेकर
टिप्पणी पढ़कर लगा कि उनमें भरपूर कवि-चातुर्य तो है , लेकिन टिप्पणी की भाषा में भी यथेष्ट चतुराई है
वे टिप्पणी के आरंभ में पहले ही अंग्रेजी की छतरी तान कर रख देती हैं । बीच टिप्पणी में डराने के लिए एक अश्वेत कवयित्री की कविता का बिजूका भी गाड़ देती हैं । लेकिन अब बिजूकों के दिन लद गये । वीरेन्द्र कुमार बर्नवाल, जिन्होंने सबसे ज्यादा अफ्रीकी तथा ब्लैक लिट्रेचर खंगाला है , वे बता सकते हैं कि वहां की हालत क्या है । रोजन कॉज ने ब्लैक कविता में जहां-तहां छितरायी हुई इस तरह की फूहड़ता की पर्याप्त सफाई की है । नेट-युग में अब ऐसे बिजूकों से शायद ही हिन्दी का कोई प्रबुध्द पाठक डरता हो । बहरहाल, वे शालिनी माथुर की टिप्पणी से जागृत अपने क्रोध की 'धधक' को कोमल के ‘कौशल' से 'केमोफ्रलैज' करती हुई , बाहर से बहुत विनम्र जान पड़ती हैं, लेकिन जिस तरह शुरू में ही बहनापे को छोड़ कर , प्रेमचन्द के भाई साहब में काया प्रवेश करते ही , उनके भीतर की उस ज्ञान-वर्चस्व प्रदर्शन की लालसा लगे हाथ लपक कर बाहर आ गयी , वे अपनी सहोदरा की विवेचनात्मक टिप्पणी को 'कोसने और कलपने' का पर्याय बता कर उसे खारिज करने का अप्रकट उपक्रम करती हैं । फिर कविता के स्वभाव को स्त्री का स्वभाव का पर्याय बताने लगती हैं । हालांकि कविता का अगर यही स्वभाव है, तो उन कविताओं का क्या होगा, जो गरेबान पकड़ कर सच को उगलवाने के लिए आगे आती रही हैं ? खैर ऐसे में मुझे सहसा भोपाल स्कूल की समीक्षा-भाषा के स्वांग की याद हो आयी । जहां स्वामीनाथन की कलाकृति या कृष्णबलदेव वैद की कहानियों पर बातें शुरू करते हुए कहा जाता था 'उनकी कृति का कहें कि प्रकारान्तर से क्वचित् यह स्वभाव ही रहा आया है कि वे पाठक से सहसा सम्वाद के लिए तैयार ही नहीं होतीं । अपितु वह उसकी तरफ इरादतन अपनी पीठ फेरे रहती हैं
उन्हें शनै: शनै: राजी करना होता है
' ज्ञान चतुर्वेदी ने इस चतुराई पर अपनी निर्मल विनोदी टिप्पणी में कहा 'क्या ये यह कहना चाहते हैं कि इनकी कृतियों को औरतों की तरह पटाने की जरूरत होती है ? यानी पाठकजी आयें फिर कविताजी की पीठ पर हाथ फेरें । गुदगुदी करने लगें । तब न कहो कविता जी बुरा ही मान जाएं । तब क्या होगा ? ..........बहरहाल, गनीमत थी कि वे अपनी टिप्पणी में मिथिला तक ही गई और खजुराहो या अजंता-एलोरा की गुफाओं में नहीं घुसीं । वर्ना जब भी हमारे यहां यौनिकता के फूहड़पन पर टिप्पणी की जाती है, तो विद्वज्जन तर्काकाश में उड़ कर तुरत वहां पहुंच जाते हैं । और उनकी ही छत्तों और शिखरों पर चढ़ कर टीवी एंकर्स की तरह बोलने लगते हैं--ये देखिये .. यहां पत्थरों में मूर्तियों के स्तन भारी हैं , इनके नितम्ब भी भारी हैं और ये सम्भोगरत भी हैं........अब आप ही बताइये कि क्या ये अश्लील हैं ?

आगे देखें ... वे दृष्टि में मर्दवाद के महीन लांछन के लिए टिप्पणीकार को 'शालिनी बाबू' भी कहती हैं । उन्हें ईसा का क्रूसीफिकेशन भी याद हो आया । यहां तक कि लगे हाथ फासीवाद तक भी याद आ गया । टक्कर के पुरुष और स्त्री की यौनिकता जगा पाने की जैविक चुनौतियों के पार्श्व में खड़े 'आर्गेज्म' को भी वे टिप्पणी में ले आयीं है । पोर्न का सारा व्यवसाय ही 'आर्गेज्म' को रचने या आविष्कृत करने की प्रविधि पर ही टिका है । कहना ना होगा कि किसी दिन ऐसे ही 'पवन-वेग' से भरा कोई नया 'अतिरिक्त-प्रशंसा का शिकार' हिन्दी कविता का नया सम्भावनाशील हस्ताक्षर अपनी बाजारीकृत दिव्यता के साथ इस विषय पर अनामिका और पवन को पछाड़ता हुआ दृश्य में अपना कीर्ति कलश स्थापित कर सकता है ।

कुल मिलाकर कविता की इन विदुषी की प्रति-टिप्पणी पढ़कर मुझे लगा कि उनके भीतर क्रोध का छुपा हुआ तारत्व तो इतना है कि यदि उनके पास भाषा का कोई बघनखा होता तो वे चतुराई से ऐसी टिप्पणी का पेट चीर कर उसकी अंतडि़यां निकाल कर बाहर कर देतीं ।

मुझे उनकी ऐसी चतुराई देखकर संयोगवश हमारे गांव में हर वर्ष दीवाली के समय आने वाला एक अत्यन्त दक्ष तमाशबीन याद आता है, जिसको सामने जमीन पर रख गया सिक्का उठाना होता था तो वह पहले उस सिक्के के चारों ओर दौड़-दौड़ कर बनेठी घुमाता । फिर हवा में कोड़ा घुमाकर खुद की पीठ पर भी मार लेता बाद इसके उस सिक्के के ऊपर से चारों दिशा में से पचीसों गुलांटियां लगाता रहता और थक कर अंत में उस सिक्के को उठाता था
कुल मिलाकर, वह इन करतबों के प्रदर्शन से दर्शकों में यह बोध पैदा करने की जुगत भिड़ाया करता था कि कितने-कितने जतन के बाद पहुंच पाया है वो सिक्के के पास
यह संघर्ष का हासिल है
भोपाल में अशोक-युग के 'पूर्वग्रह' में कविताओं की समीक्षा की यही प्रविधि होती थी
इस प्रविधि के अनुकरण से हिन्दी में कई प्रतिभाग्रस्त समीक्षक पैदा हुए जिन्होंने कई तिलों में 'ताड़त्व' और वामनों में 'विराटत्व' भरने की कोशिशें कीं
वहां समीक्षा भाषा में गंभीरता का 'उर्ध्‍व-उत्कीर्णन' होता था
कविता 'प्रश्नकीलन' करती रहती थी
आलोचना में शब्दाम्बर की इस वृत्ति पर ज्ञान चतुर्वेदी ने एक टिप्पणी भी लिखी थी - '’प्रश्नकीलन से उत्पन्न अर्थ-सीलन‘’
जिससे कविता की कठिनता की विवेचना के लिए और और कठिन भाषा में लिखी जा रही समीक्षा भाषा पर उपालम्भ था
उसमें एक पंक्ति थी कि '' कहीं ऐसा तो नहीं कि गोरखपुर का कल्याण अपने नये गेट-अप में भारत-भवन से निकलने लगा हो और मैं गलती से वही उठा लाया होउं ? ''

दरअसल , यह भाषा की चतुराई की सतही इलेक्ट्रोप्लेटिंग है
यह ऐसी कलई है, जो पढ़ते ही खुल जाती है
मुझे काव्य-विदुषी अनामिका की कविता तथा टिप्पणी के तिलस्म को देख कर भवानीप्रसाद मिश्र की एक काव्य पंक्ति याद आ गयी -''चतुर मुझे कुछ नहीं भाया , ना स्त्री , ना कविता
'' चतुराई निश्चय ही आपके चिंतन और अभिव्यक्ति दोनों को ही संदिग्ध बनाती है
एक कवि को अपनी कविता पर स्वयम् ही स्वस्थ-संदेह करना आना चाहिये कि क्या रूग्णता पर लिखी ऐसी सिन्थेटिक कविता मृत्यु के भय या विभीषिका के विरूद्घ खड़ी रह सकती है ? '’ हलो ! कहो कैसे हो । कैसी रही ? ‘' की मसखरी क्या मृत्यु से निबट सकती है
वे पाठकीय विवेक का गलत आकलन कर रही हैं


हालांकि जीवन में अपनी रचनात्मकता के बीच हर बड़ा रचनाकार, एक बार 'ईश्वर', 'समय' और 'मृत्यु' से भिड़े बगैर नहीं रहता है
अलबत्ता ये कि कोई भी इन तीनों से भिड़े बिना बड़ा ही नही होता
न वह , न उसकी रचना
क्योंकि ये तीनों प्रश्न शताब्दियों से कला और साहित्य क्षेत्र् के रचनाकर्म के लिए चुनौती की तरह बने रहे हैं । यदि इन दो कवियों की कविता इतनी बड़ी हैं तो फिर इस बात का कैसा डर कि उनके विरोध में मात्र एक टिप्पणी के प्रकाशन से इतनी थरथरा गयीं कि उस कविता को बचाने के लिए हांक लगानी पड़े और वो लोग आपातकालीन सहायता के लिए दौड़ पड़े जो इन दो कविताओं की रक्षा के प्रश्न से 'कीलित' हैं । बहरहाल जरा गौर से देखें तो यह प्रकरण वस्तुत: पोर्न के आक्षेप से बचने भर की हलातोल नहीं है । इसे लोक-विवेक से जांचें तो समस्या बुढिया के मरने के अफसोस की नहीं बल्कि चिन्ता तो यह है कि मौत ने घर देख लिया है । इसलिये काव्य-कुटुम्ब की घबड़ाहट अनुचित तो कतई नहीं है । उन्हें डर है कि ऐसी दंश मारती 'शालिनी-भैया मार्का' आलोचना का कैंसर अन्य कविताओं के भीतर भी वायरस की तरह घुस जायेगा । तब तो ऐसी 'कैंसर-कीलित' कविताओं की उत्तरजीविता ही संदिग्ध हो जायेगी । बहरहाल जो कविता ऐसी टिप्पणी के खिलाफ नहीं लड़ सकी तो वह कैंसर के खिलाफ कैसे और कितनी दूर तक लड़ पायेगी ?

हैलन गार्डनर ने कहीं लिखा था 'सच्चा समालोचक कभी कवि पर छत्र् लगाकर नहीं चलता ' लेकिन यहां तो समालोचक छत्र् ही नहीं, रक्षा-पाठ व उसका पारायण करता हुआ अंगरक्षक बन जाता है । कवि पर पुरस्कारों की बौछारें भी कर दी जाती है । इससे कविताओं को आलोचना का अभयदान प्राप्त हो जाता है । वे कविता के कवच-कुण्डल बन जाते हैं । जबकि हकीकतन , जो प्रसंशाएं कवि को बिलकुल आरंभ में मिल जाती हैं , वे बाद में उसके साथ बहुत बुरी तरह से पेश आती हैं , यह नहीं भूलना चाहिए ।

सृजन के क्षेत्र् में एक बात यह भी है, जिसे नहीं भुलाया जाना चाहिए कि 'महानों' के रचे हुए में भी बहुत कूड़ा होता है । प्रेमचन्द ने सात सौ कहानियां लिखीं है, लेकिन आज चर्चा में वे बस दस-पन्द्रह ही आती हैं । पिकासो का सारा 'रचा हुआ' महान नहीं है और ना ही हुसैन का । उनका बहुत सारा ऐसा है , जिसका दर्जा 'कलर्ड गारबेज' से ज्यादा नहीं है । हर 'रचा' या 'लिखा' हुआ कृति का दर्जा या कृति का सम्मान हासिल नहीं कर सकता । बर्गसाँ ने रचनात्मकता के क्षेत्र् में सर्जन के आत्म की परिपक्वता के स्तर के संदर्भ में कहा था 'टू चेंज मीन्स टू मैच्योर एण्ड टू मैच्योर मींस टू क्रिएट एण्ड रिजेक्ट अवर ओन सेल्फ । सो टू से दि प्रॉसेस आव क्रिएशन इज इनेविटेबली अ प्रॉसेस ऑफ रिजेक्शन टू । '

बहरहाल , यदि आपने सृजनात्मकता के इलाके में उतरने के बाद स्वयं के रचे हुए को रद्द करने का वस्तुगत विवेक अर्जित नहीं किया तो वक्त की छलनी खुद उसे छान कर घूरे पर फेंक देगी । गांधी के आत्म विवेक ने तो सैकड़ों बार अपनी धारणाओं को डिस-ओन कर दिया था ।

अंत में पता नहीं भाई आशुतोष कुमार इस सारी बहस में सनी लियोन को क्यों ले आये । साहित्य के बाणभट्रटों के समक्ष सिने जगत के महेश भट्रटों की-सी आर्थिक विवशताएं थोड़े ही हैं कि वे सनी लियोन का प्रतिष्ठा मूल्य बनाये । 'जिस्म-दो' में भट्रट की पूंजी लगी हुई है , अत: पोर्न इंडस्ट्री की इस ''भग-वती'' की आरती अर्चना उनके लिए जरूरी है, लेकिन हिन्दी जगत के सर्जनात्मक लोगों का ऐसा कोई पूंजी आधारित प्रोजेक्ट नहीं , जिसके चलते वे पोर्न का 'प्रतिष्ठा-मूल्य' बढ़ाने के लिए आगे आयें । आशुतोष भाई आपकी ऐसी कोशिशों से मुझे लग रहा है कि कहीं पवन करण प्रेरणा ग्रहण करके ' प्रिय पोर्न-पुत्री के नाम पिता का पत्र ' शीर्षक से कविता लिखने न बैठ जायें । क्योंकि 'सिन्थेटिक कविता' नेट-प्रसूता होतीं है । वे तुरन्त ही कवि की गोद में चढ़ने के लिये मचल उठती है ।

बहरहाल विचार के कुरूक्षेत्र में न अस्त्र की जरूरत पड़ती है, न शस्त्र की । विचार स्वयं में ही अस्त्र भी है और शस्त्र भी है । विचार से 'मगध' डरता है , ऐसी सूचना श्रीकान्त वर्मा की कविताओं से बरामद हुई थीं
लेकिन 'सृजनात्मकता' भी विचार से डरने लगे, यह ज्यादा विचारणीय है । ये खतरनाक संकेत हैं ।

दिल्ली में कविता का कहीं कोई 'मगध' तो नहीं बनने लगा है.......?
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प्रभु जोशी


जन्म: १२ दिसंबर, १९५० देवास (मध्य प्रदेश) के गाँव पीपल राँवा में।

शिक्षा: जीवविज्ञान में स्नातक तथा रसायन विज्ञान में स्नातकोत्तर के उपरांत अंग्रेज़ी साहित्य में भी प्रथम श्रेणी में एम.ए.। अंग्रेज़ी की कविता स्ट्रक्चरल ग्रामर पर विशेष अध्ययन।

कार्यक्षेत्र: पहली कहानी १९७३ में धर्मयुग में प्रकाशित। 'किस हाथ से', 'प्रभु जोशी की लंबी कहानियाँ' तथा उत्तम पुरुष' कथा संग्रह प्रकाशित। नई दुनिया के संपादकीय तथा फ़ीचर पृष्ठों का पाँच वर्ष तक संपादन। पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी तथा अंग्रेज़ी में कहानियों, लेखों का प्रकाशन। चित्रकारी बचपन से। जलरंग में विशेष रुचि।

लिंसिस्टोन तथा हरबर्ट में आस्ट्रेलिया के त्रिनाले में चित्र प्रदर्शित। गैलरी फॉर केलिफोर्निया (यू.एस.ए.) का जलरंग हेतु थामस मोरान अवार्ड। ट्वेंटी फर्स्ट सेन्चरी गैलरी, न्यूयार्क के टॉप सेवैंटी में शामिल। भारत भवन का चित्रकला तथा म. प्र. साहित्य परिषद का कथा-कहानी के लिए अखिल भारतीय सम्मान। साहित्य के लिए म. प्र. संस्कृति विभाग द्वारा गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप।

बर्लिन में संपन्न जनसंचार के अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में आफ्टर आल हाऊ लांग रेडियो कार्यक्रम को जूरी का विशेष पुरस्कार धूमिल, मुक्तिबोध, सल्वाडोर डाली, पिकासो, कुमार गंधर्व तथा उस्ताद अमीर खाँ पर केंद्रित रेडियो कार्यक्रमों को आकाशवाणी के राष्ट्रीय पुरस्कार। 'इम्पैक्ट ऑफ इलेक्ट्रानिक मीडिया ऑन ट्रायबल सोसायटी' विषय पर किए गए अध्ययन को 'आडियंस रिसर्च विंग' का राष्ट्रीय पुरस्कार।

संप्रति: दूरदर्शन इंदौर में कार्यक्रम निष्पादक।

संपर्क : prabhu.joshi@gmail.com

प्रभु जोशी -- 0731 255 1719 / 094253 46356 /

4 टिप्‍पणियां:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

शायद इसलिए कि मुझमें आक्रामकता नहीं है, मैं प्रभु जोशी की आक्रामक भाषा का मुरीद हूँ। अभी, कुछ देर पहले एक ब्लॉग पर लगी कविता पर टिप्पणी की तो जवाब आया--'सबका अपना-अपना नज़रिया है। अनेक लोगों को यह पसन्द भी आयेगी।' कोई उन्हें बताए कि पसन्दगी एक चीज़ है, मूल्यवत्ता और शाश्वतता एक। खैर। प्रभु जोशी की खूबी यह है कि उन्हें पता होता है कि वह किन मूल्यों के लिए लिख रहे हैं और क्यों।

ओम निश्‍चल ने कहा…

अदभुत। प्रभु जोशी के कहे लिखे का जवाब नहीं। उन्‍होंने कथित कविताओं , उनकी सकारात्‍मक समीक्षाओं, उनके गिर्द कवच कुंडल बन कर रक्षास्‍तोत्र का पाठ करने वालों और खुद अनामिका के करुण कातर बचाव की धज्‍जियॉ बिखेर दी हैं। बधाई। यह पढ़ लेने के बाद लगता है आज के आलोचक मूल्‍यहीन साहित्‍य की चौखट पर किस तरह सेवा टहल के लिए नतशिर है।

http://www.blogger.com/comment.g?blogID=6672229774459200184&postID=717972765974762972&isPopup=true ने कहा…

बहुत खूब ओम भाई, बड़ी शानदार प्रतिक्रिया दी है ! 'प्रभु जी' की लेखनी क्या है - 'सुदर्शन चक्र' है ! प्रभु जी (विष्णु ) और सुदर्शन चक्र का जगत प्रसिद्ध पुराना नाता है ! सो यहाँ (साहित्य में) साहित्यकार प्रभु जी ने अपने नाम को सार्थक करते हुए, सुदर्शन चक्र सरीखी अपनी आक्रामक लेखनी से बुराईयों का संहार किया है ! साधुवाद..... !

ढेर सरहना के साथ,
दीप्ति

PRAN SHARMA ने कहा…

EK AESAA LEKH JISKAA JWAAB NAHIN.
LEKH PADH KAR KUCHH KAVI JAN
` ASHLEEL ` KAVITAAYEN LIKHNA BHOOL
JAAYENGE .