स्त्रियों पर बढ़ते अपराध
और कुछ प्रश्न
रूपसिंह चन्देल
’यत्र नार्यास्तु पूज्यंते’ का उद्घोष
करने वाले इस देश में आज जिस प्रकार महिलाओं के प्रति निरन्तर अत्याचार,अतिचार और अपराधों
में वृद्धि हुई है उसने जन-मानस को उद्वेलित किया है. निर्भया (दामिनी) मामला हो, जेसिका
लाल हत्याकांड या अन्य मामले, जनता का क्रोध सड़कों पर उफनता देखा गया. लेकिन अफसोसजनक
बात यह कि महिलाओं के प्रति जघन्य अपराध करने के बाद भी अपराधियों को कठोर सजा नहीं
मिल पाती. बलात्कार जैसे अपराधों के लिए सात साल से लेकर चौदह साल तक की सजा क्या पर्याप्त
है? वर्मा कमीशन ने बलात्कृत की मृत्यु की स्थिति में ही अपराधी के प्राणदंड की व्यवस्था
दी. क्या बलात्कार स्वयं में किसी नारी की हत्या नहीं?
मैं इस पक्ष में रहा हूं कि प्रत्येक बलात्कारी को प्राणदंड नहीं तो ऎसी आजीवन कारावास
की सजा दी जानी चाहिए जिसमें वह मृत्यु पर्यंत जेल के सीखचों के पीछे रहे.
वर्मा कमीशन ने किशोर की आयु १८ से
१६ किए जाने को मंजूर नहीं किया. निर्भया प्रकरण में एक बलात्कारी किशोर था. गांव के
स्कूल के प्रमाणपत्र के अनुसार अपराध के समय उसकी आयु साढ़े सत्रह वर्ष तय पायी गयी
थी. क्या देश के न्यायविद और किशोरों की आयु की १८ वर्ष की सिफारिश करने वाले यह नहीं
जानते कि गांवों में आज भी स्कूलों में वही आयु लिखी जाती है जो मां-पिता बच्चे की
बताते हैं और मां-पिता को स्वयं नहीं मालूम होता कि उनके बच्चे की प्रवेश के समय वास्तविक
आयु क्या थी. नगरों और महानगरों में गांव से आ बसने वाले कितने ही लोगों को अपने बच्चों
की आयु एक से दो वर्ष कम करके लिखवाते मैंने देखा-जाना है. वे गांव के प्रधान से मनमानी
आयु का प्रमाण-पत्र ले आते हैं और प्रवेश के दौरान वह आयु मान्य होती रही है. ऎसी स्थिति
में निर्भया के बलात्कारी किशोर की विद्यालय में दर्ज आयु को अंतिम प्रमाण मान लिया
जाना चौंकाता है. एक बात और, बड़ों जैसे अपराध करने वाले किशोर पर बड़ों की भांति ही
मुकदमा क्यों नहीं चलना चाहिए और किशोर की
आयु १८ से कम करके १६ क्यों नहीं की जानी चाहिए! आज का बच्चा १६ नहीं बल्कि १४ वर्ष
की आयु में ही किशोर हो चुका होता है.
एक आश्चर्यजनक तथ्य दो दिन पूर्व उभर
कर सामने आया कि निर्भया के बलात्कारी किशोर के १८ वर्ष का हो चुकने के बाद भी उस पर
किशोर न्यायालय में ही मुकदमा चलता रहेगा और उसे किशोर गृह में ही रहने की सुविधा होगी.
जघन्य अपराधी किशोरों के प्रति यह सदाशयता दिखलाने वाले लोगों को इस विषय पर पुनः विचार
करना चाहिए. एक प्रश्न बार-बार मन में उठता है कि किशोर आयु १६ से १८ की ही क्यों गयी
थी. तर्क कुछ भी दिए जाएं लेकिन मन में एक आशंका उभरती है कि इसका कारण किसी राजनेता
के सुपुत्र को अपराध से बचाने के लिए तो ऎसा नहीं किया था. बहरहाल,
प्रसिद्ध समाजसेवी और विद्वान शालिनी
माथुर का प्रस्तुत विचारोत्तेजक आलेख अनेक गंभीर सवाल उठाता है. आलेख पर आपकी प्रतिक्रिया
की प्रतीक्षा रहेगी.
(बाएं से तीसरे-शालिनी माथुर)
औरतों के नज़रिये से
मामला हंस और शिiकारी का
0 शालिनी माथुर
प्राक्कथन-
प्राचीन
संस्कृतियों में अपने
प्रति होने वाले
अपराध और अपमान
का बदला मज़लूम
खुद लेता था।
कहानी चाहे यूलिसीज़
और इडिपस की
हो चाहे रामायण
और महाभारत की,
बहादुरी की सारी
गाथाएं ऐसे लोगों
के पराक्रम के
विषय में है
जिन्होंने अपराधी को दण्ड
दिया ,अपने और
अपने समाज के
अपमान का बदला
लिया और समाज
में सुरक्षा की
भावना लाने का
प्रयास किया।
जब
आधुनिक व्यवस्था आई तो
संविधान का राज्य
हो गया। अब
किसी व्यक्ति के
प्रति किया गया
अपराध राज्य के
प्रति किया गया
अपराध माना जाने
लगा। अब अपराधी
को दण्ड देना
राज्य का काम
है- समाज को
अपराध से मुक्त
रखना भी। परन्तु
क्या राज्य पीड़ित
को न्याय दिला
पा रहा है?
पीड़ित निहत्था है
- उसके पास आत्मरक्षा
का भी हक
नहीं है , अपराधी
हथियारबन्द है और
राज्य के बनाए
सारे कानून अभियुक्त
के अधिकारों की
व्यवस्था कर रहे
हैं। पीड़ित के
पास कोई हक़
नहीं- उसे तो
उसके मामले में
हो रही सुनवाई
की सूचना तक
दिया जाना ज़रूरी
नहीं। हमारा क्रिमिनल
जस्टिस सिस्टम ,जस्टिस फार
द क्रिमिनल है,
न कि जस्टिस
फार द विक्टिम
आफ क्राइम। क्या
पीड़ित को न्याय
मिल पाता है
?
पिछले
कुछ दिनों में
भारत के संविधान
में प्रदत्त प्रावधानों
और न्याय प्रक्रिया
के आधार पर
उच्चतम न्यायालय द्वारा अपराधी
पाए गये जिन
अपराधियों को फांसी
की सजा सुनाई
गई थी उनमें
में दो को
वास्तव में फांसी
दे दी गई।
वे दोनों आतंकवाद
से जुड़े थे
अतः उनकी सज़ा
से उठे विवाद
ने एक और
रंग ले लिया,जो राजनीतिक
था। कसाब के
पक्ष में कविताएं
लिख कर ई
मेल द्वारा वितरित
की गई , अफ़ज़ल
गुरू की माता,
पत्नी तथा पुत्र
का चित्र छापते
हुये शोक व्यक्त
किया गया। हममें
से किसी ने
भी इन हत्याकांडों
में मारे गये
दो सौ से
भी अधिक पीड़ितों
के षोक संतप्त
परिवार वालों के चित्र
नहीं देखे, न
ही उनकी व्यथा
प्रसारित की गई।
जिन्होंने अपराधी को फांसी
की सज़ा का
समर्थन किया वे
प्रतिक्रियावादी ठहराये गये और
अपराधी के अधिकारों
का समर्थन करने
वाले प्रगतिशील कहलाए।
इसी
प्रकार वर्ष 2012 के अन्तिम
माह में 16 तारीख़
को हुए बर्बरता
पूर्ण ,नृशंस और क्रूर
कृत्य को लेकर
राष्ट्रव्यापी बहस छिड़
गई। दस अप्रैल
2013 को दिये वक्तव्य
में हमारे प्रधान
मंत्री श्री मनमोहन
सिंह ने कहा
कि 16 दिसम्बर की
घटना ने हमें
नया कानून बनाने
और संषोधित करने
पर मजबूर किया।
दृष्टव्य है कि
हमारा देश स्त्री
के लिये बनाये
गये हर कानून
के लिए हादसे
का इन्तजार करता
रहा है। रेप
के विरूद्ध बनाए
गए नियम में
गवाही का नियम
तब बदला गया
जब 1979 में मथुरा
बलात्कार कांड हुआ
और कार्यस्थल पर
यौनशोषण रोकने का विशाखा
दिशा निर्देश ( जो
फरवरी 2013 में कानून
बन गया ) तब
जारी हुआ जब
1997 में राजस्थान में भंवरी
देवी का बलात्कार
हुआ।
मगर इस बार
इंटरनेट पर अधिक
सक्रिय रहने वाले
नारीवादी संगठनों ने वर्श
2013 में जस्टिस एस सी
वर्मा कमेटी को
सिफारिशें भेजने में आश्चर्यजनक
भूमिका निभाई। वे घूरने
और पीछा करने
(स्टाकिंग )के अपराधों
को ग़ैरज़मानती बनाना
चाहती हैं, ताकि
इन अपराधों की
गम्भीरता को समझा
जाए और न्यायोचित
सजा मिले जो
सही भी है,परन्तु नाबालिग, पांच
छः वर्श की
बच्चियों के साथ
बलात्कार करने वाले
अपराधियों को कठोरतम
दंड देने के
वे सख़्त खिलाफ
हैं। गैंगरेप यानी
सामूहिक बलात्कार के अपराधी
को फांसी न
दिए जाने के
पक्ष में उन्होंने
हस्ताक्षर अभियान चलाया। अपराधी
को क्या सज़ा
हो इस बात
पर सारा बुद्धिजीवी
वर्ग साफ़़़तौर पर
वामपंथ और दक्षिण
पंथ के आधार
पर बंटा दिखाई
दिया- इनमें कुछ
नारीवादी संगठन भी थे।
प्रस्तुत
आलेख मैंने अगस्त
सन् 2004 में लिखा
था, जब धनंजय
चटर्जी को फांसी
दी गई थी,
और अपने संगठन
के सहयोगियों के
साथ साझा किया
था। वह आलेख
ज्यों का त्यों
अपनी सारी दुविधाओं
के साथ पाठकों
के सम्मुख प्रस्तुत
कर रही हूं।
देखें इन नौ
वर्शों में क्या
बदला- सरकार , न्यायव्यवस्था
,सत्ता पक्ष , विपक्ष, वामपंथी
, मानवाधिकारवादी ,मुजरिम ,हत्यारे ,या
पीड़ित और उनके
रिष्तेदार, बेकसूर मज़लूम ।
देखें ,कुछ बदला
भी है या
नहीं ?
जुर्म और सज़ा: मामला हंस
और शिकारी का
क्राइम
एन्ड पनिशमेंट यानी
जुर्म और सजा
पर लेखनी उठाने
वालों में मैं
पहली नहीं हूं।
जब से सामाजिक
व्यवस्था बनी है,
यह मुद्दा तभी
से चर्चा में
रहा है।
चौदह
अगस्त 2004 को धनंजय
चटर्जी नाम के
व्यक्ति को फांसी
पर लटका कर
सजा दी गई।
उसने एक दसवीं
कक्षा में पढ़ती
हुई बच्ची का
क़त्ल किया था,
और क़त्ल से
पहले बलात्कार। फांसी
उसे क़त्ल का
जुर्म करने के
लिए दी गई।
फांसी उसे जुर्म
के चैदह साल
बाद दी गई।
राष्ट्रपति ने उसकी
दया याचिका खारिज
कर दी। उसके
बाद पुनः उसने
सर्वाच्च न्यायालय से इस
आधार पर मुक्ति
की याचना की,
कि वह चौदह
वर्ष जेल में
काट चुका है।
सर्वाच्च न्यायालय ने एक
ही दिन में
यह कह कर
मामला खारिज कर
दिया कि यह
विलम्ब अपराधी ने जानबूझ
कर स्वयं अपने
ऊपर कई स्थानों
से मुकदमें चलवा
कर करवाया है,
क़त्ल की सजा
फांसी है।
जब
से ओपेन स्काइ
पालिसी के तहत
अनेक टी.वी
चैनल आए हैं,
तब से अभिव्यक्ति
की स्वतन्त्रता के
नाम पर अनर्गल
प्रलाप करने की
एक अद्भुत परम्परा
प्रारम्भ हो गई
है। कातिल के
मां बाप कितने
षोक संतप्त हैं
यह सभी चैनल
दिखाने लगे। स्टार
न्यूज़ ने बताया
कि हत्यारे की
तीन नम्बर पर
अटूट आस्था है।
वह जेल की
तीन नम्बर कोठरी
में रहता है।
उसके लिए ट्रे
में नाश्ता आता
है। वह नाश्ते
में एक अंडा,
छः टोस्ट, एक
फल और एक
गिलास दूध पीता
है। वह खाने
में तली हुई
मछली, दाल, चावल,
रोटी और सब्ज़ी
खाता है। वह
रेडियो से मनोरंजन
करता है। (बेचारा
टी.वी.नहीं
देख पाता) उसकी
बहन अनब्याही है।
कातिल के प्रति
दया की याचना
करते हुए कुछ
मानवाधिकारवादी भी दिखाए
जाते रहे ।
इस
बीच उस मासूम
बच्ची के माता
पिता जो कलकत्ता
छोड़ कर मुंबई
में बस गए
थे, वे अपने
घर से भाग
कर कहीं और
जा छिपे ताकि
मीडिया पीछा न
करे। हममें से
कोई नहीं जानता
कि इन चैदह
वर्षां तक उस
बच्ची के मां
बाप ने यह
मुक़द्मा कैसे लड़ा,
वकीलों को कितनी
फीस दी, कितना
पैसा ख़र्च किया
और अपनी मासूस
बच्ची की हत्या
के सदमें को
बर्दाश्त करते हुए यह
चौदह वर्ष कैसे
काटे।
जिस
बात ने मुझे
बहुत द्रवित किया
वह थी, एक
व्यक्ति, जो मृत
बच्ची का पड़ोसी
रहा था तथा
जिसकी बेटी उस
बच्ची के साथ
पढ़ती थी, हत्यारे
की फांसी वाले
दिन जेल तक
आया। वह चाहता
था कि फांसी
ज़रूर हो। हत्यारा
उस बिंल्डिग में
लिफ़्टमैन था, बिंल्डिंग
के बच्चों के
स्कूल से घर
लौटने पर उन्हें
घर पहुंचाने की
ज़िम्मेदारी उसकी थी।
ज़ाहिर है वह
चौदह वर्ष की
बच्ची भी उस
पर यक़ीन करती
रही होगी। सर्वाच्च
न्यायालय के वकील
ने भी कहा
कि अस्सी प्रतिशत
से भी अधिक
जनता हत्यारे को
फांसी चाहती है।
हम जानते है
कि फांसी की
सजा जनमत के
आधार पर नहीं
दी जाती। पर
यह दोनों हृदयस्पर्शी
बातें यह द्योतित
करती है कि
मानव हृदय आज
भी पोयटिक जस्टिस
चाहता है - मुजरिम
को सज़ा, निर्दोष
को माफ़ी।
लेकिन
जुर्म और सज़ा
के इस मुद्दे
पर लेखनी उठाना
मेरे लिए उतना
सहज नहीं है,
जितना किसी अन्य
के लिए होता।
आज से छः
वर्ष पूर्व मैंने
स्वयं अपने इन्हीं
हाथों से लेखनी
उठाकर, अपनी ओर
से हस्ताक्षर करके
एक दया याचिका
राज्यपाल और राष्ट्रपति
को सौंपी थी,
जिसमें बंदिनी रामश्री के
प्राणों की भीख
मांगी थी। मेरी
उस दया याचिका
पर उसकी फांसी
की सजा उम्र
कैद में बदल
दी गई और
आज वह औरत
लखनऊ जेल में
है। वह अक्सर
जेल से मुझे
पत्र भिजवाती रहती
है। यह बात
और है जिस
समय मैंने वह
दया याचिका लिखी
थी, उस समय
तक मैंने उसे
देखा तक नहीं
था। इस प्रकरण
में प्रतिश्ठित वकील
श्री आई.बी.सिंह मेरे
सहयोगी थे।
एक
ओैरत को हत्या
के लिए माफी
ओैर एक आदमी
को हत्या के
लिए फांसी, कहीं
यह मानदण्ड दोहरे
तो नहीं ? आज
पुनरावलोकन करना होगा।
मैंने
पुरानी फाइलो में से
निकाल कर वह
दया यचिका पुनः
पढी। यह याचिका
मैने अखबार में
16 मार्च 1998 को छपी
रिपोर्ट के आधार
पर 17 मार्च 1998 को
लिखी थी और
18 मार्च 1998 को राज्यपाल
को सौंप दी
थी ओैर राष्ट्रपति
को फैक्स द्वारा
प्रेषित कर दी
थी। दया यचिका
के आधार पर
क्षमादान का अधिकार
राष्ट्रपति तथा राज्यपाल
दोनों के पास
समान रूप से
होता है। दया
के लिए हमने
एक व्यक्ति की
निजी एवं विशेष
सामाजिक परिस्थिति को आधार
बनाया था। हमने
कहा था कि
बंदिनी ने जेल
में ही एक
बच्ची को जन्म
दिया जो तीन
वर्ष की हो
गई पर उससे
मिलने कोई नहीं
आया पति तक
नहीं, कि बंदिनी
के साथ उसके
पिता तथा भाई
भी फांसी पाने
वाले हैं और बंदिनी
की फांसी के
बाद उसकी पुत्री
अनाथ हो जाएगी,
कि जिस समाज
में माता पिता
के जीवित होते
हुए भी पुत्री
बराबरी का दर्जा
नहीं पा पाती
वहां निर्धन वर्ग
की अनाथ तीन
वर्ष की बच्ची
का क्या होगा,
कि बंदिनी अपने
पिता व भाई
के साथ सह
अपराधिनी है मुख्य
अभियुक्त नहीं, कि न्यायालय
में सत्र परीक्षण
के दौरान या
अपील के दौरान
किसी ने उसकी
ओर से उचित
बचाव या पैरोकारी
नहीं की, कि
बंदिनी का मामला
उच्च अदालतों तक
गया ही नहीं,
और साथ ही
यह भी स्पष्ट
कर दिया कि
हम नहीं चाहते
कि एक व्यक्ति
को केवल इस
लिए क्षमा कर
दिया जाए कि
वह स्त्री है।हमारी
दया याचिका के
विशय में अनेक
अखबारों ने प्रमुखता
से छापा था।
महामहिम
को दया याचिका
सौपनें जब मैं
और गीता कुमार
गए तो इस
बात पर बार
बार ज़ोर दिया
कि फांसी का
मामला सर्वाच्च न्यायालय
तक जाना ही
चाहिए। रामश्री निपट निरक्षर
और इतनी निर्धन
थी कि उसकी
अपील उच्चतम न्यायालय
तक पहुंची ही
नहीं थी। उसे
उच्च न्यायालय के
आदेश से ही
फांसी होने वाली
थी। इसके बरअक्स
धनंजय चटर्जी का
मामला सर्वाच्च न्यायालय
तक दो बार
गया और राष्ट्रपति
तक भी। उसने
देर करने के
सारे हथकंडे अपनाए
और फांसी की
पूर्व संध्या पर
भी उसने यही
कहा कि वह
स्वयं को दोषी
नहीं समझता।
मेरा
मन बार बार
अपनी दया याचिका
पर लौट जाता
है। वह औरत
निचली अदालत से
सजा पाकर अपील
के बिना 6 अप्रैल
1998 को फांसी चढ़ जाती,
अपने फैसले की
कापी पाये बिना।
दया याचिका देने
के कई महीने
बाद हम लोगों
ने उच्च न्यायालय
में फीस के
पैसे जमा करके
बड़ी कठिनाई से
फैसले की नकल
फैक्स द्वारा इलाहाबाद
से मंगवाई थी।
फैसला पढ़ कर
हम स्तब्ध रह
गए थे। माननीय
न्यायाधीषों ने रामश्री
के विषय में
लिखा था कि
उसके वकील ने
एक बार भी
उसे निर्दोष सिद्ध
करने की कोशिष
ही नहीं की
थी, केवल उसकी
सज़ा कम करने
का अनुरोध किया
था , अतः न्यायधीष
के पास फांसी
देने के अलावा
कोई विकल्प ही
नहीं था। फैसले
के अनुसार उसके
पूरे परिवार को
फांसी होनी थी।
एक
निर्धन निरक्षर औरत के
मामूली वकील ने
मुवक्किल को निर्दाष
साबित करना ज़रूरी
नहीं समझा, तो
जज फांसी के
अलावा क्या सज़ा
देता। हमारी पूरी
न्याय प्रणाली आमूल
चूल परिवर्तन चाहती
है। आज से
छः साल पूर्व
रामश्री के लिए
दी गई दया
याचिका का मुझे
कोई मलाल नहीं।
मामला
रामश्री की माफ़ी
का हो या धनंजय
की फांसी का
एक बहुत बडा
सवाल जो हमारे
सामने खड़ा है
वह यह कि
हर जुर्म की
सज़ा पाने के
लिए सिर्फ ग़रीब
लोग ही जेल
में क्यों है?
जुर्म
और सजा का
मसला जटिल होता
है और नाजुक
भी। हर मसला
दूसरे से अलग
होता है और
विशिष्ट। इसलिए हर मामले
को उसकी विशिष्टता
में सुलझाने का
प्रावधान है। न
तो हर हत्या
की सजा फांसी
है और न
हर चोरी की
सज़़ा जेल। मै
मानती हॅू कि
फांसी की सजा
या तो हो
ही न, और
यदि हो तो
न्याय प्रणाली की
सारी राहों को
पार करके सर्वाच्च
स्तर पर तय
की जाय। परन्तु
जघन्य अपराधों के
क्रूर अपराधियों को
कड़ी सज़ा तो
मिलनी ही चाहिए।
हमारी
न्यायप्रणाली के अनुसार
सज़ा के चार
मक़सद होते हैं-रिफार्मंटिव - यानी सुधार
के लिए, रेस्ट्रिक्टिव
यानी अपराधी को
बंद करके समाज
को उससे बचाने
के लिए, डिमास्ट्रेटिव
- यानी समाज के
अन्य अपराधियों को
आगाह कर देने
के लिए और
रेट्रिब्यूटिव यानी जिसके
प्रति अपराध हुआ
है उसकी ओर
से प्रतिशोध लेने
के लिए।
बच्ची
के साथ बलात्कार
उसके बाद हत्या
करने वाले जघन्य
अपराधी को सजा
देकर समाज को
आगाह भी किया
गया है और
उनके माता पिता
के मन को
ठंडक भी पहुंचाई
गई है जिन्होंने
यह चैदह लम्बे
वर्ष मुकद्दमा लड़ते
हुए बिताए होंगे।
जघन्य हत्या के
दोषी के लिए
जीवन मांगने वालों
ने कहा कि
वह चैदह वर्ष
जेल में रहा,
यह सज़ा काफी
है। उन्होंने यह
क्यों नहीं पूछा
कि हत्या जैसे
स्पष्ट मामले की सुनवाई
में चैदह वर्ष
क्यों लगाए गए।
देरी करने के
लिए अपराधी दोषी
था, यह सर्वाच्च
न्यायालय ने स्पष्ट
कर दिया। आमतौर
पर ऐसे सभी
मामलों में मैंने
अपराधियों को तारीख़
बढ़वाते ही देखा
है, और इस
आधार पर मुक्त
होते भी कि
मामले में बहुत
देर हो रही
है सो बेल
दे दो, और
एक बार बेल
हो जाए, तो
समझो मुक्ति।
जरा मुड़
कर देखें, तो
पाएंगे कि मथुरा
बलात्कार के मामले
में सारे स्त्री
संगठन अपराधियों को
सज़ा दिलवाने के
लिए उठ खड़े
हुए थे और
सर्वाच्च न्यायालय द्वारा सज़ा
घटा दिए जाने
का स्त्री संगठनों
ने कड़ा विरोध
किया था। इसी
प्रकार भंवरी देवी के
प्रति अपराध करने
वालों को सज़ा
न दिये जाने
के मामले में
सभी स्त्री संगठन
न्याय पालिका से
नाराज़ हैं और
अपना विरोध दर्ज
कराते रहे हैं।
देश में
स्त्रियां सुरक्षित नहीं है
यह चर्चा जारी
है। बलात्कारों और
हत्याकांडों का ब्यौरा
रखना, मेरी रुचि
का विषय नहीं
है, इसलिए मैं
यह गिनाना नहीं
चाहती कि कितने
हत्यारे छूट गए।
मैं तो यह
जानना चाहती हूं कि
आखिर हम चाहते
क्या है ? कभी अपराधी
को मुक्त कर
दिए जाने का
विरोध करना और
कभी अपराधी को
सज़ा दिए जाने
का विरोध करना
एक अन्तर्विरोधी दृष्टि
का प्रतीक है।
स्त्री संगठनों, मानवाधिकार संगठनो
और बुद्धिजीवियों को
अपने विचारों में
स्पष्टता तो लानी
ही होगी।
देश में
बढ़ते हुए अपराध
और असुरक्षा की
भावना का कारण
यह नहीं है
कि जुर्म की
कठोर सज़ा दी
जाती है, यहां
तो समस्या यह
है कि असली
मुजरिम को सज़ा
दी ही नहीं
जा पाती। जेलों
में बंद कै़दियों
में से केवल
10 प्रतिशत ही सज़ायाफ़्ता
मुजरिम हैं,शेष
90 प्रतिशत हैं बदनसीब
विचाराधीन कैदी, जिनका एक
निर्णय लेने में
अदालत 10 से 15 वर्ष लगाती
है। तिहाड़ जेल
में एक समय
में बंद 8500 कैदियों
में से 7114 विचारधीन
कै़दी थे। असली
अपराधी या तो
स्वेच्छा से तारीख
बढ़वाते रहते हैं,
या खुले छूट
जाते हैं।
भारत में,
आज तक ब्रिटिश
सरकार द्वारा सन्
1860 में बनाई गई
क्रूर तथा रूढ़िवादी
दण्ड प्रणाली लागू
है जो वकीलों
और जजों के
लिए लाभदायक है,
मुजरिमों और मजलूमों
के लिए नहीं।
ये व्यवस्था निरक्षर
निर्धन और कमजोर
मुजरिम, तथा बदनसीब
बेगुनाह मज़लूम {विक्टिम} को
,चाहे वह किसी
भी वर्ग का
क्यों न हो,
न्याय नहीं दिला
सकती। हमारा क्रिमिनल
जस्टिस सिस्टम क्रिमिनल के
अधिकारों की रक्षा
करता है, पीड़ित
को कोई हक
नहीं देता।
मैंने अपने संगठन
की ओर से
एक युवा लड़की
रोमिल वाही का
केस लड़ा था,
जिसके सिर में
कई गोलियां मार
कर उसके ससुर
और पति ने
उसकी उसकी हत्या
कर डाली थी।
पोस्टमार्टम रिपोर्ट में लिखा
था कि उसकी
हत्या से पहले
उसे चार दिन
तक भूखा रखा
गया था। उसकी
रिपोर्ट लिखने स्वयं मजिस्ट्रेट
को बुलवाना पड़ा
था। पुलिस ने
रिपोर्ट लिखने से इन्कार
कर दिया था,
क्योंकि ससुर ज्वांइट
डाइटेक्टर प्रासीक्यूशन
थे । वे
अपनी बड़ी मूंछों
के कारण खुद
को कर्नल वाही
कहलवाना पसंद करते
थे। आज वे
दोनों बाप बेटा
जेल में है।
वे हर चार
महीने बाद ज़मानत
की अर्ज़ी लगाते
हैं और उनकी
अर्ज़ी का विरोध
करने में मृत
लड़की के पिता
का हर बार
चालीस से साठ
हजार रुपया खर्च
होता है। तीन
चार वर्ष तक
लाखों रुपया खर्च
करके वे थक
गए हैं, और
अब यदि वे
खूब पैसे लगा
कर बेल का
विरोध नहीं कर
सकेंगे तो अपराधी
इस आधार पर
जमानत पा लेगें
कि वे काफी
समय से जेल
में हैं और
निर्णय नहीं हो
सका है इसलिए
उन्हें कब तक
जेल में रख
जाए। मृत लड़की
के पिता यदि
निर्धन होते तो
अपराधी षायद एक
क्षण भी जेल
में नहीं रहते।
अपने इन अट्ठारह
साल के अनुभव
में मैने दहेज
उत्पीड़न और हत्या
की बीसियों मामलों
में से किसी
एक को भी
पूरी सज़ा होते
नहीं देखा। यह
व्यवस्था अपराधी को शक
का लाभ. बेनेफिट
आफ डाउट
देती है, अपराध
का शिकार तो
षिकार होने को
अभिशप्त है, पहले
शिकारी का, फिर
व्यवस्था का।
जो लोग
फांसी की सज़ा
का विरोध करना
चाहते हैं, वे
दण्ड विधान में
परिवर्तन लाने के
लिए संविधान में
संशोधन का प्रयास
किसी और समय
क्यों नहीं करते?
दसवीं में पढ़ती
हुई मासूम बच्ची
का बलात्कार और
क्रूरता से हत्या
करने वाले अपराधी
को मृत्युदण्ड मिलते
ही उसके पक्ष
में रैली निकालना,
बयानबाज़ी करना और
फांसी हो जाने
के बाद हाथों
में दीपक लेकर
उसका महिमामंडन करते
हुए यात्रा निकालना
कितना अशोभनीय है,
कितना असामयिक ओैर
कितना क्रूर यह
समझना क्या उसी
का काम है
जिसने अपनी बच्ची
खोई है? मानवता के पक्षधर
क्या इतना भी
नहीं समझ सकते?
इस बीच
नागपुर में एक
सनसनीखे़ज़ घटना हुई
जिसमें 13 अगस्त 2004 को कचहरी
के अन्दर ही औरतों
के समूह ने
अक्कू यादव नाम
के एक अपराधी
को जूते चप्पलों
से पीट पीट
कर मार डाला।
उन्होंने उस पर
लाल मिर्च और
छोटे चाकुओं से
हमला किया।पांच औरतें
अपराध में पकड़ी
गईं। चार सौ
अन्य औरतें सामने आ गई
और बोलीं कि
अपराध में वे
भी शामिल हैं। पांचो
औरतों को तत्काल
ज़मानत मिल गई।
यह अपनी तरह
का अनूठा उदाहरण
है जहां अपनी
सुरक्षा अपने सम्मान
और संवेदनाओं के
लिए समाज स्वयं
उठ खड़ा हुआ।
अक्कू यादव 12 बार
हत्या और बलात्कार
के जुर्म में
पकड़ा गया,और
हर बार ज़मानत
पर छोड़ दिया
गया। दस वर्ष से
आंतक फैलाने वाला
मुजरिम समाज के
हाथ मारा गया।
यह समाज का
स्वायत्त निर्णय था, जहां
पीड़ित औरतों के
समूह ने तय
किया कि वह
अपराधी को प्रश्रय
देने वाली न्यायप्रणाली
का मोहताज नहीं रहेगा।
भावना इसके पीछे
भी उसी पोयटिक
जस्टिस की है
- अपराधी को सजा
और निर्दोष को
माफी। ऐसी
घटनाएं भारतीय न्याय व्यवस्था
के लिए ख़तरे
की घंटी हैं।
आज धनंजय
चटर्जी को मासूम
बच्ची की हत्या
और बलात्कार के
अपराध पर होने
वाली फांसी से
सहमत होने का
भी मुझे मलाल
नहीं। यह सजाएं
अमानवीय भले ही
लगें पर सिद्ध
करती हैं कि
समाज क्रूर और
जघन्य अपराधों को
सहन नहीं करेगा।
हमें वह समाज
बनाना है जहां
निर्दाष निरपराध लोग भी
चैन से जी
सकें, जहां बच्चियां
स्कूल जा सकें
, पार्कां में खेल
सकें, जहां मां
बाप और बच्चों
को हर समय
बलात्कार और हत्या
के खौफ के
साये में न
जीना पडे़, जहां
न्याय प्रणाली का
एक मात्र ध्येय
केवल 99 अपराधियों को इसलिए
बचाना न हो
कि कहीं एक
निरपराध को सजा
न हो जाए,
बल्कि जन सामान्य
को सहज सुरक्षित
जीवन जीने में
मदद करना हो।
इस
प्रकरण में एक
अहम् मुद्दा है,
मीडिया की भूमिका
का। मीडिया गणतन्त्र
का चैथा स्तम्भ
है। नई तकनीक
के कारण टी.वी और
अखबार बहुत त्वरित
गति से समाचार
प्राप्त करके लोगों
तक पहुंचाने लगे
हैं। नई तकनीक
ने उन्हें ताकत
दी है, पर
क्या उन्होंने इसका
सही इस्तेमाल किया
है?पत्रकार अपनी
ताकत और लोकप्रियता
के गर्व में
इतने उन्मत्त है
कि ये वे
तय करेंगे कि
न्यायवेत्ता न्याय कैसे करें,
प्राध्यापक कैसे पढाए,
डाक्टर के इलाज
में क्या गलती
है, सिपाही सरहद
पर किस प्रकार
लड़े और वैज्ञानिक
किस विषय पर
षोध करें। यह
स्थिति इसलिए पैदा हो
गई क्योकि जनता
तक समाचार पहुंचाने
का काम पत्रकारों
के पास है,
वैज्ञानिक शिक्षक, समाज सेवक,
न्यायवेत्ता, सिपाही की सीधी
पहुंच जनता तक
नहीं, वे तो
अपने क्षेत्रों में
काम कर रहे
हैं,मीडिया एक्सपर्ट
कमेंट कर रहा
है।
मीडिया
न्यूज़ की जगह
व्यूज़ दे रहा
है। वह समाचार
की जगह विचार
दे रहा हैः
एक पत्रकार के
अपने निजी विचार।
सारे पत्रकार समाज
के सबसे महान्
सामाजिक चिन्तक नहीं है,
यह बात स्पष्ट
कर दी जानी
चाहिए। उनका दायित्व
है समाचार दे
कर जनता के
मन में विचारों
को जगाना न
कि उनके मन
में अपने निजी
विचार ठूंसना।
इस
बीच ऐसी दो
गैर जिम्मेदार बाते
मीडिया धनंजय चटर्जी के
मामले में उठाता
रहा, और समाज
दोहराता रहा, वह
ये कि चैदह
साल की उम्र
कैद वह काट
चुका और बलात्कार
के लिए यह
सज़ा काफ़ी है।
वास्तविकता
यह है कि
उम्रकैद का अर्थ
है मृत्युपर्यन्त टिल
द लास्ट ब्रेथ
जेल में रहना।
चैदह वर्ष की उम्र
कैद केवल हिन्दी
फिल्मों में दिखाई
जाती है, असली
उम्र कैद में
सारी उम्र जेल
में ही रहना पड़ता
है। दूसरी बात
यह कि धनंजय
को हत्या के
अपराध की सज़ा
मिली है, न
कि बलात्कार की।
बलात्कार से जुड़ी
मेडिकल टेस्ट आदि की
प्रक्रिया इतनी जटिल
अपमानजनक तथा अपर्याप्त
है कि यह
मामला यदि हत्या
का न होता
तो बच्ची के
माता पिता बलात्कार
का अपराध सिद्ध
ही न कर
पाते और यदि
कर भी लेते
तो धनंजय केवल
सात वर्ष तक
जेल की कोठरी
नम्बर तीन में
उबले अंडे, छः
टोस्ट, दूध, तली
मछली और दाल
चावल खाकर रेडियो
सुनते हुए समय
बिताता और उसके
बाद ऐसे ही
अन्य अपराध करने
के लिए स्वतन्त्र
हो जाता।
अब
दो शब्द बुद्धिजीवियों
के विषय में।
भारतीय गणतन्त्र में एक
है पक्ष और
एक है विपक्ष।
अक्सर देखा गया
है कि शासन
जो भी निर्णय
ले, उसके विरोध
में आवाज उठाना ज़रूरी समझा
जाता है, और
अनेक बुद्धिजीवी विरोधी
पक्ष में जा
खडे़ होना बेहद
जरूरी समझते है।
यह सच है
कि सत्ता के
मद में चूर
होते प्रशासन के
सामने न्याय की
बात रखना बुद्धिजीवियों
का दायित्व है,
पर हमेशा ही
विरोध का स्वर
उठाते रहना इस
वर्ग को अप्रांसगिक
बना देगा।
अंहिसा
में विश्वास करने
वाले गांधी वादी
विचारक यदि फांसी
का विरोध करें
तो यह उनकी
धारणा के अनुरूप
है। पर स्वयं
को वामपंथी बताने
वाले कम्युनिस्ट संगठनों
से जुड़े तथाकथित
जनवादी अपने अति
बौ़द्धिक लेखों में लोकतन्त्र
के विरुद्ध हथियारबन्द
आन्दोलनों को सही
ठहराते हैं,भले
ही इनमें होने
वाली हिंसा का
शिकार हो कर
मरने वालों में
वे सब आम
नागरिक हों जिनका
कोई क़सूर नहीं।
खेद है कि
इन तथाकथित जनवादियों
द्वारा उकसाए गए लोगों
द्वारा की गई
बेकसूरों की हत्या
को जो लोग
जायज मानते हैं
वे ही लोग
न्याय की पूरी
प्रक्रिया से गुजर
कर सर्वोच्च न्यायालय
द्वारा दी गई
उस सजाए मौत
को हिंसक बता
कर उसके खिलाफ
खडे़ हैं जो
उस बलात्कारी तथा
हत्यारे को सुनाई
गई जिसे कसूरवार
पाया गया।
फांसी
की सज़ा किसी
को भी होनी
ही नहीं चाहिए,
यह बात अंहिसा
में विश्वास करने
वाले गांधीवादी विचारक
माने तो ठीक
हैं, परन्तु महाश्वेता
देवी जैसी विदुषी
लेखिका तो अपने
अनेक लेखों कहानियों
और उपन्यासों में
ऐसी असहनीय परिस्थितियों
में जीते हुए
लोगों को चित्रित
करती रही हैं
जिनके आगे नक्सली
हिंसा में शामिल
होने के अलावा
कोई विकल्प ही
नहीं था। वे
शोषण दमन और
अन्याय के विरूद्ध
हिंसात्मक प्रतिरोध को ग़लत
नहीं मानती। ‘हज़ार
चौरासी की मां’
हो या नीलछवि,
या ‘मास्टर साहब’
या घहराती घटाएं,
हिंसात्मक प्रतिरोध का चित्रण
महाश्वेता देवी सहानुभूति
से ही करती
रही है, भले
ही एक निरूपाय,
दमित, शोषित विकल्पहीन
व्यक्ति के अन्तिम
विकल्प के रूप
में।
मासूम
बच्ची के बलात्कार
और हत्या के
अपराधी से निबटने
का और क्या
विकल्प था? अपराधी
की हिमायत में
खडे़ अनेक आदतन
विरोधी पक्ष रखने
वाले बुद्धिजीवियों की
पंक्ति में महाश्वेता
देवी का खड़ा
होना, मुझे अचभ्मित
करता है और
विचलित भी। उनके
प्रति असीम सम्मान
ओैर श्रद्धा रखने
के बावजूद इस
विषय पर मैं
उनसे अपनी असहमति
दर्ज कराती हूं ।
‘मारने
वाले से बचाने
वाला बड़ा होता
है’ और जो
जीवन हम दे
नहीं सकते उसे
हम ले भी
नहीं सकते’ यह
वाक्य कह कर
तथागत सिद्धार्थ ने
एक सुकोमल निर्दाष
हंस का जीवन
शिकारी देवव्रत से बचा
लिया था। सिद्धार्थ
ने यह बात
निर्दाेष हंस का
जीवन बचाने के
लिए कही थी।
बचपन में पढी
इस कहानी का
असली अर्थ भूलकर,
अपने अति उत्साह
में मानवाधिकार के
नाम पर बुद्धिजीवी
यह वाक्य हंस
के स्थान पर
षिकारी को बचाने
के लिए इस्तेमाल
करने लगे। पीड़ित
की पीड़ा को
पूरी तरह नजरअंदाज
करके इस बार
ये लोग निर्ममता
से अभियुक्त की
नहीं एक निर्मम
अपराधी के पक्ष
में खड़े हैं।
गणतन्त्र
में अभिव्यक्ति की
स्वतन्त्रता का सही
इस्तेमाल हमारी बहुत बडी
जिम्मेदारी है। हमें
मुंह खोलने से
पहले सोचना है
कि हम निर्दाेष
हंस को बचाएंगे
या नृषंस षिकारी
को। (समाप्त )
(शालिनी माथुर, 15 अगस्त 2004 लखनऊ)
आज
लगभग नौ साल
बाद भी मामला
ज्यों का त्यों
है। 16 दिसम्बर 2012 की खौफनाक
घटना के बाद
जब पूरा देश
सड़कों पर उतर
कर बलात्कार व
हत्या के लिए
कठोरतम सजा की
मांग कर रहा
था तब यह
बात फिर से
चर्चा में आई
कि देष की
भूतपूर्व राश्ट्रपति प्रतिभा पाटिल
ने गृह विभाग
की संस्तुति पर
तीस लोगों की
फांसी की सजा
माफ कर दी
थी , जिनमें 22 ऐसे
लोगों की सज़ा
माफ की गई,
जिन्होंने बच्चियों का बलात्कार
किया था ,सामूहिक
हत्याकांडों को अंजाम
दिया था और
छोटे बच्चों को
बर्बरता पूर्वक मार डाला
था। इंडिया टुडे
(22 दिसम्बर2012) में छपी
सूचना के अनुसार
मोतीराम तथा संतोश
यादव बलात्कार के
जुर्म में जेल
में रह रहे
थे, उन्हें सुधारने
के लिए उन्हें
जेलर के बगीचे
का बागवान नियुक्त
किया गया। उन्होंने
जेलर की दस
वर्शीय बच्ची के साथ
बलात्कार करके उसे
मार डाला। प्रतिभा
पाटिल ने उसे
क्षमा दान दिया।
सुशील मुर्मू ने
एक नौ वर्षीय
बच्चे का गला
काट डाला इससे
पहले वह अपने
छोटे भाई की
बलि चढ़ा चुका
था , वह भी
पाटिल की दया
का पात्र बना।
धर्मेन्द्र और नरेन्द्र
यादव ने नाबालिग़
बच्ची का बलात्कार
का प्रयास किया
था और
उनका प्रतिरोध करने
पर उसके परिवार
के पाँच लोगों
की हत्या कर
दी थी और
एक दस साल
के लड़के की
गरदन काट कर
उसका षरीर आग
में झोंक दिया
था। मोहन और
गोपी ने एक
पांच वर्श के
बच्चे का अपहरण
करके उसे यातनाएं
देकर मार डाला
और पांच लाख
की फिरौती मांगी।
हम
सब जानते हैं
कि सर्वोच्च न्यायालय
रेयरेस्ट आफ द
रेयर केसेज में
ही मृत्युदंड सुनाता
है। हमारे देश
में खास कर
हमारे उत्तर प्रदेश
में पिछले एक
वर्श से सामूहिक
बलात्कार के बाद
छोटी बच्चियों की
हत्या अखबार में
प्रतिदिन छपने वाली
खबर है। यह
रेयर नहीं रह
गई है , पर
सज़ा रेयरली ही
सुनाई जाती है।
भेरूसिंह
बनाम राजस्थान सरकार
के मामले में
जिसमें अपराधी ने अपनी
पत्नी तथा पांच
बच्चों की नृशंस
हत्या की थी
,न्यायालय ने कहा
’’ सज़ा देने का
उद्देश्य है कि
अपराध बिना सज़ा
के न छूट
जाए ,पीड़ित तथा
समाज को यह
संतोष हो कि
इंसाफ किया गया
है। हमारी राय
में सज़ा का
परिमाण अपराध की कू्ररता
पर निर्भर होना
चाहिए ,अपराधी के आचरण
पर भी और
असहाय तथा असुरक्षित
पीड़ित की अवस्था
पर भी। न्याय
की मांग हैं
कि सजा अपराध
के अनुरूप हो
और न्यायालय के
न्याय में समाज
की उस अपराध
के प्रति वितृष्णा
परिलक्षित हो। न्यायालय
को केवल अपराधी
के अधिकारों को ही
नहीं , पीड़ित के अधिकारों
को भी ध्यान
में रखना चाहिए
और समाज को
भी। ’’ ( एस सी
सी पृ0 481 पृ028)
आज
हमारे राश्ट्रपति श्री
प्रणव मुखर्जी तथाकथित
बुद्धिजीवियों के उपहास
व निन्दा के
पात्र हैं कि
उन्होंने प्रतिभा पाटिल की
राह नहीं अपनाई।
। अखबार में
कार्टून है कि
कहीं फांसी के
फंदे चीन से
आयात न करने
पड़ें। पत्रकार भूल
रहे है कि
यह सजाएं 20-30 वर्ष
पहले दी गई
थीं , यदि तभी
तामील हो जातीं
तो षायद सज़ा
का डिमान्स्ट्रेटिव तथा
डिटेरेन्ट होने का
लक्ष्य पूरा कर
कर पातीं।
प्रणव
मुखर्जी ने जिन्हें
दया के योग्य
नहीं समझा उनमें
धरमपाल था जो
बलात्कार के अपराध
में जेल गया
था। बीमारी के
नाम पर पैरोल
पर छूटा और
बलात्कार की षिकार
के परिवार के
पांच लोगों को
मार डाला। प्रवीन
कुमार ने चार
लोगों की हत्या
की , रामजी और
सुरेश जी चैहान
ने बड़े भाई
की पत्नी की
चार बच्चों समेत
कुल्हाड़ी से काट
कर हत्या की
, गुरमीत ने तीन
सगे भाईयों की
, उनकी पत्नियों बच्चों समेत
तेरह लोगों को
तलवार से काट
डाला , जाफ़र अली
ने अपनी पत्नी
व पांच बच्चियों
को मार डाला।
( हिन्दुस्तान 5 अप्रैल 2013 )
राश्ट्रपति
प्रणव मुखर्जी ने
जिनको क्षमादान नहीं
दिया उनमें वीरप्पन
के चार साथी
भी शामिल हैं।
पाठकों को शायद
स्मरण हो कि
जब सैकड़ों हाथियों
और पुलिस कर्मियों
की हत्या करने
वाले तस्कर वीरप्पन
को पूर्ण क्षमादान
का आश्वासन देकर
उससे आत्मसर्मपण करवाने
की बात सरकार
चला रही थी
तब एक शहीद पुलिस
अधीक्षक की पत्नी
ने याचिका दी
थी कि यदि
अपराधी से समझौता
ही करना या
तो क्यों जंगलो
की रक्षा करते
हुए उसके पति
को , वीरप्पन के
हाथों मारे जाने
दिया गया। उच्चतम
न्यायालय ने षहीद
पुलिस अधीक्षक की
पत्नी की याचिका
पर सरकार द्वारा
वीरप्पन से समझौते
पर रोक लगा
दी थी।
जेल
में रहकर अपराधी
को अनेक अधिकार
हैं। पैरोल पर
छूटकर बाहर आकर
अपराधों को अंजाम
देने और पीड़ित
के परिवार को
नेस्तानाबूत करने और
गवाहों को धमकाने
के उदाहरण असंख्य
हैं। हमारे प्रयासों
से जो कर्नल
वाही पिता पुत्र
जेल गए थे
वे भी अक्सर
लखनऊ की जेल
रोड पर घूमते
और फल सब्ज़ी
खरीदते देखे जाते
थे। हम सबने
नीतीश कटारा के
हत्यारे विकास यादव ,कार
से लोगों को
कुचलने वाले नंदा
और अपराधी मनु
शर्मा को पैरोल
पर छूट कर
मयखानों में डिस्को
डांस करते हुए दिखाई
देने के समाचार
पढ़े हैं। अपराधी
स्वयं अपनी सुविधा
के अनुसार समर्पण
करते हैं। हम
लोग यह सब
संजय दत्त के
मामले में देख
ही रहे हैं,कि वे
जेल में जाने
के लिए 6 महीने
की मोहलत मांग
रहे हैं,और
उनके साथ के
अन्य अपराधी भी।
मोहलत मांगने का
हक़ मुल्ज़िम को
है, क्या अपराधी
अपने शिकार को
कोई मोहलत देते
हैं ?
शिकार
के हक़ की
रक्षा तो कानून
भी नहीं करता।
षिकार और उनके
दोस्त अहबाब सिर्फ
इन्तज़ार करते हैं।
अभी गोन्डा में
31 वर्श पहले हुई
पुलिस के एस
ओ,श्री के
पी सिंह तथा
12 अन्य निर्दोशों की हत्या
के अपराधियों को
निचली अदालत ने
फांसी की सजा
सुनाई। अखबार में सुश्री
किंजल सिंह की
रोते हुए तस्वीर
छपी है, पिता
की हत्या के
समय वे चार
माह की थीं,
आज वे एक
आइ ए एस
अधिकारी हैं। इन
31 वर्षों के बीच
उनकी मां भी
गुज़र गईं। (दैनिक
जागरण 6 अप्रैल2013)ऐसे अपराधियों
के पास सर्वोच्च
न्यायालय तक जाने
और वहां भी
अपराधी पाए जाने
के बाद भी
दया पाने का
हक हैं। पीड़ितों
के पास शीघ्र
इंसाफ़ पाने का
कोई मौलिक अधिकार
नहीं ।
सर्वोच्च
न्यायालय के न्यायधीष
डा0 ए0एस0
आनन्द ने ’विक्टिम
आफ क्राइम - अनसीन
साइड’ में लिखा
है, ’’विक्टिम (मज़लूम)
दुर्भाग्य से दण्ड
प्रक्रिया का सर्वाधिक
विस्मृत और तिरस्कृत
प्राणी है। एंग्लो
सेक्सन प्रणाली पर आधारित
अन्य प्रणालियों की
भांति हमारी दण्ड
प्रक्रिया भी अपराधी
पर केन्द्रित है
- उसके कृत्य ,उसके अधिकार
और उसका सुधार।
द्वितीय विश्व युद्ध के
बाद विकसित देषों
जैसे ब्रिटेन , आस्ट्रेलिया
, न्यूजीलैंड अमरीका आदि ने
अभागे पीड़ितों पर
भी ध्यान देना
षुरू किया है
, जो दरअसल अपराध
के सबसे बड़े
शिकार होते हैं
और जिनकी क्षति
पूर्ति ( रिड्रेसल ) किया ही
जाना चाहिए। संयुक्त
राष्ट्र संघ की
घोशणा 1985 के बाद
अमरीका ने भी
विक्टिम आफ क्राइम
एक्ट बनाया। मुजरिम
को ज़मानत का
अधिकार एक अधिकार
स्वरूप मिला है
पर पीड़ित को
जमानत का विरोध
करने का यह
अधिकार नहीं। राज्य की
इच्छा पर निर्भर
है कि वह
चाहे तो विरोध
करे चाहे न
करे। पूरी दण्ड
प्रक्रिया में पीड़ित
की भूमिका सिवा
एक गवाह के
कुछ नहीं ,वह
भी तब , यदि
सरकारी वकील चाहे।
’’ (डा0 ए0एस0
आनन्द)
मेरा
यह आलेख फांसी
की सज़ा के
पक्ष में लिखा
गया आलेख नहीं
है। यह मज़लूम
के हक़ों के
पक्ष में लिखा
गया लेख है।
यह आवाज़ पीड़ित
के अधिकार के
पक्ष में उठी
आवाज है। हमारी
दंड प्रक्रिया क्रिमिनल
जस्टिस सिस्टम कहलाती है,
जो क्रिमिनल को
केन्द्र में रखती
है - उसके अधिकार
,उसकी सुविधा , उसकी
सुरक्षा ,उसकी खुराक
,उसका परिवार , उसके
परिवार का दुख
,दंड का विरोध
करने का उसका
हक , उसका सुधार।
निर्भया कांड के
अभियुक्त विनय शर्मा
ने अदालत के
माध्यम से अपने
लिए तिहाड़ जेल
में फलों अंडे
और दूध से
युक्त बेहतर खुराक
की मांग की
है कि वह
परीक्षा में बैठेगा
। जिन्होंने बेटी
खोई है वे
क्या खा रहे
होंगे, क्या उन्हें
भी ऐसी मांगे
रखने का कानूनी
हक़ है ? जो
अपराध का शिकार
हुए ,उस पीड़ित
व्यक्ति की पीड़ा
न हमारी जिज्ञासा
का विषय है,
न हमारे कानून
की।
आज
जब मैं अपने
इस पुराने आलेख
को पुनः आपके
सामने प्रस्तुत कर
रही हूं हमारे आदरणीय बाबा
साहेब भीमराव अम्बेडकर
का जन्म दिन
14 अप्रैल है। अखबार
में उनके संविधानसभा
में किए गये
भाषण का मुख्य
अंश छपा है
- ’’संविधान सभा के
कार्य पर नज़र
डालते हुए नौ
दिसम्बर 1946 को हुई
उसकी पहली बैठक
के बाद अब
दो वर्ष ग्यारह
महीने और सात
दिन हो जाएंगे।
संविधान सभा में
मेरे आने के
पीछे मेरा उद्देश्य
अनुसूचित जातियों की रक्षा
करने से अधिक
कुछ नहीं था।
जब प्रारूप समिति
ने मुझे उसका
अध्यक्ष निर्वाचित किया तो
मेरे लिए यह
आश्चर्य से भी
परे था। इतना
विश्वास करने और
सेवा का अवसर
देने के लिए
मैं अनुग्रहीत हूँ।
मैं मानता हूँ
कि कोई संविधान
चाहे जितना अच्छा
हो , वह बुरा
साबित हो सकता
है , यदि अनुसरण
करने वाले लोग
बुरे हों। एक
संविधान चाहे कितना
बुरा हो , वह
अच्छा साबित हो
सकता है , यदि
उसका पालन करने
वाले लोग अच्छे
हों। ’’( दैनिक हिन्दुस्तान रविवार
,14 अप्रैल 2013 पृ0 16)
हमारे
संविधान निर्माता डाक्टर अम्बेडकर
की कही हुई
उक्त अंतिम पंक्ति
कितनी सरल और
कितनी साधारण है
, पर कितनी सारगर्भित
। अच्छे लोग
पीड़ित की पीड़ा
को देखकर पीड़ित
के अधिकार की
रक्षा के लिए
संविधान का इस्तेमाल
करेंगे या संविधान
में दी गई
भांति भांति की
न्यायिक प्रक्रियाओं का आश्रय
लेकर अभियुक्त के
अधिकारों की रक्षा
करते हए अपराधियों
के पक्ष में
जलूस निकालते रहेंगे।
हमारा समाज और
संविधान भोले बेकसूर
हंस की रक्षा
करेगा या क़ुसूरवार
बेरहम शिकारी की
?
शलिनी माथुर,ए 5/6 कारपोरेशन फ़्लैट्स, निराला नगर, लखनऊ
फोन
9839014660
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भारत की दोषपूर्ंण न्याय-प्रणाली पर विशद विवेचना करने वाला ये आलेख लेखिका की तार्किकबुद्धि से न्यायालयों के अनुचित निर्णयों का ख़ुलासा करता है । समाज में नारी के प्रति होने वाले अत्याचारों और बलात्कारों के अपराधियों की दण्ड-व्यवस्था के विरोध में किये गए उनके प्रयत्न सराहनीय हैं । पढ़ते हुए रोमांच सा हो जाता है । ये आलेख समाज की व्यवस्था पर किया गया एक प्रभावी एवं धारदार प्रहार है , जो जनसामान्य की आँखे खोलने वाला और मन को झकझोरने वाला है ।साथ ही ये सशक्त आलेख , लेखिका के व्यापक ज्ञान , वैचारिक शक्ति,अध्यवसाय एवं मन में उठने वाले विचारोत्तेजक भावों का परिचायक है। अनेकानेक साधुवाद !!
इस लेख को वस्तुत: व्यापक रूप से प्रचारित-प्रसारित होना चाहिए; लेकिन मैं महसूस करता हूँ कि हमारे बीच से सत्य को जानने और उसके लिए पढ़ने की भूख खत्म हो गयी है। हम केवल 'पार्टीलाइन थिंकर' बनकर रह गये हैं। आ॰ शालिनी माथुर ने 'पीड़ित के अधिकार' की ओर इंगित करके जिस बहस को जन्म देने की कोशिश की है, मुझे नहीं लगता कि एक बड़ा हादसा होने से पहले संसद उस पर विचार कर पायेगी, जैसाकि शालिनी जी ने स्वयं भी लिखा है। जहाँ तक गाँधीजी की अहिंसा का सवाल है, मुझे लगता है कि स्वयं गाँधीवादियों द्वारा उसे ठीक से समझा ही नहीं गया। गाँधीजी में कितना लोहा था, इसे निरपराध किसानों के समर्थन में चलाए गये उनके आन्दोलनों को जाने बिना नहीं समझा जा सकता। खैर, शालिनी जी का यह लेख पढ़वाने के लिए आपको साधुवाद।
लेख वास्तव में हमारी सोच को अंदर तक खँगालता है..
लेख वास्तव में हमारी सोच को अंदर तक खँगालता है..
अर्चना ठाकुर
"इस लेख की जितनी तारीफ़ की जाय कम ही होगी अंतर्जाल पर ऐसा भी पढ़ने को मिल सकता है! इस लेख में गहराई और विश्लेषण प्रशंसनीय ही नहीं आँख खोलनेवाला है"
भगीरथ परिहार
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