गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

हाजी मुराद

मित्रो,


महान रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के अंतिम उपन्यास ’हाज़ी मुराद’ का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद मैंने जनवरी,२००५ में स्वैच्छिक सेवाकाश ग्रहण करने के पश्चात प्रारंभ किया था जो २००६ मध्य में संपन्न हुआ. इस उपन्यास को मेरे वरिष्ठ पत्रकार मित्र आलोक श्रीवास्तव ने अपने प्रकाशन ’संवाद प्रकाशन’ से जनवरी,२००८ में प्रकाशित किया. ’हाज़ी मुराद’ का हिन्दी में यह पहला अनुवाद है. तोलस्तोय ने इस उपन्यास को जीवन के अंतिम दौर में (१८९६ से १९04 के दौरान) लिखा था. हाज़ी मुराद’ सहित उपन्यास के अधिकांश पात्र ऎतिहासिक हैं. संभव है कि किसी विवाद से बचने के लिए उन्होंने ऎसा किया हो और अपने जीवनकाल में इसीकारण उन्होंने इसे प्रकाशित नहीं करवाया हो. उनकी मृत्यु के पश्चात यह प्रकाशित हुआ था. मित्र सुभाष नीरव ने अपनी ब्लॉग पत्रिका ’साहित्य सृजन’ में इसके दस अंश धारावाहिक प्रकाशित किए थे लेकिन कई कारणॊं से उन्होंने ब्लॉग का प्रकाशन स्थगित कर दिया.


पिछले दिनों ’रचना समय’ में आपने धारावाहिक रूप से प्रकाशित मेरा नवीनतम उपन्यास ’गलियारे’ पढ़ा. ’साहित्य सृजन’ के पाठकों की मांग को दृष्टिगत रखते हुए मैं रचना समय में ’हाज़ी’ का प्रकाशन प्रारंभ कर रहा हूं. आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.

हाजी मुराद
लियो तोलस्तोय
हिन्दी अनुवाद : रूपसिंह चंदेल

‘हाजी मुराद' लियो तोलस्तोय द्वारा उम्र के आखि़री दौर में लिखा गया ऐतिहासिक उपन्यास है। यह एक ऐसी उत्कृष्ट कृति है, जो उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हुई थी या जिसकी पर्याप्त चर्चा नहीं हो सकी थी। इस उपन्यास का नायक वास्तविक जीवन से लिया गया है, जो तत्कालीन इतिहास का अति महत्वपूर्ण व्यक्तित्व है। वह काकेशस प्रांत के क़बीलाई फौजों का जनरल था, जिसने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में रूसी प्रभुसत्ता का प्रतिरोध किया था, लेकिन वह चेचेन्या के शासक शमील का भी विरोधी था और उससे प्रतिशोध लेने के लिए उसने रूसियों के समक्ष आत्मसमर्पण किया था। हाजी मुराद के माध्यम से तोलस्तोय ने चेचेन्या समस्या का गंभीर अध्ययन प्रस्तुत किया है।

‘हाजी मुराद' का हिन्दी अनुवाद वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल ने किया है और पहली बार यह उपन्यास ‘संवाद प्रकाशन' आई.-499, शास्त्रीनगर, मेरठ-250004 (उ प्र) से प्रकाशित हुआ है। “साहित्य सृजन” के इस अंक से हम इस उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन प्रारंभ कर रहे हैं। प्रस्तुत है- “हाजी मुराद” की पहली किस्त…

मध्य गर्मियों का दिन था, मैं खेतों के रास्ते घर जा रहा था । खेतो में घास मौजूद थी और राई कटने के लिए तैयार थी । वर्ष के इन दिनों में खिले फूलों का चुनाव अदभुत था । लाल-सफेद-गुलाबी, सुगन्धित और रोंयेदार तिपतिया; दूध जैसे सफेद पर केन्द्र में चमकीले, पीले एवं मधु-कटु गन्ध वाले अक्षिपुष्प; मधुर सुगन्धि फैलाती पीली जंगली सरसों; लंबे, गुलाबी और सफेद धतूरे के घण्टाकार फूल; मोठ की चढ़ती बेलें; पीले, लाल और गुलाबी खुजलीमार पौधे; शान्त- गम्भीर बैंजनी कदली, जो नीचे पीली होने का सन्देह देती है और जिसमें से एक तीखी सुवास फूटती है; चमकीली नीली अनाज बूटियॉं जो सन्ध्या होने पर अरुणिम हो जाती हैं तथा बादामी गंध वाली कोमल वल्लरियॉं खिली हुईं थीं।
मैंने अलग-अलग फूलों के बडे़-बड़े गुच्छ तोड़ लिए थे और मैं घर की ओर बढ़ रहा था। तभी मैंने खाईं में उगा और पूरी तरह खिला बैंजनी गोखरू का एक शानदार पौधा देखा। इसे हम ‘तातार' कहते हैं। यह कभी दरांती से काटा नहीं जाता और यदि कभी संयोग से कट भी जाये तो घसियारे अपने हाथों को इसके कांटों से बचाने के लिए इसे घास में बीन कर फेंक देते हैं। मैंने सोचा, मैं इस कंटीले फूल को उठा लूं और इसे अपने फूलों के गुच्छे के बीच रख लूं। बस, मैं खाईं में उतर गया। एक झबरा-सा भौंरा तृप्त होकर फूल के बीच गहरी नींद में सोया पड़ा था। पहले मैंने उसे वहॉं से भगाया। अब मैंने फूल तोड़ने का प्रयत्न किया। लेकिन यह दुष्कर सिद्ध हुआ, क्योंकि डंठल कांटों से भरा हुआ था। मैंने अपने हाथ पर रूमाल लपेट लिया था, लेकिन वे रूमाल को बेध गये। डंठल भयंकर रूप से इतनी मजबूत थी कि मैं पॉंच मिनट तक उससे जूझता रहा और उसके रेशों को एक-एक करके तोड़ता रहा। अंतत: जब मैं फूल तोड़ने में सफल हुआ, तब डण्ठल फूटकर छितर चुकी थी। यह फूल भी उतना ताजा और सुन्दर प्रतीत नहीं हुआ। उसका रुक्ष स्थूल स्वरूप गुच्छे के दूसरे फूलों से मेल नहीं खा रहा था। मुझे पश्चाताप हुआ कि मैंनें एक फूल को खराब कर दिया, जो अपनी जगह खिला हुआ ही सुन्दर था। मैंने उसे फेक दिया। ‘‘कितनी ऊर्जा और जीवन-शक्ति!" अपने उस प्रयास को याद करते हुए मैंने सोचा, जो मैंने उसे तोड़ने में किया था। ‘‘कैसी निराशोन्मत्तता के साथ उसने अपना जीवन बचाने के लिए संघर्ष किया और फिर कैसे प्यार के साथ स्वयं को समर्पित कर दिया था।"
मेरे घर का रास्ता ताजे जुते और परती पड़े खेतों के बीच से होकर धूल भरी काली धरती पर से ऊपर की ओर जाता था। जुती हुई जमीन एक बहुत विस्तृत धर्मशुल्क भूमि थी और इसके दोनों ओर और सामने जहाँ तक नजर जाती थी, बस हल से बने सीधे खांचे, जिन पर अभी हेंगा नहीं चलाया गया था, ही दीख पड़ते थे। खेतों को भलीभॉंति जोता गया था, जिससे एक भी पौधा या घास की कोई पत्ती ऊपर निकली दीख नहीं रही थी। केवल काली जमीन ही सामने थी। ‘‘मानव कितना विध्वसंक प्राणी है ! अपने जीवन निर्वाह के लिए वह किस प्रकार प्राकृतिक जीवन को ही नष्ट कर डालता है," उस जड़ काली धरती पर किसी सचेतन जीव को अनजाने ही खोजते हुए मैंने सोचा। तभी सामने मार्ग के दाहिनी ओर एक गुच्छा-सा कुछ मुझे दीख पड़ा। जब मैं निकट गया तो मैनें देखा कि यह भटकटैया (तातार) का एक गुच्छा था।
इस ‘तातार' की तीन शाखाएं थीं। एक टूट कर नीचे पड़ी हुई थी। इसका बचा हुआ भाग, कटी बांह के टुकडे़ की भॉंति पौधे से चिपका हुआ था। शेष दो में से प्रत्येक में एक फूल था। वे फूल कभी लाल रहे होगें लेकिन अब काले पड़ चुके थे। एक डंठल टूटी हुई थी। इसका ऊपर का आधा भाग अपने अंतिम छोर पर एक बदरंग फूल को लिए लटक रहा था। लेकिन इसका दूसरा हिस्सा ऊपर की ओर सीधा तना हुआ था। पूरा पौधा हल के पहिए के द्वारा कुचला जाकर विखंडित हो वक्राकार हो गया था। लेकिन वह तब भी खड़ा हुआ था, जबकि उसके शरीर का एक भाग विनष्ट हो चुका था, इसकी अंतडि़यॉं निकल आयी थीं, इसका एक हाथ और एक आँख समाप्त हो चुके थे, फिर भी वह उद्धत खड़ा दिख रहा था, इसके बावजूद कि मनुष्य ने इसके आस-पास के सहोदरों को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। ‘‘कितनी ऊर्जा" मैंने सोचा, ‘‘मनुष्य ने सब कुछ जीतने में, घास की लाखों पत्तियों को नष्ट करने में खर्च की होगी, फिर भी यह अपराजित-सा खडा़ है।"
तभी मुझे काकेशस की एक पुरानी कहानी याद आ गयी, जिसके कुछ हिस्से को मैंने स्वयं देखा, कुछ प्रत्यक्षदर्शियों से सुना और शेष को मैंने अपनी कल्पना से पूरा किया। वही कहानी, जिस रूप में मेरी स्मृति और कल्पना में साकार हुई, यहॉं प्रस्तुत है …
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2 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

हाज़ी मुराद मे बेहद महत्वपूर्ण उपन्यास है। मैंने इसे अपने ब्लॉग 'साहित्य सृजन' पर इसीलिए धारावाहिक देना प्रारम्भ किया था, लेकिन किन्हीं अपरिहार्य कारणों से मैं इस ब्लॉग पर केवल इस उपन्यास के दस चैप्टर ही प्रकाशित कर पाया और अब मेरा यह ब्लॉग काफी अरसे से स्थगित है। यह अच्छी और प्रसन्न करने वाली बात है कि तुमने इसे अपने ब्लॉग पर सम्पूर्ण रूप से अन्तर्जाल के पाठ्कों को उपलब्ध कराने का निर्णय लिया है।

बेनामी ने कहा…

आपको हार्दिक बधाई चंदेल जी , संवाद को भी

प्रोफ.नवीन चन्द्र लोहनी
09412207200